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शोक, खुशी और नृत्य एक साथ-हिन्दी लेख (mourn, enjoyment and dance with all-hindi lekh)


         हिन्दी समाचार टीवी चैनलों का तो कहना ही क्या? क्रिकेट के भगवान का जन्म दिन, धार्मिक संत का परमधाम गमन दिवस और क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता के प्रचार को को बड़ी चालाकी से विज्ञापनों में एक साथ प्रसारित कर शोक, खुशी और नाच से संयोजित कार्यक्रम प्रसारित किए। क्रिकेट के भगवान को धार्मिक संत का महान शिष्य बता दिया जबकि अभी तक यह बात किसी को पता नहीं थी। दोनों एक साथ काम किये। संत को बड़ा बनाया तो खिलाड़ी को धार्मिक! सभी के हिन्दी समाचार टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में गज़ब की एकरूपता है जिसे देखकर लगता नहीं कि उनके मालिक अलग अलग हैं। अगर मालिकों के नाम अलग अलग हों तो फिर लगता है कि उनका प्रायोजक कोई एक ही होना चाहिए जिसके अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष इशारों पर ही उनके कार्यक्रम चलते हैं। अगर किसी फिल्म अभिनेता, अभिनेत्री या क्रिकेट खिलाड़ी का जन्म दिन है तो एक ही समय पर उससे संबंधित कार्यक्रम सभी टीवी चैनलों पर एक साथ आता है। उससे दर्शक के विकल्प नहीं रहता। किसी बड़ी शख्सियत का वार्तालाप अगर एक पर सीधे प्रसारित होता है तो सभी पर वही दिखाई देता है।
         इस तरह की एकरूपता शक पैदा करती है कि कोई एक व्यक्ति या समूह अपने पैसे की दम पर टीवी चैनलों पर प्रभाव डाल रहा है। वरना यह संभव नहीं है। जिन लोगों को पत्रकारिता का अनुभव है वह जानते हैं कि सभी अखबारों में खबरें एक जैसी होती हैं पर उनके क्रम में एकरूपता नहंी होती। कई बार तो प्रमुख खबरों में ही अंतर हो जाता है। इसका कारण यह है कि हर अखबार के संपादक का अपना अपना नजरिया होता है और यह संभव नहीं है कि सभी का एक जैसा हो जाये।
         इन हिन्दी समाचार टीवी चैनलों की व्यवसायिक चालाकियों का भी एक ही तरीका है और संभव है कि एक दूसरे की नकल पर आधारित हो, पर जिस तरह देश के दर्शकों को नादान तथा चेतनाविहीन इन लोगों ने समझा है वह शक पैदा करता है कि ऐसा करने के लिये कोई उनको प्रेरित करता है। वैसे तारीफ करना चाहिए इन लोगों की व्यवसायिक चालाकी की पर मुश्किल यह है कि वह ऐसा कर यह संदेश देते हैं कि उनका अस्तित्व स्वतंत्र नहीं है और वह दृश्यव्य तथा अदृश्व्य धनदाताओं के आधीन ही वह कार्य करते हैं।
