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कौटिल्य दर्शन-कभी पर्वत की तरह सहनशील तो कभी अग्नि की तरह तीक्ष्ण बन जायें


काले सहिष्णुगिंरिवदसहिश्णुश्चय वह्वित्।।
स्कन्धेनापि वहेच्छत्रन्प्रियाणि समुदाहरन्।।
हिन्दी में भावार्थ-
समय आने पर पर्वत के समान सहनशील और अग्नि के समान असहनशील हो जायें। समय पर मित्र के कंधे पर हाथ रखें तो शत्रु पर भी उसका प्रयोग करें।
असत्यता निष्ठुरता कृताज्ञता भयं प्रमादोऽलसता विषादिता।
वृथाभिमानों ह्यतिदीर्घसूत्रतातथांनाक्षदिविनाशनंश्रियः।।
हिन्दी में भावार्थ
असत्य बोलने, निष्ठुरता बरतने, कृतज्ञता न दिखाने, भय, प्रमाद, आलस्य, विषाद, वृथा प्रयास, अभिमान, अतिदीर्घसूत्रता निरंतर  स्त्री समागम तथा पासे खेल से लक्ष्मी का विनाश होता है।
वर्तमान समय में संपादकीय व्याख्या-जीवन में उतार चढ़ाव तो आते हैं। इन उतार चढ़ावों तथा अन्य घटनाक्रमों का अच्छा या बुरा परिणाम हमारे कर्म, विचार तथा  संकल्प के अनुसार ही प्राप्त होता है।  झूठ बोलने, क्रूरता का भाव रखने, दूसरे के उपकार का आभार न मानने, आलस्य करने वाले तथा थोड़े कष्ट में ही आर्तनाद करने वाले लोग अपनी लक्ष्मी का विनाश कर डालते हैं।  कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो छोटी छोटी बातों पर भयभीत हो जाते हैं।  अगर आज हम सभी तरफ राक्षसी वृत्तियों का शासन देख रहे हैं तो वह केवल इसलिये कि भले लोग भय के कारण निष्क्रिय हो गये हैं।  समाज अपने ही अध्यात्मिक ज्ञान से विमुख हो गया है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का मोह तथा अभाव का भय उसे आशंकित किये रहता है। यही कारण है कि वह अपने समाज के प्रति एकता नहीं दिखाता या दिखाता है तो केवल तब तक जब शांति है और संकट आने पर हर कोई अपने घर में दुबक जाता है।  इतना ही नहीं दूसरे के उपकार सदाशयता तथा अनुसंधान का कोई आभार ज्ञापित नहीं करता। कृत्घनता चालाकी का प्रमाण मान ली गयी है।
मृत्यु तय है यह सभी जानते हैं पर उसका भय ऐसा है कि लोग मर मर की जीने को तैयार हैं।  नतीजा यह है कि कायरों पर महाकायर राज कर रहे हैं जो शीर्ष पर इसलिये पहुंचते हैं क्योंकि उनको भय रहता है कि अगर वहां नहीं रहे तो कोई भी उनको क्षति पहुंचा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान के बिना समाज पशुओं का समूह बन गया है।  कब मित्र से निभाना है या कब शत्रु पर प्रहार करना है इसका ज्ञान लोगों को नहीं रहा।  आत्म प्रवंचना करना तथा प्रशंसा पाने के मोह लोगों को चोर बना दिया है। वह दूसरे का धन, अविष्कार तथा विचार चुराकर अपने नाम से प्रस्तुत करते हैं।  कहने को समाज देवताओं को मानता है पर कृत्य दानवों जैसे हो गये हैं। मगर सभी लोग ऐसे नहीं है। यही कारण है कि आज भी यह समाज इतने सारे हमलों और दबावों के बाद जिंदा है। आज भी दानवीर, कर्मवीर तथा धर्मवीर हैं जो निष्काम कर्म में लिप्त रहते हुए निष्प्रयोजन दया करते हैं। समय पड़ने पर अपने घर, परिवार तथा समाज की रक्षा के लिये कृत संकल्पित होकर अभियान चलाने के लिये तैयार होना आवश्यक है क्योंकि तभी समाज में शांति रह सकती है अन्यथा शत्रु आक्रमण कर समूह का नाश कर देते हैं।


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
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विदुर नीति-कटुवाणी बोलने से अनर्थ होता है-katu vani se anarth-vidur niti


अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता।
सैव दुर्भाषिता राजन्नर्थायोपपद्यते।।
हिंदी में भावार्थ-अच्छे और मधुर ढंग से कही हुई बात से सभी का कल्याण होता है पर यदि कटु वाक्य बोले जायें तो महान अनर्थ हो जाता है।

वाक्संयमो हि नपते सुदुष्करतमो मतः।
अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यं बहु भाषितम्।
हिंदी में भावार्थ-
मुख से वाक्य बोलने पर संयम रखना तो कठिन है पर हमेशा ही अर्थयुक्त तथा चमत्कारपूर्ण
वाणी भी अधिक नहीं बोली जा सकती
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-यह सच है कि अपनी वाणी पर सदैव संयम रखना कठिन है। दूसरा यह भी कि हमेशा अपने मुख से चमत्कार पूर्ण वाक्य निकलें यह संभव नहीं है। पांच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्तियां हमेशा अपना घर किये बैठी हैं और जब तक आदमी उन पर दृष्टि रखता है तभी तब नियंत्रण में रहती हैं। जहां आदमी ने थोड़ा दिमागी आलस्य दिखाया उनका आक्रमण हो जाता है और मनुष्य उनके प्रभाव में अपने ही मुख से अंटसंट बकने लगता है। आत्मनिंयत्रण करना जरूरी है पर पूर्ण से करना किसी के लिये संभव नहीं है। हम हमेशा अच्छा बोलने का प्रयत्न करें पर दूसरे लोग कभी न कभी अपने व्यवहार से उत्तेजित कर गलत बोलने को बाध्य कर ही देते हैं।

मधुर स्वर और प्रेमभाव से कही गयी बात का प्रभाव होता है यह सत्य है। इसी तरह ही अपने जीवन को सहजता से व्यतीत किया जा सकता है। कठोर एवं दुःख देने वाली वाणी बोलकर भले ही हम अपने अहं की शांति कर लें पर कालांतर में वह स्वयं के लिये ही बहुत कष्टदायी होती है। यह तय है कि हम अपनी मधुर वाणी से दस काम किसी से करवा सकते हैं पर कठोर वाणी से किसी को कष्ट पहुंचाकर स्वयं भी चैन से नहीं बैठ सकते। प्रयास तो यही करना चाहिये कि जब भी हम अपने मुख से कोई शब्द निकालें तो वह दूसरे को प्रिय लगे। जीवन में आनंद तथा प्रतिष्ठा पाने का यही एक तरीका है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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