Tag Archives: हिंदी व्यंग्य

चेहरों का चरित्र-हिंदी व्यंग्य कविता


चेहरे वही है

चरित्र भी वही है

बस, कभी बुत अपनी  चाल बदल जाते है,

कभी शिकार के लिये जाल भी बदल आते हैं।

इस जहान में हर कोई करता सियासत

कोई  लोग बचाते है घर अपना

कोई अपना घर तख्त तक ले आते हैं।

कहें दीपक बापू

सियासी अफसानों पर अल्फाज् लिखना

बेकार की बेगार करना लगता है

एक दिन में कभी मंजर बदल जाते

कभी लोगों के बयान बदल जाते हैं।

अब यह कहावत हो गयी पुरानी

सियासत में कोई बाप बेटे

और ससुर दामाद का रिश्ता भी

मतलब नहीं रखता

सच यह है कि

सियासत में किसी को

आम अवाम में भरोसमंद साथी नहीं मिलता

रिश्तों में ही सब यकीन कर पाते हैं।

घर से चौराहे तक हो रही सियासत

अपना दम नहीं है उसे समझ पाना

इसलिये आंखें फेरने की

सियासत की राह चले जाते हैं।

—————–

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
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दिल लग जाये जरूरी नहीं-हिंदी व्यंग्य कविता


खूबसूरत चेहरे निहार कर

आंखें चमकने लगें

पर दिल लग जाये यह जरूरी नहीं है,

संगीत की उठती लहरों के अहसास से

कान लहराने लगें

मगर दिल लग जाये जरूरी नहीं है।

जज़्बातों के सौदागर

दिल खुश करने के दावे करते रहें

उसकी धड़कन समझंे यह जरूरी नहीं है।

कहें दीपक बापू

कर देते हैं सौदागर

रुपहले पर्दे पर इतनी रौशनी

आंखें चुंधिया जाती है,

दिमाग की बत्ती गुल नज़र आती है,

संगीत के लिये जोर से बैंड इस तरह बजवाते

शोर से कान फटने लगें,

इंसानी दिमाग में

खुद की सोच के छाते हुए  बादल छंटने लगें,

अपने घर भरने के लिये तैयार बेदिल इंसानों के लिये

दूसरे को दिल की चिंता करना कोई मजबूरी नहीं है।

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

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प्यास बढ़ाओ-हिंदी व्यंग्य कविता


बंदर दे रहा था धर्म पर प्रवचन

उछलकूद करते हुए तमाशा भी

दिखा रहा था

यह सनसनीखेज खबर है

उसके मुखौटे के पीछे

इंसान का चेहरा है

आंखें देखती हैं पर पहचानती नहीं

कान सुनते है मगर समझ नहीं इतनी

बंदर के बोलों में इंसान का ही स्वर है।

कहें दीपक बापू

ज़माना बंटा है टुकड़ों में

कोई दौलत के नशे में मदहोश है,

कोई गरीबी के दर्द से बेहोश है,

जज़्बात सभी के घायल है,

ख्वाबी अफसानों के फिर भी कायल है

दिल के सौदागरों के अपनी चालाकी से

रोते को हंसाने के लिये

खुश इंसान के दिमाग में प्यास बढ़ाने के लिये

मचाया इस जहान  में विज्ञापनों का  कहर है।

देखते देखते

गांवों की खूबसूरती हो गयी लापता

नहीं रही वहां भी पुरानी अदा

घर घर पहुंच गया बेदर्द शहर है।

—————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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हिंदी दिवस पर हास्य व्यंग्य कविता-हिंदी से रोटी खाते मगर अंग्रेजी में गरियाते हैं


14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर

हर बरस लगते हैं

राष्ट्रभाषा के नाम पर मेले,

वैसे हिंग्लिश में करते हैं टॉक

पूरे साल  गुरु और चेले,

एक दिन होता है हिन्दी के नाम

कहीं गुरु बैठे ऊंघते है,

कहीं चेले नाश्ते के लिये

इधर उधर सूंघते हैं,

खाते और कमाते सभी हिन्दी से

अंग्रेजी में गरियाते हैं,

पर्सनल्टी विकास के लिये

हिंग्लिश का मार्ग भी बताते हैं।

कहें दीपक बापू

हिन्दी के शिरोमणियों की

जुबां ही अटक गयी है,

सोचे हिन्दी में

बोली अंग्रेजी की राह में भटक गयी है,

दुनियां में अपना ही देश है ऐसा

जहां राष्ट्रप्रेम का नारा

जोरदार आवाज में सुनाया जाता है,

पर्दे के पीछे विदेशों में भ्रमण का दाम

यूं ही भुनाया जाता है,

हिन्दी शिरोमणि कर रहे हैं

दिखावे की  भारत भक्ति,

मन ही मन आत्मविभोर है

अमेरिका और ब्रिटेन की देखकर शक्ति,

यहीं है ऐसे इंसान

जो हिन्दी भाषा को रूढ़िवादी कहकर  शरमाते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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ज़ज्बात बन गए बाज़ार की चीज़-हिंदी शायरी


