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राष्ट्रभाषा की सेवा और सम्मान-14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर विशेष हिन्दी हास्य रचना


हिन्दी दिवस पर फंदेबाज ने

कसी फब्तियां और बोला

दीपक बापू फ्लाप कवि की

जब तुम्हारी भूमिका देखता हूं

तब तरस आता है,

तुम लिखते हो शब्द

किसी के अर्थ समझ में नहीं आता है,

या तुम पर किसी का ध्यान नहीं होता,

ऐसा लगता है जब तुम लिखते हो,

तब पाठक सो जाता है,

या तुम्हारा शब्द प्रकाशित होते ही

अंतर्जाल की भीड़ में खो जाता है,

न कभी नाम मिला न नामा

14 सितम्बर हर बरस निकल जाता है।’’

सुनकर हंसे दीपक बापू

हम निराश नहीं होते,

क्योंकि आशा का बोझ कभी नहीं ढोते,

हिन्दी में सम्मान पाने की चाहत

हमें कभी रही नहीं,

लिखना बन गया धर्म

शब्द बन गये आराध्य देव

इसलिये कभी चाहतों की

पीड़ा कभी सही नहीं,

इस बार भी देखेंगे

हम हिन्दी दिवस पर तमाशा,

इस पर हुए गंभीर प्रवचन

बन जाते हमें लिये व्यंग्य विषय के

सृजन की आशा,

कुछ विद्वान बड़े बन जायेंगे,

कुछ बड़े विद्वान की तरह तन जायेंगे,

सभी आयेंगे मंच पर सीना तानकर,

श्रोता सुनेंगे उनको ज्ञाता मानकर,

गनीमत है अंतर्जाल पर हिन्दी

अधिक नहीं चलती है,

अपनी हर हास्य कविता

चाहे जैसी हो एकांत में मचलती है,

स्थानीय स्तर पर भी

कोई हमारा नाम नहीं जान पाया,

हम प्रसन्न हैं

हमारा हर शब्द वैश्विक स्तर पर छाया,

न मिला न मिलना चाहिये

हमें लेखकीय सम्मान,

हम एकांत साधना की चुके ठान,

देखते हैं हम भी दृष्टा की तरह

अनेक खड़े रहते सम्मान की पंक्ति में

किसी के रहते हाथ रहते खाली

किसी पर हिन्दी दिवस

प्यार से बरस ही जाता है।

————————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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राष्ट्र भाषा का महत्त्व समझने पर ही समाज में एकता संभव-हिंदी दिवस पर लेख


          14 सितंबर 2014 को हिन्दी दिवस है यह बात मातृभाषा बोलने, लिखने तथा समझने वाले अधिकतर बुद्धिजीवियों को मालुम है।   इस लेखक ने अपने ब्लॉग पर अनेक लेख लिखे हैं इसलिये उन पर अनेक पाठक आ रहे है।  हिन्दी के महत्व शब्द से सर्च इंजिनों पर खोज अधिक होती दिखती है। हिन्दी के महत्व पर लिखे गये एक लेख पर अनेक प्रकार की प्रतिक्रियायें

प्राप्त हो रही हैं। उसमें पुराने लेख परक अक्सर एक शिकायत आती है कि उसमें आपने हिन्दी का महत्व तो बताया ही नहीं।  हमने उनको नजरअंदाज किया पर आज एक प्रतिक्रिंया मिली कि आप राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी का महत्व बतायें तो अच्छा रहेगा।  उस पाठक की इस प्रतिकिया ने इस लेख को लिखने की प्रेरणा दी।

