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केवल हाथ पांव हिलाना आसन नहीं होता-योग विद्या पर हिन्दी चिंत्तन लेख(kewal hath paanv hilana asan nahin hota-yoga vidha par hindi chinntan lekh)


                                    भारतीय योग सूत्र में आठ भाग हैं जिसमें आसन का क्रम चौथे पर आता है।  आजकल योग शिक्षकों ने विभिन्न प्रकार के व्यायामों को भी आसन कहना प्रारंभ किया है। यह बुरा नहीं है पर जिनको योग साधना का ज्ञान रखना है उन्हें यह समझना चाहिये कि आसन से आशय  केवल देह की स्थिरता से है।  अनेक लोग शारीरिक श्रम करते हैं उनको आसन के नाम पर व्यायाम करने से थोड़ी हिचक होती है। उन्हें लगता है कि वह तो श्रम कर पसीना बहाते हैं इसलिये उनको किसी प्रकार की  योग साधना की आवश्यकता नहीं है।  इसी भ्रम के कारण अनेक लोग योगासन की अपेक्षा कर देते हैं। दूसरी बात यह है कि जिनका जीवन सुविधामय है वह योगासन के नाम पर केवल व्यायाम कर दिल बहला लेते है।  उन्हें आसन का आशय पता नहीं है जिस कारण वह पूरा लाभ उठा नहीं पाते।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि

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स्थिरसुखमासनम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-स्थिर सुख से बैठने का का नाम आसन है।

                        आसनों के बहुत भेद नहीं है। हालांकि अनेक विद्वानों ने समय समय पर योग विद्या के विकास के लिये काम किया है जिससे अनेक प्रकार के व्यायाम के प्रकारों को भी आसन बताया जाता है।  इन आसनों के बीच सांसों को रोकने और छोड़ने की प्रक्रिया के समय देह के स्थिर होने पर आसन स्वतः ही लगता है। आधुनिक युग में अनेक प्रकार के आसनों का अविष्यकार इसलिये भी किया गया ताकि शारीरिक श्रम से परे लोगों को व्यायाम के लिये सुविधा मिल सके।  मूलतः रूप से शरीर को स्थिर रखने का नाम ही आसन है।  जिन लोगों को व्यायाम आदि करने से हिचक लगती है या वह इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करते उन्हें किसी शुद्ध स्थान पर त्रिस्तरीय आसन पर बैठना चाहिये।  श्रीमद्भागवत गीता में कुश, मृगचर्म और वस्त्रों को बिछाकर आसन लगाने की बात कही गयी है। आधुनिक युग में मृगचर्म आम रूप से उपलब्ध नहीं है तो उसके लिये दरी को वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जा सकता है। कुश न मिले तो प्लास्टिक की चादर ली जा सकती है पर आजकल शादी विवाहों में जो जूट के कालीन बिछाये जाते हैं उनके छोटे टुकड़े भी उपयोग मेें लाये जा सकते है।  इन्हें बिछाकर शांति और सुख से बैठकर प्राणायाम, ध्यान और मंत्र जाप किये जा सकते हैं। जिन लोगों को प्रातः घूमने की आदत है उन्हें भी उसके पश्चात् इस तरह आसन बिछाकर ध्यान योग अवश्य करना चाहिये।

                        हमारे यहां अनेक योग शिक्षक अलग अलग प्रकार से शिक्षा दे रहे हैं। उनमें कोई विरोधाभास नहीं है पर आम लोग कहीं न कहीं भ्रमित हो जाते हैं।  अनेक लोग इसी कारण योग करने में हिचकते हैं कि आखिर किस तरह इसे करें? उन्हें यह समझना चाहिये कि व्यायाम हालांकि योग का भी भाग है पर उसे करें यह आवश्यक नहीं है।  योग का मूल रूप मनुष्य के स्थिर होकर बैठने के बाद प्राणायाम, ध्यान, धारणा, और समाधि करने की प्रक्रिया में संलिप्त होना है।  अपनी इंद्रियों को आत्मा से और आत्मा का परमात्मा से संयोग ही योग साधना का सर्वोच्च परिणाम है। इसी से मनुष्य जीवन की आधार  देह में शुद्धता, मन में दृढ़ता विचारों में पवित्रता के साथ ही व्यक्तित्व में तेज का निर्माण होता है।  वैसे इस विषय पर अगर कोई गुरु अपनी बात कहे तो उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये पर साथ ही योग विषय पर साहित्य का अध्ययन कर स्वयं भी प्रयोग करना चाहिये।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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स्थिर सुख से बैठना एक तरह से आसन-हिंदी चिन्तन लेख


                                    भारतीय योग सूत्र में आठ भाग हैं जिसमें आसन का क्रम चौथे पर आता है।  आजकल योग शिक्षकों ने विभिन्न प्रकार के व्यायामों को भी आसन कहना प्रारंभ किया है। यह बुरा नहीं है पर जिनको योग साधना का ज्ञान रखना है उन्हें यह समझना चाहिये कि आसन से आशय  केवल देह की स्थिरता से है।  अनेक लोग शारीरिक श्रम करते हैं उनको आसन के नाम पर व्यायाम करने से थोड़ी हिचक होती है। उन्हें लगता है कि वह तो श्रम कर पसीना बहाते हैं इसलिये उनको किसी प्रकार की  योग साधना की आवश्यकता नहीं है।  इसी भ्रम के कारण अनेक लोग योगासन की अपेक्षा कर देते हैं। दूसरी बात यह है कि जिनका जीवन सुविधामय है वह योगासन के नाम पर केवल व्यायाम कर दिल बहला लेते है।  उन्हें आसन का आशय पता नहीं है जिस कारण वह पूरा लाभ उठा नहीं पाते।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि

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स्थिरसुखमासनम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-स्थिर सुख से बैठने का का नाम आसन है।

