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पश्चिमी देश आतंकवाद से लड़ने के इच्छुक नहीं


                                   पेरिस पर हमले के बाद पूरे विश्व में उथलपुथल मची है। उस पर कहने से पूर्व हम भारतीय योग सिद्धांत की बात करें। यह सच है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हम अगर किसी वस्तु, विषय या व्यक्ति से अनुकूल प्रतिक्रिया चाहें तो अपनी किया उसके अनुरूप करनी होगी।  दूसरा कर्म और फल के सिद्धांत को भी ध्यान रखना होगा। यूरोप तथा अमेरिका हथियारों के उत्पादक तथा निर्यातक देश हैं।  पेरिस पर निरंतर हो रहे हमलों को हम धर्म तथा लोकतंत्र के सीमित दृष्टिकोण से उठकर व्यापक चिंत्तन के दायरें में आयें तो पता चलेगा हर व्यापारी अपनी वस्तु का प्रचार करते हुए उसके प्रयोग का भी प्रचार करता है। इसलिये संभव है कि पहले अपराधियों को ऐसे हथियार देकर उनके हमलों से प्रचारित अपने हथियारों के  बेचने का बाज़ार बनाते हों।

                                   हम एशियाई देशों की सेनाओं तथा पुलिस विभागों की स्थिति में नज़र डालें तो उनसे पहले नये हथियार अपराधियों के पास आये।  उससे प्रभावित होकर संबंधित देशों ने उत्पादक देशों से हथियार खरीदे। एक-47 बंदूक इसका प्रमाण है।  एशियाई देशों ने खरीदी पर बाद में पता चला कि उसका नया रूप पहले ही अपराधियों के पास आ गया है।  अमेरिका व यूरोप हथियार निजी क्षेत्र के माध्यम से हथियार बेचते हैं जिन्हें क्रेता के प्रमाणीकरण की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे में संदेह होता है कि हथियारों के मध्यस्थ कहीं आतंकवादियों को प्रचार नायक तो नहीं बनाते? अमेरिका ने सीरिया सरकार के विद्रोहियों की सहायता के लिये हथियार हवाई जहाज से नीचे गिराये थे-जिनके संबंध आतंकी संगठनों से प्रत्यक्ष दिख रहे थे।  अमेरिका मध्यपूर्व में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये जिन संगठनों को अपना मित्र समझता है उन्हें शेष विश्व आतंकी कहता है। इस तरह विश्व के राज्यप्रबंधकों तथा आतंकवादियों के बीच एक ऐसा रिश्ता है जिसकी व्याख्या करने बैठें तो एक ग्रंथ लिखना पड़ेगा।

                                   मध्यपूर्व में जबरदस्त अस्थिरता फैली है और हमारा अनुमान है कि उसका प्रकोप काम होने की बजाय बढ़ते रहने वाला ही है। आतंकवादी जिन देशों को ललकार रहे हैं वह सभी कहीं न कहीं हथियार के कारखानों की कमाई से अपनी संपन्नता बढ़ाने  वाले रहे हैं।  अब उनके सामने स्वयं के बने हथियार दुश्मन की तरह सामने आने वाले हैं।  मध्यपूर्व से लाखों शरणार्थी इन देशों में गये हैं जिनके साथ आतंकवादी भी हैं।  पेरिस में हुए हमलों से यह जाहिर हो गया है कि इन संपन्न देशों का राज्यप्रबंध के अभेद होने का भ्रम समाप्त हो गया है। जिस तरह इन देशों के राजकीय प्रबंधकों की प्रतिक्रियायें सामने आयी हैं उससे तो नहीं लगता कि वह जल्दी आतंकवादी पर विजय प्राप्त करेंगे।  वैसे जिन लोगों ने पचास वर्षों से लगतार समाचार देखे और पढ़े हों उन्हें पता है कि कोई राजनीतिक, धार्मिक या वैचारिक संघर्ष प्रारंभ होता है तो वह अगले दस वर्ष तक चलता है।  जब थमता भी तो उसके कारण प्राकृतिक होते हैं-राजकीय प्रबंधक बयानबाजी तक ही सीमित रहती है।

