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धर्म निंदा विरोधी कानून से ठेकेदारों को आसरा-हिन्दी लेख


पाकिस्तान में एक ईसाई महिला ने राष्ट्रपति से क्षमादान की अपील की है। उस पर ईश निंदा के तहत मामला दर्ज था और जाहिर है सजा मौत से कम क्या हो सकती है? उस पर तरस आया क्योंकि उसकी स्थिति इस दुनियां के शर्म की बात है? आखिर यह ईश निंदा का मामला क्या है? पाकिस्तान तो मज़हबी राष्ट्र होने के कारण बदनाम है पर दुनियां के सभ्य देश भी धार्मिक आलोचना को लेकर असंवेदनशील है। जब अपने देश में देखता हूं तब यह सोचता हूं कि किसी भी धर्म की आलोचना किसी को भी करने की छूट होना चाहिए! अगर किसी धर्म की आलोचना या व्यंग्य से बवाल फैलता है तो रचनाकार पर नहीं बल्कि उपद्रव करने वालों पर कार्यवाही करना चाहिए। कुछ लोग शायद इसका विरोध करें कि अभिव्यक्ति की सुविधा का लाभ इस तरह नहीं उठाना चाहिए कि दूसरे की धाार्मिक आस्था आहत हो।
जिन लोगों ने इस लेखक के ब्लाग पढ़े हैं उनको पता होगा कि उन पर हिन्दू धर्म से संबंधित बहुत सारी सामग्री है। महापुरुषों के संदेश वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या सहित अनेक पाठ प्रकाशित हैं! सामान्य भाषा में कहें कि यह लेखन धार्मिक प्रवृत्ति का है और आस्था इतनी मज़बूत है कि इंटरनेट पर हिन्दू धर्म की निंदा पढ़कर भी विचलित नहीं होती। वजह साफ है कि अपने धर्म के मूल तत्व मालुम है और यह भी कि आलोचक तो छोड़िये धर्म के प्रशंसक भी उनको नहीं समझ पाते। आलोचक भारतीय धर्मग्रंथों के वही किस्से सुनाकर बदनाम कर रहे है जिनको पढ़ते सुनते भी तीस बरस हो गये हैं। मुख्य बात तत्व ज्ञान की है जिसे भारतीय क्या विदेशी तक भागते नज़र आते हैं।
ईश या धर्म निंदा पर हमला या कार्यवाही करना इस बात का प्रमाण है कि हमारी आधुनिक सभ्यता पहले से कहीं अधिक असहिष्णु हुई है। अगर आज कबीरदास जी होते तो पता नहीं उन पर कितने मुकदमे चलते और शायद ही उनको कोई वकील मुकदमा लड़ने के लिये नहीं मिलता। स्थिति यह है कि हम उनके कई दोहे इसलिये नहीं लिखते क्योंकि असहिष्णुता से भरे समाज में ऐसी लड़ाई अकेले लड़ना चाणक्य नीति की दृष्टि से वर्जित है।
आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है? दरअसल आधुनिक लोकतंत्र में धर्म के ठेकेदारों के माध्यम से समाज को नियंत्रित किया जा रहा है। वह समाज की बजाय राज्य से अधिक निकट हैं और उसकी वजह से उनको अपना नियंत्रण करना आसान लगता है। सर्वशक्तिमान के किसी भी स्वरूप के नाम का दरबार बना लो, चंदा आयेगा, राज्य भी सहायता देगा और जरूरत पड़ी तो बागी पर ईश निंदा का आरोप लगा दो। सच बात तो यह है कि महापुरुषों के नाम पर धर्म चलाने वाले ठेकेदार अपनी राजनीति कर रहे हैं। आखिर ईश निंदा को खौफ किसे है? हमें तो नहीं है। मनुस्मृति पर इतनी गालियां लिखी जाती हैं पर इस लेखक ने उनके बहुत सारे संदेशों को पढ़ा है जो आज भी प्रासांगिक है उनको छांटकर व्याख्या सहित प्रकाशित किया जाता है। मनुस्मृति के समर्थकों का कहना है कि उसमें वह सब बातें बाद में जोड़ी गयी हैं जिनकी आलोचना होती है। इसका मतलब साफ है कि किसी समय में राज्य की रक्षा की खातिर ही विद्वानों से वह सामग्री बढ़ाई गयी होगी।
यह आश्चर्य की बात है कि जो पश्चिमी देश पाकिस्तान के खैरख्वाह हैं वह उसे इस कानून को हटाने का आग्रह नहीं करते क्योंकि उनको भी कहीं न कहीं उसके धर्म की सहायता की आवश्यकता है। उसके सहधर्मी देशों में तेल के कुऐं हैं जो इस तरह के कानूनों के हामी है और पश्चिमी देशों के तेल तथा धन संपदा के मामले में सहायक भी हैं। इतना ही नहीं पश्चिमी देश भी अपने ही धर्म की आलोचना सहन नहीं  कर पाते। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि वह आधुनिक सभ्यता के निर्माण के बहाने अपना धर्म बाज़ार के माध्यम से ला रहे हैं।
आखिर धर्म के ठेकेदार ऐसा क्यों करते हैं? अपने धर्म की जानकारी किसी ठेकेदार को नहीं है। समयानुसार वह अपनी व्याख्या करते हैं। अगर बागी कोई माफिया, नेता या दौलत वाला हुआ तो उसके आगे नतमस्तक हो जाते हैं पर आम आदमी हुआ तो उस राज्य का दंडा चलवाते हैं। यह अलग बात है कि आज समाज के शिखर पुरुष अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं धर्म के ठेकेदारों को समाज पर लादते हैं जो उनके हितैषी हैं। दूसरी बात यह भी है कि भारतीय अध्यात्म को छोड़ दें तो विश्व की अधिकतर विचाराधारायें नये संदर्भों के अप्रसांगिक होती जा रही हैं। भारतीय अध्यात्म में श्रीमद्भागवत गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है जो आज भी निर्विवाद है। उसके बाद आता है पतंजलि योग दर्शन का नंबर। रामायण, वेद, उपनिषद, पुराण, रामचरित मानस तथा अन्य बहुत सारे ग्रंथ हैं पर अपने रचनाकाल के परिप्रेक्ष्य में उनकी संपूर्ण सामग्री भले ही श्रेष्ठ रही हो पर कालांतर में समाज के बदलते स्वरूप में उनमें वर्णित कई घटनायें तथा दर्शन अजीब लगता है। संभव है कि रचना के बाद कुछ ग्रंथों में बदलाव हुआ हो या फिर उनका भाव वैसा न हो जैसा हम समझते हैं, पर उनकी आलोचना होती है। होना चाहिए और इसका उत्तर देना आना चाहिए। वेदों की आलोचना पर तो इस लेखक का स्पष्ट कहना है कि श्रीमद्भागवत गीता में सभी ग्रंथों का उचित सार शामिल हो गया है इसलिये उसके आधार पर वेदों का अध्ययन किया जाये। मज़े की बात यह है कि हिन्दू धर्म का कोई भी आलोचक श्रीमद्भागवत गीता को नहीं पढ़ता जिसमें भेदात्म्क बुद्धि को अज्ञान का प्रतीक माना गया है। मतलब मनुष्य में जाति, धर्म, लिंग, भाषा, धन तथा शिक्षा के आधार पर भेद करना और देखना ही तामस बुद्धि का प्रमाण है।
भारत में ऐसे सारे कानूनों पर भी विचार होना चाहिए जो धार्मिक आलोचना को रोकते हैं। यह जरूरी भी नहीं है कि किसी धर्म की आलोचना उस धर्म का ही आदमी करे दूसरे को भी इसका अधिकार होना चाहिए। दंगे फैलने की आशंका का मतलब यह है कि कहींे न कहीं हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि राज्य ऐसे झगड़ों से निपटने के लिये तैयार नहीं है। धार्मिक ठेकेदार धर्म के नाम पर मलाई तो खाते हैं पर आलोचना का प्रतिकार करने की क्षमता उनमेें नहीं है। इस समय देश में जो वातावरण है वह दमघोंटु बना दिया गया है। कहीं किसी को तस्वीर से एतराज है तो कहीं किसी को निबंध से चिढ़ होती है। जो दावा करते हैं कि हमारा समाज नयापन और खुलापन ले रहा है वह इस बात को भूल जाते हैं कि संत कबीर और रहीम ने बहुत पहले ही सभी धर्मो और उनके ठेकेदारों पर उंगली उठाई है। आज की पीढ़ी खुलेपन वाली है तो फिर यह धार्मिक आलोचना पर रोक लगाने का काम क्यों और कौन कर रहा है? हमारा मानना है कि जो धार्मिक ठेकेदार मलाई खा रहे हैं उनको इन आलोचनाओं के सामने खड़ा कर उसका मुकाबला करने के लिये प्रेरित या बाध्य करो। यह क्या हुआ कि शंाति भंग की आशंका से ऐसे मामलों में कार्टूनिस्टों, लेखकों और पत्रकारों पर कार्यवाही की जाये?
भारत के बुद्धिजीवी पाकिस्तान की कार्यप्रणाली पर टिप्पणियां तो करते हैं पर अपने देश की स्थिति को नहीं देखते जहां धर्म के नाम पर आलोचना रोककर अभिव्यक्ति को आतंकित किया जा रहा है। पाकिस्तान में तो यह आम हो गया है। अगर समाचार पत्रों में छपी विभिन्न खबरों को देखें तो ऐसा लगता है कि लोग अपनी धार्मिक किताब को कबाड़ी के यहां बेच देंगे। उसमें अगर अपने धर्म का आदमी सेव बेचे तो कोई बात नहीं अगर दूसरा बेचे तो लगा दो ईश निंदा का आरोप। मज़े की बात यह कि यह खबर भारत में पढ़ी है पर उसमें ईश निंदा लिखी है पर यह नहीं बताया कि वह किस तरह की है। स्पष्टतः डर की वजह से यह छिपाया गया है। यह खौफ खुलेपन के दावे की पोल खोलकर रख देता है। क्या यह माना जाये कि इस देश में दो तरह के लोग रहते हैं एक असहिष्णु और दूसरे डरपोक।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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एक सौर मंडल जो धरती पर रहता है-हिन्दी व्यंग्य (dharti par rahane wala saurmandal-hindi vyangya)