                        आसनों के बहुत भेद नहीं है। हालांकि अनेक विद्वानों ने समय समय पर योग विद्या के विकास के लिये काम किया है जिससे अनेक प्रकार के व्यायाम के प्रकारों को भी आसन बताया जाता है।  इन आसनों के बीच सांसों को रोकने और छोड़ने की प्रक्रिया के समय देह के स्थिर होने पर आसन स्वतः ही लगता है। आधुनिक युग में अनेक प्रकार के आसनों का अविष्यकार इसलिये भी किया गया ताकि शारीरिक श्रम से परे लोगों को व्यायाम के लिये सुविधा मिल सके।  मूलतः रूप से शरीर को स्थिर रखने का नाम ही आसन है।  जिन लोगों को व्यायाम आदि करने से हिचक लगती है या वह इसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करते उन्हें किसी शुद्ध स्थान पर त्रिस्तरीय आसन पर बैठना चाहिये।  श्रीमद्भागवत गीता में कुश, मृगचर्म और वस्त्रों को बिछाकर आसन लगाने की बात कही गयी है। आधुनिक युग में मृगचर्म आम रूप से उपलब्ध नहंी है तो उसके लिये दरी को वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जा सकता है। कुश न मिले तो प्लास्टिक की चादर ली जा सकती है पर आजकल शादी विवाहों में जो जूट के कालीन बिछाये जाते हैं उनके छोटे टुकड़े भी उपयोग मेें लाये जा सकते है।  इन्हें बिछाकर शांति और सुख से बैठकर प्राणायाम, ध्यान और मंत्र जाप किये जा सकते हैं। जिन लोगों को प्रातः घूमने की आदत है उन्हें भी उसके पश्चात् इस तरह आसन बिछाकर ध्यान योग अवश्य करना चाहिये।

                        हमारे यहां अनेक योग शिक्षक अलग अलग प्रकार से शिक्षा दे रहे हैं। उनमें कोई विरोधाभास नहीं है पर आम लोग कहीं न कहीं भ्रमित हो जाते हैं।  अनेक लोग इसी कारण योग करने में हिचकते हैं कि आखिर किस तरह इसे करें? उन्हें यह समझना चाहिये कि व्यायाम हालांकि योग का भी भाग है पर उसे करें यह आवश्यक नहीं है।  योग का मूल रूप मनुष्य के स्थिर होकर बैठने के बाद प्राणायाम, ध्यान, धारणा, और समाधि करने की प्रक्रिया में संलिप्त होना है।  अपनी इंद्रियों को आत्मा से और आत्मा का परमात्मा से संयोग ही योग साधना का सर्वोच्च परिणाम है। इसी से मनुष्य जीवन की आधार  देह में शुद्धता, मन में दृढ़ता विचारों में पवित्रता के साथ ही व्यक्तित्व में तेज का निर्माण होता है।  वैसे इस विषय पर अगर कोई गुरु अपनी बात कहे तो उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये पर साथ ही योग विषय पर साहित्य का अध्ययन कर स्वयं भी प्रयोग करना चाहिये।

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पेशेवर गुरु कभी ज्ञान का मार्ग नहीं दिखा सकते-हिंदी चिंत्तन लेख


                        दो हाथ, दो पांव, दो आंखें, दो कान और दो छिद्रों वाली नासिका हर देहधारी मनुष्य के पास प्रत्यक्ष दिखती हैं।  उसमें मौजूद मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृतियां भी रहती हैं पर वह प्रकटतः अपनी उपस्थिति का आभास नहीं देती।  फिर भी मनुष्य के चरित्र, व्यवहार, विचार और व्यक्तित्व में भिन्नता की अनुभूति होती है।  इस भिन्नता का राज समझने के लिये श्रीगीता में वर्णित विज्ञान सूत्रों को समझना जरूरी है।  उसमें जिस त्रिगुणमयी माया के बंधन की चर्चा की गयी है वह दरअसल ज्ञान का वह सूत्र है जिसका वैज्ञानिक अध्ययन करने पर मनुष्यों में व्याप्त इस भिन्नता को समझा जा सकता है।

                        कर्म, स्वभाव, विचार, व्यवहार, और व्यक्तित्व सात्विक, राजस और तामस तीन प्रकार के ही होते हैं। आमतौर से लोग अपने स्वार्थपूर्ति में लगे रहते हैं जो कि राजस भाव है।  अगर मनुष्य पूरी तरह से राजस बुद्धि से ही कर्म करे तो भी एक बेहतर स्थिति है पर होता यह है कि लोग कर्मफल के लिये इतने उतावले रहते हैं कि उनकी बुद्धि शिथिल हो जाती है।  वह अपने कार्य के लिये दूसरों की राय के लिये मोहताज रहते हैं। यह बुद्धि का आलस्य तामस वृति का परिचायक है।  इस विरोधाभास को हम अपने समाज में देख सकते हैं। इस प्रकार के आचरण ने ही समाज में अंधविश्वास को जन्म दिया है।

                        शुद्ध हृदय के साथ अगर निष्काम भाव से भगवान की भक्ति की जाये तो न केवल अध्यात्मिक विषय में दक्षता प्राप्त होती है वरन् सांसरिक कार्य भी सिद्ध होते हैं।  यह सभी जानते हैं पर उसके बावजूद कर्मकांडों के नाम पर तांत्रिकों और कथित सिद्धों के पास अनुष्ठान कराने जाते हैं।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार सारे मनुष्य अपने कर्म के अनुसार फल पाते हैं पर हमारे देश में कथित रूप से ऐसे कर्मकांडों को माना जाने लगा है जिससे लोग अपने पुरखों को स्वर्ग दिलाने के साथ ही अपने लिये वहां  स्थान सुरक्षित करने के लिये अनुष्ठान करने के लिये तत्पर रहते हैं। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार भक्ति का सवौत्तम रूप निरंकार ब्रह्म की निष्काम उपासना है। दूसरे क्रम में देवताओं यानि सकाम भक्ति को भी स्वीकार किया गया है। पितर या प्रेत भक्ति को तीसरा स्थान दिया गया है। हमारे देश के निरंकार की उपासना करने वाले बहुत कम हैं पर साकार रूप के उपासक भी अंततः प्रेत पूजा हठपूर्वक करते हैं। यह भी तामस प्रकृति है। लोग कहते हैं कि क्या हुआ अगर हमने सभी तरह से सभी स्वरूपों की पूजा कर ली? दरअसल यह अस्थिर भक्ति भाव को दर्शाता है जो कि शुद्ध रूप से तामस प्रकृति का प्रमाण है।

