केरल ट्रावनकोर में स्वामी पद्मनाभ मंदिर में खजाना मिलने की घटना इस विश्व का आठवां आश्चर्य मानना चाहिए। आमतौर से भारत में गढ़े खजाने होने की बात अक्सर कही जाती है। अनेक सिद्ध तो इसलिये ही माने जाते हैं कि वह गढ़े खजाने का पता बताते हैं। यह अलग बात है कि वह अपने चेलों से पैसा ऐंठकर गायब हो जाते हैं। इससे एक बात तो सिद्ध होती है कि धर्म और भगवान अंध श्रद्धा रखने वालों को गढ़े खजाने में बहुत दिलचस्पी होती है और ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है।
ट्रावणकोर का खजाना पांच लाख करोड़ से ऊपर पहुंच जायेगा ऐसा कुछ आशावादी कह रहे हैं तो कुछ विचारक लोग इस बात से चिंतित हैं कि कहीं यह खजाना भी लुट न जाये।
प्रचार माध्यमों में भले ही इस खबर की चर्चा हो रही है पर आम जनमानस की उदासीनता भी कम आश्चर्य का विषय नहीं है। मिल गया तो और लुट गया तो इसमें उनको अपना कोई हित या अहित नहीं दिखता। इससे एक बात निश्चित लग रही है कि देश के समाज, अर्थ और धर्म के शिखर पर बैठे लोग की तरह उनमें दिलचस्पी रखने का आदी बौद्धिक वर्ग के लोग भी आमजन के चिंताओं से दूर हो गया है। उसे पता ही नहीं कि जनमानस के मन में क्या चल रहा है? यह देश के लिये खतरनाक स्थिति है पर ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है क्योंकि बाजार और प्रचार से प्रयोजित बौद्धिक समूह समाज से कट चुका है।
दरअसल हमारे देश में आधुनिक लोकतंत्र ने जहां आम आदमी के लिये सत्ता में भागीदारी का दरवाजा खोला है वहीं ऊंचा पद पाने की उसकी लालसा को बढ़ाया भी है। जिन लोगों को यह मालुम है कि उच्च पद उनके भाग्य नहंी है वह उच्च पदस्थ लोगों के अनुयायी बनकर उनके प्रचारक बन जाते हैं। यही प्रचारक अपनी बात समाज की अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने का दावा करते हैं। शिखर पुरुषों का आपस में एक तयशुदा युद्ध चलता है और आम आदमी उसे मूकभाव से देखता है। फिर इधर धनवान, पदवान, कर्मवान, धर्मवान तथा अधर्मवान लोगों का एक समूह है जो पूरे विश्व पर शासन करने लगा है। उसने इस तरह का वातावरण बनाया है कि हर व्यक्ति और क्रिया का व्यवसायीकारण हो गया है। लिखने, पढ़ने, बोलने और देखने की क्रियाओं में स्वतंत्रता नहीं रही। न अभिव्यक्ति में मौलिकता है। विचाराधाराओं, धर्मो, जातियों और भाषाओं के क्षेत्र में सक्रिय लोग प्रायोजित हैं। उनकी अभिव्यक्ति स्वतंत्र नहीं प्रायोजित है। उनकी अभिव्यक्ति सतही है। बाज़ार जैसी प्रेरणा निर्मित करता है प्रचार में वैसी ही अभिव्यक्ति दिखाई देती है।
