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हिन्दी अंग्रेजी का मिक्चर-हिन्दी व्यंग्य कविता (hindi aur inglish ka mixer-hindi vyangya kavita)


हिन्दी बोले बिना कान नहीं चलता,
अंग्रेजी में न बोलें तो दिल जलता।
आधी हिन्दी आधी अंग्रेजी बोलकर
हर कोई युवा मन खुद ही बहलता।
भाषा के मिक्चर से गूंगा बना ज़माना
देख कर हमारा दिल हर रोज दहलता।
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अखबार आज का ही है
खबरें ऐसा लगता है पहले भी पढ़ी हैं
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

ट्रेक्टर की ट्रक से
या स्कूटर की बस से भिड़ंत
कुछ जिंदगियों का हुआ अंत
यह कल भी पढ़ा था
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

भाई ने भाई ने
पुत्र ने पिता को
जीजा ने साले को
कहीं मार दिया
ऐसी खबरें भी पिछले दिनों पढ़ चुके
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

कहीं सोना तो
कहीं रुपया
कहीं वाहन लुटा
लगता है पहले भी कहीं पढ़ा है
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

रंगे हाथ भ्रष्टाचार करते पकड़े गये
कुछ बाइज्जत बरी हो गये
कुछ की जांच जारी है
पहले भी ऐसी खबरें पढ़ी
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

अखबार रोज आता है
तारीख बदली है
पर तय खबरें रोज दिखती हैं
ऐसा लगता है पहले भी भी पढ़ी हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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यह बिग बॉस नाटक या धारावाहिक देशप्रेम रखने वालों के लिये नहीं है-हिन्दी व्यंग्य (Big Boss natak ya dharavahik aur deshprem-hindi vyangya)