                        हमारे देश में कथित रूप से श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान के अनेक प्रचारक हैं पर उनका आचरण देखकर यह कभी नहंी लगता कि उन्होंने स्वयं उस ज्ञान को धारण किया हुआ है।  ज्ञान होने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता बल्कि उसे धारण करने वाला ही सच्चा ज्ञानी है।  ज्ञानी कभी आत्मप्रचार नहीं करते वरन् उनके आचरण से लोगों को स्वयं सीखना चाहिये।  लोग यह चाहते हैं कि बने बनाये और प्रचारित गुरुओं का सानिध्य उन्हें मिल जायें। वह उनके पंाव छूकर स्वयं को धन्य समझते हैं।  यहां लोगों से अधिक उन कथित गुरुओं के अज्ञान पर हंसा जा सकता है।  संत कबीरदास ऐसे गुरुओं का पाखंडी मानते हैं जो दूसरों से अपने पांव छुआते हैं।  गुरु कभी शिष्यों का संग्रह नहीं करते और न ही शिष्यों को ज्ञान देने के बाद फिर अपने पास चक्कर लगवाते हैं।  इस सब बातों को देखें तो हम यह बात मान सकते हैं कि धर्म के नाम पर हमारे यहां तामस प्रवृत्तियों वाले लोग  अधिक सक्रिय हैं। सच बात तो यह है कि गुरु सहज सुलभ नहीं होते। न ही रंग विशेष का वस्त्र पहनने वाले लोग ज्ञानी होेते हैं। ज्ञानी कोई भी हो सकता है।  संभव है किसी ने श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन नहीं किया हो पर उसके अंदर स्वाभाविक रूप से वह मौजूद हो।  यह उसके कार्य तथा जीवन शैली से पता चल जाता है। अंतः गुरु के रूप में उसी व्यक्ति को स्थान देना चाहिये जो सांसरिक विषयों में लिप्त रहने के बावजूद अपने आचरण में शुद्धता का पालन करता है।

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

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महात्मा गाँधी के राजपद से मोह न रखने में मायने-गाँधी जयंती पर विशेष हिंदी लेख


                        महात्मा गांधी को युग पुरुष कहा जाता है। हम यहंा बता दें कि महात्मा गांधी जैसा चरित्र विश्व में कभी कभार ही देखने को मिलता है। जिस तरह उन्होंने अंग्रेजों से अपमानित होने पर उनके विरुद्ध पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत में आंदोलन छेड़कर अपना हिसाब चुकाया वह अनुकरणीय है।  हम अगर उनके जीवन को कमतर कहेंगे तो यकीनन यह मानसिक कुंठा के अलावा कुछ नहीं हो सकता।  कोई व्यक्ति किस तरह शून्य से शिखर तक पहुंच सकता है इसका प्रमाण महात्मा गांधी से बेहतर आधुनिक युग में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता।  आधुनिक लोकतांत्रिक युग में राज्य के विरुद्ध सत्याग्रह तथा अहिंसक आंदोलन जैसी प्रेरणा उन्होंने जो दी है उसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।  इसके बावजूद महात्मा गांधी जी का नाम  भारत में प्राचीन महापुरुषों की तरह प्रतिष्ठित नहीं हो पाया। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत में अध्यात्मिक विषय में दक्षता होने पर ही लोग किसी को अपना हार्दिक महापुरुष मानते हैं।  स्थिति यह है कि महात्मा गांधी को राजनीतिक संत कहकर प्रथम राजनेता की तरह सम्मान दिया जाता है। यह देखकर हैरानी होती है कि पूरे देश के हर समाज को आंदोलित करने वाले महान व्यक्तित्व के स्वामी होने के बावजूद संत तुलसीदास, कबीरदास, रहीम तथा सूर जैसी छवि भारतीय जनमानस में नहीं बन पायी। इसका कारण उनके आंदोलन से केाई अध्यात्मिक संदेश नहीं मिलता।

                        महात्मा गांधी त्याग की मूर्ति थे। कहा जाता है कि त्यागी हमेशा ही भोगी से बड़ा होता है इसके बावजूद भारतीय अध्यात्मिक दृष्टि से उनकी सक्रियता को रेखांकित नहीं किया गया।  इन कारणों की खोज करें तब इस बात का आभास होता है कि भारतीय जनमानस त्रिगुणमयी माया से संचालित इस धरती पर राजसी प्रवृत्ति में लिप्त रहते हुए राजसी कर्म करता है पर उसके हृदय में स्थाई छवि सात्विक और योग साधना से इन तीनों गुणों को लांघ जाने वाले सिद्ध की ही बनती है। भारत का स्वाधीनता आंदोलन शुद्ध रूप से एक राजसी कार्य था।  एक राज्य व्यवस्था से दूसरी की तरफ जाना इस मायने में ही स्वतंत्रता थी कि दूसरी व्यवस्था अपने ही देश के लोगों के हाथ में थी।  यह व्यवस्था भी महात्मा गांधी के अनुयायियों को मिली।  उससे भी बड़ी बात यह कि व्यवस्था का रूप वही था पर प्रबंधकों के चेहरे बदल गये थे।  उसमें कोई ऐसा मूल बदलाव नहीं आया जिससे प्रजा अनुभव कर सके। कालांतर में तो यह भी हुआ  कि महात्मा गांधी के के गैर राजनीति अनुयायी ही यह कहते रहे कि अभी तो पूर्ण आजादी मिलना शेष हैै। आधुनिक युग में उनके सबके प्रसिद्ध अनुयायी अन्ना हजारे ने यहां तक कह दिया कि देश में वह दूसरा स्वतंत्रता आंदोलन चलाना चाहते हैं।  उन्होंने अपने आंदोलन के दौरान भारी जनसमर्थन जुटाया। यह अलग बात है कि अब उनका आंदोलन तथा उनका नाम प्रचार माध्यमों में अब ज्यादा नहीं लिया जाता पर इतना तय है कि उनके बहाने महात्मा गांधी पर चर्चा अवश्य होती है। 