ऐसे में नये आदमी और नये विचार को वैसे भी कोई स्थान नहीं मिलता फिर प्रायोजन की प्रवृत्ति ने आमजान को भी इतना संकीर्ण मानसिकता का बना दिया है कि उसे गूढ़ बात समझ में नहीं आती। भारत में अभी तक कहा जाता था कि आर्थिक संकट है पर किसी ने यह नहीं कहा कि बौद्धिकता का संकट है। कुछ दिन पहले स्विस बैंक में कथित रूप से भारतीयों के चार लाख करोड़ जमा होने की बात सामने रखकर कुछ लोग कह रहे थे कि यह पैसा अगर देश में आ जाये तो देश की तस्वीर बदल जाये। अगर त्रावणकोर के खजाने की बात कही जाये तो वह भी कम नहीं है तब क्या कोई उसके सही उपयोग की बात कोई नहंी कर रहा है। ढोल जब दूर हैं तो सुहावने बताये और पास आया तो कहने लगे कि हमें बजाना नहीं आता इसलिये इसे सजाकर रखना है। फिर एक सवाल यह भी है कि इसका उपयोग किया जाये तो क्या वाकई इस देश की स्थिति सुधर जायेगी। कतई नहीं क्योंकि हमारे देश की समस्या धन की कमी नहीं बल्कि मन की कमी है। मन यानि आत्मविश्वास की कमी ही देश का असली संकट है और यह विचारणीय विषय है। इस विषय पर वह लेख एक साथ प्रस्तुत हैं जो इस लेखक ने इंटरनेट पर लिखे और पाठकीय दृष्टि से फ्लाप रहे।
आम आदमी का पसीना-हिन्दी लेख (sone ke khazane se bada hai aam admi ka
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त्रावणकोर के स्वामी पद्मनाभ मंदिर में सोने का खजाना मिलने को
अनेक प्रकार की बहस चल रही है। एक लेखक, एक योग साधक और एक
विष्णु भक्त होने के कारण इस खजाने में इस लेखक दिलचस्पी बस इतनी ही है कि
संसार इस खजाने के बारे में क्या सोच रहा है? क्या देख रहा है? सबसे बड़ा
सवाल इस खजाने का क्या होगा?
कुछ लोगों को यह लग रहा है कि इस खजाने का प्रचार अधिक नहीं होना चाहिए था
क्योंकि अब इसके लुट जाने का डर है। इतिहासकार अपने अपने ढंग से
इतिहास का व्याख्या करते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञानियों का अपना एक अलग
नजरिया होता है। दोनों एक नाव पर सवारी नहीं करते भले ही एक घर में रहते
हों। इस समय लोग स्विस बैंकों में कथित रूप से भारतीयों के जमा चार लाख
करोड़ के काले धन की बात भूल रहे हैं। इसके बारे में कहा जा रहा था कि यह
रकम अगर भारत आ जाये तो देश के हालत सुधर जायें। अब त्रावनकोर के
पद्मनाभ मंदिर के खजाने की राशि पांच लाख करोड़ तक पहुंचने का अनुमान लगाया
जा रहा है। बहस अब स्विस बैंक से हटकर पद्मनाभ मंदिर में पहुंच
गयी है।
हमारी दिलचस्पी खजाने के संग्रह की प्रक्रिया में थी कि त्रावणकोर के
राजाओं ने इतना सोना जुटाया कैसे? इससे पहले इतिहासकारों से यह भी पूछने
चाहेंगे कि उनके इस कथन की अब क्या स्थिति है जिसमें वह कहते हैं कि भारत
की स्वतंत्रता के समय देश के दो रियासतें सबसे अमीर थी एक हैदराबाद दूसरा
ग्वालियर। कहा जाता है कि उस समय हैदराबाद के निजाम तथा ग्वालियर
के सिंधियावंश के पास सबसे अधिक संपत्ति थी। त्रावणकोर के राजवंश का नाम नहीं आता पर अब लगता है कि इसकी संभावना अधिक है कि वह सबसे अमीर रहा होगा। मतलब यह कि इतिहास कभी झूठ भी बोल सकता है
इसकी संभावना सामने आ रही है। बहरहाल त्रावणकोर के राजवंश विदेशी व्यापार
करता था। बताया जाता है कि इंग्लैंड के राजाओं के महल तक उनका