कहा जाता है बद अच्छा बदनाम बुरा-हमें पता नहीं यह कहावत उल्टी भी हो सकती है। मतलब आदमी बुरा हो पर बदनाम नहीं होना चाहिए। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि अपने में कोई बुराई हो पर उसकी चर्चा बाहर नहीं होना चाहिऐ। लब्बोलुआब यह कि बदनाम नहीं होना चाहिए। लगता है अब यह कहावत अब उलट देना चाहिये या फिर यह कहना करें कि बद अच्छा तो उससे अच्छा बदनाम है।
कम से कम टीवी चैनल में बदनाम लोगों को अभिनय करने को लेकर चल रहे विवाद से तो ऐसा लगता है कि अब नयी पीढ़ी यह भी सोचेगी कि कोई ऐसा काम किया जाये जिससे बदनाम होने पर कहीं  किसी टीवी चैनल पर अपना थोबड़ा दिखाने का अवसर तो मिल ही जायेगा। पूरे देश पर आक्षेप करना ठीक नहीं है पर कुछ कमजोर दिमाग के लोग ऐसे हैं जो पद, प्रतिष्ठा और पैसा पाने के लिये कुछ भी गलत सीख सकते हैं। एक चैनल है जिसमें एक पुराने चोर, आतंकवादियों के वकील तथा एक समलैंगिक को शामिल किया गया है। हम अपने व्यंग्य या आलेख में किसी का नाम इसलिये नहीं लिखते क्योंकि अप्रायोजित लेखक हैं और किसी का बिना पैसे लिये प्रचार करना अपनी शान के खिलाफ है-भले ही आलोचनात्मक टिप्पणियों से वह भरा हो। वैसे तो अब तो हमें लगने लगा है कि यहां कुछ लोग प्रसिद्ध होने के लिये अपनी आलोचना पैसा देकर करवाते हैं। चैनलों पर चले रहे धारावाहिकों के नाम लेकर उनकी आलोचना करना भी हमें  प्रायोजित करने जैसा  लगता है। बहरहाल जिस चैनल के जिस धारावाहिक की हम चर्चा कर रहे हैं उसका हिन्दी नामकरण  करते हैं ‘बड़ा मुखिया’। यह नाम इसलिये किया क्योंकि उस चैनल के नाटक की पृष्ठभूमि घर पर ही आधारित है। इसमें पहले ऐसे प्रसिद्ध लोगों को शामिल किया गया जिन पर दुर्भाग्यवश (?)बदनामी का धब्बा लगा-कुछ के लिये कहा गया कि उनका अपराध बालपन की नादानी से हुआ। कुछ ऐसे लोग भी उसमें आये जो जीतने के बाद बदनाम हुए, यानि उनमें ऐसे गुण पहले से मौजूद थे।
अब यह चैनल अपना धारावाहिक बड़े प्रचार से दिखा रहा है। इसमें पाकिस्तान से भी बदनाम लोग मंगवाये गये हैं। हम बहुत समय पहले से कहते रहे हैं कि टीवी चैनलों के अदृश्य प्रायोजक बहुत सारे धंधों में हैं। दुनियां भर के व्यापार में अब काले सफेद धंधे का प्रश्न नहीं रहा और सभी प्रचार माध्यमों पर अपनी पकड़ बनाये हुए हैं । अब तो समाज में ही यह हालत है कि जिसके पास धन है वही सेठ और समाज का भाई कहलाता है-अब भाई कहिने भी हो सकता है, भारत हो  या पाकिस्तान। सारी व्यवस्था के साथ ही सारे प्रचार माध्यमों पर उनकी श्रेष्ठता प्रमाणिक हैं चाहे भले ही बदनाम हों। क्रिकेट, फिल्म और टीवी चैनलों का घालमेल हो गया है। पाकिस्तान की एक फिल्मी नायिका ने वहां के क्रिकेट खिलाड़ी पर फिक्सर होने का आरोप लगाया था। उस समय हमें हैरानी हुई क्योंकि वह ऐसा कर धनपतियों से बैर ले रही थी-आर्थिक उदारीकरण से धनपति अब कंपनियों के पीछे अदृश्य होकर काम करते हैं इसलिये अब यह प्रश्न नहंी रहा कि कौनसा सेठ कहां का है? अब समझ में आया कि संभवतः उस अभिनेत्री को भारतीय चैनल में लाने के लिये यही फिक्सिंग प्रकरण या नाटक  ब्रिटेन में रचा गया होगा। चूंकि ब्रिटेन इसमें शामिल है इसलिये किसी का शक हो न हो पर अब हमें होने लगा है क्योंकि आर्थिक उदारीकरण के चलते अपराध का भी वैश्वीकरण होता जा रहा है अंग्रेज भला कौन से दूध के धुले हैं-पैसा कमाने के लिये ही तो भारत आये थे। चूंकि चैनलों की भूमिका पहले से ही बननी होती है इसलिये कोई बड़ी बात नहीं कि उसके एक भावी को प्रसिद्ध दिलाने के लिये पाकिस्तानी क्रिकेट को पकड़ा गया और फिर उस अभिनेत्री से बयान दिलाया गया। संभव है कि वह अभिनेत्री अधिक रहस्य न खोले इसलिये भी उसे भारतीय चैनल में काम दिलाया गया हो। बहरहाल एक फिक्सर की पुरानी दोस्त होने की बदनामी उसने पहले मोल ली और भारत में उसका नाम भी तभी आया। इधर नाम आया और उधर चैनल में उसको काम मिल गया।
जितने भी आकर्षक व्यवसाय हैं वह अब आर्थिक शिखर पुरुषों के हाथ में हैं और अगर जार्ज बर्नाड शॉ की बात पर यकीन किया जाये तो बिना बेईमानी के कोई भी अमीर नहीं  बन सकता। ऐसे में अपने ही संरक्षण में वह बदनाम लोगों को संरक्षण देते हुए उसके नकदीकरण का अवसर भी यह सेठ लोग नहीं चूकते। भला कोई व्यापारी अपनी चीज़ को खराब बताता है! एक नहीं तो दूसरे ग्राहक को बेच ही देता है। ऐसे में कोई फिल्म में बदनाम हुआ हो या क्रिकेट में चल जायेगा मगर चोर और डकैत भी चल जायेंगे! क्या माने? ऐसे लोग भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों ने पहले से ही प्रायोजित कर रखे हैं। हम बहुत समय से कहते रहे हैं कि व्यवसायिक संस्थान या व्यवस्थापक प्रतिष्ठानों में आर्थिक शिखर पुरुषों के अनेक लोग मुखौटे की तरह हैं जो सज्जनता से काम करते दिखते हैं तो क्या अब यह भी मान लें कि अपराधिक जगत में भी अब मुखौटे आने लगे हैं। क्या अब यह तय हो गया कि आतंकवाद भी अब आर्थिक शिखर पुरुषों के मुखौटे ही फैला रहे हैं। ऐसे में अपराध और आतंक से प्रत्यक्ष जुड़े लोग वाकई मासूम लगते हैं मगर ऐसे में हर आर्थिक शिखर पुरुष संदेह की परिधि में आता जायेगा। माना जायेगा कि हर छोटे बड़े अपराध और आतंक का असली जिम्मेदार कोई न कोई आर्थिक पुरुष ही है। तब यह भी होगा कि हर आर्थिक शिखर पर विराजमान हर पुरुष समाज के लिये संदिग्ध होगा क्योंकि यह माना जाने लगेगा कि इसके खिलाफ तो कभी सबूत मिल ही नहीं सकता पर यह अपराध में लिप्त जरूर होगा।
मुद्दा यह भी है कि क्या ऐसे प्रसारण पर रोक लगनी चाहिए। हम अब भी कहेंगे नहीं। हमारे कुछ मित्र इस जवाब पर नाराज हो सकते हैं क्योंकि आतंकवादियों तथा अपराधियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी, सामाजिक न्याय, शोषण से मुक्ति तथा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर बौद्धिक संरक्षण देने वाले बहुत सारे बुद्धिजीवी इस देश में है और कम से कम हमने ही दसियों बार उन पर प्रतिकूल टिप्पणियां करते हुए अपने पाठ लिखे हैं। तब ऐसा क्या है जो हम अभिव्यक्ति के नाम पर इस प्रसारण को रोकने के खिलाफ हैं?
हम तो दूसरी बात कह रहे हैं कि जिस तरह बीड़ी सिगरेट और शराब के डिब्बों पर लिखा रहता है कि इनका सेवन शरीर के लिये हानिकारक है उसी तरह पाकिस्तानी अभिनेता अभिनेत्रियों के अभिनय वाले धारावाहिकों का  प्रचार करने वाले विज्ञापनों पर ही यह लिखना होना चाहिए कि ‘देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत या देशप्रेम रखने वाले लोगों को यह धारावाहिक नहीं देखना चाहिए।’
इससे कुछ लोगों की भवनें आहत होने से बच जाएँगी। उसी तरह बदनामशुदा लोगों के धारावाहिकों के विज्ञापनों में भी यह लिखना चाहिये कि ‘यह सभ्य और सज्जन भाव रखने वालों को नहीं देखना चाहिये और न बच्चों को देखने देना चाहिऐ।
इससे लोग स्वयं ही बच्चों के बिगड़ने के दर से वह चैनल धारावाहिक के समय बंद रखेंगे ।  चेतावनी लिखी होने पर लोगों को कार्यक्रम प्रसारित होने का अफसोस कम होगा।  जिस तरह बीडी,सिगरेट और शराब की बोतल पर चेतावनी होने पर उसके बिकने का अफसोस कम होता है।
एक बात जो अभी तक हमारी समझ में नहीं आती। आखिर दक्षिण एशिया में एकता के नाम पर हमारे पास केवल पाकिस्तान का नाम ही क्यों आता है? सच मानिए पाकिस्तान के आम आदमी से हमारा कोई बैर नहीं है मगर वहां के बदनामशुदा लोग ही यहां क्यों आकर प्रचार पाते हैं? यह हमारी समझ में नहीं आता। मजे की बात यह है कि इनसे कई सभ्य चेहरे वाले मुखौटे मिलकर कहते हैं कि ‘यह तो खेल और फिल्म सें संबंधित मुलाकात है।’
पाकिस्तान के क्रिकेट फिक्सरों को भारत आने का वीज़ा बहुत जल्दी मिल जाता है। यह भी चर्चा का विषय बनता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सफेद काले का घालमेल हो गया है। ऐसे में नैतिकता की मांग कमजोर जरूर हुई है पर मरी नहीं है क्योंकि जो लोग अपराध और आतंक के मुखौटो को अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो बुद्धिजीवी लेखक सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर
खलनायक की बजाय नायक की तरह प्रतिपादित करते हैं वह भी नैतिक आदर्शों की बात तो करते यह अलग बात है कि आर्थिक उदारीकरण के साथ ही अपराध और आतंक के वैश्वीकरण के विषय से मुख क्यों मोड़ लेते हैं? इसलिये ही न कि वह सभी भी प्रायोजित हैं। उससे भी मजे की बात है कि पूंजीवाद के विरोधी बुद्धिजीवी इस खेल को तो इस तरह अनदेखा करते हैं जैसे कि कोई लेना देना ही न हो-होते तो वह भी प्रायोजित हैं पर कभी कभी सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भावनाओं की बात वह भी करते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर होने के बावजूद सरकारी डंडे के सहारे सारे कल्याण का सपना भी वही पालते हैं।
एक धारावाहिक से कुछ बनता बिगड़ता नहीं है क्योंकि हमारे देश का अध्यात्मिक स्वरूप बहुत दमदार है। अगर खान पान ठीक होने के साथ उनका सेवन सीमित हो तो बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू और शराब जैसे व्यवसनों का भी दुष्प्रभाव कम हो जाता है-रोका बिल्कुल नहीं जा सकता यह बात तय है-उसी तरह बच्चों का मन मस्तिष्क मज़बूत हो वह ऐसे चैनलों को नहीं देखेंगे पर फिर भी इन चैनलों के ऐसे धारावाहिकों का वर्गीकरण तो करना ही होगा। कम से कम हमारी यह मांग आज़ादी की अभिव्यक्ति पर प्रहार नहीं करती यह निश्चित है।