यूं तो हमने भी उनसे वादा कियाथा

वफादारी निभानेका

पर उनको यकीन नहीं आया,

लच्छेदार लफ्ज़ों में बहकने केआदी हैं वह

हमारी सीधी सच्ची बातों में भी

उनको बेवफाई के डर नेसताया|

कहें दीपक बापू

इंसानों ने खो दी है

सच सुनने

देखने

छूने और कहने कीतमीज,

उनकी लिए वादेतोड़ने

वफादारी को अपनीतरफ

खरीद करमोड़ने

कीमत के हिसाब से

नीयत जोड़ने

ज़ज्बात बन गए बाज़ार की चीज़,

ज़माने को ले जा रहे हांककर

दिल के सौदागर

दिमाग का इस्तेमाल करना

लोगों को नहींभाया,

खड़े हैं हम चौराहेपर

बाज़ार में खरीददारों की भीड़बहुत है

दिल के सौदे का सच समझ सके

ऐसा कोई शख्स नज़र नहींआया|

————————————-

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

 

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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फेसबुक या ठेसबुक या फसादबुक-हिंदी व्यंग्य


        कम से कम आधुनिक तकनीकी से जुड़ने का सौभाग्य हमें मिला इसके लिये परमात्मा का धन्यवाद अवश्य अर्जित करना चाहिए। अंतर्जाल इंटरनेट अनेक बार गजब का अनुभव कराता है।  सभी अनुभवों की चर्चा करना तो संभव नहीं है पर फेसबुक के माध्यम से ऐसे लोगों को तलाशना अच्छा लगता है जिन्हें हमने बिसारा या उन्होंने ही याद करना छोड़ दिया है।  हम जैसे लेखकों के लिये फेसबुक केवल चंद मित्रों और प्रशंसकों से जुड़े होने का एक माध्यम भर है जबकि ब्लॉग पर लिखने के पर  ही असली आनंद मिलता है। यह ब्लॉग एक तरह से अपनी पत्रिका लगती है।  यहां लिखकर स्वयंभू लेखक, कवि और संपादक होने की अनुभूति होती है। यह आत्ममुग्धता की स्थिति है पर लिखने के लिये प्रेरणा मिलती है तो वह बुरी भी नहीं है।  शुरुआत में फेसबुक से जुड़ना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं लगा।  अलबत्ता ब्लॉग मित्रों को देखकर अपना खाता बना लिया।  जान पहचान की बालक बालिकाओं ने अपनी फेसबुकीय रुचि के बारे में बताया फिर भी अधिक दिलचस्पी नहीं जागी।  एक बार दूसरे शहर गये तो वहां एक बालक ने लेपटॉप पर अपने फेसबुक से हमारा खाता जोड़ दिया।  तय बात है कि उसके संपर्क के अनेक लोगों में हमारी दिलचस्पी भी थी।  इनमें लेखक कोई नहीं है पर फेसबुक पर सक्रिय होने के लिये उसकी कोई आवश्यकता भी नहीं होती। इधर से उधर फोटो उठाकर अपने यहां लगाने के लिये बस एक बटन दबाना है।  लोग अपनी मनपसंद की सामग्री इसी तरह लगाकर खेल रहे हैं।  अपने फोटो एल्बम लगाकर एक दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं।

    ऐसे में भूले बिसरे लोगों को ढूंढने का प्रयास करना हम जैसे लेखकों के लिये दिलचस्प होता है।  यह दिलचस्पी तब आनंददायक होती है जब आप ऐसे लोगों का खाता ढूंढ लेते हैं जिनके साथ कभी आपने अपने खूबसूरत पल गुजारे पर अब हालातों ने आपसे अलग कर दिया।  आम आदमी की याद्दाश्त कमजोर होती है इसलिये समय, हालत और स्वार्थों की पूर्ति के स्त्रोत बदलते ही वह अपनी आंखों में प्रिय लगने वाले चेहरों को भी बदल देता है।  कर्ण को प्रिय लगने वाले स्वर भी बदल जाते हैं।  लेखक होता तो आम आदमी है पर वह अपनी याद्दाश्त नहीं खोता।  दौर बदलने के साथ वह अपनी यादों को जिंदा रखता है।  यह उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।  वरना वह नित नयी रचनायें नहंी कर सकता।