                        दरअसल महात्मा गांधी ने भारत का सवौच्च कार्यपालिका का मुख्य पद लेने से इंकार कर दिया था। उन्होंने प्रधानमंत्री बनना स्वीकार नहीं किया। इसे त्याग मान गया। लोगों का अपना अपना दृष्टिकोण है कुछ लोग इसे त्याग मानते हैं तो कुछ लोग जिम्मेदारी से दूर हटना मानते हैं।  एक बात तय रही है कि महात्मा गांधी  पूर्ण रूप से एक अध्यात्मिक व्यक्तित्व के स्वामी थे पर वह राजसी कर्म में अपना नाम प्रतिष्ठित कर रहे थे।  लोगों को अपने साथ वह कोई सत्संग करने के लिये नहीं जोड़ते थे बल्कि उनका मुख्य अपना राजसी लक्ष्य पूरा करना था।  वह प्रधानमंत्री पद पर बैठकर एक श्रेष्ठ राजसी पुरुष की भूमिका निभाते तो उनका नाम सम्राट चंद्रगुप्त, अशोक और विक्रमादित्य की श्रेणी में आ सकता था।  संभव है भारतीय अध्यात्मिक विषय में भी उन्हें एक श्रेष्ठ राजसी पुरुष का दर्जा मिलता।  दूसरी बात यह कि वह जिस राम राज्य की कल्पना का प्रचार करते थे उसके लिये भी उनको राज्य पद पर प्रतिष्ठित होना आवश्यक था।  जिन भगवान श्रीराम के वह भक्त थे उन्होंने भी 14 वर्ष के वनवास के दौरान जहां अपने महान योद्धा होने का प्रमाण देने के बाद एक श्रेष्ठ राजा के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वहन किया था।  इसी तरह उनके अनेक भक्त उनसे स्वाधीनता आंदोलन के दौरान एक श्रेष्ठ योद्धा के रूप के प्रतिष्ठित होने के बाद राजपद पर स्थापित होकर एक श्रेष्ठ राजपुरुष की तरह दिखने की अपेक्षा भी कर रहे थे।

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि

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कृतं त्रेतायुगं चौप द्वापरं कलिरेव च।

राज्ञोवृत्तानि सर्वाणि राजा के हि युगमुच्यते।

     हिन्दी में भावार्थ-किसी राज्य में राजा जिस तरह प्रजा के लिये व्यवस्था तथा चेष्टा करता है वही युग कहलाती है।  एक तरह से राजा के कार्य तथा उसकी अवधि  ही सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होती है। एक तरह से राजा का कार्यकाल ही युग होता है।

कलिः प्रसुप्तो भवति सः जाग्रद्द्वपरं युगम।

कर्मस्यभ्युद्यतस्वेत्ता विचरेस्तु कृतं युगम्।।

                 हिन्दी में भावार्थ-राजा के निरुद्यम होने पर कलियुग, जाग्रत रहने पर द्वापर, कर्म में तत्पर रहने पर त्रेता तथा यज्ञानुष्ठान में रत होने पर सतयुग की अनुभूति होती है।

                        महात्मा गांधी ने प्रधानमंत्री पद नहीं लिया इसके पीछे उनका सोच चाहे जो भी हो पर उससे देश में गलत संदेश चला गया।  लोगों को यह लगता है कि राज्य प्रमुख होना एक सौभाग्य की बात है और उसे त्यागना गौरवपूर्ण बात  है। इसे स्वीकार करना कठिन है। सच बात तो यह है कि इस संसार के समस्त विषयों का अनुष्ठान  राजसी प्रवृत्ति के कर्म उसी के अनुरूप भाव होने पर संपन्न होते हैं।  अध्यात्मिक विषयों के संयोग  मनुष्य के अंतर्मन की शुद्धता करते हैं पर सांसरिक विषयों के कार्यों में व्यवहारिकता का होना आवश्यक है। मनुष्य को छल नहीं करना चाहिये मगर यह भी सच है कि  निजी सीमाओं तक इसे माना जा सकता है जबकि सार्वजनिक   राजसी कर्म करते हुए यह शर्त हमेशा नहीं रखी जा सकती। दूसरी बात यह कि राज्य पद होने पर भोग के साधन सुलभ होते हैं पर अनेक सार्वजनिक दायित्व भी पूरे करने पड़ते हैं।  उसमें विशेष योग्यता, बुद्धि तथा शिक्षा होना आवश्यक है।  किसी राज्य पद को स्वीकार न करना त्याग माना जा सकता है पर उसके साथ जो जुड़े दायित्व हैं उनसे परे हटना इस श्रेणी में नहीं आता।

                        महात्मा गांधी तत्कालीन भारतीय जनमानस में सर्वाधिक लोकप्रिय थे इसलिये उनके राजकीय पद न स्वीकारने को भले ही त्याग माना गया पर कालांतर में इस पर कुछ लोगों ने आपत्तियां भी की।  मनुष्य समाज में राजा का होना आवश्यक है वरना वह पशुओं की तरह व्यवहार करने लगता है।  इतिहास में देखा गया है कि जहां राजा पर संकट आया वहां की प्रजा को भारी परेशान हुई।  इसलिये राजपद का महत्वपूर्ण ही माना जाता है।  इतना ही नहीं अनेक बार तो ऐसा लगता है कि किसी ने राजपद पर बैठकर ही साहस का काम किया है क्योंकि का जाता है कि जिनके सिर पर मुकुट होता है उनके ही कटने का डर रहता है।  कहने का अभिप्रय यह है कि राजपद को हमेशा ही भोग का प्रतीक नहीं माना जा सकता।  महात्मा गांधी क राजपद स्वीकार न करने पर एक तरह से यही संदेश निकलता है कि राजपद पर बैठना भोग प्रकृति को दर्शाता है।

                        महात्मा गांधी का जीवन अनोखा है। सच बात तो यह है कि हजारों वर्षों तक ऐसा महान व्यक्तित्व देखने को नहीं मिलेगा पर उनके नाम पर कोई युग नहीं बन सकता। युग तो केवल उन लोगों का बनता है जो अध्यात्मिक विषयों में सिद्धि प्राप्त करते हैं-जैसे संत कबीर, तुलसीदास, रैदास, रहीम और सूरदास-या फिर जो राजसी कर्म में अपनी श्रेष्ठता दिखाते हैं-जैसे सम्राट चंद्रगुप्त, अशोक और विक्रमादित्य-महात्मा गांधी एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व के स्वामी थे पर उनका नाम इसी कारण प्राचीन काल के एतिहासिक पुरुषों के श्रेणी तक नहीं पहुंच पाया।   बहरहाल उनके जन्म दिन पर उनको हम भावभीनी श्रद्धांजलि देते हैं। उनके बारे में हमें यह कहते हुए जरा भी हिचक नहीं है कि वह निष्काम कर्म का एक बहुत बड़े प्रमाण हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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राष्ट्र भाषा का महत्त्व समझने पर ही समाज में एकता संभव-हिंदी दिवस पर लेख


          14 सितंबर 2014 को हिन्दी दिवस है यह बात मातृभाषा बोलने, लिखने तथा समझने वाले अधिकतर बुद्धिजीवियों को मालुम है।   इस लेखक ने अपने ब्लॉग पर अनेक लेख लिखे हैं इसलिये उन पर अनेक पाठक आ रहे है।  हिन्दी के महत्व शब्द से सर्च इंजिनों पर खोज अधिक होती दिखती है। हिन्दी के महत्व पर लिखे गये एक लेख पर अनेक प्रकार की प्रतिक्रियायें