क्रिकेट खिलाड़ी का जन्म दिन पड़ा तो धार्मिक संत ने भी उसी दिन देह त्यागी। बताया गया कि क्रिकेट के भगवान उन धार्मिक संत के बहुत बड़े भक्त हैं। वह आज क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में अपना मैच नहीं खेलना चाहते। वह अपना जन्म दिन नहीं मना रहे। बताया तो यह गया कि क्रिकेट के भगवान ने अपने को कमरे में बंद कर लिया है। इस तरह क्लब स्तरीय प्रतियोगिता का प्रचार हुआ। क्रिकेट खिलाड़ी के जन्म दिन पर कसीदे भी पढ़ते हुए बताया गया कि वह तो सत्य साई के भक्त हैं। क्रिकेट के भगवान के साईं शीर्षक के कार्यक्रम प्रसारित हुए। फिर यह बताना भी नहीं भूले कि उस क्रिकेट के भगवान को लोगों ने जन्मदिन की बधाई दी।
        पुट्टापर्थी के धार्मिक संत सत्य साईं बाबा के निधन पर उनके भक्त दुःखी हैं। उन्होंने अपने क्षेत्र मेें बहुत काम किया। इस पर विवाद नहीं है पर उनके निधन पर घड़ियाली आंसु बहाता हुऐ हिन्दी समाचार चैनल अन्य लोगों के लिये हास्य का भाव पैदा कर रहे हैं। सच कहें तो एक तरह से वह शोक मना रहे हैं जिसमें क्रिकेट खिलाड़ी का जन्म दिन भी शामिल कर लिया तो क्लब स्तरीय क्रिकेट भी शामिल होना ही था। सारी दुनियां जानती हैं कि प्रचार माध्यम किसी के मरने पर कितना दुःखी होते हैं। सत्य साईं के निधन पर दुःख व्यक्त करना यकीनन प्रचार प्रबंधकों की व्यवसायिक मज़बूरी है। उनकी संपत्ति चालीस हजार करोड़ की बताई गयी है जो कि मामूली नहीं है। यकीनन उनके संगठन की पकड़ कहीं न कहीं न वर्तमान बाज़ार पर रही होगी। इसलिये उनके भावी उत्तराधिकारियों  को प्रसन्न करने के लिये यह प्रसारण होते रहे। बाज़ार के सौदागरों ने स्पष्ट रूप से प्रचार प्रबंधकों को इशारा किया होगा कि यह सब होना है। अगर ऐसा नहीं होता तो शोक जैसा माहौल बना रहे इन समाचार चैनलों ने विज्ञापन कतई प्रसारित नहीं किये होते।
              अगर ऐसा नहीं भी हो रहा है तो यह मानना पड़ेगा कि हिन्दी टीवी चैनलों के संगठनों के पास समाचार, विश्लेषण तथा चर्चाओं के लिये विद्वान नहीं है इसलिये वह क्रिकेट, फिल्म और मनोरंजन चैनलों की कतरनों के सहारे चल रहे हैं। इनके मालिक कमा खूब रहे हैं पर अपने चैनल पर खर्च कतई नहंी कर रहे। भले ही देश में ढेर सारे समाचार चैनल हैं पर प्रतियोगिता इसलिये नहीं है क्योंकि उनको विज्ञापन मिलने ही है चाहे जैसे भी कार्यक्रम प्रसारित करें। उनको बड़ी कंपनियां कार्यक्रमों या अपने उत्पाद के प्रचार के लिये प्रचार माध्यमों को विज्ञापन नहीं देती बल्कि उनके दोष सार्वजनिक रूप से लोगों के सामने नहीं आयें इसलिये देती है। यही कारण है कि प्रयोक्ताओं की पसंद नापसंद की परवाह नहीं है और थोपने वाले समाचार और विश्लेषण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। अर्थशास्त्र पढ़ने वाले जानते हैं कि भारत में धन की कमी नहीं पर फिर भी लोग गरीब हैं क्योंकि यहां प्रबंध कौशल का अभाव है। पहले यह सरकारी क्षेत्र के बारे में कहा जाता था पर निजी क्षेत्र भी उससे अलग नहीं दिखता यह सब प्रमाणित हो रहा है।