              फेसबुक में हमने ऐसे अनेक खाते ढूंढे हैं जिनके स्वामी हमसे दूर हो गये। जब मिलते हैं तो तपाक से मिलते हैं।  नहीं मिलते तो पता नहीं उनको याद भी आती कि नहीं।  एक प्रियजन का खाता ढूंढ रहे थे पर उसने बनाया ही नहीं था।  तीन चार साल में तीन मुलाकतें हुई। आखिरी मुलाकात छह महीने पहले हुई थी।  वह पढ़े लिखे हैं  फेसबुक खाता कभी खोलेंगे यह सोचना मूर्खता थी। एक संभावना थी कि उनके परिवार के नयी पीढ़ी के सदस्य उन्हें इस काम के लिये प्रेरित कर सकते हैं।  हमने महीना भर पहले  एक दो बार ऐसे ही प्रयास किया कि शायद उनका खाता बन गया हो। कल अचानक फिर ख्याल आया तो उनका खाता फोटो सहित दिख गया।  हम कभी उनकी फोटो तो कभी उनकी गोदी में बैठी छह महीने की पोती की तरफ देखते थे।  उनके पूरे परिवार के सदस्यों के फेसबुक खाते देख लिये।  उनके फेसबुक से होते हुए हमने कई ऐसे करीबी लोगों के खाते भी देखे जिनको जानते हैं पर कोई औपचारिक संपर्क नहीं है।

       पहले विचार किया कि उनका फेसबुक मित्र बनने का संदेश भेजा जाये पर फिर लगा कि उनकी गतिविधियों पर हम नज़र रखे हुए हैं इससे वह खुलकर दूसरों से सपंर्क रखते समय प्रभावित हो सकते हैं।  सबसे बड़ी बात यह कि हम उनके फेसबुक पर उनके फोटो के साथ ही प्रोफाईल पर उनके मन का अध्ययन कर रहे थे।  पहली बार लगा कि फेसबुक एक तरह से वाईस स्टोरेज भी है।   हमने पहले भी कुछ ऐसे करीबी लोगों की फेसबुक देखी थी पर उस समय ऐसी बातें दिमाग में नहीं आयी अब  आने लगी थी।  सभी का फेसबुक कुछ बोल रहा था।  चेहरे की मुस्काने रहस्य छिपाती लग रही थीं।  वैसे भी हम नहीं चाहते कि हम किसी के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करें पर फेसबुक की मूक भाषा अगर कुछ कहती है तो उसे अनदेखा करना हमारे लिये संभव भी नहीं है।  फोटो एल्बम क्या कह रहे हैं?  जो नाम बार बार जुबान पर है वह फेसबुक पर क्यों नहीं है?  जिसका नाम दिल में होने का दावा है वह फेस कहीं करीब क्यों नहीं दिखाई देता?

              एक बात तय रही कि एक लेखक होने के नाते हम ब्लॉग का महत्व कभी कर ही नहीं सकते पर ऐसा भी लगने लगा है कि फेसबुक पर कुछ कहानियां हमारा इंतजार कर रही हैं। यहा कहानियां अंततः ब्लॉगों की शोभा बढ़ायेंगी।  यही कारण है कि फेसबुक पर उन लोगों को दूर ही रखना होगा क्योकि अंततः ब्लॉगों से रचनायें वहीं आयेंगी और वह हमारे नायक नायिकाऐं इसका हिस्सा होंगी।  फेस टु फेस यानि सामना होने पर फेसबुक की बात ही क्या इंटरनेट से अनजान होने का दावा भी प्रस्तुत करना होगा।  आखिरी बात फेसबुक पर जो संपर्क रखते हैं उनका प्रिय होना प्रमाणित है पर जो रोज नहीं मिलते पर उनमें से किसी के सामने खाताधारक अगर यह दावा करता है कि वह उसका प्रिय है तो प्रमाण स्वरूप उसका फेसबुक का पता जरूर मांगना चाहिये  यह देखने के लिये उसके एल्बम में कहीं स्वयं का फोटो है कि नहीं। यह अलग बात है कि जब दावा करने पर अपना फोटो न दिखे तो यह फेसबुक ठेसबुक भी बन सकती है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