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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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अयोध्या में राम मंदिर और राम-हिन्दी कविता (ayodhya mein ram mandir aur ram-hindi poem)


उन्होंने कहा कि
‘तुम अयोध्या के राम मंदिर पर लिखो
उस पर फैसला होने वाला है
जरूर इससे सनसनी फैल जायेगी
तुम्हारी प्रसिद्ध होने भूख भी तभी शांत हो पायेगी।’
मुझे तब अपने घर रखी राम की
तस्वीर दिखाई दी
जिसमें मेरे पूज्य मुस्करा रहे थे
बरबस मैं भी मुस्करा दिया
जैसे इष्ट ने आनंद के झूले में झुला दिया।
मुझे नहीं लगा कि
मेरी कलम इन क्षणो पर अभिव्यक्त हो पायेगी।
मेरे मन में जो हर पल विचरे हैं
उनके प्रति आस्था के बीज
रक्त के कण कण में बिखरे हैं,
अमूर्त रूप से बसे हैं जो आंखों में
तस्वीरों जितने चेहरे भी हैं लाखों में
उनके स्मरण से बढ़ती हुई ताकत
खड़ा कर देती है ज़िदगी के खुशनुमा पलों के सामने
शीतल होती जा रही देह की उंगलियां
ऐसे में कहां आग उगल पायेंगी।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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विकास का मुखौटा-हिन्दी व्यंग्य कविता (vikas ka mukhauta-hindi satire poem)


दूसरों के घर की रौशनी चुराकर
अंधेरों को वहां सुलाने लगे,
नौनिहालों के दूध में जहर मिलाकर
अपनी दौलत से अपना कद
ज़माने को दिखाने के लिये
ऊंचा उठाने लगे।
इंसानों जैसे दिखते हैं वह शैतान
पेट से बड़ी है उनकी तिजोरी
जंगलों की हरियाली चुराकर
भरी है नोटों से उन्होंने अपनी बोरी,
अब गरीबी और बेबसी को
विकास का मुखौटा पहनाकर बुलाने लगे।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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ज्योतिष, नववर्ष और सितारे- नये वर्ष पर विशेष लेख (hindi satire on new year 2010)


