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सर्वशक्तिमान का रूप अचिंतनीय है-21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष हिन्दी चिंत्तन लेख


        प्रचार माध्यमों के अनुसार ब्रिटेन में इस बात पर बहस छिड़ी है कि गॉड स्त्री है या पुरुष! हमारे हिसाब से उन्हें इस बात पर बहस करना ही नहीं चाहिये क्योंकि अंग्रेजी में स्त्री या पुरुष की क्रिया के वाचन शब्द का कोई विभाजन ही नहीं है। स्त्री कार्य कर रही है(Women is working) या पुरुष कार्य कर रहा है(Men is working) इसमें अंग्रेजी वर्किंग शब्द ही उपयोग होता है। यही कारण है कि अनेक कट्टर हिन्दी समर्थक अपनी भाषा को वैज्ञानिक और अंग्रेजी को भ्रामक मानते हैं। यह बहस देखकर उनके तर्क स्वाभाविक लगते हैं|

   सर्वशक्तिमान की स्थिति पर भारतीय दर्शन स्पष्ट है। हमारे यहां परब्रह्म शब्द  सर्वशक्तिमान के लिये ही उपयोग  किया जायेगा।  मुख्य बात यह कि वह अनंत माना जाता है-यह स्पष्ट किया गया है कि वह चित में धारण किया जा सकता है पर वह रूप, रस, गंध, स्वर और स्पर्श के गुणों से नहीं जाना जा सकता। वह चिंत्तन से परे है पर मनुष्य अपने चित्त में जिस गुण से उसका स्मरण करेगा वही उसका ब्रह्म है।

         हमारे यहां विदेशी विचाराधारा के प्रवर्तक सब का सर्वशक्तिमान एक है का नारा लगाते हुए यहां भ्रम पैदा करते हैं। सद्भाव के नाम पर यही नारा लगाते हैं पर सच यह है कि वह एक है कि अनेक, यह कहना या मानना संभव नहीं। अनेक विद्वान तो यह भी कहते हैं कि वह है भी कि नहीं इस पर भी कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह अनंत है। इसलिये उस पर बहस करना ही नहीं चाहिये। वह वैसा ही है जैसा भक्त है। भक्त जिस रूप में चाहता है उसे धारण कर ले। हमारे यहां अनेक साकार स्वरूप माने जाते हैं। भक्ति को जीवन का अभिन्न भाग माना जाता है। यही कारण है कि निराकार परब्रह्म की कल्पना में असहजता अनुभव करने वाले साकार रूप में उसे स्थापित करते हैं पर उनमें यह ज्ञान रहता ही है कि वह अनंत है। अपने अपने स्वरूपों को लेकर बहस कहीं नहीं होती। यह तत्वज्ञान हर भारतीय विचारधारा में स्थापित है  इसलिये यहां ऐसी निरर्थक तथा भ्रामक चर्चा कभी नहीं होती।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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हिन्दी अंग्रेजी का मिक्चर-हिन्दी व्यंग्य कविता (hindi aur inglish ka mixer-hindi vyangya kavita)


हिन्दी बोले बिना कान नहीं चलता,
अंग्रेजी में न बोलें तो दिल जलता।
आधी हिन्दी आधी अंग्रेजी बोलकर
हर कोई युवा मन खुद ही बहलता।
भाषा के मिक्चर से गूंगा बना ज़माना
देख कर हमारा दिल हर रोज दहलता।
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अखबार आज का ही है
खबरें ऐसा लगता है पहले भी पढ़ी हैं
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

ट्रेक्टर की ट्रक से
या स्कूटर की बस से भिड़ंत
कुछ जिंदगियों का हुआ अंत
यह कल भी पढ़ा था
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

भाई ने भाई ने
पुत्र ने पिता को
जीजा ने साले को
कहीं मार दिया
ऐसी खबरें भी पिछले दिनों पढ़ चुके
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

कहीं सोना तो
कहीं रुपया
कहीं वाहन लुटा
लगता है पहले भी कहीं पढ़ा है
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

रंगे हाथ भ्रष्टाचार करते पकड़े गये
कुछ बाइज्जत बरी हो गये
कुछ की जांच जारी है
पहले भी ऐसी खबरें पढ़ी
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

अखबार रोज आता है
तारीख बदली है
पर तय खबरें रोज दिखती हैं
ऐसा लगता है पहले भी भी पढ़ी हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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चमत्कार वाला धर्म-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


भक्ति के व्यापार में
संतों के दरबार
भक्तों के भाव से
सोने की ईंटों और डालरों से
भर जाते हैं,
संत शायद इसलिए ही
चमत्कारी कहे जाते हैं।
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चमत्कार के व्यापारियों ने
धर्म को बाज़ार में सजा दिया,
धार्मिक भावनाओं का दोहन करते हुए
सोने का भंडार दरबार में लगा लिया।
————-
चमत्कार बेचकर
संतों का बिल्ला अपनी कमीज़ पर
उन्होने लगा लिया,
भक्तों के भावों को
बदलते रहे सोने और रुपयों में
अपने चमत्कारी होने का प्रमाण दिया
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
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यह बिग बॉस नाटक या धारावाहिक देशप्रेम रखने वालों के लिये नहीं है-हिन्दी व्यंग्य (Big Boss natak ya dharavahik aur deshprem-hindi vyangya)