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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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कहीं शादी कहीं प्रचार-हिन्दी सामयिक लेख


बीसीसीआई क्रिकेट टीम के कप्तान की शादी है। इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। हमने एक समाचार चैनल खोला था समाचार सुनने के लिये है पर कप्तान की शादी का प्रसंग सामने आ गया। इस लेखक ने अक्सर देखा है कि जब बाजार के उत्पादों के किसी विज्ञापन के माडल के-इनमें से अधिकतर क्रिकेट और फिल्म के होते हैं-शादी होने या राजनीति में आने की खबर होती है तो सभी चैनल उसे एक ही समय में प्रसारित करते हैं ताकि दर्शक भाग कर कहीं जा नहीं पाये और न ही उस माडल की आम आदमी उपेक्षा की जा सके। कहने को सारे चैनल अलग दिखते हैं ऐसे मौके पर एक हो जाते हैं। बाजार का उन पर कितना जोरदार नियंत्रण है यह ऐसे मौके पर देखा जा सकता है। इस लेखक ने कम से कम आठ समाचार चैनल बदले होंगे पर हर जगह बस वही बात! कप्तानी की शादी हो रही है इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। आज बाज़ार में घूमते हुए कहीं भी यह सुनाई नहीं दिया कि कप्तान की शादी हो रही है जबकि प्रचार माध्यम शोर मचाये हुए थे। ऐसे में व्यवसायिक प्रचार माध्यमों का यह दावा खोखला दिखता है कि वह तो दर्शकों की मांग के अनुरूप अपनी प्रस्तुति करते हैं। एक अभिनेता की राजनीति में आने की खबर पर भी ऐसा ही देखा गया था।
भारतीय प्रचार माध्यमों तथा आम नागरिकों के बीच अब एक लंबी मनोवैज्ञानिक खाई बन गयी है जिसे हम विश्वास का संकट भी कह सकते हैं। दरअसल प्रचार संगठनों में काम करने वाले लोग जहां अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति का महत्व समझते हैं वहीं यह भूल जाते हैं कि अंततः आम आदमी की सहानुभूति के बिना उसका लाभ उठाना संभव नहीं है। एक तरफ प्रचार माध्यम आम आदमी को निहायत मूर्ख मानकर अपने आय अर्जन के इकलौते लक्ष्य पर काम कर रहे हैं वहीं आम आदमी उनको व्यवसायिक छल प्रपंच मानकर उनकी बात पर ध्यान नहीं देता।
ऐसे में अनेक बुद्धिजीवी आम आदमी के चेतना विहीन होने की शिकायत कर रहे हैं तो उन्हें यह भी देखना चाहिये कि उनकी सीमित सोच ने आदमी के दिमागी दायरे को अत्यंत सीमित कर दिया है। हम टीवी चैनलों और समाचार पत्रों कि महत्व को जानते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि हमें यह भी पता है कि उनकी समाज निर्माण में अत्यंत प्रभावी भूमिका हो्रती है। ऐसे में यह देखना आवश्यक है कि प्रचार माध्यमों की भूमिका किस तरह की है और अगर हम समाज को सुप्तावस्था में देख रहे हैं तो उसके पीछे उनकी कितनी जिम्मेदारी है?
सबसे बड़ी बात यह है कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम मानते हैं कि जो लोग देखना, सुनना और पढ़ना चाहते हैं वही हम प्रस्तुत कर रहे हैं क्योंकि इसके बिना व्यवसाय नहीं चलता।
अगर वह इस तर्क पर काम करते हैं तो उससे जुड़े बुद्धिजीवियों को यह शिकायत नहीं करना चाहिए कि समाज सो रहा है।
समाचारों से जुड़े टीवी चैनलों और अखबारों के संचालकों को अब इस बात का आभास नहीं है कि उनका जिम्मा केवल अपने उपभोक्ताओं के सामने समाचार प्रस्तुत करना ही नहीं है वरन् संपादकीय, लेखों तथा चर्चाओं के द्वारा उनमें विचार निर्माण करने का काम भी है। यहां वह यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते कि हर आदमी पढ़ा लिखा है और वह स्वयं ही विचार कर सकता है। एक ब्लाग लेखक के रूप में हम भी यह देख रहे हैें कि अनेक स्तंभकार ब्लाग लेखकों की रचनाओं से विचार लेकर लिख रहे हैं। इसका आशय यह है कि विचारों का क्रमिक विकास तभी संभव है जब कहीं दूसरी जगह से पढ़ा, सुना और देखा जाये।