धरती के सितारों को अपने सितारों की फिक्र नहीं जितनी कि उनके चेहरे, अदायें और मुद्रायें बेचने वालों को है। धरती के बाकी हिस्से का नहीं पता पर भारतीय धरती के सितारे तो दो ही बस्तियों में बसते हैं-एक है क्रिकेट और दूसरी है फिल्म। यही कारण है कि टीवी चैनल ज्योतिषियों को लाकर उनका भविष्य अपने कार्यक्रमों में दिखा रहे हैं। समाचार चैनलों को कुछ ज्यादा ही फिक्र है क्योंकि वह नव वर्ष के उपलक्ष्य में कोई प्रत्यक्ष कार्यक्रम नहीं बनाते बल्कि मनोरंजन चैनलों से उधार लेते हैं। इसलिये अगर इस साल का आखिरी दिन का समय काटना कहें या टालना या ठेलना उनके लिये दुरुह कार्य साबित होता दिख रहा है।
उनको इंतजार है कि कब रात के 12 बजें तो नेपथ्य-पर्दे के पीछे-कुछ संगीत को शोर तो कुछ फटाखों के स्वर से सजी पहले से ही तैयार धुनें बजायें और उसमें प्रयोक्ताओं को आकर्षित अधिक से अधिक संख्या में कर अपने विज्ञापनदाताओं को अनुग्रहीत करें-अनुग्रहीत इसलिये लिखा क्योंकि विज्ञापनदाताओं को तो हर हाल में विज्ञापन देना है क्योंकि उनके स्वामियों को भी इन समाचार चैनलों में अपने जिम्मेदार व्यक्तित्व और चेहरे प्रचार कराना है। इस ठेला ठेली में एक दिन की बात क्या कहें पिछले एक सप्ताह से सारे चैनल जूझ रहे हैं-नया वर्ष, नया वर्ष। ऐसे में समय काटना जरूरी है तो फिर क्रिकेट और फिल्म के सितारों का ही आसरा बचता है क्योंकि उनके विज्ञापनों में अधिकतर वही छाये रहते हैं।
अगर किसी सितारे की फिल्म पिट जाये तो भी उनके विज्ञापन पर गाज गिरनी है और किसी क्रिकेट खिलाड़ी का फार्म बिगड़ जाये तो भी उनको ही भुगतना है-याद करें जब 2007 में पचास ओवरीय क्रिकेट मैचों की विश्व कप प्रतियोगिता में भारत हारा तो लोगों के गुस्से के भय से सभी ने उनके अभिनीत विज्ञापनों कोे हटा लिया था और यह तब तक चला जब भारत को बीस ओवरीय क्रिकेट प्रतियोगिता जीतने का मौका नहीं दिया गया! उस समय बड़े बड़े नाम गड्ढे में गिर गये लगते थे पर फिर अब वही सामने आ गये हैं। जिनके भविष्य पूछे जा रहे हैं यह वही हैं जिनका 2007 में दस महीने तक लोग चेहरा तक नहीं देखना चाहते थे।
हैरानी होती है यह सब देखकर! कला, खेल, साहित्य, पत्रकारिता तथा अन्य आदर्श क्षेत्रों पर बाजार अपने हिसाब से दृष्टि डालता है और उस पर आश्रित प्रचार माध्यम वैसे ही व्यवहार करते हैं।
उद्घोषक पूछ रहा है कि ‘अमुक खिलाड़ी का नया वर्ष कैसा रहेगा?’ज्योतिषी बता रहा है‘ ग्रहों की दशा ठीक है। इसलिये उनका नया साल बहुत अच्छा रहेगा।’
नेपथ्य में बैठा प्रचार प्रबंधक चैन की सांस ले रहा होगा-‘चलो, यार इसके विज्ञापन तो बहुत सारे हैं। इसलिये अपने ग्रह अच्छे हैं।’
फिर ज्योतिषी दूसरे खिलाड़ी के बारे में बोल रहा है-‘उसके ग्रह भारी हैं। अमुक ग्रह की वजह से उनके चोटिल रहने की संभावनायें हैं, हालांकि इसके बावजूद उनका प्रदर्शन अच्छा रहेगा।’
प्रचार प्रबंधक ने सोचा होगा-‘अरे यार, ठीक है चोटिल रहेगा तो भी खेलेगा तो सही! अपने विज्ञापन तो चलते रहेंगे। हमें क्या!
तीसरे खिलाड़ी के बारे में ज्योतिषी जब बोलने लगा तो उसके अधरों पर एक मुस्काल खेल गयी-शायद वह सोच रहे थे कि सारी दुनियां इस खिलाड़ी के भविष्यवाणी का इंतजार कर रही है और वह अपने मेहमान चैनल के सभी लोगों का खुश करने जा रहे हैं। वह बोले-‘यह खिलाड़ी तो स्वयं ही बड़ा सितारा है। इसके पास अभी साढ़े तीन साल खेलेने के लिये हैं। यह भी बढ़िया रहेंगे!’
उदुघोषक भी खुश हो गया क्योंकि उसे लगा होगा कि नेपथ्य में बैठा प्रचार प्रबंधक इससे बहुत उत्साहित हुआ होगा। वह बीच में बोला-‘वह सितार क्या अगले वर्ष भी ऐसे ही कीर्तिमान बनाता रहेगा, जैसे इस साल बना रहा है।’
ज्योतिषी ने कहा-‘हां!’
वहां मौजूद सभी लोगों के चेहरे पर खुशी भरी मुस्कान की लहरें खेलती दिख रही थीं।
हमें भी याद आया कि हम पुराने ईसवी संवत् से नये की तरफ जा रहे हैं इसलिये बाजार और प्रचार के इस खेल में बोर होने से अच्छा है कि अपना कुछ लिखें। हमारी परवाह किसे है? हम ठहरे आम प्रयोक्ता! आम आदमी! विदेशों का तो पता नहीं पर यहां बाजार अपनी बात थोपता है। ऐसे ज्योतिष कार्यक्रम तीन महीने बाद फिर दिखेंगे जब अपना ठेठ देशी नया वर्ष शुरु होगा पर उस समय इतना शोर नहीं होगा। बाजार ने धीरे धीरे यहां अपना ऐजेंडा थोपा है। अरे, जिसे वह कीर्तिमान बनाने वाला सितारा कह रहे हैं उसके खाते में ढेर सारी निजी उपलब्धियां हैं पर देश के नाम पर एक विश्व कप नहीं है।
सोचा क्या करें! इधर सर्दी ज्यादा है! बाहर निकल कर कहां जायें! ऐसे में अपना एक पाठ ठेल दें। अपना भविष्य जानने में दिलचस्पी नहीं है क्योंकि डर लगता है कि कोई ऐसा वैसा बता दे तो खालीपीली का तनाव हो जायेगा। जो खुशी आयेगी वह स्वीकार है और जो गम आयेगा उससे लड़ने के लिये तैयार हैं। फिर यह समय का चक्र है। न यहां दुःख स्थिर है न सुख। अगर हम भारतीय दर्शन को माने तो आत्मा अमर है इसका मतलब है कि जीवन ही स्थिर नहीं है मृत्यु तो एक विश्राम है। ऐसे में उस सर्वशक्तिमान को ही नमन करें जो सभी की रक्षा करता है और समय पड़ने पर दुष्टों का संहार करने के लिये स्वयं प्रवृत्त भी होता है।
बहरहाल याद तो नहीं आ रहा है पर उस दिन कहीं सुनने, पढ़ने या देखने को मिला कि कुंभ राशि में बृहस्पति महाराज का प्रवेश हो रहा है। बृहस्पति सबसे अधिक शक्ति शाली ग्रह देवता हैं और वाकई उसके बाद हमने महसूस किया जीवन के कमजोर चल रहे पक्ष में मजबूती आयी। वैसे नाम से हमारी राशि मीन पर जन्म से कुंभ है। इन दोनों का राशिफल करीब करीब एक जैसा रहता है। हमारे सितारों की फिक्र हम नहीं करते पर दूसरा भी क्यों करेगा क्योंकि हम सितारे थोड़े ही हैं। यह अलग बात है कि सितारे अपने सितारों की फिक्र नहीं भी करते हों-इसकी उनको जरूरत भी क्या है-पर उनके सहारे धन की दौलत के शिखर पर खड़ा बाजार और उसके सहारे टिका प्रचार ढांचे से जुड़े लोगों को जरूर फिक्र है वह भी इसलिये क्योंकि वह बिकती जो है।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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हिन्दू धर्म संदेश-बड़ा वही है जो गरीब पर कृपा करे (garib par kripa karen-hindu dharm sandesh)


जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग

कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है। जब तक समाज का धनी तबका गरीब पर दया नहीं करेगा तब तक आपसी वैमनस्य कभी ख़त्म नहीं हो सकता है।


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://terahdeep.blogspot.com

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लिखने की बीमारी जो है-व्यंग्य आलेख (likhne ki bimari-hindi hasya vyangya)