धरती को जिंदा रखने के लिऐ उसके पास सौरमंडल होना चाहिए, ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं। इसका सीधा आशय यह है कि सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति तथा अन्य ग्रहों के रक्षा कवच पर ही धरती और उस पर विचरण करने वाला जीवन टिका रहता है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र तो यह भी मानता है कि इन सब ग्रहों की चाल का मनुष्य के जीवन पर प्रभाव पड़ता है। इधर हमारे मन में यह भी ख्याल आया कि एक सौर मंडल इस धरती पर भी विचरता है जो सामने है पर दिखता नहीं क्योंकि इसके सारे ग्रह इतने पर्दों मे रहते हैं ं कि सभी ग्रह एक दूसरे को देख तक नहीं पाते, अलबत्ता दोनों का एक दूसरे से मिलन नहीं होता क्योंकि उनके परिक्रमा पथ कभी आपस में टकराते नहीं है। राजा और प्रजा दो भागों में बंटे मनुष्य जीवन पर इसका प्रभाव पड़ता है भले ही दोनों को यह दिखाई नहीं देता।
इस सौर मंडल के ग्रह हैं पूंजीपति, बाहूबली, धार्मिक ठेकेदार तथा अपराधियों के गिरोह ओर उनके दलाल। पूंजीपति तो सूरज की तरह है जिनकी रौशनी से सारे सारे छोटे ग्रह चमत्कृत होते हैं। सृष्टि के निर्माण से ही यह गिरोह चलते रहे होंगे पर आजकल कृत्रिम दूरदृष्टि मिल जाने के कारण आम लोगों को भी दिखाई देने लगे हैं-बुद्धिमानों तो इनके प्रभाव का आभास कर लेते हैं पर सामान्य लोगों को शायद ही होता हो।
जब बात पूंजीपतियों की बात चली है तो आजकल अमेरिका नाम का एक धरती पर स्वर्ग है जहां इनकी बस्ती बन गयी है और तय बात है कि वहां का कोई भी राज्यप्रमुख उनके लिये एक तरह से बहुत बड़ा सुरक्षाकवच की तरह काम करता है। हालांकि वह स्वतंत्र दिखता है पर लगता नहीं है। वह अपनी चाल चल रहा है पर लगता है कि उसे चलना भर है बाकी काम तो उसके मातहत ही करते होंगे।
पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के विमान की बात कर लें। विमान का अधिक वर्णन तो हमारे लिये संभव नहीं है क्योंकि अपने खटारा स्कूटर की याद आने लगती है और लिखना बंद हो जाता है। विमान एक तरह से महल होने के साथ अभेद्य किला है। वहां बैठा राष्ट्रपति यात्रा के दौरान ही अपनी सेना और प्रशासन के अधिकारियों से संपर्क कर सकता है-करता होगा इसमें शक ही है क्योंकि अमेरिका की व्यवस्था ऐसी ही दिखती है। कोई आपत्ति आ जाये तो राष्ट्रपति वहां से कोई भी कार्यवाही करने का आदेश दे सकता है-इसकी आवश्यकता पड़ती होगी यह संभावना नगण्य है। कहने का अभिप्राय यह है कि उसमें महल जैसी सारी व्यवस्था है, विमान तो बस नाम है।
भारतीय प्रचार माध्यम अमेरिकी राष्ट्रपति के आगमन पर उसके विमान, पत्नी तथा वक्तव्यों का खूब वर्णन करते हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने ताज होटल पर हुए हमले की निंदा की पर पाकिस्तान का नाम नहीं लिया।
शायद आगे लेंगे जब भारतीय समकक्षों से मिलेंगें।
वह पाकिस्तान नहीं जा रहे, इससे यह संदेश तो मिल ही रहा है कि वह भारत में अपना हित अधिक देखते हैं।
ऐसे बहुत से जुमले हैं जो ओबामा के आने पर तीसरी बार सुने गये। पहले क्लिंटन आये फिर जार्ज बुश, तब भी यही नज़ारा था। तीनों राष्ट्रपति पहले बैंगलौर या मुंबई आये फिर नई दिल्ली। दोनों पाकिस्तान नहीं गये इस पर बहस! संदेश ढूंढने की कोशिश! हमने तीनों को देखा। हम सोचते हैं कि क्या वह इतने विराट व्यक्तित्व के स्वामी है जितना वर्णन किया जाता है या उनका पद ही उनको विराटता प्रदान कर रहा है। दूसरी ही बात सही लगती है।
जार्ज बुश को तो राष्ट्रपति बनने से पहले तक यही नहीं मालुम था कि भारत देश किस दिशा में है, पर बाद में भारत का लोहा मानते हुए दिखाये और बताये गये।
अब ओबामा की चाल ढाल पर नज़र रखी। एक ऐसे इंसानी बुत नज़र आये जिसे विराट व्यक्तित्व का स्वामी बना दिया गया है। कोई कसर नहीं रहे इसलिये उनको शांति का नोबल भी दिया गया। अनेक लोग हैरान हुए थे पर उस समय भी हमने लिखा था कि विश्व का बाज़ार अपना यह बुत चमका रहा है। यह बात अब सत्य लगती है।