कहा जाता है बद अच्छा बदनाम बुरा-हमें पता नहीं यह कहावत उल्टी भी हो सकती है। मतलब आदमी बुरा हो पर बदनाम नहीं होना चाहिए। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि अपने में कोई बुराई हो पर उसकी चर्चा बाहर नहीं होना चाहिऐ। लब्बोलुआब यह कि बदनाम नहीं होना चाहिए। लगता है अब यह कहावत अब उलट देना चाहिये या फिर यह कहना करें कि बद अच्छा तो उससे अच्छा बदनाम है।
कम से कम टीवी चैनल में बदनाम लोगों को अभिनय करने को लेकर चल रहे विवाद से तो ऐसा लगता है कि अब नयी पीढ़ी यह भी सोचेगी कि कोई ऐसा काम किया जाये जिससे बदनाम होने पर कहीं  किसी टीवी चैनल पर अपना थोबड़ा दिखाने का अवसर तो मिल ही जायेगा। पूरे देश पर आक्षेप करना ठीक नहीं है पर कुछ कमजोर दिमाग के लोग ऐसे हैं जो पद, प्रतिष्ठा और पैसा पाने के लिये कुछ भी गलत सीख सकते हैं। एक चैनल है जिसमें एक पुराने चोर, आतंकवादियों के वकील तथा एक समलैंगिक को शामिल किया गया है। हम अपने व्यंग्य या आलेख में किसी का नाम इसलिये नहीं लिखते क्योंकि अप्रायोजित लेखक हैं और किसी का बिना पैसे लिये प्रचार करना अपनी शान के खिलाफ है-भले ही आलोचनात्मक टिप्पणियों से वह भरा हो। वैसे तो अब तो हमें लगने लगा है कि यहां कुछ लोग प्रसिद्ध होने के लिये अपनी आलोचना पैसा देकर करवाते हैं। चैनलों पर चले रहे धारावाहिकों के नाम लेकर उनकी आलोचना करना भी हमें  प्रायोजित करने जैसा  लगता है। बहरहाल जिस चैनल के जिस धारावाहिक की हम चर्चा कर रहे हैं उसका हिन्दी नामकरण  करते हैं ‘बड़ा मुखिया’। यह नाम इसलिये किया क्योंकि उस चैनल के नाटक की पृष्ठभूमि घर पर ही आधारित है। इसमें पहले ऐसे प्रसिद्ध लोगों को शामिल किया गया जिन पर दुर्भाग्यवश (?)बदनामी का धब्बा लगा-कुछ के लिये कहा गया कि उनका अपराध बालपन की नादानी से हुआ। कुछ ऐसे लोग भी उसमें आये जो जीतने के बाद बदनाम हुए, यानि उनमें ऐसे गुण पहले से मौजूद थे।
अब यह चैनल अपना धारावाहिक बड़े प्रचार से दिखा रहा है। इसमें पाकिस्तान से भी बदनाम लोग मंगवाये गये हैं। हम बहुत समय पहले से कहते रहे हैं कि टीवी चैनलों के अदृश्य प्रायोजक बहुत सारे धंधों में हैं। दुनियां भर के व्यापार में अब काले सफेद धंधे का प्रश्न नहीं रहा और सभी प्रचार माध्यमों पर अपनी पकड़ बनाये हुए हैं । अब तो समाज में ही यह हालत है कि जिसके पास धन है वही सेठ और समाज का भाई कहलाता है-अब भाई कहिने भी हो सकता है, भारत हो  या पाकिस्तान। सारी व्यवस्था के साथ ही सारे प्रचार माध्यमों पर उनकी श्रेष्ठता प्रमाणिक हैं चाहे भले ही बदनाम हों। क्रिकेट, फिल्म और टीवी चैनलों का घालमेल हो गया है। पाकिस्तान की एक फिल्मी नायिका ने वहां के क्रिकेट खिलाड़ी पर फिक्सर होने का आरोप लगाया था। उस समय हमें हैरानी हुई क्योंकि वह ऐसा कर धनपतियों से बैर ले रही थी-आर्थिक उदारीकरण से धनपति अब कंपनियों के पीछे अदृश्य होकर काम करते हैं इसलिये अब यह प्रश्न नहंी रहा कि कौनसा सेठ कहां का है? अब समझ में आया कि संभवतः उस अभिनेत्री को भारतीय चैनल में लाने के लिये यही फिक्सिंग प्रकरण या नाटक  ब्रिटेन में रचा गया होगा। चूंकि ब्रिटेन इसमें शामिल है इसलिये किसी का शक हो न हो पर अब हमें होने लगा है क्योंकि आर्थिक उदारीकरण के चलते अपराध का भी वैश्वीकरण होता जा रहा है अंग्रेज भला कौन से दूध के धुले हैं-पैसा कमाने के लिये ही तो भारत आये थे। चूंकि चैनलों की भूमिका पहले से ही बननी होती है इसलिये कोई बड़ी बात नहीं कि उसके एक भावी को प्रसिद्ध दिलाने के लिये पाकिस्तानी क्रिकेट को पकड़ा गया और फिर उस अभिनेत्री से बयान दिलाया गया। संभव है कि वह अभिनेत्री अधिक रहस्य न खोले इसलिये भी उसे भारतीय चैनल में काम दिलाया गया हो। बहरहाल एक फिक्सर की पुरानी दोस्त होने की बदनामी उसने पहले मोल ली और भारत में उसका नाम भी तभी आया। इधर नाम आया और उधर चैनल में उसको काम मिल गया।
जितने भी आकर्षक व्यवसाय हैं वह अब आर्थिक शिखर पुरुषों के हाथ में हैं और अगर जार्ज बर्नाड शॉ की बात पर यकीन किया जाये तो बिना बेईमानी के कोई भी अमीर नहीं  बन सकता। ऐसे में अपने ही संरक्षण में वह बदनाम लोगों को संरक्षण देते हुए उसके नकदीकरण का अवसर भी यह सेठ लोग नहीं चूकते। भला कोई व्यापारी अपनी चीज़ को खराब बताता है! एक नहीं तो दूसरे ग्राहक को बेच ही देता है। ऐसे में कोई फिल्म में बदनाम हुआ हो या क्रिकेट में चल जायेगा मगर चोर और डकैत भी चल जायेंगे! क्या माने? ऐसे लोग भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों ने पहले से ही प्रायोजित कर रखे हैं। हम बहुत समय से कहते रहे हैं कि व्यवसायिक संस्थान या व्यवस्थापक प्रतिष्ठानों में आर्थिक