                        राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में हिन्दी के महत्व का बखान बहुत लोगों ने किया है पर शायद ही कोई यह बता पाया हो कि आखिर राष्ट्रीय एकता की जरूरत किसे और क्यों है? इस एकता की जरूरत समाज को है या व्यक्ति को है? हमारा यह प्रश्न अटपटा जरूर लगता है पर चिंत्तन के संदर्भ में अत्यंत महतवपूर्ण है।  हमारे यह बुद्धिजीवियों का झुण्ड  अब राष्ट्र, प्रदेश, शहर, मोहल्ला, परिवार और व्यक्ति के क्रम में सोचता है और यही कारण है कि वह राजकीय संस्थाओं से ही हिन्दी के विकास का सपना देखता है।  हम व्यक्ति से राष्ट्र के क्रम में सोचते हैं। हमारा मानना है कि व्यक्ति मजबूत हो तो ही राष्ट्र मजबूत हो सकता है।  इस मजबूती को आधार  अपनी भूमि, भाव तथा भाषा के प्रति विश्वास दिखाने और उसे निभाने से ही मिल सकता है।  हम आज देश में अनेक प्रकार के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक संकटों के आक्रमण का सामना कर रहे हैं।  समाज डोलता दिख रहा है। यही स्थिति हमारी राष्ट्रभाषा की भी है।  हमारा मानना है कि इस संकट का कारण यही है कि हम अपनी भाषा के प्रति उदासीन रवैया अपनाये हुए हैं  हर कोई हिन्दी  के विकास की बात कर  रहा है पर पुरस्कारों तथा सम्मान का मोह ऐसा है कि लोग अपनी भाषा की सच्चाई के प्रति उदासीन है। आखिर हिन्दी के प्रति हमें सतर्क क्यों होना चाहिये। इसी उत्तर की खोज ही राष्ट्रीय एकता में हिन्दी का महत्व सिद्ध कर सकती है।

                        जब तक सरकारी नौकरी ही इस देश में मध्यम वर्ग का आधार था तब सरकारी कामकाज में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व था। उस समय इसकी आलोचना के जवाब में कहा जाता था कि हिन्दी को रोजगारमूलक बनाया जाना चाहिये।  कालांतर में  हिन्दी में कामकाज का प्रभाव बढ़ा। अब मध्यम वर्ग के लिये नोकरियां सरकारी क्षेत्र में कम हैं और निजी क्षेत्र इसके लिये आगे आता जा रहा है।  ले-देकर बात वहीं आकर अटकती है कि वहां हिन्दी वाले को कोई सफेद कॉलर वाली नौकरी नहंी मिल सकती।  यही कारण है कि आज की युवा पीढ़ी जो नौकरी का लक्ष्य लेकर पढ़ रही है वह अंगेजी के साथ आगे बढ़ रही है।  प्रश्न यह है कि क्या वह बिना हिन्दी के कितना आगे बढ़ पायेगी।  एक बात साफ कर दें कि नौकरी में योग्यता एक अलग मायने रखती है।  संभव है कि ग्यारहवीं पास अंग्रेजी न जानने वाला कहीं प्रबंधक बन जाये और उसके नीचे अंग्रेजीदां इंजीनियर काम करें।  प्रबंध कौशल अपने आप में एक अलग विधा है और जिनमें यह गुण है उनके लिये अंग्रेजी कोई मायने नहीं रखती। ऐसे में कहीं अगर किसी संस्थान में शक्ति का कें्रद्र किसी हिन्दी भाषी के पास रहा तो उसे अपनी भाषा में बातकर प्रभावित किया जा सकता हैं। सभी जानते हैं कि भारत में विकास के लिये कभी चाटुकारिता भी करनी होती है जो केवल हिन्दी में सहज हो सकती है।  ऐसे में व्यक्ति को अपनी विकास यात्रा के लिये हिन्दी भाषा न होने या अल्प होने से बाधा लगेगी तो वह क्या करेगा? अगर हिन्दी के सहारे कोई विकास करता है यकीनन वह राष्ट्र का ही कल्याण करेगा! उसका विकास अंततः कहीं न कहंी राष्ट्र के प्रति उसका आत्मविश्वास बढ़ाता है जिससे वह दूसरे लोगों के साथ एक होकर रहना चाहता है। 