सामान जाता था। हम सब जानते हैं कि केरल प्राकृतिक रूप से संपन्न राज्य रहा
है। फिर त्रावणकोर समुद्र के किनारे बसा है। इसलिये
विश्व में जल और नभ परिवहन के विकास के चलते उसे सबसे पहले लाभ होना ही
था। पूरे देश के लिये विदेशी सामान वहां के बंदरगाह पर आता होगा
तो यहां से जाता भी होगा। पहले भारत का विश्व से
संपर्क थल मार्ग से था। यहां के व्यापारी सामान लेकर मध्य एशिया के मार्ग
से जाते थे। तमाम तरह के राजनीतिक और धार्मिक परिवर्तनों के चलते यह मार्ग
दुरुह होता गया होगा तो जल मार्ग के साधनों के विकास का उपयोग तो बढ़ना ही
था। भारत में उत्तर और पश्चिम से मध्य एशियाई देशों से हमले हुए
पर जल परिवहन के विकास के साथ ही पश्चिमी देशों से भी लोग आये।
पहले पुर्तगाली फिर फ्रांसिसी और फिर अंग्रेज। ऐसे में भारत के
दक्षिणी भाग में भी उथल पुथल हुई। संभवत अपने काल के
शक्तिशाली और धनी राज्य होने के कारण त्रावनकोर के तत्कालीन राजाओं को
विदेशों से संपर्क बढ़ा ही होगा। खजाने के इतिहास की जो जानकारी आ
रही है उसमें विदेशों से सोना उपहार में मिलने की भी चर्चा है।
यह उपहार फोकट में नहीं मिले होंगे। यकीनन विदेशियों को अनेक
प्रकार का लाभ हुआ होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस मार्ग से भारत में आना
सुविधाजनक रहा होगा। विदेशियों ने सोना दिया तो उनको क्या मिला
होगा? यकीनन भारत की प्रकृतिक संपदा मिली होगी जिसे हम कभी सोने जैसा नहीं
मानते। बताया गया है कि त्रावणकोर का राजवंश चाय, कॉफी और काली मिर्च के
व्यापार से जुड़ा रहा है। मतलब यह कि चाय कॉफी और काली मिर्च
हमारे लिये सोना नहीं है पर विदेशियों से उसे सोने के बदले लिया।
सोना भारतीयों की कमजोरी रहा है तो भारत की प्राकृतिक और मानव संपदा
विदेशियों के लिये बहुत लाभकारी रही है। केवल त्रावणकोर का
राजवंश ही नहीं भारत के अनेक बड़े व्यवसायी उस समय सोना लाते और
भारत की कृषि और हस्तकरघा से जुड़ी सामग्री बाहर ले जाते थे।
सोने की खदानों में मजदूर काम करता है तो प्रकृतिक संपदा का दोहन भी मजदूर
ही करता है। मतलब पसीना ही सोने का सृजन करता है।
अपने लेखों में शायद यह पचासवीं बार यह बात दोहरा रहे हैं कि विश्व के
भूविशेषज्ञ भारत पर प्रकृति की बहुत कृपा मानते हैं। यहां भारत
का अर्थ व्यापक है जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान नेपाल,
श्रीलंका,बंग्लादेश और भूटान भी शामिल है। इस पूरे क्षेत्र को
भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता रहा है पर पाकिस्तान से मित्रता की मजबूरी के
चलते इसे हम लोग आजकल दक्षिण एशिया कहते हैं।
कहा जाता है कि कुछ भारतीय राज्य तो ऐसे भी हुए हैं जिनका तिब्बत तक राज्य
फैला हुआ था। दरअसल उस समय के राजाओं में आत्मविश्वास था और
इसका कारण था अपने गुरुओं से मिला अध्यात्मिक ज्ञान!
