Tag Archives: hindi poem

नारों का व्यापार-हिंदी शायरी



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जमाने को बदल देने का नारा
वह रोज  सुनायेंगे,
कुछ गीत और गजलें
बस यूं ही  गुनगुनायेंगे।
कहें दीपक बापू
खुद कभी बदलने का प्रयास करते नहीं,
नियमों की जंजीरों से बंधें उनके हाथ
लाचारी जताते
वादे करते कभी नहीं थकते
किसी की झोली आस से भरते नहीं,
बहता रहेगा समय अपनी चाल से
लोग भूलेंगे, उनके घर भरेंगे माल से
इसी तरह वह नारों को हमेशा भुनायेंगे।

 

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
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जुबां का रिश्ता-हिन्दी शायरी


आखों से अब अश्क नहीं बहते
क्योंकि दर्द का दरिया सूख गया है,
जहां दिल लगाया
दिल्लगी समझ जमाने ने मुंह फेरा
अब बयां नहीं करते किसी से अपने हाल
अपनी ही हकीकतों से
हमारी जुबां का रिश्ता टूट गया है।
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उनकी प्यार भरी निगाहें
देखकर हमने समझा कि
नज़र हम पर इनायत है।
मतलब निकलते ही
उन्होंने मुंह फेरा
तब उनकी नीयत का पता चला
फिर भी नहीं उनसे गिला
उनके इरादों की नावाकफियत पर
अपनी ही सोच से शिकायत है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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स्वर्ग एक ख्याल है-हिन्दी शायरी


स्वर्ग की परियां किसने देखी

स्वयं जाकर

बस एक पुराना ख्याल है।

धरती पर जो मिल सकते हैं,

तमाम तरह के सामान

ऊपर और चमकदार होंगे

यह भी एक पुराना ख्याल है।

मिल भी जायें तो

क्या सुगंध का मजा लेने के लिये

नाक भी होगी,

मधुर स्वर सुनने के लिये

क्या यह कान भी होंगे,

सोना, चांदी या हीरे को

छूने के लिये हाथ भी होंगे,

परियों को देखने के लिये

क्या यह आंख  भी होगी,

ये भी  जरूरी  सवाल है।

धरती से कोई चीज साथ नहीं जाती

यह भी सच है

फिर स्वर्ग के मजे लेने के लिये

कौनसा सामान साथ होगा

यह किसी ने नहीं बताया

इसलिये लगता है स्वर्ग और परियां

बस एक ख्याल है।


कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com

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इशारे-हिन्दी व्यंग्य कविता (ishare-hindi satire poem)


तैश में आकर तांडव नृत्य मत करना
चक्षु होते हुए भी दृष्टिहीन
जीभ होते हुए भी गूंगे
कान होते हुए भी बहरे
यह लोग
इशारे से तुम्हें उकसा रहे रहे हैं।
जब तुम खो बैठोगे अपने होश,
तब यह वातानुकूलित कमरों में बैठकर
तमाशाबीन बन जायेंगे
तुम्हें एक पुतले की तरह
अपने जाल में फंसा रहे हैं।

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कवि,लेखक और संपादक, दीपक भारतदीप,ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.com
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भूख और बन्दूक-हिंदी लेख (Hunger and gun – Hindi article)