                        दूसरी बात यह है कि हमारे देश में समय के साथ राष्ट्रीय स्तर पर इधर से उधर रोजगार के कारण पलायन बहुत  हुआ है। पहले हम अपने देश का मानसिक भूगोल समझें।  हमारा पूर्व क्षेत्र वन के साथ खनिज, पश्चिम उद्योग, उत्तर प्रकृति के साथ ही मनुष्य तथा दक्षिण बौद्धिक संपादा की दृष्टि अत्यंत संपन्न हैं। हम यहां उत्तर की  प्रकृति तथा मनुष्य संपदा की बात करेंगे। दरअसल हमारे उत्तरी मध्य क्षेत्र में कृषि संपदा है तो यहां जनसंख्या घनत्व भी अधिक है।  जहां जहां बौद्धिक रूप से श्रेष्ठता का प्रश्न हों वहां दक्षिणवासी लोगों का  कोई जवाब नहीं तो श्रम का प्रश्न हो तो उत्तर भारतीय लोगों को लोहा माना जाता है। खासतौर से बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से श्रम शक्ति पूरे भारत में फैली है। जिस तरह भारत से बाहर गये श्रमशील मनुष्यों ने हिन्दी का विदेश में विस्तार किया वैसे ही इन हिन्दी भाषी श्रमिकों ने भारत के अंदर ही हिन्दी का विस्तार किया है।  यहां यह भी बता दें भारत के बाहर नौकरी के लिये ही अं्रेग्रेजी का महत्व है वरना व्यापार में केवल बुद्धि की ही आवश्यकता होती है।  भारत के अनेक लोग ऐसे भी हैं जो गुलामी के समय में  विदेशों में गये और अंग्रेजी न आने के बावजूद व्यापार किया।  वह सफल और बडे व्यापारी बने।  पंजाब से गये अनेक लोगों ने बिना अंग्रेजी के अपना काम किया। स्थिति यह है कि अनेक लोग तो यह कहने लगे हैं कि विदेशों में कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां हिन्दी का प्रभाव साफ दिखता है।  इतना ही नहीं वहां आपसी संपर्क में हिन्दी का महत्वपूर्ण योगदान है।  हम भारत में भी यही देख सकते हैं।  अनेक गैर हिन्दी प्रदेशों में जाने पर वहां हिन्दी में वार्तालाप किया जा सकता है।  कहीं कहीं तो अंग्रेजी का ज्ञान न होने वालेे भी हैं पर हिन्दी में वहां भी काम हो जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि भले ही कोई हिन्दी न जानता हो पर उससे आप अपनी भाषा के कारण आत्मीय का व्यवहार तो पा ही सकते हो जो कि समय पड़ने पर अत्यंत आवश्यक होता है।

            हम देख रहे हैं कि भारत में कंपनियां अपना विस्तार सभी जगह कर रही है। वह चाहें या न चाहें उन्हें शारीरिक काम करने वाले लोगों  की आवश्यकता हो्रती है। तय बात है कि अंग्रेजी वालों में शारीरिक क्षमता अधिक नही हो्रती। अब सिथति यह भी हो सकती है कि कहीं प्रबंधक अंग्रेजीदां है तो बौद्धिक काम वालों को उसे प्रभावित करने के लिये अंग्रेजी का आवश्यकता पड़ सकती है पर अगर कहीं शारीरिक श्रम की बहुलता है तो  प्रबंधक को   भी श्रमिकों से काम लेने के लिये  हिन्दी पूर्णरूपेश आनी ही चाहिये। कहनें का मलब यही है कि पूंजी, श्रम और बुद्धि का तारतम्य अब इस देश में केवल हिन्दी भाषा से जम सकता है। औद्योगिक विकास के लिये तीनों की आवश्यकता होती है।  श्रम शक्ति पर निर्भर रहने वाले पढ़ाई नहीं करते या कम करते हैं उनसे काम लेने के लिये पूंजी और बौद्धिक वर्ग को उसकी भाषा आना चाहिये।

            हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि हम जब कृषि पर निर्भर थे तब जितनी हिन्दी भाषा की आवश्यकता थी। उससे ज्यादा अब है।  पूजी, बुद्धि और श्रम का तारतम्य अब हिन्दी के बिना संभव नही है। तय बात है कि जब तीनों के बीच एकरूपता होगी तो उनसे जुड़े तीनों व्यक्तियों को भी उसका प्रतिफल मिलेगा।  तब उनमें स्वयमेव एकता होगी। अगर भाषा संबंधी परेशानी रही तो तो तीनों परेशान होंगे।  अतः उनमें हिन्दी भाषा ही एकता ला सकती है। यहां हम बता दें एकता से हमारा आशय व्यक्तियों की एकता से ही है। खालीपीली राष्ट्रीय एकता का नारा लगाने वालो  में हम नहीं है।  इससे ज्यादा हम राष्ट्रीय एकता पर हम क्या लिखें? वैसे हम लिख तो गये पर यह तय नहीं कर पाये कि हमने हिन्दी का महत्व पूरी तरह से बताया कि नहीं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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हिंदी दिवस और कवि-हिंदी दिवस पर हास्य कविता


 

फंदेबाज घर आते ही बोला

‘‘दीपक बापू, तुम अध्यात्म पर

बहुत बतियाते हो,

जब मौका मिले

ज्ञानी बनकर मुझे लतियाते हो,

न तुम संत बन पाये,

न कवि की तरह जम पाये,

फ्लॉप रहे अपने काम में,

न पाया नामे में हिस्सा

न काम बना दाम में,

इससे अच्छा तो कोई आश्रम बनाओ,

नहीं तो कोई अपनी किताब छपवाओ,

इस तरह अंतर्जाल पर टंकित करते थक जाओगे,

कभी अपना नाम प्रचार के क्षितिज पर

चमका नहीं पाओगे।

सुनकर हंसे दीपक बापू

‘‘जब भी तू आता है,

कोई फंदा हमारे गले में डालने के लिये

अपने साथ जरूर लाता है,

कमबख्त!