अंतर्जाल पर रचनाकर्म कोई आसान काम नहीं है। जो लेखक, कलाकर या कार्टूनिस्ट स्वयं न लिखकर दूसरे को अपनी रचनायें प्रस्तुत करने के लिये देते हैं वह पाठकों की अभद्र टिप्पणियों से बच जाते हैं। एक तो दूसरी वेबसाईट या ब्लाग का लेखक उनको बताता नहीं होगा कि तुम्हारी रचना पर इस तरह की टिप्पणी आई है और अगर बतायेगा भी तो सोचेंगे कि कौन हमने सीधे यह अभद्र टिप्पणी का दर्द झेला है।
इसी कारण जो मौलिक स्वतंत्र लेखक तथा कलाकार हैं उनके सामने यह समस्या तो आने वाली है क्योंकि कलाकार, कहानीकार, व्यंग्यकार, निबंधकार तथा कवि तो बहुत भावुक होते हैं। ऐसा हो सकता है कि कोई एक टिप्पणी ही किसी लेखक का अंतर्मन हिला दे कि वह उसे फिर न संभाल सके।
दरअसल यह समस्या केवल लेखन से जुड़े ब्लाग पर ही नहीं बल्कि गीत, संगीत तथा तकनीक विषयों पर भी है। इंटरनेट पर कई ऐसी वेबसाईटें और ब्लाग हैं जो गाली गलौच वाली टिप्पणियों से भरे पड़े हैं। एक बात देखकर आश्चर्य होता है कि उनको वहां से उसके स्वामियों ने हटाया भी नहीं है। संभवतः वह उस सामग्री पर उनका स्वामित्व नहीं है वरना संबंधित कलाकार, लेखक गायक या गायिका उसे देख ले तो वह यकीनन मानसिक यंत्रणा का अनुभव करेगी।
इधर एक वरिष्ठ ब्लाग लेखक की इसी संबंध में एक जगह टिप्पणी पढ़ी। उन्होंने लिखा कि ‘लोग तो यह लिख जाते हैं कि यह क्या कूड़ा लिखा है। हम भी कह देते हैं कि भई हम तो गधे हैं और अपनी जाति वालों के लिये लिख रहे हैं।’
वह भी हमारी तरह लेखक हैं तो उनकी इस सदाशयता ने हमारा आत्म्विश्वास बढ़ाया। इधर कुछ दिनों से हमारे सामने भी ऐसी टिप्पणियां आ रही हैं। तब हम सोच रहे थे कि ‘यार, एक तो मुफ्त में मेहनत कर रहे हैं। अनेक बार राह चलते या काम करते हुए कोई विषय आता है तो कितनी मेहनत से अपने दिमाग में सुरक्षित-कंप्यूटर की भाषा में कहें कि सेव-करते है। अब हमारा दिमाग कंप्यूटर तो है नहीं है कि उसकी तरह सामने प्रदर्शित-डिस्प्ले-कर दे। फिर हाथ की बजाय बड़ी मेहनत से टाईप करते हैं। ऐसे में संभव है कि हास्य रचना चिंतन नुमा और कविता गद्यनुमा हो जाती हो। लिख लिया तो फिर उसे रख नहीं सकते। ब्लाग/पत्रिका पर ठेलना-प्रकाशित करना-ही है। जितने शब्द हमारी कविता में है उतने तो वह टिप्पणीकार लिखने में दो दिन लगा देंगे जो लिखते हैं कि यह मूर्खतापूर्ण रचना है या यह कविता नहीं है या यह व्यंग्य नहीं है। हमने देखा है कि एस.एम.एस लिखने वालों की हालत क्या होती है। अनेक कंप्यूटर प्रेमी एक उंगली से एक एक अक्षर देखकर टाईप करते हैं। हम जितना बड़ा गद्य लिखते हैं उतना तो इस देश में बहुत कम ही लिखने वाले होंगे। मगर पढ़ने वालों को समझ कितनी है यह भी देख चुके हैं। देश, भाषा, समाज और धर्म के नाम पर जो नारे उन्होंने सुने हैं उससे आगे उनका सोच जा ही नहीं सकता। ऐसी टिप्पणियां देखकर उन पर ही हमें दया आती है। फिर तो यही कहते हैं कि हम तो गधे हैं और अपनी जाति वालों के लिये ही लिख रहे हैं। याद, रखिये गधा शब्द सुनकर सभी को बुरा लगता है पर परिश्रम के मामले में किसी अन्य जीव की उससे तुलना नहीं है। हमारे वह वरिष्ठ लेखक भले ही अपने को गधा केवल दिखाने के लिये बोले हों हम तो मन से अपने को गधा मानने लगे हैं। वरना तो कभी कभी इतना गुस्सा आता है कि सारे ब्लाग उड़ा दो। हम मेहनत किसके लिये कर रहे हैं। इन टेलीफोन कंपनियों के लिये जो इंटरनेट कनेक्शनों से पैसा कमाती हैं और खर्च करती हैं फिल्मी अभिनेताओं, अभिनेत्रियों तथा क्रिकेट खिलाड़ियों पर विज्ञापन के रूप में। जिस कंपनी का हमारे पास कनेक्शन है वह तो अब क्रिकेट प्रतियोगिता का आयोजन भी कर रही है। दरअसल इस क्रिकेट ने देश का सत्यानाश कर दिया है। बीसीसीआई की टीम जब हारती है तब लोग उसके लिये तमाम तरह की कटु भाषा का प्रयोग करते हैं। कोई खिलाड़ी जल्दी आउट हो जाता है तब भी गालियां निकालकर अपना गुस्सा ठंडा करते हैं। यह करते करते इंटरनेट पर भी उनकी यही आदत हो गयी है। यह हम इसलिये कह रहे हैं क्योंकि क्रिकेट मैच वाले दिन हमारा ब्लाग पिट जाते हैं।
हमें पढ़ने वाले भी इन्हीं टेलीफोन कंपनियों को पैसा देते हैं जैसे कि हम। यह तो लिखने की पुरानी बीमारी है जिसका इलाज तो लिखना ही है।
बहरहाल एक बात हम अपने देश के लोगों को बता देना चाहते हैं कि इससे विश्व में अपने देश की छबि खराब होगी। आप जो ब्लाग देख रहे हैं वह किसी अन्य भाषा में पढ़ा जा सकता है क्योंकि अनुवाद टूल इस काम को आसान करते जा रहे हैं। जब हिंदी के ब्लाग ख्याति प्राप्त करेंगे तब यह अभद्र टिप्पणियों पूरे विश्व में हमारी छबि खराब करेंगी यह सोच लेना। हम तो गधे ठहरे सब झेल जायेंगे पर जब आगे चलकर अखबारों में अपनी इसी छबि की चर्चा पढ़ोगे तो तिलमिलाओगे क्योंकि तुम तो इंसान हो न! वैसे गधे की दुलती पड़ जाये तो आदमी हिल जाता है। अगर हम अपने बीस ब्लाग उड़ा दें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा बस यह है कि मित्र लोगा निराश होंगे और हम ऐसे गधे हैं कि धोबी के गधे की तरह उनको छोड़ नहीं सकते। अलबत्ता गुस्सा कुछ भी करा सकता है।
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कहीं ढूढें भाभी, ढूंढे साली, पसंद न आये घरवाली-हास्य व्यंग्य कविता (bhabhi, sali aur gharwali par vyangya kavita