वह युद्ध और शांति में अपनी प्रजा का हित ही सोचते थे। अक्सर
अनेक लोग कहते हैं कि केवल अध्यात्मिक ज्ञान में लिप्तता की वजह से यह देश
विदेशी आक्राताओं का शिकार बना। यह उनका भ्रम है। दरअसल अध्यात्मिक शिक्षा
से अधिक आर्थिक लोभ की वजह से हमें सदैव संकटों का सामना करना
पड़ा। समय के साथ अध्यात्म के नाम पर धार्मिक पांखड और उसकी आड़
में आमजन की भावनाओं से खिलवाड़ का ही यह परिणाम हुआ कि यहां के राजा,
जमीदार, और साहुकार उखड़ते गये।
सोने से न पेट भरता है न प्यास बुझती है। किसी समय सोने की
मुद्रायें प्रचलन में थी पर उससे आवश्यकता की वस्तुऐं खरीदी बेची जाती थी।
बाद में अन्य धातुओं की राज मुद्रायें बनी पर उनके पीछे उतने ही
मूल्य के सोने का भंडार रखने का सिद्धांत पालन में लाया जाता था।
आधुनिक समय में पत्र मुद्रा प्रचलन में है पर उसके पास सिद्धातं यह बनाया
गया कि राज्य जितनी मुद्रा बनाये उतने ही मूल्य का सोना अपने भंडार में
रखे। गड़बड़झाला यही से शुरु हुआ। कुछ देशों ने अपनी पत्र मुद्रा
जारी करने के पीछे कुछ प्रतिशत सोना रखना शुरु किया। पश्चिमी
देशों का पता नहीं पर विकासशील देशों के गरीब होने कारण यही है कि जितनी
मुद्रा प्रचलन में है उतना सोना नहीं है। अनेक देशों की सरकारों
पर आरोप है कि प्रचलित मुद्रा के पीछे सोने का प्रतिशत शून्य रखे हुए हैं।
अगर हमारी मुद्रा के पीछे विकसित देशों की तरह ही अधिक प्रतिशत में सोना हो
तो शायद उसका मूल्य विश्व में बहुत अच्छा रहे।
विशेषज्ञ बहुत समय से कहते रहे हैं कि भारतीयों के पास अन्य देशों से अधिक
अनुपात में सोना है। मतलब यह सोना हमारी प्राकृतिक तथा मानव
संपदा की वजह से है। यह देश लुटा है फिर भी यहां इतना सोना कैसे
रह जाता है? स्पष्टतः हमारी प्राकृतिक संपदा का दोहन आमजन अपने पसीने से
करता है जिससे सोना ही सोने में बदलता है।
सोना लुटने की घटनायें तो कभी कभार होती होंगी पर आमजन के पसीने से सोना
बनाने की पक्रिया कभी थमी नहीं होगी।
भारत में आमजन जानते हैं कि सोना केवल आपातकालीन मुद्रा है। कुछ
लोग कह रहे थे कि स्विस बैंकों से अगर काला धन वापस आ जाये तो देश विकास
करेगा मगर उतनी रकम तो हमारे यहां मौजूद है। अगर ढूंढने निकलें
तो सोने के बहुत सारे खजाने सामने आयेंगे पर समस्या यह है कि हमारे यहां
प्रबंध कौशल वाले लोग नहीं है। अगर होते तो ऐसे एक नहीं हजारों
खजाने बन जाते। प्रचार माध्यम इस खजाने की चर्चा खूब कर रहे हैं पर आमजन
उदासीन है। केवल इसलिये उसे पता है कि इस तरह के खजाने उसके काम नहीं आने
वाले। सुनते हैं कि त्रावणकोर के राजवंश ने अपनी प्रजा की विपत्ति में भी
इसका उपयोग नहीं किया था। इसका मतलब है कि उस समय भी वह अपने
संघर्ष और परिश्रम से अपने को जिंदा रख सकी थी। बहरहाल यह विषय बौद्धिक
विलासिता वाले लोगों के लिये बहुत रुचिकर है तो अध्यात्मिक साधकों के लिये
अपना बौद्धिक ज्ञान बघारने का भी आया है। जिनके सिर पर सोन का
ताज था वही कटे जिनके पास खजाने हैं वही लुटे जो अपने पसीने से अपनी रोटी
का सोना कमाता है वह हमेशा ही सुरक्षित रहा। हमारे देश में पहले
अमीरी और खजाने भी दिख रहे हैं पर इससे बेपरवाह समाज अधिक है क्योंकि उसके