जिनका हुआ बहुत बड़ा नाम,

बाद में हुए उससे भी ज्यादा बदनाम,

कुछ ने पहले किये अपराध,

फिर ज़माने को चालाकी से लिया साध,

जिन्होंने  अपने लिये राजमहल ताने,

काम किये ऐसे कि

पहुंच गये कैदखाने,

संत बनने के लिये

ज्ञानी हों या न हों,

ज्ञान का रटना जरूरी है,

माया के खेल के खिलाड़ी हों शातिर

मुंह पर सत्य का नाम लेते रहें

पर हृदय से रखना  दूरी है,

न हम संत बन पाये

न सफल कवि बन पायेंगे,

अपने अध्यात्मिक चिंत्तन के साथ

कभी कभी हास्य कविता यूं ही  बरसायेंगे,

मालुम है कोई सम्मान नहीं मिलेगा,

अच्छा है कौन

बाद में मजाक के दलदल में गिरेगा,

चाटुकारिता करना हमें आया नहीं,

किसी आका के लिये लिखा गीत गाया नहीं,

पूज्यता का भाव आदमी को

कुकर्म की तरफ ले जाता है,

जिन्होंने सत्य को समझ लिया

जीना उनको ही आता है,

तुम हमारे लिये सम्मान के लिये क्यों मरे जाते हो,

हमेशा आकर हमारे फ्लाप होने का दर्द

हमसे ज्यादा तुम गाते हो,

तुम हमारी भी सुनो,

फिर अपनी गुनो,

अक्सर हम सोचते हैं कि

हमसे काबिल आदमी हमें

मानेगा नहीं,

हमारे लिखे का महत्व

हमसे कम काबिल आदमी जानेगा नहीं,

सम्मान देने और लेने का नाटक तो

उनको ही करना आता है,

जिन्हें अपने ही लिखने पर

मजा लेना नहीं भाता है,

हमारे लिये तो बस इतना ही बहुत है कि

तुम हमें मानते हो,

कभी कवि तो कभी संत की तरह जानते हो,

पाखंड कर बड़े हुए लोगों को

बाद में कोई दिल से याद नहीं करता,

यह अलग बात है कि

उनकी जन्मतिथि तो कभी पूण्यतिथि पर

दिखावे के आंसु जमाना भरता है,

हमारे लिये  तो इतना ही बहुत है

अपनी हास्य कवितायें इंटरनेट पर

रहेंगी हमेशा

जो अपनी हरकतों से तुम छपवाओगे।

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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हिंदी दिवस पर हास्य व्यंग्य कविता-हिंदी से रोटी खाते मगर अंग्रेजी में गरियाते हैं


14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर

हर बरस लगते हैं

राष्ट्रभाषा के नाम पर मेले,

वैसे हिंग्लिश में करते हैं टॉक

पूरे साल  गुरु और चेले,

एक दिन होता है हिन्दी के नाम

कहीं गुरु बैठे ऊंघते है,

कहीं चेले नाश्ते के लिये

इधर उधर सूंघते हैं,

खाते और कमाते सभी हिन्दी से

अंग्रेजी में गरियाते हैं,

पर्सनल्टी विकास के लिये

हिंग्लिश का मार्ग भी बताते हैं।

कहें दीपक बापू

हिन्दी के शिरोमणियों की

जुबां ही अटक गयी है,

सोचे हिन्दी में

बोली अंग्रेजी की राह में भटक गयी है,

दुनियां में अपना ही देश है ऐसा

जहां राष्ट्रप्रेम का नारा

जोरदार आवाज में सुनाया जाता है,

पर्दे के पीछे विदेशों में भ्रमण का दाम

यूं ही भुनाया जाता है,

हिन्दी शिरोमणि कर रहे हैं

दिखावे की  भारत भक्ति,

मन ही मन आत्मविभोर है

अमेरिका और ब्रिटेन की देखकर शक्ति,

यहीं है ऐसे इंसान

जो हिन्दी भाषा को रूढ़िवादी कहकर  शरमाते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

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poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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हिंदी का महत्व हम समझते तो ही समाज को समझा पाते-हिंदी दिवस पर विशेष लेख


