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बड़े बोल-हिंदी कविता


बड़े बोल
अपने ही जाल में फंसा देते हैं,
जो बोले वह रोए
बाकी जग को हंसा देते हैं।
कहें दीपक बापू
प्राण शक्ति अधिक नहीं है जिनमें
वही बड़े सपने दिखाते  हैं,
चमकदार ख्वाबों से
अपनी किस्मत लिखते हैं,
मगर ज़मीन पर बिखरे कांटो के सच
उनको गर्दिश में धंसा देते हैं।

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लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

नारों का व्यापार-हिंदी शायरी



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जमाने को बदल देने का नारा
वह रोज  सुनायेंगे,
कुछ गीत और गजलें
बस यूं ही  गुनगुनायेंगे।
कहें दीपक बापू
खुद कभी बदलने का प्रयास करते नहीं,
नियमों की जंजीरों से बंधें उनके हाथ
लाचारी जताते
वादे करते कभी नहीं थकते
किसी की झोली आस से भरते नहीं,
बहता रहेगा समय अपनी चाल से
लोग भूलेंगे, उनके घर भरेंगे माल से
इसी तरह वह नारों को हमेशा भुनायेंगे।

 

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
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८.हिन्दी सरिता पत्रिका

 

 

शराब और शराबी -हास्य कविता (drink and drunker-hindi comedy poem)


त्यौहार के दिन
फंदेबाज घर आया और बोला
‘‘दीपक बापू आज पहली बार दे रहा हूं सात्विक बधाई,
यह पहला मौका है है
जब मैने किसी खास अवसर पर
अपने मुंह से शराब की एक बूंद भी नहीं लगाई।
सोच रहा हूं पीना छोड़ दूं
वरना कहीं कोई पीट पीटकर कर न दे धराशायी,
भ्रष्टाचार के विरोधी अन्ना साहेब ने
शराबियों को हंटर से पीटने की आवाज जो लगाई।
आप तो जानते हैं,
लोग उनको बहुत मानते हैं,
उनके दर्शन में भले लगता नहीं दम है,
पर नारों का वजन नहीं कम है,
आपने पीना छोड़ दिया है,
इसलिये अपने को उनकी मुहिम से जोड़ दिया है,
इसलिये आप भी शराब के खिलाफ लिखो,
उनके कट्टर समर्थक की तरह दिखो,
अभी तक आप रहे फ्लाप हो
संभव हिट हो जाओ
करने लगें लोग आपकी बड़ाई।’’

सुनकर चुप रहे पहले
फिर गला खंखारकर बोले
‘‘दूसरों के मसौदे देखकर अपनी राह बदलें
यह आमजन को बहुत भाता है,
अन्ना की बात सुनकर
शराब छोड़ने के नारे बहुत लोग लगायेंगे
पर देखेंगे कौन इस पर चल पाता है,
हम जानते हैं
अन्ना 74 बरस में भी स्वस्थ हैं
क्योंकि अपनी जिंदगी में शराब नहीं पिये,
अमेरिका में उनसे भी बड़ी उम्र के लोग जिंदा हैं
जिन्होंने एक नहीं बहुत सारे पैग लिये,
बहुत बुरी चीज है शराब,
फिर भी लोग पीते साथ में खाते कबाब,