उनके साथ 250 पूंजीपतियों का समूह आया है। मुंबई में भारतीय पूंजीपतियों के साथ ही उनका सम्मेलन है। अमेरिका चाहता है कि भारतीय पूंजीपति उनके यहां निवेश करे। इस सम्मेलन को एक मुखिया की तरह ओबामा संबोधित कर चुके हैं। पहले भी राष्ट्रपति ऐसा ही कर चुके हैं। पूंजीपति यानि इस धरती का सूर्य जिससे सभी को जीवन मिलता है। अमेरिका में यह सच होगा पर भारत में आज भी कृषि आधारित व्यवस्था है। अगर यहां कृषि ठप्प हो जाये तो फिर पैसा नहीं मिलने का। भारत का पानी भी अब बाहर बिकने लगा है जो यहां के पूंजीपतियों के पैट्रोल जैसा कीमती हो गया है। कहा जाता है कि भारत में जलस्तर जितना ऊपर है उतना कहीं नहीं है। यह प्रकृति की कृपा है पर अब पानी भी पैट्रोल की तरह दुर्लभ होता जा रहा है। धरती पर स्थित सौर मंडल का भगवान बस, पद पैसा और प्रतिष्ठा कमाना है सो उसे कई बातों से मतलब नहीं है। वह राजा और प्रजा दोनों को अपनी गिरफ्त में रखता है। ऐसे में अब भारत दोहन अभियान शुरु हो गया है लगता है।
आज जार्ज बुश उनके पिता तथा दादा की भी चर्चा हुई। पता लगा कि वह हथियार कंपनियों के मालिक थे इसलिये ही उन्होंने अपने समय में युद्ध का रास्ता अपनाया ताकि माल की खपत हो सके। यह पहली बार पता लगा कि अमेरिका में हथियार बेचने वाली लॉबी इतनी दमदार है। इसका मतलब हमारा यह दावा सही होता जा रहा है कि दुनियां में अब अनेक जगह अब इंसानी बुत सौदागरों के मुखौटे बनकर राजा के पद पर सुशोभित हो रहे हैं।
प्रचार माध्यम कहते हैं कि ओबामा उन सबसे अलग हैं। इसे हम यूं भी मान सकते हैं कि वह हथियार लॉबी से इतर किसी अन्य लॉबी के इंसानी बुत हैं। वैसे वह हथियारों की बिक्री बढ़ाने तो वह भारत यात्रा पर पधार हैं पर साथ ही अन्यत्र क्षेत्रों में वह यहां का सहयोग चाहते हैं। अन्य व्यापारियों ने हथियार व्यापारियों से कहा होगा कि‘भई, कुछ हमारा काम हो जाये, इसलिये इस बार हमारी पंसद का राष्ट्रपति आने दो।’
हथियार लॉबी का काम तो होना ही था सो वह मान गये होंगे। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार ओबामा के प्रतिद्वंद्वी का नाम आखिर तक किसी को पता नहीं चला। आज ओबामा यह कर रहे हैं, आज वहां बोलेंगे, ओबामा के बारे में यह अफवाह फैली-ऐसी बातें भारतीय प्रचार माध्यम ही नहीं इंटरनेट पर भी आती रहीं। न आया तो उनके प्रतिद्वंद्वी का नाम। वैसे ओबामा चेहरे से भले लगे। धरती के सौरमंडल के ग्रहों ने बहुत सोच समझकर उनको चुना। हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है। अगर हम कहें कि उनको क्यों लाये तो यह बात भी तय है कि उनकी जगह कोई दूसरा चेहरा या इंसानी बुत आना था। वह जो भी बोलेंगे अपने सहायकों के इशारे से ही बोलेंगे। कई बार तो लिखा हुआ पढ़ेंगे। इसका मतलब यह है कि उनको एक ऐसे इंसानी बुत की तरह प्रस्तुत किया गया है कि जो समझकर बोलता हो। बाकी तो उनको गुड्डे की तरह खूब चलाया जायेगा। कभी कभी तो लगता है कि उनको भी यही पता न होगा कि उनको अगली बार कौनसी लाईन बोलनी है या अगले कार्यक्रम में आखिर विषय क्या है? अमेरिका का राष्ट्रपति दुनियां का सबसे दबंग आदमी है-ऐसा कहा गया पर हम सोच रहे थे कि वाकई क्या यह सच है?
धरती का सौर मंडल उस पर तथा यहां विचरण करने वाले जीवों पर क्या प्रभाव डालता है हमें नहीं दिखता लगभग उसी तरह ही धरती पर विचरने वाला सौर मंडल किस तरह राजा और प्रजा को चला रहा है यह आम आदमी नहीं जानते। जो जानते हैं वह बता नहीं सकते क्योंकि वह खुद उसका हिस्सा होते हैं।
आखिरी बात यह है कि 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले ताज के अलावा दो अन्य जगह भी हुए थे। जिसमें रेल्वे स्टेशन भी शामिल था जहां आम आदमी अधिक होते हैं। ओबामा ने केवल ताज के शहीदों को ही श्रद्धांजलि दी। आतंकियों को चुनौती देने के लिये ही वह ताज होटल में रुके ऐसा कहा जा रहा है। इससे भी हमें कोई शिकायत नहीं पर धरती के सौरमंडल की प्रतिबद्धता साफ दिखाई दे रही है कि वह कुछ विषयों पर प्रजा के जज़्बातों की परवाह नहीं करता। वह अपने इंसानी बुत को रेल्वे स्टेशन नहीं ले जा सकता क्योंकि सौर मंडल के ग्रहों में इतनी ताकत है कि उनकी परिक्रमा प्रजा की चाल से प्रभावित नहीं होती।