साली और भाभी पर जो
कोई ख्याली शेर लिखा
पढ़ते हुए उसे लोगों का ढेर दिखा।
जो बयान किये दर्द जमाने के
उसे पढ़ने से कतराये सभी
कैसा यह फेर दिखा।
……………………….

जिनके दिल में दर्द है
भला वह उससे सजे शब्द पढ़कर
क्या पायेंगे
जिनके दिमाग और घर हैं
खुशी और दुःख से खाली
वह ढूंढ रहे हैं किताबों और कंप्यूटर पर
कल्पित साली और भाभी
मनोरंजन घर की है उनके लिये यही चाभी
बढ़ गयी है पूरी दुनियां
देश के जवान अभी पीछे हैं
सीख ली अंग्रेजी
पहुंच गये ऊपर पर
नजरें अभी भी नीचे हैं
अपनी कभी रास न आये घरवाली
कहीं ढूंढे भाभी तो कहीं साली
बरसों पहले भी यही था
अब भी यही चला रहा है
जमाने में कभी नहीं फेर दिखा
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सविता भाभी और कविता भाभी का झगड़ा-हास्य व्यंग्य (savita bhabhi aur kavita bhabhi ka jhagda)


कविता सजधज तैयार हो गयी। उसका पति कवि बाहर स्कूटर पर खड़ा उसका इंतजार कर रहा था। उसे तैयार होता देख सविता अंदर ही अंदर सुलग रही थी। उसके समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपना गुस्सा कहां प्रकट करे। उसका पति तो ब्लागर था जिसे अपने छोटे भाई की तरह कवि सम्मेलन में आना जाने से मतलब नहीं था। बस कंप्यूटर पर वह लिखता था।
इधर कविता सजधजकर कवि सम्मेलन में जा रही थी। वहां उसका कवि-यानि ब्लागर का छोटा भाई-कवितायें सुनाने वाला था। यह कवितायें उसे कंप्यूटर पर बैठकर भाई के ब्लाग से ही निकाली थी। इस बात ने सविता को और अधिक चिढ़ा दिया था।
इधर कविता ने एक पर्स उठाया जिस पर सविता का लेबल लगा हुआ था। बस सविता को अवसर मिल गया।
उसने कड़ककर देवरानी से पूछा‘-यह पर्स पर मेरे नाम का लेबल क्यों लगा रखा है।’
कविता ने कहा-सविता भाभी, यह तो बाजार से खरीदा है। इस पर ऐसे ही लेबल लगा हुआ है। लेबल तो किसी भी नाम का भी हो सकता है।’
सविता चिल्ला पड़ी-‘समझती हूं सब! इंटरनेट पर मेरा नाम ‘सविता भाभी’ बहुत मशहूर है। तुम कवि सम्मेलन में जाकर लोगों को यह बताओगी कि मेरी जिठानी का नाम भी सविता भाभी है। इधर यह तुम्हारा पति मेरे ही पति की कवितायें ही चुराकर सभी जगह सुनाता है और तुम मजे से उसके साथ घूमती है हो और जिसके सहारे यह सब चल रहा उस ब्लागर की पत्नी होने के बावजूद मुझे घर पर सड़ना पड़ता है।’
कविता भी चिल्ला पड़ी-‘क्या हिंदुस्थान में आप ही एक सविता भाभी हो जो इस तरह चिल्ला रही हो। जब से अखबार में आपके नाम वाली वेबसाईट बैन होने की खबर क्या आयी है अपने पति के ब्लागर होने का रौब गालिब करती हैं भले ही अकेले में उनको कोसती हैं मगर सभी के सामने कमर मटकाते हुए कहती हैं कि ‘मेरे पति ब्लागर हैं’। उंह, जैसे जानती ही नहीं कि भाई साहब कितने फ्लाप लेखक हैं।
कविता ने आखिरी वाक्य कमर वास्तव में मटकाते हुए कहा था। इससे सविता चिढ़ गयी। उसने चिल्लाकर कहा-‘तुम अपने आपको समझती क्या हो? तुम्हारे पति का नाम कवि और तुम्हारा कविता है तो चाहे जो कर लो। अरे, मेरे पति का नाम ब्लागर और मेरा सविता है। मेरे नाम इंटरनेट पर खूब चल रहा है। इसलिये ही तुम यह पर्स लायी हो ताकि लोग तुम्हें देखें और तुम उनको बताओ कि मेरी जिठानी का नाम ‘सविता भाभी’ है और मेरे जेठ भी इंटरनेट पर लिखते हैं पर फ्लाप हैं। जबकि तुम्हारा पति मेरे पति की कवितायें चुराकर सुनाता है।’
कविता का पारा भी चढ़ गया-‘अब क्यों इतरा रही हो। आपके नाम वाली वेबसाईट पर बैन लग गया है। भाई साहब ने भी अपने ब्लाग पर लिखा है। आपके नाम वाली वेबसाईट बहुत खराब थी। ‘सविता भाभी’ का चरित्र प्रसिद्ध है उससे अपनी तुलना इसलिये मत करो कि आपके पति देव ब्लाग पर घटिया किस्म की हास्य कवितायें और व्यंग्य लिखते हैं।
इधरा कविता को न आता देख कवि वापस अंदर आया तो उधर ब्लागर भी ऊंची आवाजें सुनकर अपने कंप्यूटर से उठकर उस कमरे मेें पहुंचा जहां यह द्वैरथ चल रहा था।
कवि ने अपनी पत्नी कविता से कहा-‘क्या बात कविता इतनी देर क्यों लगा दी?’
कविता ने कहा-‘इन सविता भाभी ने मूड खराब कर दिया।’
ब्लागर एकदम उछल पड़ा और अपने भाई सो बोला-अच्छा याद दिलाया। आज मुझे सविता भाभी पर कविता लिखनी है।’
कवि एकदम च ौंककर बोला-’अच्छा भईया! लिखो! सामयिक विषय है। आप लिखदो तो मैं उसे कवि सम्मेलन में सुनाऊंगा।’
हां! अभी लिखता हूं!’वह जाते हुए फिर मुड़ा ओर बोला-‘कविता और सविता तुम यह बताओ कि तुम्हारा झगड़ा किस बात पर चल रहा था?’
कवि ने कहा-‘क्या बात है भईया! क्या तुकबंदी मिलाई। कविता और सविता। वाह! अब तो जाकर आप लिख दो ब्लाग पर ‘सविता और कविता का झगड़ा।’
कविता और सविता दोनों ही चिल्ला पड़ी-‘नहीं! हम दोनों का नाम एक साथ नहीं लिखें।’
मगर ब्लागर कहां मानने वाला था। अलबत्ता वह कविता की जगह व्यंग्य लिख गया।
……………………..
नोट-यह एक काल्पनिक रचना है तथा किसी व्यक्ति या घटना से कोई लेना देना नहीं है। इसमें लिखा हुआ किसी से संयोग भी हो सकता है। वैसे यह पाठ प्रयोग के लिये भी जारी किया गया है।