शिखर पुरुषों के अनेक लोग मुखौटे की तरह हैं जो सज्जनता से काम करते दिखते हैं तो क्या अब यह भी मान लें कि अपराधिक जगत में भी अब मुखौटे आने लगे हैं। क्या अब यह तय हो गया कि आतंकवाद भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों के मुखौटे ही फैला रहे हैं। ऐसे में अपराध और आतंक से प्रत्यक्ष जुड़े लोग वाकई मासूम लगते हैं मगर ऐसे में हर आर्थिक शिखर पुरुष संदेह की परिधि में आता जायेगा। माना जायेगा कि हर छोटे बड़े अपराध और आतंक का असली जिम्मेदार कोई न कोई आर्थिक पुरुष ही है। तब यह भी होगा कि हर आर्थिक शिखर पर विराजमान हर पुरुष समाज के लिये संदिग्ध होगा क्योंकि यह माना जाने लगेगा कि इसके खिलाफ तो कभी सबूत मिल ही नहीं सकता पर यह अपराध में लिप्त जरूर होगा।
मुद्दा यह भी है कि क्या ऐसे प्रसारण पर रोक लगनी चाहिए। हम अब भी कहेंगे नहीं। हमारे कुछ मित्र इस जवाब पर नाराज हो सकते हैं क्योंकि आतंकवादियों तथा अपराधियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी, सामाजिक न्याय, शोषण से मुक्ति तथा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर बौद्धिक संरक्षण देने वाले बहुत सारे बुद्धिजीवी इस देश में है और कम से कम हमने ही दसियों बार उन पर प्रतिकूल टिप्पणियां करते हुए अपने पाठ लिखे हैं। तब ऐसा क्या है जो हम अभिव्यक्ति के नाम पर इस प्रसारण को रोकने के खिलाफ हैं?
हम तो दूसरी बात कह रहे हैं कि जिस तरह बीड़ी सिगरेट और शराब के डिब्बों पर लिखा रहता है कि इनका सेवन शरीर के लिये हानिकारक है उसी तरह पाकिस्तानी अभिनेता अभिनेत्रियों के अभिनय वाले धारावाहिकों का  प्रचार करने वाले विज्ञापनों पर ही यह लिखना होना चाहिए कि ‘देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत या देशप्रेम रखने वाले लोगों को यह धारावाहिक नहीं देखना चाहिए।’
इससे कुछ लोगों की भवनें आहत होने से बच जाएँगी। उसी तरह बदनामशुदा लोगों के धारावाहिकों के विज्ञापनों में भी यह लिखना चाहिये कि ‘यह सभ्य और सज्जन भाव रखने वालों को नहीं देखना चाहिये और न बच्चों को देखने देना चाहिऐ।
इससे लोग स्वयं ही बच्चों के बिगड़ने के दर से वह चैनल धारावाहिक के समय बंद रखेंगे ।  चेतावनी लिखी होने पर लोगों को कार्यक्रम प्रसारित होने का अफसोस कम होगा।  जिस तरह बीडी,सिगरेट और शराब की बोतल पर चेतावनी होने पर उसके बिकने का अफसोस कम होता है।
एक बात जो अभी तक हमारी समझ में नहीं आती। आखिर दक्षिण एशिया में एकता के नाम पर हमारे पास केवल पाकिस्तान का नाम ही क्यों आता है? सच मानिए पाकिस्तान के आम आदमी से हमारा कोई बैर नहीं है मगर वहां के बदनामशुदा लोग ही यहां क्यों आकर प्रचार पाते हैं? यह हमारी समझ में नहीं आता। मजे की बात यह है कि इनसे कई सभ्य चेहरे वाले मुखौटे मिलकर कहते हैं कि ‘यह तो खेल और फिल्म सें संबंधित मुलाकात है।’
पाकिस्तान के क्रिकेट फिक्सरों को भारत आने का वीज़ा बहुत जल्दी मिल जाता है। यह भी चर्चा का विषय बनता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सफेद काले का घालमेल हो गया है। ऐसे में नैतिकता की मांग कमजोर जरूर हुई है पर मरी नहीं है क्योंकि जो लोग अपराध और आतंक के मुखौटो को अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो बुद्धिजीवी लेखक सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर
खलनायक की बजाय नायक की तरह प्रतिपादित करते हैं वह भी नैतिक आदर्शों की बात तो करते यह अलग बात है कि आर्थिक उदारीकरण के साथ ही अपराध और आतंक के वैश्वीकरण के विषय से मुख क्यों मोड़ लेते हैं? इसलिये ही न कि वह सभी भी प्रायोजित हैं। उससे भी मजे की बात है कि पूंजीवाद के विरोधी बुद्धिजीवी इस खेल को तो इस तरह अनदेखा करते हैं जैसे कि कोई लेना देना ही न हो-होते तो वह भी प्रायोजित हैं पर कभी कभी सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भावनाओं की बात वह भी करते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर होने के बावजूद सरकारी डंडे के सहारे सारे कल्याण का सपना भी वही पालते हैं।
एक धारावाहिक से कुछ बनता बिगड़ता नहीं है क्योंकि हमारे देश का अध्यात्मिक स्वरूप बहुत दमदार है। अगर खान पान ठीक होने के साथ उनका सेवन सीमित हो तो बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू और शराब जैसे व्यवसनों का भी दुष्प्रभाव कम हो जाता है-रोका बिल्कुल नहीं जा सकता यह बात तय है-उसी तरह बच्चों का मन मस्तिष्क मज़बूत हो वह ऐसे चैनलों को नहीं देखेंगे पर फिर भी इन चैनलों के ऐसे धारावाहिकों का वर्गीकरण तो करना ही होगा। कम से कम हमारी यह मांग आज़ादी की अभिव्यक्ति पर प्रहार नहीं करती यह निश्चित है।