                                   अब योग और भारत की बात करें।  कुछ लोगों को चिंता है कि भारत में भी मध्यपूर्व के आतंकवादी संगठन आ सकते हैं। हमारे पास खुफिया संगठन नहीं है पर योगदृष्टि से हमें यह आशंका नहीं लगती।  एक बात तो यह कि भारत ने कोई हथियार योग नहीं किया-उसने बंदूकें तोप या टैंक नहीं बेचे जो उनका मुंह हमारी तरफ होगा।  इसलिये जिन्होंने युद्ध योग किया है उन्हें प्रतियुद्ध भी झेलना ही होगा। अगर इन देशों को प्रतियुद्ध से बचना है तो युद्ध योग से बचते हुए हथियार के कारखाने बंद करने होंगे। जिसकी संभावना नहीं दिखती। उल्टे जिस तरह यह देश मध्यपूर्व देशों में अधिक हमले कर रहे हैं उससे शरणार्थी संकट बढ़ेगा और आतंकी इन्हीं देशों में जायेंगे।  आखिरी सलाह भारतीय प्रचार माध्यमों को भी है कि वह मध्यपूर्व के आतंकी संगठनों का नाम अधिक न लें कहीं ऐसा न हो कि पाकिस्तान कहीं उसके नाम से आतंकी भेजने लगे।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior

http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

विश्वहिन्दीसम्मेलन और हिन्दी दिवस पर नया पाठ


               भोपाल में 22वां विश्व हिन्दी सम्मेलन हो रहा है।  पूर्व में हुए 21 सम्मेलनों का हिन्दी में क्या प्रभाव हुआ पता नहीं पर इतना तय है कि भारतीय जनमानस की यह अध्यात्मिक भाषा है।  इसलिये उसे रिझाये रखने के लिये बाज़ार ने भाषा को जिंदा रखा है।  इस तरह के सम्मेलन चंद ऐसे विद्वानों का संगम बन कर रह जाते हैं जो  भारतीय जनमानस को यह समझाने के लिये एकत्रित होते हैं कि वह उनके अपने हैं भले ही अंग्रेजी में लिखते हैं।  दूसरी बात यह कि इसमें कागज पर छपी किताबों के प्रति परंपरागत झुकाव रखने वाले पेशेवर हिन्दी विद्वान यह बताने इन सम्मेलनों में आते हैं कि उनके लेखन की वजह से भाषा जिंदा है। पिछले दस वर्ष से अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन हो रहा है पर उसके नुमाइंदों को इस सम्मेलन में न बुलाने से यही साबित हो गया है कि इसके लेखक अप्रतिष्ठत यह लघु स्तर के हैं। विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर ट्विटर लिखे जिनकी सामग्री यहां प्रस्तुत है।

               अंतर्जालीय लेखकों की उपस्थिति और उनके लेखन की चर्चा न दिखना रूढ़ता का प्रतीक लगता है। हिन्दी का भविष्य अब अंतर्जाल पर टिका है और वहां के लेखकों की अनुपस्थिति के बिना विश्व हिन्दी सम्मेलन महत्वहीन लगता है। अब स्वप्रायोजित किताबों से नहीं वरन् अंतर्जाल पर लिखने वाले लेखक ही हिन्दी के सारथी हो सकते हैं। अंतर्जालीय लेखकों के प्रति विश्व हिन्दी सम्मेलन में दिखाया गया परायेपन का भाव उसी के लक्ष्य में बाधक होगा। विश्व हिन्दी सम्मेलन में इस पर विचार होना चाहिये कि जनमानस में अंतर्जाल पर मातृभाषा में स्वयं लिखने की प्रेरणा लाने का विषय हो। स्वप्रायोजित किताबों की बजाय अंतर्जाल पर अपने परिश्रम वह निष्काम भाव से सक्रिय लेखक विश्वहिन्दी सम्मेलने में होते तो मजा आता।

                                   भारतीय भाषायें सांसरिक विषयों के विदुषकों से नहीं वरन् अध्यात्मिक ज्ञान के प्रचारकों की शक्ति से अंतर्जाल पर बढ़ेगी यह बात विश्वहिन्दीसम्मेलन में कहना चाहिये। विश्वहिन्दीसम्मेलन में पाठकों में रचनाओं से अध्यात्मिक ज्ञान संदेश मिलने की अपेक्षा पर विचार होना चाहिये।