अब जरा समाचार टीवी चैनलों और अखबारों के समाज में विचार निर्माण के प्रयासों को देखा जाये तो यह नहीं लगता कि वह इस काम को गंभीरता से ले रहे हैं। इस मामले में दूरदर्शन के कुछ प्रयास गंभीरता लिये हुए लगते हैं जबकि व्यवसायिक चैनल पूरी तरह से लापरवाही दिखाते हैं। टीवी चैनलों ने कुछ खास मौकों के लिये दो चार विशेषज्ञ तय कर रखे हैं जो क्रिकेट, आतंकवाद, रेल या बस हादसों तथा महिला उत्पीड़न जैसे विषयों पर आकर रटी रटाई बातें बोलते हैं और खानापूरी हो जाती है। यही स्थिति अनेक समाचार पत्रों की है। उनके लेखों तथा संपादकीयों में समाचारों के दोहराव के अलावा थोड़ी बहुत राय होती है पर वह बेबाक नहीं लगती। इतना ही नहीं उनके विचारों का प्रस्तुतीकरण भी इतना कमजोर रहता है कि पाठक या दर्शक उसे अधिक देर तक ध्यान नहीं रख पाता। यही कारण है कि आजकल कहीं भी कोई बुद्धिमान किसी अखबार की राय का बयान कर अपनी बात नहीं रखता। अखबारों के समाचारों की चर्चा अक्सर मिलती है पर विचार एकदम लापता लगता है।
समाचार टीवी चैनलों ने तो बहुत निराश किया है? जब दूरदर्शन अकेला था तब उसके समाचार सुनने की आम लोगों में एक आदत हो गयी थी और व्यवसायिक समाचार चैनलों ने उसका दोहन भी खूब किया पर उसको नियमित बनाये रखने में नाकाम रहे। यही कारण है कि प्रतिदिन समाचार देखने वाले बहुत लोग अनेक दिन तक तो समाचार चैनल खोलकर देखते तक नहीं हैं। एक घंटे तक समाचार दिखाने का दावा करने वाले यह सभी चैनल बुमश्किल पांच मिनट समाचारों के लिये हैं-उनका शेष समय क्रिकेट, फिल्म और फूहड़ हास्य प्रस्तुत करने में बीत जाता है। यह विज्ञापन चैनल जैसे हो गये हैं। एक तरह से संदेश देते हैं कि यह समाचार और विचार देखना छोड़कर उस तरफ जाओ जो हमारे बाजार नियंत्रकों ने सजा रखा है।
ऐसे में निराश हाथ लगती है। स्थिति यह है कि समाज में चेतना लुप्त होती जा रही है और जिनमें चेतना है उनके पास ऐसे साधन नहीं है जिससे उसमें निरंतरता बनी रहे। हालांकि इधर हिन्दी ब्लाग जगत पर काफी बेबाक राय सामने आ रही है पर वहां जागरुक लोगों की पहुंच अधिक नहीं है। दूसरा यह भी है कि ब्लाग जगत को लेकर प्रचार माध्यम योजनापूर्वक इस बात का प्रयास कर रहे हैं कि यहां बाजार के मुखौटे ही प्रसिद्ध बने न कि आम लेखक। यही कारण है कि क्रिकेट खिलाड़ियो, फिल्म अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों के ब्लाग तथा वेबसाईट या ब्लाग बनाने के समाचार देते हैं। इससे समाज में यह धारणा बनती जा रही है कि ब्लाग केवल खास लोगों की अभिव्यक्ति के लिये है।
इस लेखक ने अपने एक कार्टूनिस्ट मित्र को ब्लाग बनाने की राय दी तो उसका जवाब था कि मैं भला कोई एक्टर या क्रिकेट खिलाड़ी हूं जो कोई मेरा ब्लाग देखेगा।’
दूसरी मजे की बात यह है कि इस लेखक के अनेक पाठ बिना नाम के छापे जा रहे हैं। गांधी जयंती पर इस लेखक के लिखे गये पाठों का एक स्तंभकार ने उपयोग किया। इस लेखक के मित्र तथा पढ़ने वाले लोग जानते हैं कि उन पाठों में जो विचार व्यक्त किये गये थे वैसे किसी बुद्धिजीवी ने नहीं किये। जो लोग गांधी विषय पर विशारद होने का दावा करते हैं वह उन लेखों को पढेंगे तो हैरान रह जायेंगे-एक लेखक मित्र ने उनको पढ़कर यही कहा था। मगर यह आत्मप्रवंचना नहीं है बल्कि यह बताया जा रहा है कि समाचार में चिंतन और विचार का जो संकट है वह प्रचार माध्यमों की उपेक्षा तथा रूढ़ता के कारण है और हिन्दी ब्लाग जगत ही उसका सामना करने में सक्षम है और यह बेहतर होगा कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम इस आशंका से परे हो जायें कि यहां ब्लाग लेखकों नाम सहित अपने यहां स्थान देने से कोई ऐसी लोकप्रियता मिल जायेगी कि बाजार की बड़ी कंपनियों के विज्ञापन उनको मिलने लगेंगे। अलबत्ता हिन्दी में चिंतन तथा विचार के क्षेत्र में जो जड़ता की स्थिति है उससे निपटने लिये उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि व्यवसायिक प्रचार माध्यम ब्लाग लेखकों से तारतम्य बनायें। अगर क्रिकेट खिलाड़ियों, फिल्म अभिनेताओ तथा अभिनेत्रियों की शादी तथा प्रेम प्रसंगों से समय काटने को ही वह अपना व्यवसायिक धर्म समझते हैं तो फिर हमें कुछ नहीं कहना है।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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जिन पर है दौलत मेहरबान-हास्य व्यंग्य कवितायें