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बड़े बोल-हिंदी कविता


बड़े बोल
अपने ही जाल में फंसा देते हैं,
जो बोले वह रोए
बाकी जग को हंसा देते हैं।
कहें दीपक बापू
प्राण शक्ति अधिक नहीं है जिनमें
वही बड़े सपने दिखाते  हैं,
चमकदार ख्वाबों से
अपनी किस्मत लिखते हैं,
मगर ज़मीन पर बिखरे कांटो के सच
उनको गर्दिश में धंसा देते हैं।

——————-

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

आम आदमी के नाम का सहारा-हिंदी व्यंग्य


       आम आदमी अब एक लोकप्रिय प्रचलित शब्द हो गया है।  जो लोग राजनीति, साहित्य, कला, फिल्म, पत्रकारिता, आर्थिक कार्य और समाज सेवा में शिखर पुरुष न होकर आम आदमी की तरह सक्रिय हैं उन्हें इस बात पर प्रसन्न नहीं होना चाहिए कि उनकी इज्जत बढ़ रही है क्योंकि उनका आम आदमी होना मतलब भीड़ में भेड़ की तरह ही है।  हां, एक बात जरूर अच्छी हो गयी है कि अब देश में गरीब, बेरोजगार, बीमार, नारी, बच्चा आदि शब्दों में समाज बांटकर नहीं बल्कि आम आदमी की तरह छांटा जा रहा है।  वैसे कुछ लोग जो टीवी के पर्दे पर लगातार दिखने के साथ ही अखबारों में चमक  रहे हैं उनको आम आदमी का दावा नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे प्रचार माध्यमों की खास आदमी के नाम से लाभ उठाने की मौलिक प्रवृत्ति बदल नहीं रही। अगर वह किसी कथित आम आदमी के नाम को चमका रहे हैं तो केवल इसलिये कि उनके बयानों पर बहस का समय विज्ञापन प्रसारण में  अच्छी  तरह पास होता रहा है।
         सच बात तो यह है कि हर आम आदमी  समाज के सामने खास होकर चमकना चाहता है। हाथ तो हर कोई मारता है पर जो आम आदमी में गरीब, बीमार, बेरोजगार  तथा  अशिक्षित जैसी संज्ञायें लगाकर भेद करते हुए उनके कल्याण के नारे लगाने के साथ ही नारी उद्धार की बात करता है उनको ही खास बनने का सौभाग्य प्राप्त हो्रता है।  अब लगता है कि आम आदमी का कल्याण करने का नारा भी कामयाब होता दिख रहा है।
        उस दिन अकविराज दीपक बापू सड़क पर  टहल रहे थे। एक आदमी ने पीछे आया और  नमस्ते की तो वह चौंक गये।  उन्होंने भी हाथ जोड़कर उसका अभिवादन किया।  आदमी  ने कहा‘‘ क्या बात है आज अपना पुराना फटीचर स्कूटर कहां छोड़ दिया?’’
           दीपक बापू चौंक गये फिर बोले-‘‘हमने आपको पहचाना नहीं।  हम जैसे आम आदमी के साथ आप इस तरह बात कर रहे हैं जैसे कि बरसों से परिचित हैं।’’
           वह आदमी उनके पास आया और उन्हें घूरकर देखने लगा फिर बोला-‘माफ कीजिऐ, मैंने आपको फंदेबाज समझ लिया। वह मेरा दोस्त है और आपको गौर से नहीं देखा इसलिये लगा कि कहीं आप हैं।  आपने अभी यह कहा कि आप आदमी हैं, पर कभी आपको टीवी पर नहीं देखा।’’
         दीपक बापू हंसे और बोले-‘‘आपकी बात सुनकर हैरानी हो रही है।  एक तो आपने पुराने फटीचर स्कूटर की बात की उसे सुनकर मुझे लगा कि आप शायद परिचित हैं पर पता लगा कि मेरे जैसा भी कोई आम आदमी है जिसे आप जानते हैं।  रही बात टीवी पर दिखने की तो भई उनके पर्दे पर हमारे जैसे आम आदमियों के लिये भला कोई जगह है? इस तरह तो मैंने भी कभी आपको टीवी पर नहीं देखा। आप भी आम आदमी ही है न?’’