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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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अयोध्या में राम मंदिर और राम-हिन्दी कविता (ayodhya mein ram mandir aur ram-hindi poem)


उन्होंने कहा कि
‘तुम अयोध्या के राम मंदिर पर लिखो
उस पर फैसला होने वाला है
जरूर इससे सनसनी फैल जायेगी
तुम्हारी प्रसिद्ध होने भूख भी तभी शांत हो पायेगी।’
मुझे तब अपने घर रखी राम की
तस्वीर दिखाई दी
जिसमें मेरे पूज्य मुस्करा रहे थे
बरबस मैं भी मुस्करा दिया
जैसे इष्ट ने आनंद के झूले में झुला दिया।
मुझे नहीं लगा कि
मेरी कलम इन क्षणो पर अभिव्यक्त हो पायेगी।
मेरे मन में जो हर पल विचरे हैं
उनके प्रति आस्था के बीज
रक्त के कण कण में बिखरे हैं,
अमूर्त रूप से बसे हैं जो आंखों में
तस्वीरों जितने चेहरे भी हैं लाखों में
उनके स्मरण से बढ़ती हुई ताकत
खड़ा कर देती है ज़िदगी के खुशनुमा पलों के सामने
शीतल होती जा रही देह की उंगलियां
ऐसे में कहां आग उगल पायेंगी।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अंग्रेजी के लेखक यूं हिन्दी में पढ़े जाते-हिन्दी दिवस पर विशेष लेख (inglish writer, hindi readar-hindi diwas par vishesh lekh)


