भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
____________________
लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन् पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः।
कदाचिदपि पर्यटंछशविषाणमासादयेत् न तु प्रतिनिविश्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-अगर प्रयास करें तो यह संभव है कि रेत में से तेल निकल आये, मृगतृष्णा से ही मनुष्य अपने गले की प्यास शांत कर ले। यह भी संभव है कि ढूंढने से सींग वाले खरगोश मिल जायें। मगर यह संभव नहीं है कि मूर्ख व्यक्ति अगर किसी वस्तु या व्यक्ति पर मोहित हो गया है तो उसका ध्यान वहां से हटाया जा सके।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर किसी व्यक्ति में किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति मोह उत्पन्न हो जाये तो उसका ध्यान वहां से नहीं हटाया जा सकता। आशय यह है कि भौतिक पदार्थों पर मोहित होना मूर्खता का परिचायक है।
श्रीगीता के संदेश के अनुसार पूरा संसार त्रिगुणमयी माया के प्रभाव से मोहित हो रहा है। मन में यह भाव लाना कि ‘मैं कर्ता हूं’ मोह का प्रमाण है। ‘यह मेरा है’ और ‘मैं उसका हूं’ जैसे विचार मन में मौजूद मोह भाव का प्रमाण है।
अपने दैहिक कर्म से प्राप्त धन और प्रतिष्ठा को ही फल मान लेना मोह की चरम सीमा है। विचार करें कि हमें जब कहीं नौकरी या व्यवसाय से धन प्राप्त होता है उसका हम क्या करते हैं?
उस धन को हम परिवार के पालन पोषण के साथ सामाजिक दायित्वों के निर्वाह में ही व्यय करते हैं। अधिक धन है तो उसका संचय कर बैंक आदि में रख देते हैं। वहां उसका उपयोग दूसरे करते हैं। ऐसे में हमारे लिये वह फल कैसे हो सकता है।
फल है आत्मा की तृप्ति। आत्मा की तृप्ति तभी संभव है जब भक्ति, दान और परमार्थ करते हुए हम परमात्मा को इस बात का प्रमाण दें कि उसने हमारी आत्मा को जो देह प्रदान की उसका उपयोग हम उसके द्वारा निर्मित संसार के संचालन में निष्काम भाव से योगदान दे रहे हैं। हमारा पेट कोई दूसरा भर रहा है तो हम दूसरे को भी रोटी प्रदान करें न कि अपने लिये रोटी का जुगाड़ कर उसे फल मान लें।
इस मोह भाव से विरक्त होना आसान नहीं है। इस मूर्ख मन को कोई ज्ञानी भी भारी परिश्रम के बाद ही संभाल पाता है। जिसने मन जीत लिया वही होता है सच्चा योगी।
……………………………..
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
कला, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य, dharm, hindu में प्रकाशित किया गया
|
Also tagged कला, संदेश, समाज, हिन्दी साहित्य, हिन्दू धर्म, dharm, hindu, Religion
|
आवासः क्रियतां गंगे पापहारिणी वारिणि।
स्तनद्वये तरुण्या वा मनोहारिणी हारिणी।।
हिंदी में भावार्थ- मनुष्य या तो पापनाशिनी गंगा के तट पर कुटिया बनाकर रहे या फिर मोतियों की माला धारण किए हृदय में उमंग पैदा करने वाली तरुणियों की संगत करे।
संसारेऽस्मिन्नसारे परिणतितरले द्वे गती पण्डितानां तत्वज्ञानामृताम्भः प्लवललितयां वातु कालः कदाचित्।
नो चेन्मुग्धांनानां स्तनजघनघना भोगसम्भोगिनीनां स्थूलोपस्थस्थलीषु स्थगितकरतलस्पर्शलीलोद्यतानाम्।।
हिंदी में भावार्थ-इस परिवर्तनशील दुनियां में विद्वानो की दो ही गतियां होती हैं। एक तो वह तत्वज्ञान का अमृत रसपात करें या सुंदर स्त्रियों की संगत करते हुए जीवन के समय का सदुपयोग करे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कुछ आधुनिक विद्वान समलैंगिकता के प्रवर्तक बन रहे हैं। उनका कहना है कि समलैंगिकता कोई बुरी बात नहीं है। हो सकता है कि उनकी राय अपनी जगह सही हो पर हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि विद्वान और समझदार आदमी की दो ही गतियां हैं। एक तो यह कि वह तत्वज्ञान का रस लेकर जीवन व्यतीत करे और दृष्टा बनकर इस संसार की गतिविधियों में शामिल होे। दूसरा यह है कि वह सुंदर स्त्री ं के साथ आनंद जीवन व्यतीत करे। यही बात हम स्त्रियेां के बारे में भी कह सकते हैं। जो लोग दावा करते हैं कि वह अधिक शिक्षित हैं और उन्हें पुरानी पंरपरायें बांध नहीं सकती हैं उन्हें यह बात समझ लेना चाहिये कि समलैंगिकता कोई प्राकृतिक संबंध नहीं है। अरे, मनुष्य तो सभी जीवों में समझदार माना जाता है फिर भी वह ऐसे नियमों पर कैसे चल सकता है जिस पर पशु पक्षी भी नहीं चलते।