दुनियां का सच है
जिस बुराई को दबाने का प्रयास करो
बढ़ती जायेगी,
पहले फ्लाप हो रही
क्रिकेट खेलकर
अन्ना ने उसमें अपने प्रशंसकों लगाया
अब उनके मुख से निकली बात
शराब भी शायद वैसा ही प्रचार पायेगी,
हम ठहरे गीता साधक
बुराई से नफरत करते,
मगर बुरे आदमी में ज्ञान के सूत्र भरते,
अरे,
परमात्मा नहीं खत्म कर पाया
तामसी प्रवृत्ति के लोगों को,
भला क्या भगायेंगे अन्ना संसार से ऐसे रोगों को,
सारे संसार को ठीक करने का ठेका लेना
आत्ममुग्ध करने वाली चीज है,
समझ लो इस भाव में ही
अज्ञान से उपजे अहंकार के बीज हैं,
इससे तो अपने बाबा रामदेव का दर्शन सही है,
कपाल भाति करे जो शख्स स्वस्थ वही है,
हमारा मानना है कि श्रीमद्भागवत गीता के साथ
पतंजलि योग में भरा है ज्ञान और विज्ञान,
देश भूल गया पर
बाकी विश्व रहा है मान,
फिर कौन अपने को बाज़ार से
कभी चंदा मिला है,
खुद नहीं पीते
मगर नहीं पीने वालों से गिला,
समझें जो लोग
अपनी वाणी से करना
भूल जाते निंदा और बड़ाई
हम जैसे लोगों के लिये नारे लगाना संभव नहीं है
कर सकते हैं आध्यात्मिक चिंत्तन
फिर जहां मौका मिला वहीं हास्य कविता बरसाई।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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एकता की कोशिश-हिन्दी शायरी



भीड़ में एकता की कोशिश पर
हंसी आ ही जाती है।
जहां पहले ही
चीख रहे हैं लोग
अपनी करनी का बखान करते हुए
बंद किये हैं कान,
आंखों  से ढूंढ रहे अपने लिये सम्मान,
वहां शांति के नारे की आवाज
शोर करती नजर आती है।
——-
वफादारी 
खामोश जज़्बात के साथ बह जाती है।
गद्दारी के घाव से पैदा आह
दिल से निकलकर
जुबान पर आकर चीखती
तब सनसनी फैल जाती है।
यही वजह है
नाम कमाने के लिये
गद्दारी ही सभी को भाती है।

फरिश्ते होने का अहसास जताते-व्यंग्य कविता


किताबों में लिखे शब्द
कभी दुनियां नहीं चलाते।
इंसानी आदतें चलती
अपने जज़्बातों के साथ
कभी रोना कभी हंसना
कभी उसमें बहना
कोई फरिश्ते आकर नहीं बताते।

ओ किताब हाथ में थमाकर
लोगों को बहलाने वालों!
शब्द दुनियां को सजाते हैं
पर खुद कुछ नहीं बनाते
कभी खुशी और कभी गम
कभी हंसी तो कभी गुस्सा आता
यह कोई करना नहीं सिखाता
मत फैलाओं अपनी किताबों में
लिखे शब्दों से जमाना सुधारने का वहम
किताबों की कीमत से मतलब हैं तुम्हें
उनके अर्थ जानते हो तुम भी कम
शब्द समर्थ हैं खुद
ढूंढ लेते हैं अपने पढ़ने वालों को
गूंगे, बहरे और लाचारा नहीं है
जो तुम उनका बोझा उठाकर
अपने फरिश्ते होने का अहसास जताते।।
————–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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चेहरे कब तक बनावटी सामान से सजाओगे-हिन्दी शायरी


शोला कहो या शबनम
मोहब्बत के जज्बातों के
इजहार में हर लफ्ज़ है कम।
मगर जिदंगी में सफर में
खूबसूरत हमसफर भी
लगते हैं बदसूरत
जब होते है सामने गम।
चैहरे को कब तक बनावटी सामान से
कितना चमकाओगे
उम्र के साथ फीके होते जाओगे
जला सके ताउम्र खूबसूरत कोई चिराग
जिस्म की मोहब्बत में नहीं है इतना दम।
…………………….
रंगबिरंगे कागज पर शायरी लिखने से
रंगीन नहीं हो जाएगी
शब्द को शोर करते हुए लिखने से
संगीन नहीं हो जाएगी।
रोते हुए उसके जज़्बातों से
वह गमगीन नहीं हो जाएगी।
ओ शायर!
जब तेरे अल्फ़ाजों में
तुझे तेरा अक्स दिखने लगे
तू हो जाये बेहोश
तेरे जज़्बात खुद लिखने लगे
तभी समझना कि तेरी शायरी
जमाने में रौशन हो जायेगी।

