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संत कबीर के दोहे-मन के चोर को मारना कठिन (man ka chor-hindu dharm sandesh)



अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार
मेरा चोर मुझको मिलै, सरबस डारूं वार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के सब तो अपने अपने चोर को मार डालते हैं, परंतु मेरा चोर तो मन है। वह अगर मुझे मिल जाये तो मैं उस पर सर्वस्व न्यौछावर कर दूंगा।
सुर नर मुनि सबको ठगै, मनहिं लिया औतार
जो कोई याते बचै, तीन लोक ते न्यार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह मन तो एक महान ठग है जो देवता, मनुष्य और मुनि सभी को ठग लेता है। यह मन जीव को बार बार अवतार लेने के लिये बाध्य करता है। जो कोई इसके प्रभाव से बच जाये वह तीनों लोकों में न्यारा हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पहचान तो मन है और वह उसे जैसा नचाता। आदमी उसके कारण स्थिर प्रज्ञ नहीं रह पाता। कभी वह किसी वस्तु का त्याग करने का निर्णय लेता है पर अगले पर ही वह उसे फिर ग्रहण करता है। अर्थात मन हमेशा ही व्यक्ति का अस्थिर किये रहता है। कई बार तो आदमी किसी विषय पर निर्णय एक लेता है पर करता दूसरा काम है। यह अस्थिरता मनुष्य को जीवन पर विचलित किये रहती है और वह इसे नहीं समझ सकता है। यह मन सामान्य मनुष्य क्या देवताओं और मुनियों तक को धोखा देता है। इस पर निंयत्रण जिसने कर लिया समझा लो तीनों को लोकों को जीत लिया। वरना तो यह मन ऐसा है कि आदमी उसका गुलाम हो जाता है और जिसने उसके मन को गुलाम बन लिया उसकी गुलामी करने लगता है। आजकल आदमी पर हिंसा के द्वारा दैहिक रूप से जीतने की बजाय उसके मन को ललचा कर उसको बौद्धिक रूप से गुलाम बनाया जाता है। जिन लोगों को इसका ज्ञान है वही जीवन में स्वतंत्र रूप से तनावमुक्त जीवन बिता सकते हैं।

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श्रीमद्भागवत गीता सन्देश-मनुष्य खुद ही अपना दोस्त और दुश्मन (shri madbhagvat geeta darshan-admi svyan apna mitra aur dushman)


बन्धुरात्मात्मनस्तस्य यैनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्ः।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस जीवात्मा द्वारा मन और इंद्रियों सहित देह जीत ली गयी है उस जीवात्मा के लिये वह मित्र जिसके द्वारा नहीं जीता गया उसके लिये वह शत्रु है।
उद्धरेदात्मनाऽमानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैय ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
हिंदी में भावार्थ-
स्वयं ही अपना संसार रूप समुद्र से उद्धार करते हुए अधोगति से बचे, क्योंकि मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र और शत्रु है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-किसी दूसरे में अपना मित्र ढूंढना या सहयोग की आशा करना व्यर्थ है। हम अपने मित्र और शत्रु स्वयं हैं। मनुष्य स्वयं खोटे काम करते हुए धर्म का दिखावा करता है पर अंततः उसे बुरे परिणाम भोगने हैं यह वह नहीं सोचता। हर कोई दूसरे को धर्म का ज्ञान देता है पर स्वयं उसे धारण नहीं करता। सच तो यह है कि लोगों में धर्म और अधर्म की पहचान ही नहीं रही। देश में आप देखिये कितने जोर शोर से धार्मिक कार्यक्रम होते हैं पर समाज का आचरण देखें तो कितना निकृष्ट दिखाई देता है। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध, दहेज प्रथा तथा भ्रुण हत्या जैसे प्रतिदिन होने वाले कृत्य इस बात का प्रमाण है कि हमारे लिये देह केवल उपभोग करने के लिये ही एक साधन बन गयी है भक्ति तो हम सांसरिक लोगों को दिखाने के लिये करते हैं न कि भगवान को पाने के लिये। धर्म के नाम पर ऐसे आस्तिकों के हाथ से ऐसे काम हो रहे हैं कि नास्तिक इंसान करने की भी न सोचे। अधर्म से धन कमाकर उसे धर्म के नाम पर व्यय कर लोग सोचते हैं कि हमने पुण्य कमा लिया।
सच बात तो यह है कि हमें आत्मंथन करना चाहिये। दूसरा क्या कर रहा है यह देखने की बजाय यह सोचना चाहिये कि हम क्या कर रहे हैं। दूसरे ने भ्रष्टाचार से संपत्ति अर्जित की तो हम भी वैसा ही करे यह जरूरी नहीं है। एक बात याद रखिये जिस तरह से धन आता है वैसे जाता ही है। जिन लोगों ने भ्रष्टाचार या अपराध से पैसा कमाया है वह उसका परिणाम भोगते हैं। अगर हम स्वयं करेंगे तो वह भी हमें भोगना ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम अपने मित्र और शत्रु स्वयं ही हैं। इसलिए हमें सदैव सोच समझकर काम करना चाहिए।
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भर्तृहरि दर्शन:सहायता कर सभी को सुनाएं नहीं


पद्माकरं दिनकरो विकची करोति
चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति
संत स्वयं परहिते विहिताभियोगाः

हिंदी में आशय-बिना याचना किये सूर्य नारायण संसार में प्रकाश का दान करते है। चंद्रमा कुमुदिनी को उज्जवलता प्रदान करता है। कोई प्रार्थना नहीं करता तब भी बादल वर्षा कर देते हैं। उसी प्रकार सहृदय मनुष्य स्वयं ही बिना किसी दिखावे के दूसरों की सहायता करने के लिये तत्पर रहते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज सेवा करना फैशन हो सकता है पर उससे किसी का भला होगा यह विचार करना भी व्यर्थ है। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में समाज सेवा करने का समाचार आना एक विज्ञापन से अधिक कुछ नहीं होता। कैमरे के सामने बाढ़ या अकाल पीडि़तों को सहायता देने के फोटो देखकर यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वह मदद है बल्कि वह एक प्रचार है। बिना स्वार्थ के सहायत करने वाले लोग कभी इस तरह के दिखावे में नहीं आते। जो दिखाकर मदद कर रहे हैं उनसे पीछे प्रचार पाना ही उनका उद्देश्य है। इससे समाज का उद्धार नहीं होता। समाज के सच्चे हितैषी तो वही होते हैं जो बिना प्रचार के किसी की याचना न होने पर भी सहायता के लिये पहुंच जाते हैं। जिनके हृदय में किसी की सहायता का भाव उस मनुष्य को बिना किसी को दिखाये सहायता के लिये तत्पर होना चाहिये-यह सोचकर कि वह एक मनुष्य है और यह उसका धर्म है। अगर आप सहायता का प्रचार करते हैं तो दान से मिलने वाले पुण्य का नाश करते हैं।
कहते हैं कि दान या सहायता देते समय अपनी आँखें याचक से नहीं मिलाना चाहिए क्योंकि इससे अपने अन्दर अंहकार और उसके मन में कुंठा के भाव का जन्म होता है। दान या सहायता में अपने अन्दर इस भाव को नहीं लाना चाहिए कि “मैं कर रहा हूँ*, अगर यह भाव आया तो इसका अर्थ यह है कि हमने केवल अपने अहं को तुष्ट किया।
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