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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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चीन के प्रचार माध्यमों पर तो हंसा जा सकता है-आलेख


इसलिये कहते हैं कि दूसरे के अपमान पर कभी नहीं हंसना चाहिये क्योंकि स्वयं को भी कभी ऐसी स्थिति का सामना करने पर दूसरों का हंसने का अवसर मिल सकता है। चीन के प्रधानमंत्री बेन जियाबाओ पर लंदन के कैम्ब्रिज विश्वविद्याालय में एक कार्यक्रम के दौरान एक व्यक्ति ने उनकी तरफ अपना जूता उछाल दिया। उसने उन पर तानाशाह होने का आरोप लगाया। देखा जाये तो जूता यहां लोकतंत्र की हिमायत में फैंका गया पर लोकतांत्रिक व्यवस्था का सच्चा हिमायती कभी इस तरह जूते फैंकने का समर्थन नहीं करेगा।

इस आलेख का उद्देश्य जूता फैंकने की घटना का समर्थन या विरोध करना नहीं है बल्कि जिस तरह लोग बेहयायी की घटनाओं पर अपनी सुविधानुसार विश्लेषण कर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं उस पर दृष्टिपात करना ही है। कहीं बेहयायी पूर्वक जूता फैंकना उनको सम्राज्यवाद के गाल पर तमाचा जड़ना लगता है तो कहीं उनको लोकतांत्रिक प्रतीक दिखाई देता है। जूता फैंकना गलत है पर कथित रूप से सम्राज्यवाद विरोधी-भले ही वह स्वयं भी कम सम्राज्यवादी नहीं होते-किसी लोकतंात्रिक देश के राष्ट्रप्रमुख पर जूता फैंकने का समर्थन सीधे तो नहीं करते पर जूता फैंकने वाले की भावनाओं पर ध्यान अधिक केंद्रित करते हैं। वर्तमान विश्व के सभ्य समाज में जूता फैंकने की घटना का सीधे समर्थन तो कोई भी कर ही नहीं सकता पर पर कुछ लोगों द्वारा शब्दों की हेराफेरी से उसको सही साबित करने के प्रयास भी कम नहीं होते।

जब कुछ समय पूर्व इराक मेंं अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्जबुश पर जूता फैंका गया था तब चीन के प्रचार माध्यमों ने उसे हाथों हाथ लिया था। चीन के प्रचार माध्यम सरकार के नियंत्रण मेंे हैं और यह संभव नहीं है कि वहां के कर्णधारों की तरफ से इसका इशारा न हो। अंतर्जाल पर हिंदी ब्लाग लेखक अपने पाठों में बताते हैं कि चीन में तो अंतर्जाल पर चीनी भाषा में ब्लाग लिखने वालों को भारी रकम मिलती है और वह अन्य भाषाओं के ब्लाग लेखकों से अधिक आय अर्जित करते हैं क्योंकि सरकार उनको प्रायोजित करती है। मतलब चीन की सरकार ने अंतर्जाल पर भी अपने देश का झंडा फहराने का बंदोबस्त कर लिया हैं। जार्ज बुश पर जूता फैंकने के बारे में चीनी ब्लाग लेखकों की प्रतिक्रिया भी अपने प्रचार माध्यामों से अलग नहीं थी। सीधी भाषा में बात करें तो चीन ने सरकारी तौर पर गैरसरकारी क्षेत्रों को जार्ज बुश पर जुता फैंकने की घटना पर हंसने का अधिकार दिया जिसका खूब उपयोग किया गया गया।