………………………………

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इन्सान अब बुत बनने लगे हैं – हास्य व्यंग्य कविताएँ


असली इंसानों के चेहरे अब बुत की तरह नजर आते।
लिखता कोई और संवाद, वह बोलते हुए दिख जाते।।
बहुत पढ़ लिख गये इंसान, पर सोच कहीं हो गयी गुम
कागज पर शब्द तो लिखते, पर जब कहीं से इशारे आते।।
अपनी आंखों से देखे दृश्य, इंसान की समझ से परे होते
तस्वीरें बनाने के लिये नजरिया कहीं से उधार मांग लाते।।
इंसान की काबलियत अब उसके शऊर से नहीं कोई आंकता
बल्कि पैसे से खरीदी तालियों पर प्रसिद्धि भी घर आती।।

…………………………..

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थप्पड़ मारकर सलाम तो किया-तीन क्षणिकायें


कुत्ता कहा तो क्या
इनाम तो दिया
आखिर गोरों ने दिया
गुलाम की तरह व्यवहार किया तो क्या
थप्पड़ मारकर सलाम तो किया
………………………
राष्ट्र का तभी जगाते वह स्वाभिमान
गोरे जब गुलाम की तरह सजाकर
कुत्ते को हड्डी फैंकने की तरह
देते इनाम
………………………..
15 अगस्त 1947 के बाद भी
जिंदा है गुलामों की शान
पहले भी अपने वफादारों को
देते थे गोरे उपाधियां
अब भी देते हैं सम्मान
आजादी से सोचने पर लगा रखी है
जिन्होंने पाबंदी खुद ही
वही गुलाम है शोभायमान
उनके लिये शायद यही है स्वाभिमान

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बेरंग हो गया मन, कैसे खेलते होली-व्यंग्य कविता


पृथ्वी के भ्रुण में पानी की जगह हो गयी पोली ।
पिचकारी में रंग नहीं भरता, कैसे मनायें प्रियतम होली।।

आंखों के जो लोग नूर थे,बन गये अब किरकिरी
बेरंग हो गया मन और नजरें, किसके साथ खेलें होली।।

सामान के सागर बन गये हैं घर, आखें हटती नहीं उससे
नजरों के आगे सोच नहीं जाती जिनकी, कैसे खेलेंगे होली।।

देवर भाभी और जीजा साली की मजाक लगती है पुरानी
एक दिन पर्दा हटता था, पर शर्म भी कहां रही अब भोली ।।

अपने पराये का भेद मिटाकर होली खेलने का मौका कहां रहा
रिश्तों में होने लगे हैं जख्म गहरे, बंद हो जाती बोली।।

रसायनों से मिलकर बन गये सभी रंग कीचड़ जैसे
सुनसान सड़कों पर घूमने से अब डराती है होली।।

दिल का अंधेरा कहीं चेहरे पर नहीं दिख जाये
रंग कहीं बयां न करें असलियत, इसलिये नहीं मनाई होली ।।