वह नब्बे साल के अंग्रेजी लेखक हैं मगर उनको हिन्दी आती होगी इसमें संदेह है पर हिन्दी के समाचार पत्र पत्रिकाऐं उनके लेख अपने यहां छापते हैं-यकीनन ऐसा अनुवाद के द्वारा ही होता होगा। वह क्या लिखते हैं? इसका सीधा जवाब यह है कि विवादों को अधिक विवादास्पद बनाना, संवेदनाओं को अधिक उभारना और कल्पित संस्मरणों से अपने अपने आप को श्रेष्ठ साबित करना। अगर हिन्दी के सामान्य लेखक से भी उनकी तुलना की जाये तो उनका स्तर कोई अधिक ऊंचा नहीं है मगर चूंकि हमारे प्रकाशन जगत का नियम बन गया है कि वह केवल एक लेखक के रूप में किसी व्यक्ति को तभी स्वीकार करेंगे जब उसके साथ दौलत, शौहरत तथा ऊंचे पद का बिल्ला लगा होना चाहिये। यह तभी संभव है जब कोई लेखक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का सानिध्य प्राप्त करे और दुर्भाग्य कि वह उनको ही मिलता है जिनको अंग्रेजी आती है और तय बात है कि देश के अनेक हिन्दी संपादक उनके प्रशंसक बन जाते हैं।
उन वृद्ध लेखक ने अपने एक लेख में भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन से वीर सावरकर की तुलना कर डाली। यकीनन यह चिढ़ाने वाली बात है। अगर अंग्रेजी अखबार में ही यह सब छप जाता तो कोई बात नहीं मगर उसे हिन्दी अखबार में भी जगह मिली। यह हिन्दी की महिमा है कि जब तक उसमें कोई लेखक न छपे तब तक वह अपने को पूर्ण नहीं मान सकता और जितने भी इस समय प्रतिष्ठित लेखक हैं वह अंग्रेजी के ही हैं इसलिये ही अपने अनुवाद अखबारों में छपवाते हैं। इससे प्रकाशन जगत और लेखक दोनों का काम सिद्ध होता है। अंग्रेजी का लेखक पूर्णता पाता है तो हिन्दी प्रकाशन जगत के कर्णधार भी यह सोचकर चैन की संास लेते हैं कि किसी आम हिन्दी लेखक की सहायता लिये बगैर ही हिन्दी में अपना काम चला लिया।
वह लेखक क्या लिखते हैं? उनका लिखा याद नहीं आ रहा है। चलिये उनकी शैली में कुछ अपनी शैली मिलाकर एक कल्पित संस्मरण लिख लेते हैं।
मैं ताजमहल पहुंच गया। उस समय आसमान में बादल थे पर उमस के कारण पसीना भी बहुत आ रहा था। कभी कभी ठंडी हवा चल रही थी तब थोड़ा अच्छा लगता था। बीच बीच में धूप भी निकल आती थी। ताजमहल के प्रवेश द्वार पर खड़ा होकर मैं उसे निहार रहा था। तभी वहां दो विदेशी लड़किया आयीं। बाद में पता लगा कि एक फ्रांस की तो दूसरी ब्रिटेन की है।
फ्रांसीसी  लड़की मुझे एकटक निहारते हुए देखकर बोली-‘‘आप ताजमहल को इस तरह घूर कर देख रहे हैं लगता है आप यहां पहली बार आये हैं। आप तो इसी देश के ही हैं शायद….आप इस ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं।’
मैं अवाक होकर उसे देख रहा था। वह बहुत सुंदर थी। उसने जींस पहन रखी थी। उसके ऊपर लंबा  पीले रंग का कुर्ता  उसके घुटनों तक लटक रहा था। मैने उससे कहा-‘‘ मैं ताजमहल देखने आज नहीं आया बल्कि एक प्रसिद्ध लेखक की किताब यहां ढूंढने आया हूं। उस किताब को अनेक शहरों में ढूंढा पर नहीं मिली। सोच रहा हूं कि यहां कोई हॉकर शायद उसे बेचता हुए मिल जाये। वह किताब मिल जाये तो उसे पढ़कर कल तसल्ली से ताज़महल देखूंगा और सोचूंगा।’
वह फ्रांसीसी  लड़की पहले तो मेरी शक्ल हैरानी से देखने लगी फिर बोली-‘पर आप तो एकटक इसे देखे जा रहे हैं और कहते हैं कि कल देखूंगा।’’
मैंने कहा-‘‘मेरी आंखें वहां जरूर हैं पर ताजमहल को नहीं  देख रहा और न सोच रहा  क्योंकि उसके लिये मुझे उस प्रसिद्ध लेखक की एक अदद किताब की तलाश है जिसमें यह दावा किया गया है कि ताजमहल किसी समय तेजोमहालय नाम का एक शिव मंदिर था।’’
उसके पास खड़ी अंग्रेज लड़की ने कहा-‘हमारा मतलब यह था कि आप इस समय ताजमहल के बारे में क्या सोच रहे हैं? वह किताब पढ़ने के बाद आप जो भी सोचें, हमारी बला से! आप किताब पढ़ने की बात बताकर अपने आपको विद्वान क्यों साबित करना चाहते हैं?’
मैंने कहा-‘नहीं, बिना किताब पढ़े हम आधुनिक हिन्दी लोगों की सोच नहीं चलती। मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूं, बस मुझे वह किताब मिल जाये तो….अपना विचार आपको बता दूंगा।’
अंग्रेज लड़की ने कहा-‘कमाल है! एक तो हम यहां ताज़महल देख रहे है दूसरा आपको! जो किताब पढ़े बिना अपनी सोच बताने को तैयार नहीं है।’
मैंने कहा-‘क्या करें? आपके देश की डेढ़ सौ साल की गुलामी हमारी सोचने की ताकत को भी गुलाम बनाकर रख गयी। इसलिये बिना किताब के चलती नहीं।’
बात आयी गयी खत्म हो गयी थी। मैं शाम को बार में बैठा अपने एक साथी के साथ शराब पी रहा था। मेरा साथी उस समय मेरे सामने बैठा सिगरेट के कश लेता हुआ मेरी समस्या का समाधान सोच रहा था।’
नशे के सरूर में मेरी आंखें भी अब कुछ सोच रही थीं। अचानक मेरे पास दो कदम आकर रुके और सुरीली आवाज मेरी कानों गूंजी-‘हलौ, आप यहां क्या ताज़महल पर लिखी वह किताब ढूंढने आये हैं।’
मैने अचकचा कर दायें तरफ ऊपर मुंह कर देखा तो वह फ्रांसिसी लड़की खड़ी थी। उसके साथ ही वह अंग्रेज लड़की कुछ दूर थी जो अब पास आ गयी। वह फ्रांसिसी लड़की मुस्करा रही थी और यकीनन उसका प्रश्न मजाक उड़ाने जैसा ही था।
मैंने हंसकर कहा-‘हां, इस कबाड़ी को इसलिये ही यहां लाया हूं क्योकि इसने वादा किया है कि एक पैग पीने का बाद याद करेगा कि इसने वह किताब कहां देखी थी। वह किताब उसके कबाड़ की दुकान पर भी हो सकती है, ऐसा इसने बताया।’’
अंग्रेज लड़की बोली-‘अच्छा! आप अगर किताब पा लें तो पढ़कर कल हमें जरूर बताईयेगा कि ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं? कल हम वहां फिर आयेंगीं।’
मैंने कहा-‘ताजमहल एक बहुत अच्छी देखने लायक जगह है। उसे देखकर ऐसा अद्भुत अहसास होता है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।’
दोनों लड़कियां चौंक गयी। अंग्रेज लड़की बुझे घूरते हुए बोली-‘पर आपने तो वह किताब पढ़ी भी नहीं। फिर यह टिप्पणी कैसे कर दी। आप तो बिना किताब पढ़े कुछ सोचते ही नहीं’।
मैंने कहा-‘हां यह एक सच बात है पर दूसरा सच यह भी है कि शराब सब बुलवा लेती है जो आप सामान्य तौर से नहीं बोल पाते।’’
यह था एक कल्पित संस्मरण! यह कुछ बड़ा हो गया और इसे ताज़महल से बार तक इसे खींचकर नहीं लाते तो भी चल जाता पर लिखते लिखते अपनी शैली हावी हो ही जाती है क्योकि ताज़महल तक यह संस्मरण ठीक ठाक था पर उससे आगे इसमें कुछ अधिक प्रभाव लग रहा है।
मगर हम जिस लेखक की चर्चा कर रहे हैं वह इसी तरह ही दो तीन संस्मरण लिखकर और साथ में विवादास्पद मुद्दों पर आधी अधूरी होने के साथ ही बेतुकी राय रखकर लेख बना लेते हैं।
वैसे भी अंग्रेजी में लिखने पर हिन्दी में प्रसिद्धि पाने वाले लेखक को शायद ही हिन्दी लिखना आती हो पर अपने यहां एक कहावत हैं न कि ‘घर का ब्राह्म्ण बैल बराबर, आन गांव का सिद्ध’। अंग्रेजी लेखक को ही सिद्ध माना जाता है और हिन्दी को बेचारा। अंग्रेजी के अनेक लेखक बेतुकी, और स्तरहीन लिखकर भी हिन्दी में छाये रहते हैं। इनमें से अधिकतर राजनीतिक घटनाओं पर संबंधित पात्रों का नाम लिखकर ही उनका प्रसिद्ध बनाते हैं-अब यह उस पात्र की प्रशंसा करें या आलोचना दोनों में उसका नाम तो होता ही है। इनमें इतनी तमीज़ नहीं है कि जो व्यक्ति देह के साथ जीवित नहीं हो उस पर आक्षेपात्मक तो कभी नहीं लिखना चाहिये। कम से कम उनकी मूल छबि से तो छेड़छाड़ नहीं करना चाहिये। भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन की छबि अच्छी नहीं है पर सावरकर को एक योद्ध माना जाता है। उनके विचारों से किसी को असहमति हो सकती है पर इसको लेकर उनकी छबि पर प्रहार करना एक अनुचित कृत्य हैं। बहरहाल हिन्दी में ऐसे ही चिंदी लेखक प्रसिद्ध होते रहे हैं और यही शिकायत भी करते हैं कि हिन्दी में अच्छा लिखा नहीं जा रहा। चिंदी लेखक यानि अंग्रेजी में टुकड़े टुकड़े लिखकर उसके हिन्दी में बेचने वाले
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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क्रिकेट मैच में अब फिक्स नॉबोल-हिन्दी व्यंग्य (now nobol fix in cricket match-hindi vyangya)