पास सोना के रूप में बस अपना पसीना है। यह अलग बात है कि उसकी एक
रोटी में से आधी छीनकर सोना बनाया जाता है।
लें-हिन्दी व्यंग्य (hum prabandhyog seekh len-hindi
vyangya)
देखा जाये तो अपना देश अब गरीबों का देश भले ही है पर गरीब नहीं है। सोने
की चिड़िया पहले भी था अब भी है। यह अलग बात है कि अभी तक तो यह चिड़ियायें
पैदा होकर विदेशों में घोंसला बना लेती और अपने यहां लोग हाथ मलते। कहने को
तो यह भी कहा जाता है कि यहां कभी दूध की नदियां बहती थी अब भी बहती हैं
पर उनमें दूघ कितना असली है और कितना नकली यह अन्वेषण का विषय
है।
हम दरअसल स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन और केरल के पद्मनाभ
मंदिर में मिले खजाने की बात कर रहे हैं। इस खबर ने हमारे दिलोदिमाग के
सारे तार हिला दिये हैं कि पदम्नाभ मंदिर में अभी तक एक लाख करोड़ के हीरे
जवाहरात, कीमती सिक्के और सोने के आभूषण मिले हैं। अभी कुछ अन्य कमरे खोले
जाने हैं और यकीनन यह राशि बढ़ने वाली है। हम मान लेते हैं कि वहां चार लाख
करोड़ से कुछ कम ही होगी। यह आंकड़ा स्विस बैंक में जमा भारतीयों की रकम का
भी बताया जाता है। वैसे इस पर विवाद है। कोई कहता है कि दो लाख करोड़ है तो
कोई कहता तीन तो कोई कहता है कि चार लाख करोड़। हम मान लेते हैं कि स्विस
बैंकों में जमा काला धन और मंदिर में मिला लगभग बराबर की राशि का होगा। न
हो तो कम बढ़ भी हो सकता है।
हमें क्या? हम न स्विस बैंकों की प्रत्यक्ष जानकारी रखते हैं न ही पद्मनाभ
मंदिर कभी गये हैं। सब अखबार और टीवी पता लगता है। जब लाख करोड़ की बात
आती है तो लगता है कि दो अलग राशियां होंगी। तीन लाख करोड़ यानि तीन लाख और
एक करोड़-यह राशियां मिलाकर पढ़ना कठिन लगता है। । अक्ल ज्यादा काम करती
नहीं। करना चाहते भी नहीं क्योंकि अगर आंकड़ों में उलझे तो दिमाग काम करना
बंद कर देगा।
पहले टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले की बात सामने आयी। एक लाख 79 हजार करोड़ का
घोटाला बताया गया। फिर स्विस बैंक के धन पर टीवी और अखबार में चले
सार्वजनिक विवाद में चार लाख करोड़ के जमा होने की बात आई। विवाद और आंदोलन
के चलते साधु संतों की संपत्ति की बात भी सामने आयी। हालांकि उनकी
संपत्तियां हजार करोड़ में थी पर उनकी प्रसिद्धि के कारण राशियां महत्वपूर्ण
नहीं थी। फिर पुट्टापर्थी के सत्य सांई बाबा की संपत्ति की चर्चा भी हुई
तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गयी। चालीस हजारे करोड़ का अनुमान किया
गया। यह रकम बहुत छोटी थी इसलिये स्विस बैंकों की दो से चार लाख करोड़ का
मसला लगातार चलता रहा। अब पद्मनाभ मंदिर के खजाने मिलने की खबर से उस पर
पानी फिर गया लगता है।
का धन वापस आ जाये तो देश का उद्धार हो जाये। अनेक लोग इस रकम का
अर्थव्यवस्था के लिये अत्यंत महत्व बताते हुए अनेक तरह की विवेचना कर रहे
हैं। अब पद्मनाभ मंदिर के नये खजाने की राशि के लिये भी यही कहा जा रहा
है। ऐसे में हमारा कहना है कि जो महानुभाव विदेशों से काले धन को भारत
लाने के लिये जूझ रहे हैं वह अपने प्रयास अब ऐसे उपलब्ध धन के सही उपयोग
करने के लिये लगा दें। वैसे भी हमारे देश के सवौच्च न्यायालय ने विदेशों से