मगर अब क्या हुआ? जो जानकारी विभिन्न समाचार पत्रों से मिली है उससे हैरानी तो नहीं होती पर इतना जरूर कहना है कि ‘भई, दूसरे के अपमान पर हंसना नहीं चाहिये।‘ चीन के किसी भी प्रचार माध्यम में इस घटना का जिक्र नहीं हैं। उनके प्रधानमंत्री पर जूता फैंका गया यह बात वहां किसी ने अपने लोगों के सामने नहीं रखी। मगर कुछ हुआ था इससे छिपाना कठिन था सो ‘भाषण में व्यवधान’ का उल्लेख किया गया। शायद यह भी नहीं होता अगर ब्रिटेन ने माफी नहीं मांगी होती। शायद तब भी वहां के प्रचार माध्यमों ने खामोशी अख्तियार कर ली होती पर चीन ने इस कथित व्यवधान पर ब्रिटेन से कड़ा प्रतिवाद किया था और तभी उसने माफी मांगी यह वहां के लोगों को बताना जरूरी था। ब्रिटेन से विरोध जताने के चीनी प्रयास से वहां की जनता के मन में वहां के कर्णधारों की मजबूत व्यक्तित्व की छबि बनी इसलिये यह प्रसारण जरूरी था। जनता अधिक नाराज न हो इसलिये ब्रिटेन की माफी बतानी भी जरूरी थी। मगर जूता फैंका गया………………..इसे वह छिपा गये। प्रचार माध्यमों पर सरकारी नियंत्रण कितना तगड़ा है यह सभी जानते हैं। इसका मतलब यह है कि जब जार्जबुश के साथ बदतमीजी की गयी और चीनी प्रचार माध्यमों ने उसका खूब मजा लिया उससे यह साफ जाहिर होता है कि सरकारी इशारा उनको इसके लिये प्रेरित कर रहा है। अगर उस समय अमेरिका उससे कहता तो वहां के कर्णधार यही कहते कि यह तो मीडिया है इसकी स्वतंत्रता पर हम रोक नहीं लगाते।
चीन ने चाहे कितनी भी प्रगति की है और वह विश्व में दूसरे देशों से मधुर संबंध बनाना चाहता है पर उस कोई यकीन नहीं करता और करना भी नहीं चाहिये। चीनी प्रचार माध्यम भारत के विरुद्ध विषवमन करते हैं-यह बात अतंर्जाल पर वेबसाइटें और ब्लाग और समाचार पत्र पढ़ने से पता लग जाती है-और जिस तरह उन पर सरकार का नियंत्रण रखती है उससे उनका प्रचार सरकार के मन की बात ही समझी जानी चाहिये। वैसे उम्मीद तो नहीं कि यह बात वहां के प्रचार माध्यमों और बुद्धिजीवियों को समझ में आयेगी कि ‘दूसरे के अपमान पर कभी नहीं हंसना चाहिये क्योंकि अपने साथ वैसा ही व्यवहार आने पर दूसरों को भी हंसने का अवसर मिल सकता है।’ आखिर वह अपने सरकार के नियंत्रण में हैं और इसका मतलब यह है कि सोचने और समझने वाले सीमित संख्या में है और उस पर अमल करने वाले बहुत हैं। चीन में सोचने और समझने का अधिकार केवल राजकीय शक्ति से संपन्न लोगों के पास ही है और बाकी के लोग अपने सोचे और समझे पर थोड़े ही चल सकते हैं।

इसका आशय यह नहीं कि इस जूता फैंकने की घटना का प्रचार कर उसे महत्व दें बल्कि इस तरह की प्रवृत्ति की निंदा सभी को हमेशा करना चाहिये भले ही अपने विरोधी या शत्रू के साथ हो। मुश्किल है कि कुछ लोग इसे समझना नहीं चाहते। बहरहाल चीन के प्रधानमंत्री पर जूता फैंकने की घटना निंदनीय है पर वहां के प्रचार माध्यमों का रवैया ऐसा है जिस पर हंसा जा सकता है।
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अपराध शास्त्र से अलग विषय नहीं है आतंकवाद-आलेख


बिना धन के कहीं भी आतंकवाद का अभियान चल ही नहीं सकता और वह केवल धनाढ़यों से ही आता है। आतंकवाद एक व्यापार की तरह संचालित है और इसका कहीं न कहीं किसी को आर्थिक लाभ होता है। आतंकवाद को अपराधी शास्त्र से अलग रखकर बहस करने वाले जालबूझकर ऐसा करते हैं क्योंकि तब उनको जाति,भाषा,वर्ण,क्षेत्र और संस्कारों की अलग अलग व्याख्या करते हैं और अगर वह ऐसा नहीं करेंगे फिर एकता का औपचारिक संदेश देने का अवसर नहीं मिलेगा और वह आम आदमी के मन में अपनी रचात्मकता की छबि नहीं बना पायेंगें