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धर्म प्रचारकों का ज्ञान कितना प्रमाणिक-अध्यात्मिक चिंत्तन


एक टीवी चैनल का एक दृश्य है। उसमें एक अधेड़ महिला-धारावाहिकों में काम करने वाली महिलाओं को बुढ़िया इसलिये भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि परदादी होने पर भी उनके बाल काले होते हैं-कुछ बोलते हुए पढ़ रही है-‘इस संसार में क्या साथ लाये हो और क्या ले जाओगे। जो कुछ भी पास में है यही छोड़ जाओगे।’
इतने में उसका पति आता है-यह बाद में ही पता चलता है क्योंकि उसके बाल सफेद हैं-और वह उसे देखकर चुप हो जाती है। वह उससे पूछता है-‘क्या पढ़ रही हो?’
वह उत्तर देती है-‘गीता पढ़ रही हूं।’
वह कहता है-‘अच्छा कर रही हो। इस उम्र में यही ठीक रहता है।’
अपने देश के हिंदी धारावाहिक चैनलों के निर्माता दर्शकों की धाार्मिक प्रवृत्तियों का दोहन करने के लिये मनोरंजन के नाम पर उसमें कुछ दृश्य ऐसे जोड़ते हैं जिससे उसके सामाजिक होने को प्रमाणित किया जा सके-यह अलग बात है कि वह इस आड़ में कर्मकांड और अंधविश्वास वाले दृश्य भी जोड़ते जाते हैं। प्रसंगवश इन्हीं चैनलों में नारी को घर की एक निष्क्रिय सदस्य माना जाता है जो हमेशा प्रपंचों में लगी रहती है। कोई नारी स्वातंत्र्य समर्थक बुद्धिजीवी इस विचार नहीं करता और कभी कभी तो लगता है कि वह भी इन्हीं से प्रभावित होकर अपने विचार व्यक्त करते हैं।
मगर इस चर्चा का उद्देश्य यह नहीं है। हम तो बात उस दृश्य की कर रहे हैं जिसने इस लेखक को हैरान कर रख दिया। वह महिला उस किताब को पढ़ते हुए जो वाक्य बोली थी वह कहीं श्रीगीता में नहीं है। श्रीगीता के संदेशों का जो आशय है उस पर यहां चर्चा नहीं की जा रही है। जब कोई यह कहता है कि वह श्रीगीता पढ़ रहा है तो उसका मतलब यह है कि वह संस्कृत के श्लोक पढ़ रहा है या उसका अनुवाद। जो लोग नियमित रूप से श्रीगीता पढ़ते हैं वह अच्छी तरह से जानते हैं कि उसमें क्या लिखा है? यकीनन उपरोक्त वाक्य कहीं भी श्रीगीता में नहंी है।
इतना ही नहीं इन संवादों भाव भी देखें। यह वैराग्य भाव को प्रेरित करते हैं जबकि श्रीगीता मनुष्य को संपूर्ण अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करते हुए विज्ञान में विकास के लिये प्रेरित करने के साथ ही जीवन में अपने स्वाभाविक कर्म करने के लिये प्रेरित करती है-जिन पाठकों को लेखक की इस बात पर संदेह हो वह उसे लेकर किसी श्रीगीता सिद्ध के पास ही जाकर उसकी जानकारी मांगें क्योंकि अनेक संतों और धार्मिक संस्थाओं द्वारा श्रीगीता के संबंध में जो उसका आशय प्रकाशित किया जाता है वह भी श्रीगीता में नहीं है।
इस दृश्य में ऐसे दिखाया गया है कि जिनकी जिंदगी की रंगीन नहीं रही है या जिनके रोमांस की आयु बीत गयी है उन्हें ही श्रीगीता का अध्ययन करना चाहिये। शायद कुछ लोगों को अजीब लगे पर सच यह है कि श्रीगीता का अध्ययन करने का समय ही युवावस्था है जिसमें लोग गल्तियां अधिक करते हैं। यही वह आयु होती है जिसमें पाप और पुण्य अर्जित किये जाते हैं। ऐसे में श्रीगीता का अध्ययन करने से ही वह बुद्धि प्राप्त होती है जो न केवल जीवन के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाती है बल्कि स्वयं को गल्तियां करने से भी बचाती है।
अब आते हैं मुख्य बात पर।
आमतौर से हिंदी, हिन्दू और हिन्दुत्व को लेकर अनेक प्रकार की बहसें चलती हैं। निश्चित रूप से इसमें बुद्धिजीवी अपनी विचाराधाराओं के अनुसार विचार व्यक्त करते हैं। देश में लोकतंत्र है और इसमें कोई आपत्ति नहीं है पर यह प्रश्न तो उठता ही है कि वह जिन ग्रंथों को लेकर भारतीय धर्म की आलोचना करते हैं क्या वह उन्होंने पढ़े है? मगर यह सवाल केवल आलोचकों से ही नहीं वरन् भारतीय धर्मों के समर्थकों से भी है।
आलोचकों ने भारतीय धर्म का आधार स्तंभ मानते हुए वेदों और मनुस्मृति से चार पांच श्लोक और तुलसीदास का एक दोहा ढूंढ लिया है जिसे लेकर वह भारतीय धर्म पर बरसते हैं मगर समर्थक भी क्या करते हैं? वह दूसरे धर्मों के दोष गिनाने शुरु कर देते हैं। मतलब भारतीय धर्म के आलोचकों और प्रशंसक दोनों ही नकारात्मक सोच के झंडाबरदार हैं। नकारात्मक बहस में शब्द और वाणी में आक्रामकता आती है और प्रचार माध्यमों के लिये वह इसलिये रोचक हो जाती है।
देश का एक बहुत बड़ा बुद्धिजीवी समुदाय बहस बहुत करता है पर न तो वह भारतीय अध्यात्म ज्ञान की जानकारी रखता है और न ही रखना चाहता है। इसकी उसे जरूरत ही नहीं है क्योंकि प्रचार माध्यम उनको वैसे ही प्रसिद्ध किये दे रहे हैं। इससे हुआ यह है कि जिन लोगों के नाम के साथ भारतीय धर्म की पहचान लगी हुई है वह अध्यात्मिक ज्ञान को समझे बगैर ही उसका प्रचार प्रसार करते हैं-बशर्त इससे उनको व्यवसायिक लाभ होता हो। वह धारावाहिक जिन लोगों ने देखा होगा उनका मन उस निर्माता, निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री के प्रति अंधश्रद्धा से भर गया होगा-वाह क्या दृश्य है?
इधर भारतीय धर्म के व्यवसायिक साधु और संतों ने भी कोई कम हानि नहीं पहुंचाई है। अधिकतर प्रसिद्ध संतों और साधुओं ने अनेक तरह की संपत्ति का निर्माण किया है-हमें इस पर भी आपत्ति नहीं है क्योंकि लोग सभी जानते हैं और फिर भी उनके पास जाते हैं। यह लेखक भी कभी कभार उनके प्रवचनों में चला जाता है क्योंकि वही जाकर पता लगता है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान क्या है और उसे बताया किस तरह जा रहा है?
आज श्री बालसुब्रण्यम का एक आलेख पढ़ा जिसमें उन्होंने भक्तिकाल के साहित्य को सामंतशाही के विरुद्ध एक आंदोलन निरुपित किया। यह एक नया विचार था। उन्होंने वर्ण संबंधी ऐसे श्लोकों और दोहों की भी चर्चा की जिनको लेकर भारतीय धर्म को बदनाम किया जाता हैं। इस लेखक ने अपनी टिप्पणी लिखी जिसका आशय यह था कि भारतीय भाषाओं में अनेक बातें व्यंजना विद्या में लिखे जाने की प्रवृत्ति है और विदेशी पद्धति से चलने वाले विद्वानों उसका केवल शब्दिक या लाक्षणिक अर्थ लेते हैं।