कभी आप अपने घर में देखें तो अनेक बार चिड़िया और चिड़ा जोड़े के के रूप में साथ आकर अपने लिये तिनके लाते हुए घर बनाते हैं कभी दो चिड़े या दो चिड़िया अपना युगल बनाकर यह काम नहीं करते। अगर हम कहें कि प्राकृतिक के सबसे अधिक निकट भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान हैं और इसलिये इसे यह देश विश्व में अध्यात्मिक गुरु माना जाता है तो गलत नहीं है। प्राचीन भारतीय साहित्य में जिस कार्य का उल्लेख तक नहीं है उसे प्राकृतिक तो माना ही नहीं जा सकता। यहां मनुष्य के लिये दो ही गतियां हैं एक तो यह कि वह तत्वज्ञान का रस पान करे या विपरीत लिंग वाले मनुष्य के साथ रास लीला।
…………………………..
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की शब्दयोग सारथी-पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
adhyatm, अध्यात्म, ज्ञान, धर्म, संदेश, समाज, हिंदी साहित्य, dharm, hindu में प्रकाशित किया गया
|
Also tagged adhyatm, अध्यात्म, ज्ञान, धर्म, संदेश, समाज, हिंदी साहित्य, dharm, hindu
|
पुरा विद्वत्तासीदुषशमतां क्लेशहेतये गता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम्।
इदानीं सम्प्रेक्ष्य क्षितितलभुजः शास्त्रविमुखानहो कष्टं साऽप प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशति।।
हिंदी में भावार्थ-प्राचीन समय में विद्या वह लोग प्राप्त करते थे जो सांसरिक क्लेशों से मुक्त होकर मन की शांति चाहते थे। फिर यह विषयासक्त लोगों के लिये विषय और सुख का साधन बन गयी और अब तो राजा और प्रजा दोनों ही प्राचीन शास्त्रों से एकदम विमुख हो गये हैं। यही कारण है कि यह प्रथ्वी रसातल में जा रही है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समय खराब हो गया है-अक्सर हम लोग यह कहते है। यह सब हमारा भ्रम है। जैसे जैसे हमारे ऋषि और मुनि सत्य की खोज कर प्रस्तुत करते गये हमारा समाज वेसे वैसे हमारा समाज माया की तरफ अग्रसर होते गये हैं। अक्सर हम लोग कहते हैं कि लार्ड मैकाले ने भारतीयों को गुलाम बनाने के लिये वर्तमान शिक्षा पद्धति का विकास किया पर सच तो यह है कि उसने तो केवल खाली जगह भरी है। हम लोग कहते हैं कि हमारे गुरुकुल काफी प्रभावी थे पर सच तो यह है कि वह सीमित रूप से शिक्षा प्रदान करने में समर्थ थे। इसके अलावा वहां सात्विक ज्ञान दिया जाता था। दैहिक ज्ञान भी उतना ही दिया जाता जितना किसी मनुष्य के जीवन में आवश्यक था। सत्य का ज्ञान प्राप्त कर अनेक लोग उसको धारण करते हुए जीवन शांति से व्यतीत करते थे पर इस मायावी संसार में समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग हवा में उड़ना चाहता था। वह विकास-जो विनाश का ही एक रूप है-उसे पाना चाहता था। सत्य स्थिर रहता है और माया दौड़ती है-आदमी का मन उसके साथ भागना चाहता है।
माया के गुलाम बनने को तत्पर इस समाज को लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा प्रणाली प्रदान की जो इस मायावी संसार में दौड़ने के लिये शक्ति प्रदान करती है। अतः यह कहना गलत है कि लार्ड मैकाले ने कोई हमारे समाज के प्रति अपराध किया था। डाक्टर, इंजीनियर,वकील,शिक्षक और प्रबंधक बनने की नौकरी की चाहत ने हमारे समाज को शास्त्रों से विमुख किया यह सोचना ही गलत है। सच तो यह है कि अपने धार्मिक ग्रंथों की कथाओं से ऊब चुके लोगों को चाहिये थी अब विदेशी कहानियां जिसमें आदमी रातो रात लखपति या राजा बन जाता है। हमारा समाज अपने सत्य ज्ञान से विमुख तो भर्तृहरि महाराज के समय में ही हो चुका था। अतः समाज का पतन कोई एक दिन में नहीं हुआ बल्कि यह तो पहले ही प्रारंभ हो चुका था।
……………………………..