हिन्दी ब्लॉगर बिन विश्व हिन्दी सम्मेलन लगे सून।

कहें दीपकबापू जैसे सूर्य के ताप बिन माह जून।।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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हिन्दी अंग्रेजी का मिक्चर-हिन्दी व्यंग्य कविता (hindi aur inglish ka mixer-hindi vyangya kavita)


हिन्दी बोले बिना कान नहीं चलता,
अंग्रेजी में न बोलें तो दिल जलता।
आधी हिन्दी आधी अंग्रेजी बोलकर
हर कोई युवा मन खुद ही बहलता।
भाषा के मिक्चर से गूंगा बना ज़माना
देख कर हमारा दिल हर रोज दहलता।
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अखबार आज का ही है
खबरें ऐसा लगता है पहले भी पढ़ी हैं
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

ट्रेक्टर की ट्रक से
या स्कूटर की बस से भिड़ंत
कुछ जिंदगियों का हुआ अंत
यह कल भी पढ़ा था
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

भाई ने भाई ने
पुत्र ने पिता को
जीजा ने साले को
कहीं मार दिया
ऐसी खबरें भी पिछले दिनों पढ़ चुके
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

कहीं सोना तो
कहीं रुपया
कहीं वाहन लुटा
लगता है पहले भी कहीं पढ़ा है
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

रंगे हाथ भ्रष्टाचार करते पकड़े गये
कुछ बाइज्जत बरी हो गये
कुछ की जांच जारी है
पहले भी ऐसी खबरें पढ़ी
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

अखबार रोज आता है
तारीख बदली है
पर तय खबरें रोज दिखती हैं
ऐसा लगता है पहले भी भी पढ़ी हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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अंग्रेजी के लेखक यूं हिन्दी में पढ़े जाते-हिन्दी दिवस पर विशेष लेख (inglish writer, hindi readar-hindi diwas par vishesh lekh)