प्राप्त हो रही हैं। उसमें पुराने लेख परक अक्सर एक शिकायत आती है कि उसमें आपने हिन्दी का महत्व तो बताया ही नहीं।  हमने उनको नजरअंदाज किया पर आज एक प्रतिक्रिंया मिली कि आप राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी का महत्व बतायें तो अच्छा रहेगा।  उस पाठक की इस प्रतिकिया ने इस लेख को लिखने की प्रेरणा दी।

                        राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में हिन्दी के महत्व का बखान बहुत लोगों ने किया है पर शायद ही कोई यह बता पाया हो कि आखिर राष्ट्रीय एकता की जरूरत किसे और क्यों है? इस एकता की जरूरत समाज को है या व्यक्ति को है? हमारा यह प्रश्न अटपटा जरूर लगता है पर चिंत्तन के संदर्भ में अत्यंत महतवपूर्ण है।  हमारे यह बुद्धिजीवियों का झुण्ड  अब राष्ट्र, प्रदेश, शहर, मोहल्ला, परिवार और व्यक्ति के क्रम में सोचता है और यही कारण है कि वह राजकीय संस्थाओं से ही हिन्दी के विकास का सपना देखता है।  हम व्यक्ति से राष्ट्र के क्रम में सोचते हैं। हमारा मानना है कि व्यक्ति मजबूत हो तो ही राष्ट्र मजबूत हो सकता है।  इस मजबूती को आधार  अपनी भूमि, भाव तथा भाषा के प्रति विश्वास दिखाने और उसे निभाने से ही मिल सकता है।  हम आज देश में अनेक प्रकार के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक संकटों के आक्रमण का सामना कर रहे हैं।  समाज डोलता दिख रहा है। यही स्थिति हमारी राष्ट्रभाषा की भी है।  हमारा मानना है कि इस संकट का कारण यही है कि हम अपनी भाषा के प्रति उदासीन रवैया अपनाये हुए हैं  हर कोई हिन्दी  के विकास की बात कर  रहा है पर पुरस्कारों तथा सम्मान का मोह ऐसा है कि लोग अपनी भाषा की सच्चाई के प्रति उदासीन है। आखिर हिन्दी के प्रति हमें सतर्क क्यों होना चाहिये। इसी उत्तर की खोज ही राष्ट्रीय एकता में हिन्दी का महत्व सिद्ध कर सकती है।

                        जब तक सरकारी नौकरी ही इस देश में मध्यम वर्ग का आधार था तब सरकारी कामकाज में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व था। उस समय इसकी आलोचना के जवाब में कहा जाता था कि हिन्दी को रोजगारमूलक बनाया जाना चाहिये।  कालांतर में  हिन्दी में कामकाज का प्रभाव बढ़ा। अब मध्यम वर्ग के लिये नोकरियां सरकारी क्षेत्र में कम हैं और निजी क्षेत्र इसके लिये आगे आता जा रहा है।  ले-देकर बात वहीं आकर अटकती है कि वहां हिन्दी वाले को कोई सफेद कॉलर वाली नौकरी नहंी मिल सकती।  यही कारण है कि आज की युवा पीढ़ी जो नौकरी का लक्ष्य लेकर पढ़ रही है वह अंगेजी के साथ आगे बढ़ रही है।  प्रश्न यह है कि क्या वह बिना हिन्दी के कितना आगे बढ़ पायेगी।  एक बात साफ कर दें कि नौकरी में योग्यता एक अलग मायने रखती है।  संभव है कि ग्यारहवीं पास अंग्रेजी न जानने वाला कहीं प्रबंधक बन जाये और उसके नीचे अंग्रेजीदां इंजीनियर काम करें।  प्रबंध कौशल अपने आप में एक अलग विधा है और जिनमें यह गुण है उनके लिये अंग्रेजी कोई मायने नहीं रखती। ऐसे में कहीं अगर किसी संस्थान में शक्ति का कें्रद्र किसी हिन्दी भाषी के पास रहा तो उसे अपनी भाषा में बातकर प्रभावित किया जा सकता हैं। सभी जानते हैं कि भारत में विकास के लिये कभी चाटुकारिता भी करनी होती है जो केवल हिन्दी में सहज हो सकती है।  ऐसे में व्यक्ति को अपनी विकास यात्रा के लिये हिन्दी भाषा न होने या अल्प होने से बाधा लगेगी तो वह क्या करेगा? अगर हिन्दी के सहारे कोई विकास करता है यकीनन वह राष्ट्र का ही कल्याण करेगा! उसका विकास अंततः कहीं न कहंी राष्ट्र के प्रति उसका आत्मविश्वास बढ़ाता है जिससे वह दूसरे लोगों के साथ एक होकर रहना चाहता है। 

                        दूसरी बात यह है कि हमारे देश में समय के साथ राष्ट्रीय स्तर पर इधर से उधर रोजगार के कारण पलायन बहुत  हुआ है। पहले हम अपने देश का मानसिक भूगोल समझें।  हमारा पूर्व क्षेत्र वन के साथ खनिज, पश्चिम उद्योग, उत्तर प्रकृति के साथ ही मनुष्य तथा दक्षिण बौद्धिक संपादा की दृष्टि अत्यंत संपन्न हैं। हम यहां उत्तर की  प्रकृति तथा मनुष्य संपदा की बात करेंगे। दरअसल हमारे उत्तरी मध्य क्षेत्र में कृषि संपदा है तो यहां जनसंख्या घनत्व भी अधिक है।  जहां जहां बौद्धिक रूप से श्रेष्ठता का प्रश्न हों वहां दक्षिणवासी लोगों का  कोई जवाब नहीं तो श्रम का प्रश्न हो तो उत्तर भारतीय लोगों को लोहा माना जाता है। खासतौर से बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से श्रम शक्ति पूरे भारत में फैली है। जिस तरह भारत से बाहर गये श्रमशील मनुष्यों ने हिन्दी का विदेश में विस्तार किया वैसे ही इन हिन्दी भाषी श्रमिकों ने भारत के अंदर ही हिन्दी का विस्तार किया है।  यहां यह भी बता दें भारत के बाहर नौकरी के लिये ही अं्रेग्रेजी का महत्व है वरना व्यापार में केवल बुद्धि की ही आवश्यकता होती है।  भारत के अनेक लोग ऐसे भी हैं जो गुलामी के समय में  विदेशों में गये और अंग्रेजी न आने के बावजूद व्यापार किया।  वह सफल और बडे व्यापारी बने।  पंजाब से गये अनेक लोगों ने बिना अंग्रेजी के अपना काम किया। स्थिति यह है कि अनेक लोग तो यह कहने लगे हैं कि विदेशों में कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां हिन्दी का प्रभाव साफ दिखता है।  इतना ही नहीं वहां आपसी संपर्क में हिन्दी का महत्वपूर्ण योगदान है।  हम भारत में भी यही देख सकते हैं।  अनेक गैर हिन्दी प्रदेशों में जाने पर वहां हिन्दी में वार्तालाप किया जा सकता है।  कहीं कहीं तो अंग्रेजी का ज्ञान न होने वालेे भी हैं पर हिन्दी में वहां भी काम हो जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि भले ही कोई हिन्दी न जानता हो पर उससे आप अपनी भाषा के कारण आत्मीय का व्यवहार तो पा ही सकते हो जो कि समय पड़ने पर अत्यंत आवश्यक होता है।