धन, पद और प्रतिष्ठा की शक्ति
हो जाती है जिन पर मेहरबान
क्यों न करे वह उस पर अभिमान
इस जहां में सभी यही चाहते हैं
जिनसे दूर है यह सब
वह रहते हैं परेशान
गर्दन ऊपर उठाएँ देखते हैं
होकर हैरान

उनके लड़के मोटर साइकिलों
और कारों में चलते गरियाते हैं
अभावों से है वास्ता जिनका
वह उन्हें देखकर सहम जाते हैं
अपने वाहन को चलाते है ऐसे
जैसे करते हौं फिल्मी स्टंट
कोई नहीं कर पाता उनको शंट
जो रोकने की कोशिश करे
उस पर टूट पड़ें बनकर हैवान

गरीब अगर अमीर की चौखट पर
जाना बंद कर दे
जाये तो तैयार रहे
झेलने के लिए अपमान
सड़क पर चले तो
किसी से डरे या नहीं
नव-धनाढ्यों की सवारी से
बचकर चले
न हार्न दें
चाहे जहां और जब रूक जाएँ
मन में आये वहीं रूक जाएँ
यही उनकी पहचान

कहैं दीपक बापू
तेज गति से मति होती वैसे ही मन्द
फिर बाप के पैसे, पद और प्रतिष्ठा का
नशा हो जिनको
वह क्यों होंगे किसी नियम के पाबन्द
वह पडा है उनकी तिजोरी में बंद
अपने जीवन की सुरक्षा
अपने ही हाथ में रखो
बाकी करेंगे अपने भगवान
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वाह रे बाज़ार तेरा खेल
मैदान में पिटे हीरो को
कागज और फिल्म पर
चमकाकर और सजाकर
जनता के बीच देता है ठेल

क्रिकेट में कोई विश्वकप नही
जीत सके जो तथाकथित महान
ऐसे प्रचार का जाल बिछाते हैं
कि लोग फिर
उनके दीवाने बन जाते हैं
अपने पुराने विज्ञापन इस
तरह सबके बीच लाते हैं कि
लोग हीरो की नाकामी से
हो जाते हैं अनजान
और बिक जाता है बाजार में
उनका रखा और सडा-गडा तेल

न ताज कभी चला न चल सकता है
उस पर हुए करोड़ों के वारे-न्यारे
और वह चला भी ख़ूब
प्रचार ऐसा हुआ कि
पैसेंजर में नही लदा
खुद ही बन गया मेल

कहै दीपक बापू
शिक्षा तो लोगों में बहुत बढ़ी है
पर घट गया है ज्ञान
शब्दों का भण्डार बढ़ गया है
आदमी की अक्ल में
पर अर्थ की कम हो गयी पहचान
बाजार में वह नहीं चलता
चलाता है बाजार उसे
सामान खरीदने नहीं जाता
बल्कि घर लूटकर आता
और कभी सामान तो दूर
हवा में पैसे गँवा आता
विज्ञापन और बाजार का या खेल
जिसने कमाया वही सिकंदर
जिसने गँवाया वह बंदर
इससे कोई मतलब नही कि
कौन है पास कौन है फेल
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आँखें देखतीं हैं
कान सुनते हैं
और जीभ का काम है बोलना
पर जो पहचान करे
सुनकर जो गुने
और जो श्रीमुख से
शब्द व्यक्त करे
वह कौन है
हाथ करते हैं अपना काम
टांगों का काम है चलना
और कंधे उठाएं बोझ
पर जो पहुँचाता है लक्ष्य तक
जो देता है दान
और जो दर्द को सहलाता है
वह कौन है

कहैं दीपक बापू
कहाँ उसे बाहर ढूंढते हो
क्यों व्यर्थ में त्रस्त होते हो
बैठा तुम्हारे मन में
तुम उससे बात नहीं करते
इसलिये वह मौन है
जब तक तुम हो
तब तक वह भी है
तुम्हारा अस्तित्व है उससे
उसका जीवन है तुमसे
तुम सीमा में बंधे रहते हो
उसकी शक्ति अनंत है
तुम पहचानने की कोशिश करके देखो
वह तुम्हारा अंतर्मन नहीं तो और कौन है

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है। ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
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