काला धन लाने के लिये अपने संविधानिक प्रयास तेज कर दिये हैं इसलिये निज
प्रयास अब महत्वहीन हो गये हैं। वैसे केरल के पद्मनाभ मंदिर का खजाना भी
न्यायालीयन प्रयासों के कारण सामने आया है। यकीनन आगे यह देश के खजाने में
जायेगा। उसके बाद न्यायालयीन प्रयासों की सीमा है। धन किस तरह कहां और कब
खर्च हो यह तय करना अंततः देश के प्रबंधकों का है। ऐसे में उनकी कुशलता
ही उसका सही उपयोग में सहयोग कर सकती है।
प्रबंध का अभाव कहा जाता है। अगर आप देश की आर्थिक स्थिति की बात करें तो
भूतकाल और वर्तमान काल में धन की बहुतायात के प्रमाण हैं। प्रकृति की
कृपा से यहां दुनियां के अन्य स्थानों से जलस्तर बेहतर है इसलिये खेती तथा
पशुपालन अधिक होता है। असली सोना तो वह है जो श्रमिक पैदा करता है यह अलग
बात है कि उसके शोषक उसे धातु के सोने के बदलकर अपने पास रख लेते हैं। जब
तक हिमालाय है तब तब गंगा और यमुना बहेगी और विंध्याचल है तो नर्मदा की
कृपा भी रहेगी। मतलब भविष्य में भी यहां सोना उगना है पर हमारे देश के
लोगों का प्रेम तो उस धातु के सोने से है जो यहां पैदा ही नहीं होता। मुख्य
समस्या यह है कि हमारे देश में सामाजिक सामंजस्य कभी नहीं रहा दावे चाहे
हम जितने भी करते रहें। जिसे कहीं धन, पद और बल मिला वह राज्य करना चाहता
है। इससे भी वह संतुष्ट नहीं होता। मेरा राज्य है इसके प्रमाण के लिये शोषण
और हिंसा करता है। राज्य का पद उपभोग के लिये माना जाता हैं जनहित करने के
लिये नहीं। जनहित का काम तो भगवान के भरोसे है। किसी को एक रोटी की जगह
दो देने की बजाय जिसके पास एक उसकी आधी भी छीनने का प्रयास किया जाता है यह
सोचकर कि पेट भरना तो भगवान का काम है हमें तो अपना संसार निभाना है
इसलिये किसी की रोटी छीने।
कि धनिक, राजपदवान, तथा बाहबली आपने से कमजोर की रक्षा करें। भारतीय
मनीषियों से पूर्वकाल में यह देखा होगा कि प्रकृति की कृपा के चलते यह देश
संपन्न है पर यहां के लोग इसका महत्व न समझकर अपने अहंकार में डूबे हैं
इसलिये उन्होंने समाज क सहज भाव से संचालन के सूत्र दिये। हुआ यह कि उनके
इन्हीं सूत्रों को रटकर सुनाने वाले इसका व्यापार करते हैं। कहीं धर्म भाव
तो कहीं कर्मकांड के नाम पर आम लोगों को भावनात्मक रूप से भ्रमित कर उसके
पसीने से पैदा असली सोने को दलाल धातु के सोने में बदलकर अपनी तिजोरी भरने
लगते हैं। वह अपने घर भरने में कुशल हैं पर प्रबंधन के नाम पर पैदल हैं।
अलबत्ता समाज चलाने का प्रबंधन हथिया जरूर लेते हैं। जाति, भाषा, धर्म,
व्यापार, समाज सेवा और जनस्वास्थ्य के लिये बने अनेक संगठन और समूह है पर
प्रबंधन के नाम पर बस सभी लूटना जानते हैं। जिम्मेदारी की बात सभी करते हैं
पर जिम्मेदार कहीं नहीं मिलता ।
पतंजलि योग में कहीं प्रबंध योग नहीं बताया जाता है पर अगर उसे कोई पढ़े और
समझे तो वह अच्छा प्रबंध बन सकता है। मुख्य विषय संकल्प का है और वह यह
कि पहले हम अपनी जिम्मेदारी निभाना सीखें। त्याग करना सीधें। संपत्ति संचय न
करें। जब हम कोई आंदोलन और अभियान चलाते हैं तो स्पष्टतः यह बात हमारे
मन में रहती है कि कोई दूसरा हमारा उद्देश्य पूरा करे। जबकि होना यह चाहिए
कि हम आत्मनियंत्रित होकर काम करें।
Gwalior
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