            हम देख रहे हैं कि भारत में कंपनियां अपना विस्तार सभी जगह कर रही है। वह चाहें या न चाहें उन्हें शारीरिक काम करने वाले लोगों  की आवश्यकता हो्रती है। तय बात है कि अंग्रेजी वालों में शारीरिक क्षमता अधिक नही हो्रती। अब सिथति यह भी हो सकती है कि कहीं प्रबंधक अंग्रेजीदां है तो बौद्धिक काम वालों को उसे प्रभावित करने के लिये अंग्रेजी का आवश्यकता पड़ सकती है पर अगर कहीं शारीरिक श्रम की बहुलता है तो  प्रबंधक को   भी श्रमिकों से काम लेने के लिये  हिन्दी पूर्णरूपेश आनी ही चाहिये। कहनें का मलब यही है कि पूंजी, श्रम और बुद्धि का तारतम्य अब इस देश में केवल हिन्दी भाषा से जम सकता है। औद्योगिक विकास के लिये तीनों की आवश्यकता होती है।  श्रम शक्ति पर निर्भर रहने वाले पढ़ाई नहीं करते या कम करते हैं उनसे काम लेने के लिये पूंजी और बौद्धिक वर्ग को उसकी भाषा आना चाहिये।

            हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि हम जब कृषि पर निर्भर थे तब जितनी हिन्दी भाषा की आवश्यकता थी। उससे ज्यादा अब है।  पूजी, बुद्धि और श्रम का तारतम्य अब हिन्दी के बिना संभव नही है। तय बात है कि जब तीनों के बीच एकरूपता होगी तो उनसे जुड़े तीनों व्यक्तियों को भी उसका प्रतिफल मिलेगा।  तब उनमें स्वयमेव एकता होगी। अगर भाषा संबंधी परेशानी रही तो तो तीनों परेशान होंगे।  अतः उनमें हिन्दी भाषा ही एकता ला सकती है। यहां हम बता दें एकता से हमारा आशय व्यक्तियों की एकता से ही है। खालीपीली राष्ट्रीय एकता का नारा लगाने वालो  में हम नहीं है।  इससे ज्यादा हम राष्ट्रीय एकता पर हम क्या लिखें? वैसे हम लिख तो गये पर यह तय नहीं कर पाये कि हमने हिन्दी का महत्व पूरी तरह से बताया कि नहीं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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मनुस्मृति-राजा का अन्न खाने से तेज नष्ट होता है


          कहा जाता है कि जैसा खायेंगे अन्न, वैसा ही होगा मन।  दरअसल इस कहावत का आशय शब्दिक, लाक्षणिक तथा व्यंजना तीनों विधाओं में लिया जाना चाहिये।  अन्न का शाब्दिक आशय तो गेहुं, चावल तथा दालों सहित उन तमाम तरह के पदार्थों से है जो प्रकृत्ति से प्रदत्त हैं। लाक्षणिका रूप से देखने पर लगता है कि अगर इन अन्नों के उत्पादन की गुणवत्ता में कमी है तो सेवन किये जाने  पर वह देह को कम पौष्टिकता प्रदान करते हैं। गुणहीन अन्न अधिक खाने पर भी पाचक नहीं होता और पाचक अन्न कम खाने पर भी अधिक शक्ति देता है।  उसी तरह आशय  व्यंजना विधा में यह कहा जा सकता है कि अन्न से बने भोज्य पदार्थों का उद्गम स्थल भी अत्यंत महत्व रखता है। जहां भोजन आचरणहीन, लोभी तथा दुष्ट व्यक्ति के माध्यम से प्रस्तुत हो उसका सेवन करने से मनोवृत्ति विषाक्त हो जाती है।

      हमारे यहां समाज में आचरण, विचार तथा व्यवहार का स्तर देखने के बजाय लोग केवल पैसे की उपलब्धि देखने लगे हैं।  दूसरी बात यह भी है कि सिकुड़ते हुए पारिवारिक दायरों तथा जीवन में व्यक्तिगत संघर्ष ने लोगों के पास समाज की चारित्रिक स्थिति से मुंह फेरने के लिये विवश कर दिया हैं।  वह मित्रों के संग्रह के लिये जूझते हैं पर स्वयं किसी के स्वयं हितैषी बनने को तैयार नहीं है। फिर पार्टियों तथा पिकनिक के दौर नियमित हो गये हैं जिसमें लोग केवल जान पहचान के आधार पर शमिल होते हैं। यह जानने का कोई प्रयास नहीं करता कि उनके सहभागियों के घन का स्तोत्र क्या हैं? जहां मिल जाये खाना वहीं चला जाये जमाना वाली स्थिति है। भोजन के स्तोत्र की अज्ञानता ने आचरण और व्यवहार के प्रति उदासीनता का भाव पैदा किया है।  

मनुस्मृति में कहा गया है कि

 

—————-

 

मत्तक्रुद्धातुराणां च न भुञ्जति कदाचन।

 

केशकीटावपन्नं च पदा स्पृष्टं च कामतः।।

 

भ्रुणघ्रावेक्षितं चैव संस्पृष्टं चाप्यदक्यया।

 

पतत्रिणाऽवलीढं च शुना संस्पृष्टंमेव च।।

 

