इस संसार में अनेक प्रकार के जीव हैं और सभी के लिये प्रकृति ने भोजन पानी का इंतजाम किया है। मनुष्य भी उनमें एक है पर जितनी बुद्धि उसमें अधिक है उतना ही वह भ्रमित होता है। लोग दावा करते हैं कि वह अपने कर्म से अपना परिवार पाल रहे हैं पर यह नहीं जानते कि वह तो केवल कारण है वरना कर्ता तो परमात्मा ही है। इसी भ्रम में मनुष्य जीवन गुजार लेता है पर उस परमात्मा का स्मरण नहीं करता जिसे उसे मनुष्य योनि प्रदान की है।
कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।
दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य मन को हंस भी कहा जाता है पर उसे कोई उड़ने दे तभी उसे समझा जा सकता है। हर कोई अपने विचार और लक्ष्यों का दायरा संकीर्ण कर लेता है। अपने और परिवार के हित के आगे उसे कुछ नहीं सूझता। कई लोग मन में शांति न होने की बात कहते हैं पर उसके पाने लिये कोई यत्न नहीं करते। मन एकरसता से ऊब जाता है। स्वार्थ सिद्धि में डूबा मन एकरसता से ऊब जाता है पर बुद्धि परमार्थ के लिए प्रेरित नहीं होती। अगर थोड़ा परमार्थ भी कर लें तो एक सुख का अनुभव होता है। परमार्थ का यह आशय कतई नहीं है कि अपना सर्वस्व लुटा दें बल्कि हम किसी सुपात्र व्यक्ति की सहायता करने के साथ किसी बेबस का सहारा बने। वैसे लुटाने को लोग लाखों लुटा रहे हैं। अपने परिवार के नाम प्याऊ या किसी मंदिर में बैच या पंखा लगवाकर उस पर अपने परिवार का परिचय अंकित करवा देते हैं और स्वयं ही दानी होने का प्रमाणपत्र ग्रहण करते हैं। इससे मन को शांति नहीं मिलती। दूसरों से दिखावा कर सकते हो पर अपने आप से वह संभव नहीं है। हम हर जगह अपने कुल की परिवार की प्रतिष्ठा लिये घूमते हैं पर अपनी आत्मा से कभी परिचित नहीं होते। इसके लिये जरूरी है कि समय निकालकर भक्ति और संत्संग के कार्यों में बिना किसी दिखावे के निष्काम भाव से सम्मिलित हों। कामना के साथ दान या भक्ति करने से मन को कभी शांति नहीं मिलती। उस पर अगर कुल प्रतिष्ठा किए रक्षा का विचार में में आ जाए तो फिर मनुष्य अपना जीवन ही नारकीय हो जाता है। दूसरी बात यह ही कि इस संसार का पालनहार तो परमात्मा है तब हम अपने परिवार को पालने का दावा कर सवयं को धोखा देते हैं ।
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मैंने मुहि चोटा न खाई
मैंने जम क साथ न जाइ।।
हिन्दी में भावार्थ-भक्ति से मनुष्य को इतनी शक्ति मिल जाती है कि वह कहीं भी मुंह की नहीं खाता और न यमराज उसे ले जा सकते हैं-अर्थात उसकी आत्म तो परमात्मा स्वरूप को प्राप्त हो जाती है।
तीरथ नावा जे तिस भावा।’
हिन्दी में भावार्थ-जिस भक्त ने परमात्मा का स्मरण कर उसे पा लिया समझो उसने तीर्थ में स्नान कर लिया
‘मैंने सुरति होवै मनि बुद्धि।
मैंन संगल भवण की सुधि।।
हिन्दी में भावार्थ- मनुष्य की मन और बुद्धि में परमात्मा का नाम यदि स्थापित हो गया तो फिर वह इस संसार के भंवर की परवाह से मुक्त हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सांसरिक भव सागर से पार होने से आशय केवल यही नहीं होता कि मनुष्य को मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त हो जाए बल्कि इस संसार में रहते हुए आनंद से जीवन व्यतीत करना भी है। अध्यात्मिक ज्ञान के बिना यह संभव नहीं है। आजकल हम अनेक लोगों को अनाप शनाप हरकतें या बकवास करते हुए देखते हैं। उनमें यह दोष आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव के कारण ही उत्पन्न होता है। कहने को अनेक लोग धर्म में आस्था होने या पवित्र ग्रंथों को पढ़ने की बात करते जरूर हैं पर उनका आचरण इस बात का प्रमाण नहीं होता है। उनका यह दावा केवल अपनी छबि बनाने के लिये होता है ताकि वह लोगों के जज़्बातों का दोहन कर सकें।
किसी भी मनुष्य के भक्त होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वह जिंदगी के प्रति लापरवाह हो जाता है। दुःख सुख में समान रहता है। जिसने घर में रहते हुए शांति प्राप्त कर ली समझ लो उसने तीर्थ नहा लिया। वरना चाहे जितने जतन कर लो अगर हृदय में परमात्मा का नाम नहीं धारण किया मन को शांति नहीं मिल सकती। दरअसल भक्ति करने का मतलब भले ही भगवान को प्रसन्न करना न हो पर निच्छल हृदय से करने पर मन को शांति तथा बुद्धि को तीक्ष्णता प्राप्त होती है।
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