भूखे पेट भजन नहीं होते-यह सच है पर साथ ही यह भी एक तथ्य है कि भूखे पेट गोलियां या तलवार नहीं चलती। देश में कुछ स्थानों-खासतौर से पूर्व क्षेत्र-में व्याप्त हिंसा में अपनी वैचारिक जमीन तलाश रहे कुछ विकासवादी देश के बुद्धिजीवियों को ललकार रहे हैं कि ‘तुम उस इलाके की हकीकत नहीं जानते।’
यह कहना कठिन है कि वह स्वयं उन इलाकों को कितना जानते हैं पर उनके पाठ हिंसा का समर्थन करने वाले बदलाव की जमीन पर लिखे जाते हैं। अपने ढोंग और पाखंड को वह इस तरह पेश करते हैं गोया कि जैसे कि सत्य केवल उनके आसपास ही घूमता हो। दूसरी समस्या यह है कि उनके सामने खड़े परंपरावादी लेखक कोई ठोस तर्क प्रस्तुत कर उनका प्रतिवाद नहीं करते। बस, सभी हिंसा और अहिंसा के नारे लगाते हुए द्वैरथ करने में व्यस्त है।
इन हिंसा समर्थकों से सवाल करने से पहले हम यह स्वीकार करते हैं कि गरीब, आदिवासी तथा मजदूरों को शोषण सभी जगह होता है। इसे रुकना चाहिये पर इसका उपाय केवल राजकीय प्रयासों के साथ इसके लिये अमीर और गरीब वर्ग में चेतना लाने का काम भी होना चाहिये। हमारे अध्यात्मिक ग्रंथ यही संदेश देते हैं कि अमीर आदमी हमेशा ही गरीब की मदद करे। किसी भी काम या उसे करने वाले को छोटा न समझे। सभी को समदर्शिता के भाव से देखें। इस प्रचार के लिये किसी प्रकार की लाल या पीली किताब की आवश्यकता नहीं है। कम से कम विदेशी विचार की तो सोचना भी बेकार है।
अब आते हैं असली बात पर। वह लोग भूखे हैं, उनका शोषण हो रहा है, और बरसों से उनके साथ न्याय नहीं हुआ इसलिये उन्होंने हथियार उठा लिये। यह तर्क विकासवादी बड़ी शान से देते हैं। जरा यह भी बतायें कि जंगलों में अनाज या फलों की खेती होती है न कि बंदूक और गोलियों की। वन्य और धन संपदा का हिस्सा अगर उसके मजदूरों को नहीं मिला तो उन्होंने हथियार कैसे उठा लिये? क्या वह भी पेड़ पर उगते हैं?
अब तर्क देंगे कि-‘सभी नहीं हथियार खरीदते कोई एकाध या कुछ जागरुक आदमी उनको न्याय दिलाने के लिये खरीद ही लेते हैं।’
वह कितनों को न्याय दिलाने के लिये हथियार खरीद कर चलाते हैं। एक, दो, दस, सौ या हजार लोगों के लिये? एक बंदूक कोई पांच या दस रुपये में नहीं आती। उतनी रकम से तो वह कई भूखे लोगों को खाना खिला सकते हैं। फिर जंगल में उनको बंदूक इतनी सहज सुलभ कैसे हो जाती है। इन कथित योद्धाओं के पास केवल बंदूक ही नहीं आधुनिक सुख सुविधा के भी ढेर सारे साधन भी होते हैं। कम से कम व गरीब, मजदूर या शोषित नहीं होते बल्कि उनके आर्थिक स्त्रोत ही संदिग्ध होते हैं।
विकासवादियों का तर्क है कि पूर्वी इलाके में खनिज और वन्य संपदा के लिये देश का पूंजीपति वर्ग राज्य की मदद से लूट मचा रहा है उसके खिलाफ स्थानीय लोगों का असंतोष ही हिंसा का कारण है। अगर विकास वादियों का यह तर्क मान लिया जाये तो उनसे यह भी पूछा जाना चाहिये कि क्या हिंसक तत्व वाकई इसलिये संघर्षरत हैं? वह तमाम तरह के वाद सुनायेंगे पर सिवाय झूठ या भ्रम के अलावा उनके पास कुछ नहीं है। अखबार में एक खबर छपी है जिसे पता नहीं विकासवादियों ने पढ़ा कि नहीं । एक खास और मशहूर आदमी के विरुद्ध आयकर विभाग आय से अधिक संपत्ति के मामले की जांच कर रहा है। उसमें यह बात सामने आयी है कि उन्होंने पद पर रहते हुए ऐसी कंपनियों में भी निवेश किया जिनका संचालन कथित रूप से इन्हीं पूर्वी क्षेत्र के हिंसक तत्वों के हाथ में प्रत्यक्ष रूप से था। यानि यह हिंसक संगठन स्वयं भी वहां की संपत्तियों के दोहन में रत हैं। अब इसका यह तर्क भी दिया जा सकता है क्योंकि भूख और गरीबी से लड़ने के लिये पैसा चाहिये इसलिये यह सब करते हैं। यह एक महाढोंग जताने वाला तर्क होगा क्योंकि आपने इसके लिये उसी प्रकार के बड़े लोगों से साथ लिया जिन पर आप शोषण का आरोप लगाते हैं। हम यहां किसी का न नाम लेना चाहते हैं न सुनना क्योंकि हमारा लिखने का मुख्य उद्देश्य केवल बहस में अपनी बात रखना हैं।
इन पंक्तियों के लेखक के इस पाठ का आधार समाचार पत्र, टीवी और अंतर्जाल पर इस संबंध में उपलब्ध जानकारी ही है। एक सामान्य आदमी के पास यही साधन होते हैं जिनसे वह कुछ जान और समझ पाता है। इनसे इतर की गतिविधियों के बारे में तो कोई जानकारी ही समझ सकता है।
इन हिंसक संगठनों ने अनेक जगह बम विस्फोट कर यह सबित करने का प्रयास किया कि वह क्रांतिकारी हैं। उनमें मारे गये पुलिस और सुरक्षा बलों के सामान्य कर्मचारी और अधिकारी। एक बार में तीस से पचास तक लोगों की इन्होंने जान ली। इनसे पूछिये कि अपनी रोजी रोटी की तलाश में आये सामान्य जनों की जान लेने पर उनके परिवारों का क्या हश्र होता है वह जानते हैं? सच तो यह है कि यह हिंसक संगठन कहीं न कहीं उन्हीं लोगों के शोषक भी हो सकते हैं जिनके भले का यह दावा करते हैं। जब तक गोलियों और बारुद प्राप्त करने के आर्थिक स्त्रोतों का यह प्रमाणिक रूप से उजागर नहीं करते तब उनकी विचारधारा के आधार पर बहस बेकार है। इन पर तब यही आरोप भी लगता है कि हिंसक तत्व ही इनको प्रायोजित कर रहे हैं।
भारत में शोषण और अनाचार कहां नहीं है। यह संगठन केवल उन्हीं जगहों पर एकत्रित होते हैं जहां पर जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रीय आधार पर लोगों को एकजुट करना आसान होता है। यह आसानी वहीं अधिक होती है जहां बाहर से अन्य लोग नहीं पहुंच पाते। जहां लोग बंटे हुए हैं वहां यह संगठन काम नहीं कर पाते अलबत्ता वहां चर्चाएं कर यह अपने वैचारिक आधार का प्रचार अवश्य करते हैं। बहरहाल चाहे कोई भी कितना दावा कर ले। हिंसा से कोई मार्ग नहीं निकलता। वर्तमान सभ्यता में अपने विरुद्ध अन्याय, शोषण तथा दगा के खिलाफ गांधी का अहिंसक आंदोलन ही प्रभावी है। हिंसा करते हुए बंदूक उठाने का मतलब है कि आप उन्हीं पश्चिम देशों का साथ दे रहे हैं जो इनके निर्यातक हैं और जिनके आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सम्राज्य के खिलाफ युद्ध का दावा करते हैं। यह वैचारिक बहस केवल दिखावे की और प्रायोजित लगती है। जब तक हथियारों के खरीदने के लिये जुटाये धन के स्त्रोत नहीं बताये जाते। जहां तक पूर्वी इलाकों को जानने या न जानने की बात है तो शोषण, अन्याय और धोखे की प्रवृत्ति सभी जगह है और उसे कहीं बैठकर समझा जा सकता है। आईये
इस पर इस लेखक की कुछ पंक्तियां
यह सत्य है कि
भूखे पेट भजन नहीं होता।
मगर याद रहे
जिसे दाना अन्न का न मिले
उसमें बंदूक चलाने का भी माद्दा भी नहीं होता।
अरे, हिंसा में वैचारिक आधार ढूंढने वालों!
अगर गोली से
रुक जाता अन्याय, शोषण और गरीबी तो
पहरेदारों का
अमीरों के घर पहरा न होता।
तुम शोर कर रहे हो जिस तरह
सोच रहे सारा जमाना बहरा होता।
कौन करेगा तुम्हारे इस झूठ पर यकीन कि
अन्न और धन नहीं मिलता गरीबों और भूखों को
पर उनको बंदूक और गोली देने के लिये
कोई न कोई मेहरबान जरूर होता।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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फरिश्ते होने का अहसास जताते-व्यंग्य कविता