पाकिस्तान के सात खिलाड़ी मैच फिक्सिंग के आरोपों में फंस गये हैं। फंसे भी क्रिकेट के जनक इंग्लैंड में हैं जहां पाकिस्तानी पहले से बदनाम हैं। यह खबरें तो उन्हीं प्रचार माध्यमों से ही मिल रही हैं जो उस बाज़ार के ही भौंपू हैं जिसके अनेक शिखर सौदागरों पर भूमिगत माफिया से संबंध रखने का आरोप है। कभी कभी ऐसी खबरें देखकर हैरानी होती है कि आखिर यह क्रिकेट जो इन प्रचार समाचार माध्यमों के रोजगार का आधार है क्योंकि इससे उनको प्रतिदिन आधे घंटे की सामग्री मिलती है तो कैसे उसे बदनाम करने पर तुल जाते हैं।
पहली बार पता चला कि नोबॉल भी फिक्स होती है। पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों ने गेंद फैंकते समय अपना पांव लाईन से इतना बाहर रखा था कि अंपायर के लिये यह संभव नहीं था कि वह उसकी अनदेखी करे। जब खिलाड़ी फिक्स हैं तो अंपायर भी फिक्स हो सकता है पर पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने इतना पांव निकाला कि नोबॉल न देने के लिये फिक्स करने वाला अंपायर भी कैमरें की वजह से उसे संदेह का लाभ नहीं दे सकता था।
आरोप लगे हैं कि पाकिस्तानी खिलाड़ी औरतों, पैसे तथा मस्ती करने के शौकीन हैं। पाकिस्तानी खिलाड़ियों का चरित्र तो वहीं के लोग बयान करते हैं। कुछ पर तो मादक द्रव्य पदार्थों की तस्करी का भी आरोप है। जब पाकिस्तानी खिलाड़ी पकड़े जाते हैं तो उनकी एकाध प्रेमिका भी सामने आती है जो उनकी काली करतूतों का बयान करती है। एक चैनल के मुताबिक पाकिस्तान का एक गेंदबाज की प्रेमिका के अनुसार वह तो बिल्कुल अपराध प्रवृत्ति का और यह भी उसी ने बताया था कि ‘2010 में पाकिस्तानी कोई मैच जीतने वाला नहीं है, ऐसा तय कर लिया गया है। पिछले 82 मैचों से फिक्सिंग चल रही है। वगैरह वगैरह।
जिस बात पर हमारी नज़र अटकी वह थी कि ‘पाकिस्तान खिलाड़ियों ने 2010 में मैच न जीतने की कसम खा रखी है। संभवत आजकल उनको हारने के पैसे मिल रहे हैं। हां, यह क्रिकेट में होता है। श्रीलंका में हुए एक मैच में आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान दोनों की टीमें मैच हारना चाहती थीं क्योंकि पर्दे के पीछे उनको अधिक पैसा मिलने वाला था। यानि जो जीतता वह कम पैसे पाता तोे बताईये पैसे के लिऐ खेलने वाले खिलाड़ी क्यों जीतना चाहेंगे। ऐसे आरोप टीवी चैनलों ने लगाये थे। बहरहाल पाकिस्तान टीम के खिलाड़ी अपनी आक्रामक छबि भुनाते हैं। उनके हाव भाव ऐसे हैं जैसे कि तूफान हो और इसलिये उनकी जीत पर अधिक पैसा लग जाता है। सट्टेबाज उसके हारने पर ही कमाते होंगे इसलिये ही शायद वह उनको हारने के लिये पैसा देते होंगे।
इधर अपने देश की बीसीसीआई की टीम भी लगातर जीतने में विश्वास नहंीं रखती। यकीनन इस टीम के कर्णधारों को पाकिस्तानी खिलाड़ियों की इस कसम का पता लगा होगा कि वह 2010 में जीतेंगे नहीं इसलिये उसके साथ न खेलने का फैसला किया होगा ।
बात अगर पाकिस्तान की हो तो अपने देश के सामाजिक, आर्थिक, खेल तथा कला जगत के शिखर पुरुषों के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। अगर संबंध अच्छे रखने हों तो कहना पड़ता है कि ‘इंसान सब कर सकता है पर पड़ौसी नहीं बदल सकता‘ या फिर ‘आम आदमी के आदमी से संपर्क करना चाहिऐ।’
अगर संबंध खराब करने हों तो आतंकवाद का मुद्दा एक पहले से ही तय हथियार है कहा जाता है कि ‘पहले पाकिस्तान अपने यहां आतंकवादी का खत्मा करे।
पिछली बार आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ियों को नहीं खरीदा गया था तो देश के तमाम लोगों ने भारी विलाप किया था। यहां तक कि इस विलाप में वह लोग भी शामिल थे जो प्रत्यक्षः इन टीमों के मालिक माने जाते हैं-इसका सीधा मतलब यही था कि यह मालिक तो मुखौटे हैं जबकि उनके पीछे अदृश्य आर्थिक शक्तियां हैं जो इस खेल का अपनी तरीके से संचालन करती हैं।
बाद में आईपीएल में फिक्सिंग के आरोप लगे थे। उसमें पाकिस्तान के खिलाड़ियों का न होना इस बात का प्रमाण था कि अकेले पाकिस्तानी ही ऐसा खेल नहीं खेलते बल्कि हर देश के कुछ खिलाड़ी शक के दायरे में हैं। यह अलग बात है कि पाकिस्तान बदनाम हैं तो उसके खिलाड़ियों को चाहे जब पकड़ कर यह दिखाया जाता है कि देखो बाकी जगह साफ काम चल रहा है। किसी अन्य देश का नाम नहीं आने दिया जाता क्योंकि उसकी बदनामी से मामला बिगड़ सकता है। पाकिस्तान के बारे में तो कोई भी कह देगा कि ‘वह तो देश ही ऐसा है।’ इससे प्रचार में मामला हल्का हो जाता है और प्रचार माध्यमों के लिये भी सनसनीखेज सामग्री बन जाती है।
पाकिस्तानी या तो चालाक नहीं है या लापरवाह हैं जो पकड़े जाते हैं। संभव है वह कमाई के लिये हल्के सूत्रों का इस्तेमाल करते हों। भारतीय प्रचार माध्यमों को तो सभी जानते हैं। निष्पक्ष दिखने के नाम पर तब इन खिलाड़ियों के कारनामों की चर्चा से बचते हैं जब यह भारत आते हैं। अभी पाकिस्तानी के एक खिलाड़ी ने एक भारतीय महिला खिलाड़ी से शादी की। वह भारत आया तो उसके लोगों ने ही उस पर आरोप लगाया था कि ‘वह तो फिक्सर है।’ मगर भारत की एक अन्य महिला ने जब उसी पाकिस्तानी खिलाड़ी से विवाह होने की बात कही और बिना तलाक दिये दूसरी शादी का विरोध किया तो यह प्रचार माध्यम एक बूढ़े अभिनेता को पाकिस्तानी खिलाड़ी के समर्थन में लाये। मामला सुलट गया और भारतीय खिलाड़िन से उस खिलाड़ी का विवाह हुआ। वह बूढ़े अभिनेता भी उस शादी में गया। आज तक एक बात समझ में नहीं आयी कि इन फिल्म वालों से क्रिकेट वालों रिश्ते बनते कैसे हैं। संभवत कहीं न कहीं धन के स्त्रोत एक जैसे ही होंगे।
इस देश में क्रिकेट खेल का आकर्षण अब उतना नहीं रहा जितना टीवी चैनल और अखबार दिखा रहे हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उनके पास मज़बूरी है क्योंकि इसके अलावा वह कुछ नया कर ही नहीं सकते।
एक दो नहीं पूरे सात पाकिस्तनी खिलाड़ी ब्रिटेन से मैच हारना चाहते थे। हारे भी! इससे उनके धार्मिक लोग नाराज़ हो गये हैं। इसलिये नहीं कि पैसा खाकर हारे बल्कि धर्म का नाम नीचा किया। कट्टर लोग धमकियां दे रहे हैं। कोरी धमकियां ही हैं क्योंकि इन कट्टर धार्मिक लोगों को पैसा भी उन लोगों से मिलता है जो क्रिकेट में मैदान के बाहर से इशारों में खिलाड़ियों को नचाते हैं और फिर उनको रैम्प पर भी नाचने का अवसर प्रदान करते हैं।
बहरहाल पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने 2010 में हारने की कसम खाई है। यह आरोपी सात खिलाड़ी हटे तो दूसरे नये लोग आकर भी उस कसम को निभायेंगे। इधर बीसीसीआई की टीम भी तब तक नहीं उनके साथ खेलेगी जब तक उनकी कसम खत्म की अवधि नहीं होती। आखिर बीसीसीआई के खिलाड़ी जीत कर थक जायेंगे तो उनको तो हराकर कर विश्राम कौन देगा। पाकिस्तानी खिलाड़ी यह अवसर देने को तैयार नहीं लगते। यही कारण है कि आतंक का मुद्दे की वजह से दोनों नहीं खेल रहे अब यह बात बड़े लोग कहते हैं तो माननी पड़ती है। 2011 में फिर मित्रता का नारा लगेगा क्योंकि तब पाकिस्तानी खिलाड़ियों की कसम की अवधि खत्म हो जायेगी। इधर आईपीएल की तैयारी भी चल रही है। लगता नहीं है कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों को इस बार भी मौका मिलेगा। कहीं किसी क्लब को जीतने का आदेश हो और उसमें अपनी कसम से बंधे एक दो पाकिस्तानी खिलाड़ी हारने के लिए खेले तो…….अब तो उनके लिये 2011 में ही दरवाजे खुल सकते हैं।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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इंटरनेट पर देवनागरी में हिन्दी लिखना सरल-हिन्दी लेख (hindi and devnagari lipi writing essey on in internet-hindi article)