……………………

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

सभी पियक्कड़ हो जाते, जो पहुंचे मधुशाला-व्यंग्य


हिंदी भाषा के महान कवि हरिबंशराय बच्चन ने मधुशाला लिखी थी। अनेक लोगों ने उसे नहीं पढ़ा। कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने उसे थोड़ा पढ़ा। कुछ लोगों ने जमकर पढ़ा। हमने उसके कुछ अंश एक साहित्यक पत्रिका में पढ़े थे। एक बार किताब हाथ लगी पर उसे पूरा नहीं पढ़ सके और लायब्रेरी में ं वापस जमा कर दी। मधुशाला के कुछ काव्यांश प्रसिद्ध हैं और देश की एकता के लिये उनका उपयेाग जमकर किया जाता है। उनका आशय यह है कि सर्वशक्तिमान के नाम पर बने सभी प्रकार के दरबार आपस में झगड़ा कराते हैं पर मधुशाला सभी को एक जैसा बना देती है। मधुशाला को लेकर उनका भाव संदेशात्मक ही था। एक तरह से कहा जाये तो उन्होने मधुशाला की आड़ में समाज को एकता का संदेश दिया था। हमने अभी तक उसके जितने भी काव्यांश देखे है उनमें मधुशाला पर लिखा गया है पर मद्यपान पर कुछ नहीं बताया गया। सीधी भाषा में कहा जाये तो मधुशाला तक ही उनका संदेश सीमित था पर मद्यपान में उसमें गुण दोषों का उल्लेख नहीं किया गया।
अब यह बताईये कि मधुशाला में मद्यपान नहीं होगा तो क्या अमृतपान होगा?बहुत समय तक लोग एकता के संदेशों में मधुशाला के काव्यांशों का उल्लेख करते हैं पर मद्यपान को लेकर आखें मींच लेते हैं। उनमें वह भी लोग हैं जो मद्यपान नहीं करते। नारों और वाद पर चलने का यह सबसे अच्छा उदाहरण है। मधुशाला पवित्र और एकता का संदेश देने वाली पर मद्यपान…………..यानि देश में गरीबी का एक बहुत बड़ा कारण। इससे आंखें बंद कर लो। चिंतन के दरवाजे मधुशाला से आगे नहीं जाते क्योंकि वहां से मद्यपान का मार्ग प्रारंभ होता है ं।

चलिये मधुशाला को जरा आज के संदर्भ में देख लें। बीयर बार और पब भी आजकल की नयी मधुशाला हैं। जब से यह शब्द प्रचलन में आये हैं तब से मधुशाला की कविताओं का प्रंचार भी कम हो गया है। पिछले दिनों हमने पब का अर्थ जानने का प्रयास किया पर अंग्रेजी डिक्शनरी में नहीं मिला। तब एक ऐसे सभ्य,संस्कृत और आधुनिक शैली जीवन के अभ्यस्त आदमी से इसका अर्थ पूछा तब उन्होंने बताया कि ‘आजकल की नयी प्रकार की कलारी भी कह सकते हो।’ कलारी से अधिक संस्कृत शब्द तो मधुशाला ही है। दरअसल आजकल कलारी शब्द देशी शराब के संबंध में ही प्रयोग किया जाता है। बहरहाल मधुशाला का अर्थ अगर मद्यपान का केंद्र हैं तो पब का भी आशय यही है।

स्व. हरिबंशराय बच्चन की मधुशाला में कई बातें लिखी गयी हैं जिनमें यह भी है कि मधुशाला एक ऐसी जगह है जहां पर जाकर हर जाति,वर्ण,वर्ग,भाषा,धर्म और क्षेत्र का आदमी हम प्याला बन जाता है। उन्होंने यह शायद कहीं नहीं लिखा कि वहां स्त्रियों और पुरुष भी ं एक समान हो जाते है। अगर वह अपने समय में भी ऐसी बातें लिखते तो उनका जमकर विरोध हो जाता क्योंकि उस समय स्त्रियों के वहां जाने का कोई प्रचलन नहीं होता। मधुशाला प्रगतिवादियों की मनपसंदीदा पुस्तक है मगर मुश्किल है कि मद्यपान से आदमी का मनमस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है और उस समय सारी नैतिकता और नारे एक जगह धरे रह जाते हैंं।