वह नब्बे साल के अंग्रेजी लेखक हैं मगर उनको हिन्दी आती होगी इसमें संदेह है पर हिन्दी के समाचार पत्र पत्रिकाऐं उनके लेख अपने यहां छापते हैं-यकीनन ऐसा अनुवाद के द्वारा ही होता होगा। वह क्या लिखते हैं? इसका सीधा जवाब यह है कि विवादों को अधिक विवादास्पद बनाना, संवेदनाओं को अधिक उभारना और कल्पित संस्मरणों से अपने अपने आप को श्रेष्ठ साबित करना। अगर हिन्दी के सामान्य लेखक से भी उनकी तुलना की जाये तो उनका स्तर कोई अधिक ऊंचा नहीं है मगर चूंकि हमारे प्रकाशन जगत का नियम बन गया है कि वह केवल एक लेखक के रूप में किसी व्यक्ति को तभी स्वीकार करेंगे जब उसके साथ दौलत, शौहरत तथा ऊंचे पद का बिल्ला लगा होना चाहिये। यह तभी संभव है जब कोई लेखक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुषों का सानिध्य प्राप्त करे और दुर्भाग्य कि वह उनको ही मिलता है जिनको अंग्रेजी आती है और तय बात है कि देश के अनेक हिन्दी संपादक उनके प्रशंसक बन जाते हैं।
उन वृद्ध लेखक ने अपने एक लेख में भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन से वीर सावरकर की तुलना कर डाली। यकीनन यह चिढ़ाने वाली बात है। अगर अंग्रेजी अखबार में ही यह सब छप जाता तो कोई बात नहीं मगर उसे हिन्दी अखबार में भी जगह मिली। यह हिन्दी की महिमा है कि जब तक उसमें कोई लेखक न छपे तब तक वह अपने को पूर्ण नहीं मान सकता और जितने भी इस समय प्रतिष्ठित लेखक हैं वह अंग्रेजी के ही हैं इसलिये ही अपने अनुवाद अखबारों में छपवाते हैं। इससे प्रकाशन जगत और लेखक दोनों का काम सिद्ध होता है। अंग्रेजी का लेखक पूर्णता पाता है तो हिन्दी प्रकाशन जगत के कर्णधार भी यह सोचकर चैन की संास लेते हैं कि किसी आम हिन्दी लेखक की सहायता लिये बगैर ही हिन्दी में अपना काम चला लिया।
वह लेखक क्या लिखते हैं? उनका लिखा याद नहीं आ रहा है। चलिये उनकी शैली में कुछ अपनी शैली मिलाकर एक कल्पित संस्मरण लिख लेते हैं।
मैं ताजमहल पहुंच गया। उस समय आसमान में बादल थे पर उमस के कारण पसीना भी बहुत आ रहा था। कभी कभी ठंडी हवा चल रही थी तब थोड़ा अच्छा लगता था। बीच बीच में धूप भी निकल आती थी। ताजमहल के प्रवेश द्वार पर खड़ा होकर मैं उसे निहार रहा था। तभी वहां दो विदेशी लड़किया आयीं। बाद में पता लगा कि एक फ्रांस की तो दूसरी ब्रिटेन की है।
फ्रांसीसी  लड़की मुझे एकटक निहारते हुए देखकर बोली-‘‘आप ताजमहल को इस तरह घूर कर देख रहे हैं लगता है आप यहां पहली बार आये हैं। आप तो इसी देश के ही हैं शायद….आप इस ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं।’
मैं अवाक होकर उसे देख रहा था। वह बहुत सुंदर थी। उसने जींस पहन रखी थी। उसके ऊपर लंबा  पीले रंग का कुर्ता  उसके घुटनों तक लटक रहा था। मैने उससे कहा-‘‘ मैं ताजमहल देखने आज नहीं आया बल्कि एक प्रसिद्ध लेखक की किताब यहां ढूंढने आया हूं। उस किताब को अनेक शहरों में ढूंढा पर नहीं मिली। सोच रहा हूं कि यहां कोई हॉकर शायद उसे बेचता हुए मिल जाये। वह किताब मिल जाये तो उसे पढ़कर कल तसल्ली से ताज़महल देखूंगा और सोचूंगा।’
वह फ्रांसीसी  लड़की पहले तो मेरी शक्ल हैरानी से देखने लगी फिर बोली-‘पर आप तो एकटक इसे देखे जा रहे हैं और कहते हैं कि कल देखूंगा।’’
मैंने कहा-‘‘मेरी आंखें वहां जरूर हैं पर ताजमहल को नहीं  देख रहा और न सोच रहा  क्योंकि उसके लिये मुझे उस प्रसिद्ध लेखक की एक अदद किताब की तलाश है जिसमें यह दावा किया गया है कि ताजमहल किसी समय तेजोमहालय नाम का एक शिव मंदिर था।’’
उसके पास खड़ी अंग्रेज लड़की ने कहा-‘हमारा मतलब यह था कि आप इस समय ताजमहल के बारे में क्या सोच रहे हैं? वह किताब पढ़ने के बाद आप जो भी सोचें, हमारी बला से! आप किताब पढ़ने की बात बताकर अपने आपको विद्वान क्यों साबित करना चाहते हैं?’