अंतर्जाल पर लिखने में कोई संकट नहीं है जितना कि लोगों की कमेंट पढ़ने में लगती है। जो लोग अपनी टिप्पणियों में वाह वाह या बढ़िया लिख जाते हैं धन्य हैं, और जो थोड़ा विस्तार से लिखे गये पाठ के संदर्भ में नयी बातें लिख जाते हैं वह तो माननीय ही हैं शर्त यह है कि उनकी लिपि देवनागरी होना चाहिए। अगर कहीं रोमन लिपि में हुआ तो भारी तकलीफदेह हो जाता है और काफी देर तक तो यही संशय रहता है कि कहीं वह टिप्पणीकर्ता मजाक तो नहीं उड़ा रहा।
हम बात करें उन लोगों की जो रोमन लिपि में हिन्दी लिखना और पढ़ना चाहते हैं। अपना विचार तो यह है कि रोमन लिपि में हिन्दी लिखने से तो अच्छा है कि सीधे अंग्रेजी में लिखो। इधर सुन रहे हैं कि कुछ विद्वान आधिकारिक रूप से हिन्दी को रोमन लिपि में बांधने के लिये तैयार हो चुके हैं।
अरे, रुको यार पहले हमारी सुनो।
हम तो कह रहे हैं कि नहीं तुम तो बिल्कुल अंग्रेजी को भारत में लादने के लिये कमर कसे रहो। इस पर हमारा पूरा समर्थन है। इधर हम अपने ब्लाग पर हिन्दी में लिखते जायेंगे उधर तुम्हें भी अंग्रेजी के लिये समर्थन देते रहेंगे। कम से कम रोमन लिपि में हिन्दी लिखकर हमारे लिये टैंशन यानि तनाव मत पैदा करो।
होता यह है कि कुछ लोग हमारे लिखने से नाराज होते हैं। अगर वह अंग्रेजी में नकारात्मक टिप्पणी लिखते हैं तो उसे पढ़कर अफसोस नहीं होता।
लिख देते हैं ‘bed poem, you are a bed writer वगैरह वगैरह। हम उनको उड़ा देते हैं। कोई चिंता नहीं! अंग्रेजी में ही हो तो है। किसी ने हिन्दी तो नहीं लिखा। यह तसल्ली इसी तरह की है कि किसी दूसरे शहर में पिटकर आया आदमी अपनी ताकत का बयान अपने शहर में करता है।
अंग्रेजी नहीं आती पर पढ़ लेते है। कोई बात समझ में नहीं आये तो डिक्शनरी की मदद लेते हैं। एक बार एक शब्द आया था जो कविता के बुरे होने की तरफ इशारा कर रहा था। शब्द देखकर लगा कि कम से कम यह अच्छी बात तो नहीं कह रहा। फिर डिक्शनरी की मदद ली। बाद में उस टिप्पणी को हटा दिया। हिन्दी में होती तो सोचते। इससे कुछ लोगों को गलत फहमी हो गयी कि इस लेखक को अंग्रेजी नहीं आती तो अब कभी कभार रोमन लिपि में हिन्दी लिखकर अपनी नकारात्मक राय रखते हैं। यह तकलीफ देह होता है। रखते तो वह भी नहीं है पर पढ़ने में भारी तकलीफ होती है।
अगर कोई लिख देता है कि bakwas तो पढ़ने में क्रष्ट जरूर होता है पर समझने में नहींपर अगर कोई लिखता है bed तो वह तत्काल समझ में आ जाता है उसको भी धन्यवाद देते हैं कि पढ़ने में तकलीफ नहीं हुई। चलो इनसे तो निपट लेते ही हैं पर कुछ लोग पाठों की प्रशंसा में ऐसी टिप्पणियां लिखते हैं जो वाकई उस उसकी चमक बढ़ाते हैं और कहना चाहिये कि पाठ से अधिक प्रशंसनीय तो उनकी टिप्पणी होती है मगर दुःख यह कि वह रोमन लिपि में होती हैं। उनका हटाना पाप जैसा लगता है पर एक बात निश्चित यह है कि हिन्दी का पाठक जब उस पाठ को पढ़ते हुए जब टिप्पणियां पढ़ना चाहेगा तो वह उसे रोमन लिपि में देखकर अपना विचार त्याग देगा और टिप्पणीकर्ता अन्याय का स्वयं ही शिकार होगा।
जिन लोगों को हिन्दी से परहेज है वह उसमें लिखा हुआ लिपि रोमन हो या देवनागरी में कतई नहीं पढ़ेगा क्योंकि उसकी नाराजगी भाषा से है न कि लिपि से। वैसे तो देवनागरी में हिन्दी लिखना इंटरनेट पर कठिन था पर टूलों की उपलब्धता ने उसे समाप्त कर दिया है। अब तो जीमेल पर ही हिन्दी में लिखकर अपना संदेश कट पेस्ट कर कहीं भी रखा जा सकता है। इसलिये आम पाठकों को भी ऐसी शिकायत नहीं करना चाहिये क्योंकि इंटरनेट पर पढ़े लिखे लोग ही सक्रिय हो पाते हैं।
भाषा का संबंध हृदय के भाव से तो लिपि का संबंध मस्तिष्क से होता है। जो लोग रोमन लिपि में हिन्दी लिखना चाहते हैं उनकी निराशाओं को समझ सकते। बहुत प्रयास के बावजूद हिन्दी आम भारतीय की भाषा है। यह अलग बात है कि हिन्दी बाज़ार अंग्रेजीदांओं के कब्जे में है। दरअसल मोबाइल पर एसएमएस लिखवाने के लिये यह बाज़ार विशेषज्ञ अपने प्रायोजित विद्वानों को सक्रिय किये हुए हैं जो रोमन लिपि को यह स्थाई रखना चाहते हैं। उनको लगता है कि बस, रोमन लिपि में यहां का आम आदमी अपना एसएमएस कर अपने हाथ बर्बाद करे। याद रहे कि अधिक एसएमएस करने से लोगों के हाथ बीमार होने की बात भी सामने आ रही है। यह एसएमएस की प्रथा नयी है इसलिये अभी चल रही है और एक दिन लोग इससे बोर हो जायेंगे तब यह रोमन का भूत भी उतर जायेगा। वैसे अनेक लोग यह भी कोशिश कर रहे हैं कि रोमन लिपि से ही ऐसे संदेश हों।
आखिरी बात यह है कि इंटरनेट ने सभी को दिग्भ्रमित कर दिया है। अभी तक देश के आर्थिक, सामाजिक, तथा अन्य प्रतिष्ठित क्षेत्रों में जिन समूहों या गुटों का कब्जा रहा है वह अब आम आदमी पर नियंत्रण खोते जा रहे हैं। अगर भाषा की बात करें तो आज़ादी के बाद हिन्दी में जो लिखा गया है लोग उस पर असंतोष जता रहे हैं। फिल्में पिट रही हैं, अखबार भी अधिक महत्व के नहीं रहे, टीवी चैनल तो आपस में ही लड़ रहे हैं। पहले उनकी सामग्री की चर्चा लोगों के बीच में होती है पर अब बहुतायत के कारण कोई किसी से जुड़ा है तो कोई किसी से।
आम आदमी को भेड़ की तरह चलाने के आदी कुछ लोग इंटरनेट पर सक्रिय लोगों को आज़ाद देखकर घबड़ा रहे हैं। इसलिये अपने चेले चपाटों के माध्यम से अपना खत्म हो रहा अस्तित्व बचाने में जुटे हैं। इसके लिये पहले उन्होंने हिन्दी के फोंट न होने की बात प्रचारित की और वह जब सार्वजनिक हो गये तो अब वह बता रहे हैं कि रोमन लिपि में लिखकर विश्व पर राज करेंगे क्योंकि दूसरे देश भी इसे सीखेंगे। भाषा के सहारे सम्राज्यवाद का उनका सपना केवल एक ढोंग है क्योंकि हिन्दी में लिपि संबंधी बहस से अधिक समस्या उसमें सार्थक लिखने की है। वह भी इस तरह का लेखन करना होगा जो अभी तक बाज़ार में न दिखा हो। जिन्होंने हिन्दी के बाज़ार पर कब्जा कर रखा है वह इंटरनेट पर भी ऐसे सपने देखने लगे हैं। जबकि हमारा मानना है कि जैसे जैसे इंटरनेट पर लोगों की सक्रियता बढ़ेगी उनके बहुत सारे भ्रम टूटेंगे जो उन पर थोपे गये। इंटरनेट पर देवनागरी में हिन्दी लिखने की बढ़ती जा रही सरलता उनको अंततः अपना मार्ग छोड़ने को बाध्य कर देगी। इस तरह हिन्दी भाषा के अंग्रेजीकरण की कोशिश एक निरर्थक कदम है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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किसान आंदोलन का प्रचार दिग्भ्रमित करने वाला-हिन्दी लेख (kisan andolan ka prachar-hindi lekh)