सच बात तो यह है कि इस देश को सांस्कृतिक या धार्मिक खतरा विदेशी भाषाओं, विचारधाराओं और उनके प्रचारकों से नहीं बल्कि देश के लोगों की बौद्धिक गरीबी से है जो भले ही अंग्रेजी नहीं जानते पर उस पर आधारित शिक्षा पद्धति से शिक्षित होने के कारण बाहरी आवरण से अपनी भाषा और संस्कृति में रंगे जरूर लगते हैं पर भावनात्मक रूप से बहुत परे हैं। वह व्यवसायिक प्रचार माध्यमों और कथित साधु संतों की बातों से अपने अध्यात्म को समझते हैं जो उनको कर्मकांडों और अंधविश्वासों से कभी बाहर नहीं निकलने देती।
देश की फिल्मों, टीवी चैनलों, और व्यवसायिक प्रकाशनों में ऐसे ही अल्पज्ञानी लोग भारतीय धर्म के पैरोकार बनते हैं जो आलोचकों के वाद और नारों का उत्तर भी वैसा ही देते हैं जिनसे बहस और अभियानों का परिणाम नहीं निकलता।
हमें किसी की सक्रियता पर कोई आपत्ति नहीं करना चाहिए मगर जब यह बातें सामने आती हैं तो अपना दायित्व समझते हुए सचेत करना अपना कर्तव्य समझते हैं कि पहले भारतीय अध्यात्म ज्ञान को समझें फिर उसके समर्थन में आगे बढ़ें। यहां यह भी बता दें श्रीगीता में कोई लंबा चैड़ा ज्ञान भी नहीं हैं। न ही उसमें कोई रहस्य छिपा है-जैसा कि कुछ विद्वान दावा करते हैं। पढ़ने में समझ में सब आ जायेगा मगर पहले यह देखना होगा कि संकल्प किस तरह का है। अगर आप उससे सीखने और समझने के लिये पढ़ रहे हैं तो उसका ज्ञान स्वतः आता जायेगा। अगर आप ऐसे सिद्ध बनने की कामना करते हुए पढ़ना चाहते हैं जिससे ढेर सारे लोग गुरु मानकर पूजा करें तो ं तो फिर कुछ नहीं होने वाला। फिर तो आप प्रसिद्ध ज्ञानी जरूर हो जायेंगे। लोग आपके ज्ञान को श्रीगीता का ही ज्ञान कहेंगे मगर जो उसके नियमित पढ़ने वाले होंगे वह आपके पाखंड को समझ जायेंगे।
यहां कुछ उदाहरण देना अच्छा रहेगा
कई जगह लिखा मिल जाता है कि
1. ‘भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि कर्म ही मेरी पूजा है’।
स्पष्टीकरण-
पूरी श्रीगीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहीं भी ऐसा नहीं कहा। हां, उसमें निष्काम कर्म करने की प्रेरणा दी गयी है पर उसे भी अपनी पूजा नहीं कहा।
2.‘भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि सभी जीवों पर दया करो।’
स्पष्टीकरण-
श्रीगीता में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा गया बल्कि उसमें निष्प्रयोजन दया का संदेश है।
लेखक द्वारा यह चर्चा करने का उद्देश्य स्वयं को सिद्ध प्रमाणित करने के लिये नहीं किया जा रहा है बल्कि इस आशा के साथ किया जाता है कि अगर कोई ज्ञान में कमी हो तो उसमें सुधार किया जाये। शेष फिर कभी
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