      वह आदमी बोला-‘‘मुझे कैसे देखेंगे? मैं तो नौकरी करता हूं!  आजकल टीवी पर आम आदमी की बहुत चर्चा है सोचा शायद कभी आप वहां पर अवतरित हुए हों!  आजकल आम आदमी टीवी पर ही दिखते हैं।’’
        दीपक बापू हंसकर बोले-‘‘हां, हम भी देख रहे हैं पर वही  लोग पर्दे पर अपने को आम  आदमी  की तरह चमका सकते हैं जिन पर खास लोगों का आशीर्वाद हो।  आप और हम जैसे आम आदमी तो इसी तरह सड़कों पर घूमेंगे।’’
          वह आदमी बोला-‘‘क्या बात कर रहे हें? मैं आम आदमी नहीं नौकरीपेशा आदमी हूं।  किसी ने सुन लिया तो मेरी शामत भी आ सकती है। यह आम आदमी की पदवी आप अपने पास ही रख लीजिऐ।’’
      वह तो चला गया पर दीपक बापू थोड़ा चौंक गये।  आम आदमी का मतलब क्या बेरोजगार, लाचार, गरीब और कम पढ़ा लिखा होना ही है?  सच बात तो यह है कि समाज को एक पूरी इकाई मानकर बरगलाना बहुत कठिन काम है इसलिये गरीब-अमीर, व्यापारी-बेरोजगार, स्त्री-पुरुष, तथा स्वस्थ-बीमार का भेद कर कल्याण करने के नारे लगते हैं।  इसका कारण यह है कि छोटे वर्ग के आदमी को यह खुशफहमी रहती है कि बड़े वर्ग से लेकर उसका पेट भरा जायेगा।  यह होता नहीं है।  अभी तक आम आदमी को लेकर कोई वर्ग नहीं बना था।  अमीर, पुरुष, और शिक्षित वर्ग में कोई भी आम आदमी नहीं हो सकता है यह भ्रम फैलाया गया है।  वह वर्ग जो अपनी मेहनत से कमा कर परिवार का पेट भरता है उसका तो दोहन करना ही है पर जो उसके घर में जो बेरोजगार पुत्र या पुत्री, गृहस्थ कर्म में रत स्त्री और घर में रहने वाले बड़े बुजुर्ग का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिये उनके भले के नारे लगते रहे।  कमाऊ पुरुष एक तरह से राक्षस माना गया जो अपने पर आश्रित लोगों का शोषण करने के साथ उपेक्षा का भाव रखता है।  सड़क, कार्यालय या दुकान पर वह जो परेशानियां झेलता है उसकी चर्चा कहीं नहीं होती।
        वह उपेक्षित आम आदमी था। न ऐसे लोग कभी भले करने के नारों पर भटकते हैं न ही उसे यकीन था कि कोई उसके साथ है।  अब जबसे आम आदमी का नाम टीवी पर आने लगा है उससे सभी चौंक गये हैं।  इधर अंतर्जाल पर भी लाखों आम आदमी मौजूद है।  उनके ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर पर खाते हैं पर केवल खाताधारी है। उनको लेखक, कवि, कार्टूनिस्ट और पत्रकार का दर्जा प्राप्त नहीं है। जिनको मिला है वह खास लोगो की कृपा है।  ऐसा लगता है कि पहले गरीब, बेरोजगार, बीमार, बुजुर्ग और महिलाओं के कल्याण का नारा अब बोरियत भरा हो गया लगा है इसलिये प्रचार माध्यमों ने आम आदमी बनाये हैं।  अपने आम आदमी!  जिनके ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर पर खाते हैं पर उनको वैसा ही सम्मान मिल रहा है जिसे कि अभिनय, राजनीति, फिल्म, टीवी और समाचार पत्रों के शिखर पुरुषों को प्राप्त है।  खास लोग अगर इंटरनेट पर अपने छींकने की खबर भी रख दें तो वह टीवी पर दिखाई जाती है।  आम आदमी जो शब्दिक प्रहार कर रहा है उसकी चर्चा कोई नहीं कर रहा। यह आम आदमी नाम जहाज प्रचार के समंदर में केवल उन्हीं को पार लगायेगा जो कि खास आदमी से आशीर्वाद लेकर उसमें चढ़ेंगे।  ऐसे में दीपक बापू जो स्वयं को आम आदमी कहते थे अब कहने लगे हैं कि हम तो ‘‘शुद्ध आम आदमी है।’’
लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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