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
अध्यात्म, धर्म, हिन्दी साहित्य, हिन्दू, dharm, hindi sahitya में प्रकाशित किया गया
|
Also tagged ahdyam, अध्यात्म, धर्म, हिन्दी साहित्य, हिन्दू, dharm, hindi sahitya
|
भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
——————
पुरा विद्वत्तासीदुषमवतां क्लेशहेतये गता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम्।
इदानी, सम्प्रेक्ष्य क्षितितललभुजः शास्त्रविमुखानहो कष्टं साऽपि प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशति।।
हिंदी में भावार्थ-प्राचीन काल में वह लोग विद्याध्ययन करते थे जो मानसिक तनाव से मुक्ति चाहते थे। बाद में ऐसे लोगों ने इसे अपना साधन बना लिया जो उससे विद्वता अर्जित कर विषय सुख प्राप्त करना चाहते थे। अब तो लोग उससे बिल्कुल विमुख हो गये हैं। उनको पढ़ना तो दूर सुनना भी नहीं चाहते। राजा लोग भी इससे विमुख हो रहे हैं। इसलिये यह दुनियां पतन के गर्त में जा रही है जो कि कष्ट का विषय है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- हमारे प्राचीन मनीषियों ने अपनी तपस्या और यज्ञों से जो ज्ञान अर्जित कर उसे शास्त्रों में दर्ज किया वह अनूठा है। इसी कारण विश्व में हमें अध्यात्म गुरु की पहचान मिली। अनेक ग्रंथ आज भी प्रासंगिक विषय सामग्री से भरपूर हैं पर लोग हैं कि उसे सुनना नहीं चाहते। पहले जहां लोग ज्ञानार्जन इसलिये करते थे ताकि उससे अपने जीवन को सहजता पूर्वक व्यतीत कर सकें। बाद में ऐसे लोग बढ़ने लगे जो उनका ज्ञान रटकर दूसरों को सुनाने का व्यापार करने लगे। उनका मुख्य उद्देश्य केवल अपने लिये भोग विलास की सामग्री जुटाना था। अब तो पूरा समाज ही इन शास्त्रों से विमुख हो गया है हालांकि ज्ञान का व्यापार करने वालों की संख्या में कोई कमी नहीं और उनके लिये तो पौ बाहर हो गया है। इसका कारण यह है कि लोगों को अपने शास्त्रों की रचनाओं का जरा भी आभास नहीं है। आज के तनाव भरे युग में लोग जब वह किसी के श्रीमुख से उन शास्त्रों के अच्छे वाक्य सुनते हैं तो प्रसन्न हो जाते हैं और फिर वक्ताओं को गुरु बनाकर उन पर चढ़ावा चढ़ाते हैं। ऐसा करने की बजाय लोग शास्त्रों का अध्ययन इसलिये करें ताकि उसके ज्ञान से उनके मन का तनाव कम हो सके तो अच्छा हो।
वैसे आजकल लोग शिक्षा इसलिये प्राप्त कर सकें ताकि उससे किसी धनपति की गुलामी करने का सौभाग्य मिले। यह सौभाग्य कई लोगों को मिल भी जाता है पर तनाव फिर भी पीछा नहीं छोड़ता। हमारे देश में लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया जिससे गुलाम पैदा हों और गुलाम कभी सुखी नहीं रहते। वैसे यह आरोप लगाना गलत है कि लार्ड मैकाले ने ही ऐसा किया। राजा भर्तृहरि के संदेशों को देखें तो उनके काल में ही समाज अपने शास्त्रों से विमुख होने लगा था। इसलिये इस बात को ध्यान में रखकर विचार करना चाहिये कि हमने विषयों में आसक्ति के कारण शास्त्रों से मूंह फेरा है न कि विदेशियों के संपर्क के कारण! हमारे शास्त्रों का ज्ञान जीवन में तनाव से मुक्ति दिलाता है इसलिये उनका निरंतर अध्ययन करना चाहिये।
…………………………
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
|
adhyatm, अध्यात्म, धर्म, हिंदी साहित्य, हिंदू, hindi article, hindu dharm में प्रकाशित किया गया
|
Also tagged adhyatm, अध्यात्म, धर्म, शास्त्र, हिंदी साहित्य, हिंदू, hindi article, hindu dharm
|