     हिन्दी में भावार्थ- विक्षिप्त, क्रोधी और रोगी व्यक्ति के लिये  रखा, बालों तथा कीड़े पड़ जाने से दूषित, खाने के लिये अनुचित मानकर फैंकने के लिये रखा गया, जिसे भ्रुण हत्यारों ने देखा हो तथा जिसे पक्षियों ने चखा हो, ऐसा पदार्थ कभी सेवना नहीं करना चाहिये।

 

राजान्नं तेज आदत्ते शूद्रान्नं ब्रह्मवर्चसम्।

 

आयुः सुवर्णकारान्नं यशश्चर्मावकर्तिनः।।

 

     हिन्दी में भावार्थ-राजा का अन्न खाने से तेज और निम्न आचरण करने वाले व्यक्ति का अन्न खाने से विद्या के साथ ही यश की भी हानि होती है।

      हमारे यहां सामान्य लोगों को विशिष्ट लोगों के घर मेहमाननवाजी करने का सपना हमेशा रहता है।  खासतौर से राजसी शिखर पर बैठे लोगों के यहां जाने के लिये लोग लालायित रहते हैं।  मनुस्मृति के अनुसार राजा का अन्न खाने से तेज का नाश होता है। इसका आशय यही है कि जब कोई किसी राजपुरुष के यहां भोजन करेगा तो उसके सामने नतमस्तक होना भी पड़ेगा इससे मन के साथ ही ज्ञानेंद्रियां भी शिथिल होती हैं।  उसी तरह हम देख रहे हैं कि कन्या भ्रुण हत्या रोकने का अभियान हमारे देश में इसलिये चल रहा है क्योंकि उसके कारण जनसंख्या में लिग का अनुपात बिगड़ जाने से स्त्रियों के प्रति अपराध बढ़ते जा रहे हैं। कन्या भ्रुण हत्या रोकने का अभियान भी चल  रहा है पर समाज से उसमें सहयोग नहीं मिल रहा है।  समाज में चेतना लाने के लिये यह आवश्यक है कि लोगों को अपना अध्यात्मिक ज्ञान उनमें प्रचारित करना चाहिये। कन्या भ्रुण हत्या के लिये जिम्मेदार लोगों के प्रति समाज जब उपेक्षा का भाव अपनायेगा तभी संभवत सफलता मिल पायेगी।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

 

 

चाणक्य नीति दर्शन-घटिया प्रवृति के इंसान को बदलना संभव नहीं


        मूलतः यह एक प्रकार से निराशावादी दृष्टिकोण हो सकता है पर सत्य तो सत्य ही होता है कि इस संसार में जिस व्यक्ति की जैसी प्रकृति एक बार बन गयी और अगर उसमें विकृतियां हैं तो फिर किसी भी प्रकार से उसकी बुद्धि को शुद्ध नहीं किया जा सकता।  बचपन से ही जैसी प्रवृत्तियां मनुष्य मन में स्थापित हो जाती हैं तो वह अंत तक उसके साथ ही चलती हैं।  जिनका मन बचपन से ही अध्यात्म की तरफ मुड़ जाये तो  उनके विचार और व्यवहार में शुद्धता स्वतः ही बनी रहती है पर जिसे केवल सांसरिक विषयों का ही अध्ययन कराया जाये  उसमें उन्माद, क्रोध, अहंकार तथा लोभ की प्रवृत्ति स्वतः आ जाती हैं। यह अलग बात है कि कोई अध्यात्मिक साधना की तर्फ मुड़ जाये तो वह अपने निकृष्ट प्रकृत्तियों पर स्वतः निंयत्रण कर लेता है मगर ऐसा विरले ही लोगों के साथ होता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि

 

—————

 

दुर्जनं सज्जनं कर्तृमुपायो न हि भूतले।

 

अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत्।।

    सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-दुष्ट व्यक्ति को सज्जन बनाने के लिए इस धरती पर कोई उपाय नहीं है।  जैसे मल त्याग करने वाली इंद्रियां सौ बार धोने पर भी श्रेष्ठ इंद्रियां नहीं बन पातीं।

      दुर्जन से सज्जन बन जाने की धटनायें अपवाद स्वरूप हो जाती है।  ऐसा भी होता कि किसी स्वार्थी प्रकृति के मनुष्य के साथ कोई दुर्घटना घट जाये तब वह मानसिक रूप से टूट जाता है। यह सही है कि ऐसे में उसके व्यवहार में परिवर्तन आता है।  आमतौर से दुष्ट प्रकृति के मनुष्य  में कभी सुधार नहीं होता। पाश्चात्य विचारधाराओं के अनुसार दुष्ट व्यक्ति में सुधार हो सकता है यहां तक तो ठीक है पर वह इसे भी मानती हैं कि समूचा समूह ही भ्रंष्ट ये इष्ट बनाया जा सकता है।  यही बात भारतीय अध्यात्म से मेल नहीं खाती। किसी दुष्ट समूह में एक दो व्यक्ति सुधर जाये पर सभी सदस्य देवता नहीं बन सकते। दूसरी बात यह भी कि किसी मनुष्य में सुधार प्राकृतिक कारणों से आता है पर कोई दूसरा मनुष्य यह काम करे यह संभव नहीं है। इसलिये जिनके बारे में हमारी धारणा अच्छी नहीं है उनसे व्यवहार ही नहीं रखना चाहिये। रखें तो किसी प्रशंसा की उम्मीद करना व्यर्थ है।

 

 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

 

फेसबुक या ठेसबुक या फसादबुक-हिंदी व्यंग्य


        कम से कम आधुनिक तकनीकी से जुड़ने का सौभाग्य हमें मिला इसके लिये परमात्मा का धन्यवाद अवश्य अर्जित करना चाहिए। अंतर्जाल इंटरनेट अनेक बार गजब का अनुभव कराता है।  सभी अनुभवों की चर्चा करना तो संभव नहीं है पर फेसबुक के माध्यम से ऐसे लोगों को तलाशना अच्छा लगता है जिन्हें हमने बिसारा या उन्होंने ही याद करना छोड़ दिया है।  हम जैसे लेखकों के लिये फेसबुक केवल चंद मित्रों और प्रशंसकों से जुड़े होने का एक माध्यम भर है जबकि ब्लॉग पर लिखने के पर  ही असली आनंद मिलता है। यह ब्लॉग एक तरह से अपनी पत्रिका लगती है।  यहां लिखकर स्वयंभू लेखक, कवि और संपादक होने की अनुभूति होती है। यह आत्ममुग्धता की स्थिति है पर लिखने के लिये प्रेरणा मिलती है तो वह बुरी भी नहीं है।  शुरुआत में फेसबुक से जुड़ना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं लगा।  अलबत्ता ब्लॉग मित्रों को देखकर अपना खाता बना लिया।  जान पहचान की बालक बालिकाओं ने अपनी फेसबुकीय रुचि के बारे में बताया फिर भी अधिक दिलचस्पी नहीं जागी।  एक बार दूसरे शहर गये तो वहां एक बालक ने लेपटॉप पर अपने फेसबुक से हमारा खाता जोड़ दिया।  तय बात है कि उसके संपर्क के अनेक लोगों में हमारी दिलचस्पी भी थी।  इनमें लेखक कोई नहीं है पर फेसबुक पर सक्रिय होने के लिये उसकी कोई आवश्यकता भी नहीं होती। इधर से उधर फोटो उठाकर अपने यहां लगाने के लिये बस एक बटन दबाना है।  लोग अपनी मनपसंद की सामग्री इसी तरह लगाकर खेल रहे हैं।  अपने फोटो एल्बम लगाकर एक दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं।