किताबों में लिखे शब्द
कभी दुनियां नहीं चलाते।
इंसानी आदतें चलती
अपने जज़्बातों के साथ
कभी रोना कभी हंसना
कभी उसमें बहना
कोई फरिश्ते आकर नहीं बताते।

ओ किताब हाथ में थमाकर
लोगों को बहलाने वालों!
शब्द दुनियां को सजाते हैं
पर खुद कुछ नहीं बनाते
कभी खुशी और कभी गम
कभी हंसी तो कभी गुस्सा आता
यह कोई करना नहीं सिखाता
मत फैलाओं अपनी किताबों में
लिखे शब्दों से जमाना सुधारने का वहम
किताबों की कीमत से मतलब हैं तुम्हें
उनके अर्थ जानते हो तुम भी कम
शब्द समर्थ हैं खुद
ढूंढ लेते हैं अपने पढ़ने वालों को
गूंगे, बहरे और लाचारा नहीं है
जो तुम उनका बोझा उठाकर
अपने फरिश्ते होने का अहसास जताते।।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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सौदागरों के बुत-व्यंग्य शायरी


अख़बारों में छपे बड़े बड़े शख्सों के
बयान अब आखों से आगे बढ़कर
दिल की गहराई में नहीं जाते.
ढेर सारा कागज़ का भंडार है चारों तरफ
उसे खाने के लिए अक्षर पक्षी चाहिए
स्याही की बह रही हैं धारा,
मिलना जरूरी है उसको भी किनारा,
बाज़ार के सौदागर केवल शय ही नहीं बेचते,
ज़माने पर काबू रखने का भी खेल खेलते,
उनका खामोश रहना जरूरी है
इसलिए बोलने के लिए वह इंसानी बुत लाते.
जो बाज़ार के लिखे शब्दों पर बस होंठ हिलाते.