कोई भी अपराध केवल तीन कारणों से होता है-जड़,जोरू और जमीन। आधुनिक विद्वानों ने आतंकवाद को अपराध से अलग अपनी सुविधा के लिये मान लिया है क्योंकि इससे उनको बहसें करने में सुविधा होती है। एक तरह से वह अपराध की श्रेणियां बना रहे हैं-सामान्य और विशेष। जिसमें जाति,भाषा,धर्म या मानवीय संवेदनाओंं से संबंधित विषय जोड़कर बहस नहीं की जा सकती है वह सामान्य अपराध है। जिसमें मानवीय संवेदनाओं से जुड़े विषय पर बहस हो सकती है वह विशेष अपराध की श्रेणी में आतेे हैं। देश के विद्वनों, लेखकों और पत्रकारों में इतना बड़ा भ्रम हैं यह जानकार अब आश्चर्र्य नहीं होता क्योंकि आजकल प्रचार माध्यम इतने सशक्त और गतिशील हो गये हैं कि उनके साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क निरंतर बना रहता है। निरंतर देखते हुए यह अनुभव होने लगा कि प्रचार माध्यमों का लक्ष्य केवल समाचार देना या परिचर्चा करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि हर पल अपने अस्तित्व का अहसास कराना भी है।
हत्या,चोरी,मारपीट डकैती या हिंसा जैसे अपराघ भले ही जघन्य हों अगर मानवीय संवदेनाओं से जुड़े विषय-जाति,धर्म,भाषा,वर्ण,लिंग या क्षेत्र से-जुड़े नहीं हैं तो प्रचार माध्यमों के लिये वह समाचार और चर्चा का विषय नहीं हैं। अगर सामान्य मारपीट का मामला भी हो और समूह में बंटे मानवीय संवदेनाओं से जुड़े होने के कारण सामूहिक रूप से प्रचारित किया जा सकता है तो उसे प्रचार माध्यमों में अति सक्रिय लोग हाथोंहाथ उठा लेते हैं। चिल्ला चिल्लाकर दर्शकों और पाठकों की संवदेनाओं को उबारने लगते हैं। उनकी इस चाल में कितने लोग आते हैं यह अलग विषय है पर सामान्य लोग इस बात को समझ गये हैं कि यह भी एक व्यवसायिक खेल है।

यह प्रचार माध्यमों की व्यवसायिक मजबूरियां हैं। उनको भी दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि मानवीय संवेदनाओं को दोहन करने के लिये ऐसे प्रयास सदियों से हो रहे हैं। यही कारण है कि अध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण भारतीय ज्ञान की अनदेखी तो वह लोग भी करते हैं जो उसे मानते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान की जगह धर्म के रूप में सार्वजनिक कर्मकांडों के महत्व का प्रतिपादन बाजार नेे ही किया है। कहीं यह कर्मकांड शक्ति के रूप में एक समूह अपने साथ रखने के लिये बनाये गये लगते हैं। मुख्य बात यह है कि हमें ऐसे जाल में नहीं फंसना और इसलिये इस बात को समझ लेना चाहिये कि अपराध तो अपराध होता है। हां, दूसरे को हानि पहुंचाने की मात्रा को लेकर उसका पैमाना तय किया जा सकता है पर उसके साथ कोई अन्य विषय जोड़ना बेवकूफी के अलावा कुछ नहीं है। जैसे चोरी, और मारपीट की घटना डकैती या हत्या जैसी गंभीर नहीं हो सकती पर डकैती या हत्या को किसी धर्म, भाषा,जाति और लिंग से जोड़ने के अर्थ यह है कि हमारी दिलचस्पी अपराध से घृणा में कम उस पर बहस मेें अधिक है।
बाजार और प्रचार का खेल है उसे रोकने की बात करना भी ठीक नहीं है मगर आम आदमी को यह संदेश देना जरूर आवश्यक लगता है कि वह किसी भी प्रकार के अपराध में जातीय,भाषा,धर्म,वर्ण,लिंग और क्षेत्रीय संवेदनाएं न जोड़े-अपराध चाहे उनके प्रति हो या दूसरे के प्रति उसके प्रति घृणा का भाव रखें पर अपराधी की जाति,भाषा,धर्म,वर्ण,लिंग और क्षेत्रीय आधार को अपने हृदय और मस्तिष्क में नहीं रखें।

एक बात हैरान करने वाली है वह यह कि यह विद्वान लोग विदेश से देश में आये आतंकियों के जघन्य हमले और देश के ही कुछ कट्टरपंथी लोगों द्वारा गयी किसी एक स्थान पर सामान्य मारपीट की घटना में को एक समान धरातल पर रखते हुए उसमें जिस तरह बहस कर रहे हैं उससे नहीं लगता कि वह गंभीर है भले ही अपने कार्यक्रम की प्रस्तुति या आलेख लिखते समय वह ऐसा प्रदर्शित करते हों। इस बात पर दुःख कम हंसी अधिक आती है। मुख्य बात की तरफ कहीं कोई नहीं आता कि आखिर इसके भौतिक लाभ किसको और कैसे हैं-यानि जड़ जोरु और जमीन की दृष्टि से कौन लाभान्वित है। बजाय इसके वह मानवीय संवेदनाओं से विषय लेकर उस पर बहस करते हैं।

आतंकवाद विश्व में इसलिये फैल रहा है कि कहीं न कहीं विश्व मेें उनको राज्य के रूप में सामरिक और नैतिक समर्थन मिल जाता है। कहीं राज्य खुलकर सामरिक समर्थन दे रहे हैं तो कही उनके अपराधों से मूंह फेरकर उनको समर्थन दिया जा रहा है। एक होकर आतंकवाद से लड़ने की बात तो केवल दिखावा है। जिस तरह अपने देश में बंटा हुआ समाज है वैसे ही विश्व में भी है। हमारे यहां सक्रिय आतंकवादी पाकिस्तान और बंग्लादेश से पनाह और सहायता पाते हैं और विश्व के बाकी देश इस मामले में खामोश हो जाते हैं। वह तो अपने यहां फैले आतंकवाद को ही वास्तविक आतंकवाद मानते हैंं। वैसे ऐसी बहसें तो वहां भी होती हैं कि कौनसा धर्म आतंकवादी है और कौनसा नहीं या किसी धर्म के मानने वाले सभी आतंकवादी नहीं होते। यह सब बातें कहने की आवश्यकता नहीं हैं पर लोगों को व्यस्त रखने के लिये कही जातीं हैं। इससे प्रचार माध्यमों को अपने यहां कार्यक्रम बनाने और उससे अपना प्रचार पाने का अवसर मिलता है। आतंकवाद से लाभ का मुख्य मुद्दा परिचर्चाओं से गायब हो जाता है और वहां यहां तो आतंकवादी संगठनों की पैतरेबाजी की चर्चा होती है या फिर धार्मिक,जाति,भाषा, और लिंग के आधार बढि़या और लोगों को अच्छे लगने वाले विचारों की। आतंकवादियों के आर्थिक स्त्रोतों और उनसे जुड़ी बड़ी हस्तियों से ध्यान हटाने का यह भी एक प्रयास होता है क्योंकि वह प्रचार माध्यमों के लिये अन्य कारणों से बिकने वाले चेहरे भी होते हैं।