मैंने कहा-‘नहीं, बिना किताब पढ़े हम आधुनिक हिन्दी लोगों की सोच नहीं चलती। मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूं, बस मुझे वह किताब मिल जाये तो….अपना विचार आपको बता दूंगा।’
अंग्रेज लड़की ने कहा-‘कमाल है! एक तो हम यहां ताज़महल देख रहे है दूसरा आपको! जो किताब पढ़े बिना अपनी सोच बताने को तैयार नहीं है।’
मैंने कहा-‘क्या करें? आपके देश की डेढ़ सौ साल की गुलामी हमारी सोचने की ताकत को भी गुलाम बनाकर रख गयी। इसलिये बिना किताब के चलती नहीं।’
बात आयी गयी खत्म हो गयी थी। मैं शाम को बार में बैठा अपने एक साथी के साथ शराब पी रहा था। मेरा साथी उस समय मेरे सामने बैठा सिगरेट के कश लेता हुआ मेरी समस्या का समाधान सोच रहा था।’
नशे के सरूर में मेरी आंखें भी अब कुछ सोच रही थीं। अचानक मेरे पास दो कदम आकर रुके और सुरीली आवाज मेरी कानों गूंजी-‘हलौ, आप यहां क्या ताज़महल पर लिखी वह किताब ढूंढने आये हैं।’
मैने अचकचा कर दायें तरफ ऊपर मुंह कर देखा तो वह फ्रांसिसी लड़की खड़ी थी। उसके साथ ही वह अंग्रेज लड़की कुछ दूर थी जो अब पास आ गयी। वह फ्रांसिसी लड़की मुस्करा रही थी और यकीनन उसका प्रश्न मजाक उड़ाने जैसा ही था।
मैंने हंसकर कहा-‘हां, इस कबाड़ी को इसलिये ही यहां लाया हूं क्योकि इसने वादा किया है कि एक पैग पीने का बाद याद करेगा कि इसने वह किताब कहां देखी थी। वह किताब उसके कबाड़ की दुकान पर भी हो सकती है, ऐसा इसने बताया।’’
अंग्रेज लड़की बोली-‘अच्छा! आप अगर किताब पा लें तो पढ़कर कल हमें जरूर बताईयेगा कि ताजमहल के बारे में क्या सोचते हैं? कल हम वहां फिर आयेंगीं।’
मैंने कहा-‘ताजमहल एक बहुत अच्छी देखने लायक जगह है। उसे देखकर ऐसा अद्भुत अहसास होता है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।’
दोनों लड़कियां चौंक गयी। अंग्रेज लड़की बुझे घूरते हुए बोली-‘पर आपने तो वह किताब पढ़ी भी नहीं। फिर यह टिप्पणी कैसे कर दी। आप तो बिना किताब पढ़े कुछ सोचते ही नहीं’।
मैंने कहा-‘हां यह एक सच बात है पर दूसरा सच यह भी है कि शराब सब बुलवा लेती है जो आप सामान्य तौर से नहीं बोल पाते।’’
यह था एक कल्पित संस्मरण! यह कुछ बड़ा हो गया और इसे ताज़महल से बार तक इसे खींचकर नहीं लाते तो भी चल जाता पर लिखते लिखते अपनी शैली हावी हो ही जाती है क्योकि ताज़महल तक यह संस्मरण ठीक ठाक था पर उससे आगे इसमें कुछ अधिक प्रभाव लग रहा है।
मगर हम जिस लेखक की चर्चा कर रहे हैं वह इसी तरह ही दो तीन संस्मरण लिखकर और साथ में विवादास्पद मुद्दों पर आधी अधूरी होने के साथ ही बेतुकी राय रखकर लेख बना लेते हैं।
वैसे भी अंग्रेजी में लिखने पर हिन्दी में प्रसिद्धि पाने वाले लेखक को शायद ही हिन्दी लिखना आती हो पर अपने यहां एक कहावत हैं न कि ‘घर का ब्राह्म्ण बैल बराबर, आन गांव का सिद्ध’। अंग्रेजी लेखक को ही सिद्ध माना जाता है और हिन्दी को बेचारा। अंग्रेजी के अनेक लेखक बेतुकी, और स्तरहीन लिखकर भी हिन्दी में छाये रहते हैं। इनमें से अधिकतर राजनीतिक घटनाओं पर संबंधित पात्रों का नाम लिखकर ही उनका प्रसिद्ध बनाते हैं-अब यह उस पात्र की प्रशंसा करें या आलोचना दोनों में उसका नाम तो होता ही है। इनमें इतनी तमीज़ नहीं है कि जो व्यक्ति देह के साथ जीवित नहीं हो उस पर आक्षेपात्मक तो कभी नहीं लिखना चाहिये। कम से कम उनकी मूल छबि से तो छेड़छाड़ नहीं करना चाहिये। भिंडरवाले और ओसामा बिन लादेन की छबि अच्छी नहीं है पर सावरकर को एक योद्ध माना जाता है। उनके विचारों से किसी को असहमति हो सकती है पर इसको लेकर उनकी छबि पर प्रहार करना एक अनुचित कृत्य हैं। बहरहाल हिन्दी में ऐसे ही चिंदी लेखक प्रसिद्ध होते रहे हैं और यही शिकायत भी करते हैं कि हिन्दी में अच्छा लिखा नहीं जा रहा। चिंदी लेखक यानि अंग्रेजी में टुकड़े टुकड़े लिखकर उसके हिन्दी में बेचने वाले
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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