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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गुलामी जैसी आज़ादी-व्यंग्य कविता


नजरें फेरकर वह चले जाते हैं।
देखने में लगते हैं हमसे बेपरवाह
पर हकीकत यह है कि
हमारी आंखों में उनको अपने
पुराने सच दिखते नजर आते है।
हम तो भूल चुके उनके पुराने कारनामे
पर उनकी नजरें फेरने से
फिर वही यादों मे तैर जाते हैं।।
…………………………
कुछ हकीकतें बयां करने में
कलम कांप जाती है
इरादा यह नहीं होता कि
किसी कि दुःखती रग सभी को दिखायें
जरूरत पड़ी तो उनका नाम भी छिपायें
पर खौफ जमाने का जिसकी
रिवाजों पर उठ सकती है उंगली
कही लोग भड़क न जायें
कायदों में बंधी आजादी
तब गुलामी से बुरी नज़र आती है।
………………………..

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चेहरे कब तक बनावटी सामान से सजाओगे-हिन्दी शायरी


शोला कहो या शबनम
मोहब्बत के जज्बातों के
इजहार में हर लफ्ज़ है कम।
मगर जिदंगी में सफर में
खूबसूरत हमसफर भी
लगते हैं बदसूरत
जब होते है सामने गम।
चैहरे को कब तक बनावटी सामान से
कितना चमकाओगे
उम्र के साथ फीके होते जाओगे
जला सके ताउम्र खूबसूरत कोई चिराग
जिस्म की मोहब्बत में नहीं है इतना दम।
…………………….
रंगबिरंगे कागज पर शायरी लिखने से
रंगीन नहीं हो जाएगी
शब्द को शोर करते हुए लिखने से
संगीन नहीं हो जाएगी।
रोते हुए उसके जज़्बातों से
वह गमगीन नहीं हो जाएगी।
ओ शायर!
जब तेरे अल्फ़ाजों में
तुझे तेरा अक्स दिखने लगे
तू हो जाये बेहोश
तेरे जज़्बात खुद लिखने लगे
तभी समझना कि तेरी शायरी
जमाने में रौशन हो जायेगी।

………………………………

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जोरदार और रंगीन तकदीर वह लिखा लाये-व्यंग्य कविता


आसमान से जमीन पर आते हुए
लिखा लाये हैं वह अपनी रंगीन तकदीर।
न ख्याल उनका अपना
न कोई सोच अपनी
पर जमाने को सुधारने के लिये
देते हैं जोरदार तकरीर।
लगता है उनकी अदाओं से ऐसे
मानो जिंदा हो सिर्फ उनका जमीर।
क्योंकि वह हैं अमीर।
…………………
कभी कभी छोड़ कर आते हैं बाहर
छोड़कर अपने खूबसूरत महल।
आसमान से गिरती तकदीर की हवायें
कहीं उनके महल का रास्ता न भूल जायें
गरीब इंसान कहीं समंदर के पानी सरीखे
उसे बहाकर न जायें
जमाने पर काबिज होने के लिये
जला देते हैं वह रौशनी के दिये
नीली छतरी वाले का देते हैं वास्ता
नहीं जानते जिसका खुद भी रास्ता
उजाड़ देते हैं उनके सिपहसालार पूरा चमन
तब वह निकलते हैं बाहर
अपनी तकरीरों में
उसे बसाने की करते हैं पहल।

………………………………..
क्षितिज पर जमीन और आसमान के
मिल जाने का दिखता है सुखद अहसास।
मगर यह एक ख्वाब है
वह दोनों कभी नहीं आते
कभी एक दूसरे के पास।

उनके आपस में मिलने की चाहत
कभी पूरी नहीं हो सकती
दोनों के बीच फासले ही
उनके अस्तित्व का है आधार
दूरियों में ही छिपा है जिंदगी का सार
उनकी निकटता कभी हो नहीं सकती
चाहत अलग चीज है
जिंदगी चलते रहने के उसूल अलग हैं
दोनों के फासले मिटाने की कोशिश में
खौफनाक मंजर सामने आ जायेगा
धोखा बन सकता है अपना विश्वास।

………………………….
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