प्रसंगवश अमेरिका के नये राष्ट्रपति को भी यहां के प्रचार माध्यमों ने अपना लाड़ला बना दिया जैसे कि वह हमारे देश का आतंकवाद भी मिटा डालेंगे। भारत से अमेरिका की मित्रता स्वाभाविक कारणों से है और वहां के किसी भी राष्ट्रपति से यह आशा करना कि वह उसके लिये कुछ करेंगे निरर्थक बात है। यहां यह भी याद रखने लायक है कि ओबामा ने भारत के अंतरिक्ष में चंद्रयान भेजने पर चिंता जताई थी। शायद उनको मालुम हो गया होगा कि वहां से जो फिल्में उसने भेजीं हैं वह इस विश्व को पहली बार मिली हैं और अभी तक अमेरिकी वैज्ञानिक भी उसे प्राप्त नहीं कर सके थे। बहरहाल आतंकवादियों की पैंतरे बाजी पर चर्चा करते हुए विद्वान बुद्धिजीवी और लेखक जिस तरह मानवीय संवेदनाओं से जुड़े विषय पैंतरे के रूप में आजमाते हैं वह इस बात को दर्शाता है कि वह भी अपने आर्थिक लाभ और छबि में निरंतरता बनाये रखने के लिये एक प्रयास होता है। वह बनी बनायी लकीर पर चलना चाहते हैं और उनके पास अपना कोई मौलिक और नया चिंतन नहीं है। वह दूसरे के द्वारा तय किये गये वैचारिक नक्शे पर ही अपने चर्चा घर सजाते हैं।
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चंद्रयान-1 के अभियान से विश्व में भारत का सम्मान बढ़ेगा-आलेख


श्री हरिकोटा से ‘चंद्रयान-1’ का प्रक्षेपण हमारे भारत देश के लिये विश्व के विज्ञान जगत में प्रतिष्ठा के चार चांद लगाने वाली बहुत बड़ी घटना है। यह आश्चर्य की बात है कि भारतीय समाचार चैनल इस घटना को प्रमुखता देने की बजाय देश में हो रही हिंसक घटनाओं को अग्रता प्रदान कर रहे हैं। कुछ खबर को विस्तार देने के लिये फिल्मों के चांद पर लिखे गये गानों को सुनाकर अपने कार्यक्रम की शोभा बढ़ा रहे हैं। इस खबर का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव होगा उसका आंकलन करना आवश्यक है जो शायद कल कुछ समाचार पत्र के संपादक अपने संपादकीय लिख कर पूरा करेंगे।
अभी तक भारतीय विज्ञान की प्रगति और तकनीकी के चर्चे बहुत थे पर चंद्रयान-1 का प्रक्षेपण देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसे प्रमाणिक स्वरूप प्रदान करेगा इसमें संदेह नहीं है। सच तो यह है कि परमाणु विस्फोटों से जहां अन्य देशों के लोगों में भारत के लिये नकारात्मक संदेश गया था पर इससे सकारात्मक संदेश जायेगा। वह यह कि भारत विज्ञान की प्रगति केवल अपने सुरक्षा के लिये नहीं बल्कि विश्व कल्याण के लिये भी करना चाहता है।
परमाणु बम भले ही घोषित रूप से कुछ ही देशों के पास है पर अघोषित रूप से कई अन्य के पास होने का भी संदेह है। फिर परमाणु बम अंततः मानव सभ्यता को कुछ नहीं देता जबकि चंद्रयान-1 के निष्कर्षों से पूरा विश्व लाभन्वित होगा। अमेरिका ने चंद्रमा पर अपना विमान पहले भेजकर ही अपनी शक्ति का लोहा मनवाया था। वैसे उसने जापान पर परमाणु बम गिराकर अपनी शक्ति दिखाई थी पर उसे वास्विकता प्रतिष्ठा चंद्रमा पर यान भेजने के बाद ही प्राप्त हुई थी।
हो सकता है कि इस पर आये खर्चे पर कुछ लोग यह कहकर आलोचना करें कि इससे देश की गरीबों में बांटा जा सकता था पर यह उनकी अज्ञानता का प्रमाण माना जायेगा। इस पर आया खर्च एक तो बहुत कम है दूसरे एक सभ्य समाज और राष्ट्र को ‘विज्ञान के क्षेत्र’ मेंे प्रगति करना चाहिये ताकि उसके दायरे में मौजूद प्रतिभाशाली लोगों को अवसर मिले। उनका आत्मविश्वास बना रहे इसलिये ऐसे वैज्ञानिक प्रयोग निरंतर करते रहना चाहिये। इससे समाज और राष्ट्र का अन्यत्र सम्मान बढ़ता है और प्रतिभाशाली लोगों के आत्मविश्वास से उसकी आंतरिक और बाह्य सुरक्षा संभव है।

हालांकि इस यान में अन्य देशों की भी भूमिका है पर यह भारत के हरिकोटा से छोड़ा गया है और इसका आशय यह है कि इसरो ने अब नासा के समकक्ष अपनी भूमिका निभाने का प्रयास प्रारंभ कर दिया है। भारतीय वैज्ञानिक अंतरिक्ष में अंतर्राष्ट्रीय जगत पर अपनी भूमिका निभाने के लिये अब बहुत तत्पर लगते हैं। इसका कारण यह भी है कि अमेरिका से उपग्रह भेजना बहुत महंगा है और भारत इसके लिये अब एक सस्ता देश हो गया है। यही कारण है हमारे देश के वैज्ञानिक अपने उपग्रह अंतरिक्ष में भेज रहे हैं बल्कि दूसरों का भी सहयोग कर रहे हैं। संभव है कि किसी दिन रूस,अमेरिका,फ्रांस और ब्रिटेन किसी दिन अपने उपग्रह भारत ये भेजने का विचार करें।
आमतौर से विज्ञान और व्यापार के विषय राजनीति से बाहर रखे जाते हैं पर भारत के पड़ौसी देशों में पाकिस्तान एक ऐसा देश है जो भारत के साथ हर क्षेत्र में राजनीति जोड़ लेता है। वरना वहां के कई समझदार लोग सलाह देते हैं कि अंतरिक्ष, विज्ञान, स्वास्थ्य और व्यापार के मामले में भारत की मदद ली जाये।