आजकल पब का जमाना है और उसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही जाने लगे हैं। मगर पब मेें ड्रिंक करने पर भी वहीं असर होता है जो कलारी में दारु और मधुशाला में मद्यपान करने से होता है। पहले लोग कलारियों के पास अपना घर बनाने ये किराये पर लेने से इंकार कर देते थे पर आजकल पबों और बारों के पास लेने में उनको कोई संकोच नहीं होता। मगर दारु तो दारु है झगड़े होंगे। पीने वाले करें न न पीने वाले उनसे करें। जिस तरह पबों का प्रचलन बढ़ रहा है उससे तो लगता है कि आगे ‘आधुनिक रूप से’ फसाद होंगें। ऐसा ही कहीं झगड़ा हुआ वहां सर्वशक्तिमान के नाम पर बनी किसी सेना ने महिलाओं से बदतमीजी की। यह बुरी बात है। इसके विरुद्ध कड़ी कार्यवाही होना चाहिये पर जिस तरह देश के बुद्धिजीवी और लेखक इस घटना पर अपने विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं वह गंभीरता की बजाय हास्य का भाव पैदा कर रहा है। हमने देखा कि इनमें कुछ बुद्धिजीवी और लेखक मधुशाला के प्रशंसक रहे हैं पर उनको मद्यपान के दोषों का ज्ञान नहीं है। पहले भी कलारियों पर झगड़े होते थे पर उनमें लोग वर्ण,जाति,भाषा और धर्म का भेद नहीं देखते थे-क्योंकि मधुशाला के संदेश का प्रभाव था और सभी झगड़ा करने वाले ‘हमप्याला’ थे। मगर अभी एक जगह झगड़ा हुआ उसमें पब में गयी महिलाओं से बदतमीजी की गयी। यह एक शर्मनाक घटना है और उसके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही भी की जा रही पर अब इस पर चल रही निरर्थक बहस में ं दो तरह के तर्क प्रस्तुत किया जा रहे हैं।

1.कथित प्रगतिवादी लेखक और बुद्धिजीवी वर्ग के लोग इसमें अपनी रीति नीति के अनुसार महिलाओं पर अनाचार का विरोध कर रहे हैं क्योंकि मधुशाला में स्त्रियों और पुरुषों के हमप्याला होने की बात नहीं लिखी।
2.गैरप्रगतिवादी लेखक और बुद्धिजीवी महिलाओं के शराब पीने पर सवाल उठा रहे हैं। कुछ दोनों का हमप्याला होने पर आपत्ति उठा रहे हैं।
हम दोनों से सहमत नहीं हैं।

जहां तक घटना का सवाल है तो हमें यह जानकारी भी मिली है कि वहां कुछ पुरुषों के साथ बदतमीजी की गयी थी। इसलिये केवल महिलाओं के अधिकारों की बात करना केवल सतही विचार है। महिलाओं को शराब नहीं पीना चाहिये तो शायद इस देश के कई जातीय समुदायों के लोग सहमत नहीं होंगे क्योकि उनमें महिलायें भी मद्य का अपनी प्राचीन परंपराओं के अनुसार सेवन करती हैं। किसी घटना पर इस तरह की सोच इस बात को दर्शाती हैं कि लोगों की सीमित दायरे में कुछ घटनाओं पर लिखने तक ही सीमित हो रहे हैं। मजे की बात यह है कि मधुशाला पढ़ने वाले हमप्यालों के एक होने पर तो सहमत हैं पर झगड़े होने पर तमाम तरह के पुराने भेद ढूंढ कर बहस करने लगते हैं। बहरहाल इस पर हमारी एक कुछ काव्य के रूप में पंक्तियां प्रस्तुत हैं।

किसी भी घर का बालक हो या बाला
पियक्कड़ हो जाते जो पहुंचे मधुशाला
मत ढूंढों जाति,धर्म,भाषा,और लिंग का भेद
सभी को अमृतपान कराती मधुशाला
नशे में टूट गया, एक जो था गुलदस्ता
हर फूल को अपने से उसने अलग कर डाला
जो खुश होते थे देखकर रोज वह मंजर देखकर
करने लगे आर्तनाद,भूल गये वह थी मधुशाला
मद्यपान की जगह होगी जहां, वहां होंगे फसाद
नाम पब और बार हो या कहें अपनी मधुशाला
……………………………………………

आदमी हो या औरत पीने का मन
किसका नहीं करता
यारों, चंद शराब के कतरों की धारा में
संस्कृति नहीं बहा करती
आस्था और संस्कारों की इमारत
इतनी कमजोर नहीं होती
टूट सकती है शराब की बोतल से
जो संस्कृति वह बहुत दिन
जिंदा रहने की हक भी नहीं रखती
अपने इरादों पर कमजोर रहने वाला इंसान ही
यकीन को जिंदा रखने के लिये जंग की बात करता

……………………………………

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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