देश में चल रहे विभिन्न किसान आंदोलनों को लेकर टीवी समाचार चैनलों और समाचार पत्रों में आ रहे समाचार तथा चर्चायें दिग्भ्रमित करती हैं। समाचारों का अवलोकन करें तो संपादकीयों तथा चर्चाओं का उनसे कोई तारतम्य नहीं बैठता। सिद्धांतों और आदर्शों की बात करते हैं पर उनका मुद्दे से कोई संबंध नहीं दिखता। अगर गरीब किसानों को उनकी जमीन का सही मूल्य दिलाने की बात हो रही है तो फिर कृषि योग्य भूमि का महत्व किसलिये बखान किया जा रहा है? अगर पूरी बात को समझें तो लगता है कि ऐसे किसानों को भी आगे लाकर समूह में जुटाने का प्रयास किया जा रहा है जो जमीन बेचने को इच्छुक नहीं हैं और बेचने के इच्छुक लोगों के साथ मिलाकर बाद में वह स्वेच्छा से इसके लिये तैयार हो जायेंगे। कहीं यह आंदोलन इसलिये तो नहीं हो रहा कि बिखरे किसानों को एक मंच पर लाया जाये ताकि जमीन का कोई टुकड़ा बिकने से न रह जाये।
समाचार कहते हैं कि ‘किसान जमीन का उचित मूल्य न मिलने से नाराज हैं।’ मतलब वह जमीन बेचने के लिये तैयार हैं। अगर उनका आंदोलन उचित मुआवजे के लिये है तो उसमें कोई बुराई नहीं है। दूसरी बात यह भी कि किसी ने जबरन जमीन अधिग्रहण का आरोप नहीं लगाया है। पुराने कानून को बदलने की मांग हुई है पर पता नहीं उसका क्या उद्देश्य है? केवल दिल्ली ही नहीं कहीं भी किसानों का आंदोलन जमीन बचाने के लिये होता नहीं दिख रहा, अलबत्ता उचित मुआवजे की बात अखबारों में पढ़ने को मिली है। इधर चर्चाओं को देखें तो उसमें जमीन को मां बताते हुए उसे निजी औद्योगिक तथा व्यापारिक क्षेत्र को न बेचने की बात हो रही है। बताया जा रहा है कि निजी क्षेत्र केवल उपजाऊ क्षेत्र में ही अपनी आंखें गढ़ाये हुए हैं। आदि आदि।
अब सवाल यह है कि किसान आंदोलन पर चर्चायें उनकी मांगों के न्यायोचित होने पर हो रही हैं या जमीन के महत्व के प्रतिपादन पर! किसान अपनी ज़मीन बेचने के लिए तैयार हैं पर उनको उचित मुआवजा चाहिए तब जमीन को मां बताकर उनको क्या समझाया जा रहा है? आंदोलन से जुड़े कुछ लोग जमीन को लेकर इस तरह हल्ला मचा रहे हैं कि जैसे वह उसे बिकने से बचाने वाले हैं जबकि सच यह है वह उचित मूल्य की बात करते हैं।
हम यहां आंदोलन के औचित्य या अनौचित्य की चर्चा नहीं कर रहे न ही देश में कम होती जा रही कृषि तथा वन्य भूमि से भविष्य में उत्पन्न होने वाले संकटों पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं क्योंकि यह विषय आंदोलन और उसकी पृष्ठभूमि पर होने के साथ ही प्रचार माध्यमों के बौद्धिक ज्ञान पर भी है। अब यह अज्ञानता अध्ययन और चिंतन के अभाव में है या प्रयोजन के कारण ऐसा किया जा रहा है यह अलग विषय है।
जहां जमीनें हैं वहां हजारों किसान हैं जिनमें एक तो वह हैं जो मालिक है तो दूसरे वह भी जो कि कामगार हैं। शहरों में अनेक ऐसे लोग रहते है जो अपनी ज़मीन बंटाई पर देकर आते हैं और हर फसल में अपना हिस्सा उनको पहुंचता है। उनको अगर जमीन की एक मुश्त राशि अच्छी खासी मिल जाये तो वह प्रसन्न हो जायेंगे मगर कामगार के लिये तो सिवाय बेकारी के कुछ नहीं आने वाला। संभव है अनेक कामगार यह न जानते हों और ज़मीन बचाने की चर्चा के बीच वह भी भीड़ में शामिल हो गये हों। फिर कुछ किसान ऐसे भी हो सकते हैं जो अपनी तात्कालिक जरूरतों के लिये एक मुश्त रकम देकर खुश हो रहे हों और वह अगर बढ़ जाये तो कहना ही क्या? ऐसे किसान कोई भारी व्यापार नहीं करेंगे बल्कि अपने घरेलू कार्यक्रमों में-शादी तथा गमी की परंपराओं में हमारे देश के नागरिक अपनी ताकत से अधिक खर्च कर देते है-ही खर्च कर देंगे और फिर क्या करेंगे यह तो उनकी किस्मत ही जानती है। संभव है कुछ किसान ऐसे समझदार हों और वह एक ही दिन में मुर्गी के सारे अंडे निकालने की बजाय रोजाना खाना पंसद करते हों। देश में अज्ञान और ज्ञान की स्थिति है उससे देखकर यह तो लगता है कि कुछ लोग इस आंदोलन को ज़मीन बचाने का आंदोलन समझ रहे हैं जो कि वास्तव में प्रतीत नहीं होता क्योंकि उचित मुआबजा कोई इसके लिये नहीं हो सकता।
जहां तक कृषि व्यवसाय से लाभ का प्रश्न है तो सभी जानते हैं कि छोटे किसानों को खेती करने से इतना लाभ नहीं होता बल्कि उनको अपना पेट पालने के लिये उससे जुड़े व्यवसाय भी करने होते हैं जिनमें पशुपालन भी है। अकेले कृषि के दम पर अमीर बनने का ख्वाब कोई भी नहीं देखता यह अलग बात है कि आयकर से बचने के लिये अनेक अमीर इसकी आड़ लेते हैं। कृषि में आय से स्थिर रहती है और वृद्धि न होने की दशा में किसान कर्ज लेता है। यह कर्ज अधिकतर शादी और गमी जैसे कार्यक्रमों पर ही खर्च करता है। देश की सामाजिक स्थिति यह है कि घर बनाने, शादी और गमी में तेरहवीं में अच्छा खर्च करना सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय माना जाता है। रूढ़िवादिता में होने वाला अपव्यय आदमी करने से बाज़ नहंी आता क्योंकि वह गरीब होकर भी गरीब नहीं दिखना चाहता-अलबत्ता कहीं से कुछ मिलने वाला हो तो अपना नाम गरीबों की सूची में लिखा देगा।
ऐसे में एकमुश्त राशि सभी को आकर्षित कर रही है पर वह बढ़ जाये तो बुराई क्या है? जिनको जमीन से सीधे पैसा मिलना है वह तो इसमें शामिल हो गये पर उनके साथ ऐसे कामगार भी आ गये होंगे जो वहां काम करते हैं। अगर प्रचार माध्यमों में यह ज़मीन बचाने की मुहिम का प्रचार न होता तो प्रदर्शनकारियो की संख्या कम ही होती। फिर देश के अन्य भागों से सहानूभूति भी शायद नहीं मिल पाती। शायद इसलिये ही ‘ज़मीन बचाने’ वाला नारा इसमें शामिल होते दिखाया गया जबकि है नहीं।
अलबत्ता ऐसे किसान जो किसी भी कीमत में ज़मीन नहीं बेचना चाहते वह आंदोलन की छत्रछाया में आ गये हैं और अब उनको किसी किसी तरह आगे भी मुआवजा लेकर ज़मीन छोड़नी होगी। संभव कुछ मूल्य बढ़ जाये पर शायद इसे कम ही इसलिये रखा गया है कि कोई ऐसा आंदोलन चलवाया जाये जिससे सब किसान एक ही छत के नीचे आ जायें। जमीन मां है यह सच है। कृषि योग्य जमीन का कम होना अच्छी बात नहीं है पर मुआबजे के खेल में उसकी चर्चा करना व्यर्थ है। याद रहे यह लेख टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के आधार पर लिखा गया है इसलिये हो सकता है सब वैसा न हो पर यह बात उनको साबित भी करनी होगी। अलबत्ता इस विचार से अलग भिन्नता ही सहृदयजनों को हो सकती है पर अंततः एक आम लेखक के पास अधिक स्त्रोत और समय नहीं होता कि वह व्यापक रूप से अन्वेषण कर सके।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अमीरी और अमन-हिन्दी शायरी (amiri aur aman-hindi shayari)


चलकर अमीरी का रास्ता
नहीं रहता अमन से वास्ता
दौलत के ढेर पर बैठकर
दिल का चैन पाना, बस एक ख्याल है,
कहीं खोना होगा अपनी असलियत,
कहीं बदलनी होगी वल्दियत,
ईमान सोने के भाव बिके
या खुद का जज़्बात कूड़ेदान में फिंके,
सिक्के झोली में भरते हुए होते हुए
कोई करना होता नहीं सवाल है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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