चंद्रयान-1 प्रक्षेपण में अमेरिका भी जुड़ा हुआ है और यह इस बात का प्रमाण है कि विज्ञान और अंतरिक्ष मामले में उसके और भारत के संबंध में कितनी गहराई है। शीतयुद्ध के समय भी भारत के इंसैट उपग्रहों की श्रृंखला का अमेरिका से ही प्रक्षेपण हुआ और भारत के संचार क्रांति मेंं उसकी भूमिका को आज भी पुराने लोग जानते हैं। हमेशा भारत के मित्र रहे सोवियत संघ ने भी विज्ञान में अमेरिका के समान ही प्रगति की पर उसकी भूमिका इस मामले में नगण्य ही रही। यही कारण है कि आज भी हमारे देश में सोवियत संघ को अमेरिका के मुकाबले समर्थन देने वाले कम हैं। आज वही अमेरिका श्रीहरिकोटा में च्रदंयान-1 अभियान से जुड़ा तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं है। भारत की उपग्रह प्रक्षेपण प्रणाली के कारण अनेक देश भारत से जुड़ेंगे इसमें संदेह नहीं है और कोई बड़ी बात नहीं है कि आगे चीन भी कोई ऐसी पहल करे। विश्व के अनेक देश अपने यहां संचार व्यवस्था के विकास के लिये भारत से संपर्क बढ़ायेंगे इसमें संदेह नहीं है। सच तो यह है कि भारत के विश्व में सामरिक रूप से महाशक्ति के रूप में स्थापित होने की जो कल्पना की गयी थी उसकी तरफ यह बढ़ाया गया यह एक प्रमाणिक कदम है।

इधर कुछ आर्थिक विद्वान वैश्विक मंदी में भी अमेरिका सहित पश्चिम देशों की हालत देखकर कह रहे हैं कि हो सकता है कि भारत कहीं आर्थिक महाशक्ति न बन जाये। जब तक मंदी नहीं थी तब तक तो कोई कुछ नहीं कह रहा था पर अब जो मंदी चल रही है उससे भारत में संकट है पर लोगों को उसकी तरफ कम अमेरिका पर अधिक ध्यान है। पहले तो दबे स्वर में कहा जाता था कि विश्व के गरीब देशों के शीर्षस्थ लोग अपना धन अमेरिका में निवेश कर उसे शक्ति प्रदान कर रहे हैं पर अब तो यह खुलेआम कहा जा रहा है कि अब अमेरिका में निवेश करने वाले लोग भारत में निवेश कर सकते हैं। कुछ लोग तो इसमें अंतर्राट्रीय स्तर पर देशों के आपसी समीकरण बदलने की संकेत भी ढूंढ रहे हैं। उनका मानना है कि इस मंदी से अमेरिका का छुटकारा आसान नहीं है। अगर वह बचा भी तो उसे कम से कम पांच साल पुराने स्तर पर आने में लग जायेंगे। इधर सोवियत संघ भी चीन के साथ मिलकर भारत को इस क्षेत्र में अपनी भूमिका निभाने के लिये पे्ररित कर रहा है।
जहां तक विश्व में महाशक्ति बनने या न बनने का सवाल है तो एक बात तय है कि अमेरिका तो कहता है कि उसकी विदेश नीति में उसके स्वयं के हित ही सर्वोपरि हैं पर इस राह पर तो सभी चलते हैं। विश्व में अमेरिका के विकल्प के रूप में कोई राष्ट्र नहीं है। सोवियत संघ और चीन ने अमेरिका की तरह भारत तरक्की की है पर अपने आंतरिक ढांचों की कार्यप्रणाली की संकीर्णताओं और शंकाओं के कारण वह उसके विकल्प नहीं बन पाये। विश्व के कई देश भारत को उसके विकल्प के रूप में देखते हैं तो इसका कारण यह है कि यहां प्रतिभाओं की कमी नहीं है और धन के मामले में भी कोई गरीब नहीं हैं। यह अलग बात है कि बढ़ती आबादी के कारण यहां का आर्थिक विकास मंद नजर आता है। लोकतांत्रिक सरकारों की आलोचना बहुत आसान है क्योंकि वह अमूर्त रूप में हैं पर अपने सामाजिक ढांचे और सोच के संकीर्ण दायरों को ही इसके लिये वास्तविक जिम्मेदार माना जाता है। बहरहाल चंद्रयान-1 के प्रक्षेपण से भारत के सभ्य,शिक्षित और जागरुक लोगों को आत्मविश्वास बढ़ेगा इसमें कोई संदेह नहीं है। भारत के बाहर भी अनेक अप्रवासी हैं और वह इस उपलब्धि पर गर्व कर वहां रह रहे लोगों को बता सकते हैं कि उनका देश एक शक्तिशाली राष्ट्र है। विदेशी भी इस सफलता पर आश्चर्य चकित तो होंगे और अगर इतने विकास के बावजूद जो भी भारत के प्रति संकीर्ण सोच रखते थे वह उसे बदलना चाहेंगे। इस अवसर पर इसरो के वैज्ञानिकों को बधाई इस आशा के साथ कि वह आगे इसी तरह अपना कार्य जारी रखकर अन्य उपलब्धियां हासिल करेंगे। यह बात निश्चित है कि विश्व के अनेक छोटे और बड़े राष्ट्र अब विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में भारत से महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की आशा करेंगे।
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