         14 सितम्बर को हिन्दी दिवस है पर  इसके लिये मनाने वालों को तैयारी करने के लिये विषय सामग्री चाहिये इसलिये उनकी इंटरनेट पर उनकी  सक्रियता 11 से 13 सितम्बर तक बढ़ जाती है। इस ब्लॉग ने पहले के वर्षों में अनेक रचनायें हिन्दी दिवस पर लिखी  इसलिये सर्च इंजिनों से उन पर पाठक आते हैे।  13 सितम्बर को करीब करीब सारे ब्लॉग जमकर पाठक जुटाते हैं।  इस बार चार  ब्लॉग राजलेख की हिन्दी पत्रिका,  दीपक बापू कहिन,हिन्दी पत्रिका तथा अभिव्यक्ति पत्रिका ने जमकर पाठक जुटायें हैं। यह चारों शाइनी स्टेटस के साहित्य वर्ग में अंग्रेजी ब्लॉगों को पछाड़कर क्रमशः एक, दो, तीन और पांच जैसे  ऊंचे पायदान पर पहुंच गये हैं।  इस लेखक के ब्लॉग अपने जन्मकाल के बाद 13 सितम्बर 2012 को सर्वोच्च स्तर पर हैं।  इन चारों ब्लॉग के अलावा अन्य 16 ब्लॉग भी अपने पुराने कीर्तिमानों से आगे निकले हैं पर यह चारों ब्लॉग उल्लेखनीय हैं।  तीन ब्लॉग तीन हजार तथा दो ब्लॉग दो हजार के पास जाते दिखते रहे हैं।  इस लेखक के बीस ब्लॉगों पर यह संख्या बीस हजार पार सकती है।
      हम जैसे लेखक के लिये यह स्थिति अब आत्ममुग्धता नहीं लाती।  बल्कि कभी नहीं लाती। आज जो लिखा कल उससे बेहतर लिखने का प्रयास होता है।  पिछले लिखा लेखक उसे दिखातें फिरे यह शुद्ध लेखक का स्वभाव नहीं होता। फिर अनुभव के साथ लिखने के लिये विषय, शैली तथा प्रस्तुति के आयाम बदलते हैं।  इतने सारे पाठकों को देखकर अपने मन में निराशा उत्पन्न होती है कि अपनी ही  रचनायें बेदम नजर आ रही है।  ऐसा लगता नहीं है कि हमारी रचनायें पाठकों को प्रभावित कर सकीं। जब लिखा तब पता नहीं था कि अंतर्जाल पर हिन्दी दिवस के अवसर पर इतने सारे पाठक हमारे ब्लॉग पर आयेंगे।  एक शौकिया लेखक होने के नाते व्यवसायिक कौशल न तो जानते है न ही यह प्रयास रहता है कि कोई सम्मान आदि मिले।
     हमारा मानना है कि अंतर्जाल पर हिन्दी दिवस के अवसर पर इससे ज्यादा बेहतर लिखा जा सकता था।  मुश्किल यह है कि जिन लोगों को अंतर्जाल से आर्थिक लाभ है उनके पास प्रबंधन नहीं है।  यह अकुशल प्रबंधन अर्थशास्त्र की दृष्टि से हमारे देश की बहुत बड़ी समस्या है और हिन्दी लेखन इससे अछूता नहीं है। हमारे देश में कमाने वाले बहुत लोग हैं पर व्यवसायिक प्रवत्तियों का उनमें अभाव है जो कि अकुशल प्रबंधन की समस्या  बने रहने का कारण है।  हिन्दी लेखन में  स्वतंत्रता पूर्वक लिखना एकाकी यात्रा का कारण बनता है हालांकि उच्च कोटि की रचनायें ऐसे ही वातावरण में उत्पन्न  होती हैं।  हिन्दी प्रकाशन संस्थायें, प्रतिष्ठान और समितियां सरकारी पैसे के अनुदान की अपेक्षा करती हैं पर जहां देने की बात आती है वहां चाटुकार लेखक उनके लिये प्रिय होते हैं।  जहां चाटुकारिता है वहां रचनायें व्यक्ति से प्रतिबद्ध हो जाती हैं उस समय लेखक के दृष्टिपथ से आम पाठक गायब हो जाता है।  कुल मिलाकर हिन्दी लेखन जगत चांटाकार और चाटुकार जमात का बंधुआ हो गया है।  चांटाकार से सीधा आशय यह है कि जिसके पास पैसे, पद और प्रतिष्ठा का शिखर है वह किसी को भी लेखक को अपना चाटुकार बनाकर उसे सम्मनित करता है और जो उपेक्षा करे उसे अपमान या उपेक्षा का चांटा मारता है।  समस्या दूसरी यह है कि शुद्ध हिन्दी लेखक अध्यात्मिक रूप से परिपक्व होता है और वह किसी भी शिखर पुरुष का चाटुकार बनने की बजाय उस देव को पूजता है जो सबका दाता है।
       अक्सर लोग इस लेखक से सवाल पूछते हैं कि ‘तुम क्यों लिखते हो? इसका तुम्हें पैसा नहीं मिलता तो क्यों हाथ घिसते हो?
        इसके उत्तर में हम श्रीमद्भागवत गीता का  यह संदेश बताते हैं कि हमारा स्वभाव इसमें हमें लगाये रहता है। हम यह भी कहते हैं कि ‘‘शराब पीने से क्या मिलता है? सिगरेट का धुंआ उड़ाने से क्या मिलता है।  हम व्यसन नहीं पालते इसलिये कुछ न कुछ तो करना ही है। लिखने से बढ़िया और कौनसा ऐसा फालतु काम है जिसमें न पैसा खर्च हो न देह बीमार हो।’’
           इस हिन्दी दिवस पर अनेक बातें मन में आयीं पर उनको लिखने का अवसर तथा समय नहीं मिला।  इसका अफसोस है।  कमबख्त एक बात हमारे दिमाग में आती जाती है कि आखिर हिन्दी का क्या महत्व है इसे कैसे समझायें।  अनेक टिप्पणीकारों ने ‘‘समाज को हिन्दी का महत्व समझना चाहिये’’ इस शीर्षक में लिखी गयी विषय सामग्री से अंसतुष्ट हैं।  वह कहते हैं कि आपने महत्व तो बताया ही नहीं।  एक हास्य कविता पर एक टिप्पणीकार तो लिख गया कि यह बोरियत भरी है।  इन सब पर हमारा आश्वासन है कि अवसर मिला तो अगले हिन्दी दिवस पर कुछ अच्छा लिख कर बतायेंगे।  इधर कंप्यूटर कर रखरखाव और इंटरनेट का खर्च अब असहनीय होता जा रहा है। ऐसे में यह संकट हमारे सामने हैं कि कैसे एक ब्लॉग लेखक के रूप में अपना असितत्व बचायें।  लोग कहते है कि लेपटॉप खरीद लो।  अब इतनी बड़ी रकम इस पुराने शौक पर खर्च कर नहीं सकते।  एक बात तय रही कि अगर हमने ब्लॉग लिखना बंद किया तो सब डीलिट कर देंगे। हम अपना पैसा और श्रम खर्च कर इंटरनेट कंपनियों के ग्राहकों को अपनी मुफ्त सामग्री दे रहे हैं। यह सब टीवी पर विज्ञापनों और कार्यक्रमों पर इतना खर्च कर सकती हैं पर उन हिन्दी लेखकों के लिये उनके पास कुछ नहीं है जो अंततः उनके ग्राहकों को पठनीय सामग्री प्रदान करते हैं।

फिलहाल हमारी लेखन जारी रखने की योजना है।  अपने प्रायोजक स्वयं हैं।  आगे प्रयास करेंगे कि बेहतर रचनायें हों।  इस हिन्दी दिवस पर समस्त पाठकों को बधाई।  कम से कम उन्होंने आज यह साबित कर दी है कि उनके अंदर भी अपनी मातृभाषा के लिये उमंग हैं यह अलग बात है कि उनके दिल की बात कोई समझा नहीं।  हम जैसे लेखक के लिये एक दिन में बीस हजार से अधिक पाठक कम नहीं होते।  बड़ी बड़ी वेबसाईटें इस आंकड़े को तरसती होंगी। यह अलग बात है कि प्रायोजित वेबसाईटें किसी न किसी तरह से अपने लिये पाठक जुटा लेती हैं पर उनके लिये भी यह आंकड़ा कोई आसान नहीं रहता होगा।  हिन्दी के पाठकों ने हिन्दी दिवस के अवसर पर हमें उनके समकक्ष खड़ा कर दिया यह हमारी नहीं हिन्दी भाषा की ताकत है।  एक दृष्टा होने के नाते हमें यह खेल देखने में भी मजा आता है। यह संदेश भी नोट कर लें कि हिन्दी का महत्व इसलिये है क्योकि इसमें लिखने में मजा आता है। जय श्रीराम जय श्रीकृष्ण।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

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लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

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