    ऐसे में भूले बिसरे लोगों को ढूंढने का प्रयास करना हम जैसे लेखकों के लिये दिलचस्प होता है।  यह दिलचस्पी तब आनंददायक होती है जब आप ऐसे लोगों का खाता ढूंढ लेते हैं जिनके साथ कभी आपने अपने खूबसूरत पल गुजारे पर अब हालातों ने आपसे अलग कर दिया।  आम आदमी की याद्दाश्त कमजोर होती है इसलिये समय, हालत और स्वार्थों की पूर्ति के स्त्रोत बदलते ही वह अपनी आंखों में प्रिय लगने वाले चेहरों को भी बदल देता है।  कर्ण को प्रिय लगने वाले स्वर भी बदल जाते हैं।  लेखक होता तो आम आदमी है पर वह अपनी याद्दाश्त नहीं खोता।  दौर बदलने के साथ वह अपनी यादों को जिंदा रखता है।  यह उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।  वरना वह नित नयी रचनायें नहंी कर सकता।

              फेसबुक में हमने ऐसे अनेक खाते ढूंढे हैं जिनके स्वामी हमसे दूर हो गये। जब मिलते हैं तो तपाक से मिलते हैं।  नहीं मिलते तो पता नहीं उनको याद भी आती कि नहीं।  एक प्रियजन का खाता ढूंढ रहे थे पर उसने बनाया ही नहीं था।  तीन चार साल में तीन मुलाकतें हुई। आखिरी मुलाकात छह महीने पहले हुई थी।  वह पढ़े लिखे हैं  फेसबुक खाता कभी खोलेंगे यह सोचना मूर्खता थी। एक संभावना थी कि उनके परिवार के नयी पीढ़ी के सदस्य उन्हें इस काम के लिये प्रेरित कर सकते हैं।  हमने महीना भर पहले  एक दो बार ऐसे ही प्रयास किया कि शायद उनका खाता बन गया हो। कल अचानक फिर ख्याल आया तो उनका खाता फोटो सहित दिख गया।  हम कभी उनकी फोटो तो कभी उनकी गोदी में बैठी छह महीने की पोती की तरफ देखते थे।  उनके पूरे परिवार के सदस्यों के फेसबुक खाते देख लिये।  उनके फेसबुक से होते हुए हमने कई ऐसे करीबी लोगों के खाते भी देखे जिनको जानते हैं पर कोई औपचारिक संपर्क नहीं है।

       पहले विचार किया कि उनका फेसबुक मित्र बनने का संदेश भेजा जाये पर फिर लगा कि उनकी गतिविधियों पर हम नज़र रखे हुए हैं इससे वह खुलकर दूसरों से सपंर्क रखते समय प्रभावित हो सकते हैं।  सबसे बड़ी बात यह कि हम उनके फेसबुक पर उनके फोटो के साथ ही प्रोफाईल पर उनके मन का अध्ययन कर रहे थे।  पहली बार लगा कि फेसबुक एक तरह से वाईस स्टोरेज भी है।   हमने पहले भी कुछ ऐसे करीबी लोगों की फेसबुक देखी थी पर उस समय ऐसी बातें दिमाग में नहीं आयी अब  आने लगी थी।  सभी का फेसबुक कुछ बोल रहा था।  चेहरे की मुस्काने रहस्य छिपाती लग रही थीं।  वैसे भी हम नहीं चाहते कि हम किसी के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करें पर फेसबुक की मूक भाषा अगर कुछ कहती है तो उसे अनदेखा करना हमारे लिये संभव भी नहीं है।  फोटो एल्बम क्या कह रहे हैं?  जो नाम बार बार जुबान पर है वह फेसबुक पर क्यों नहीं है?  जिसका नाम दिल में होने का दावा है वह फेस कहीं करीब क्यों नहीं दिखाई देता?

              एक बात तय रही कि एक लेखक होने के नाते हम ब्लॉग का महत्व कभी कर ही नहीं सकते पर ऐसा भी लगने लगा है कि फेसबुक पर कुछ कहानियां हमारा इंतजार कर रही हैं। यहा कहानियां अंततः ब्लॉगों की शोभा बढ़ायेंगी।  यही कारण है कि फेसबुक पर उन लोगों को दूर ही रखना होगा क्योकि अंततः ब्लॉगों से रचनायें वहीं आयेंगी और वह हमारे नायक नायिकाऐं इसका हिस्सा होंगी।  फेस टु फेस यानि सामना होने पर फेसबुक की बात ही क्या इंटरनेट से अनजान होने का दावा भी प्रस्तुत करना होगा।  आखिरी बात फेसबुक पर जो संपर्क रखते हैं उनका प्रिय होना प्रमाणित है पर जो रोज नहीं मिलते पर उनमें से किसी के सामने खाताधारक अगर यह दावा करता है कि वह उसका प्रिय है तो प्रमाण स्वरूप उसका फेसबुक का पता जरूर मांगना चाहिये  यह देखने के लिये उसके एल्बम में कहीं स्वयं का फोटो है कि नहीं। यह अलग बात है कि जब दावा करने पर अपना फोटो न दिखे तो यह फेसबुक ठेसबुक भी बन सकती है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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भारतीय अध्यात्म दर्शन में वर्णित है बुद्धि और मन की पहचान-हिन्दी अध्यात्मिक लेख


                 मूलतः हिन्दू धर्मधर्म को एक धर्म नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति माना जाता है।  जब हम हिन्दू समाज की बात करें तो यह बात ध्यान रखना चाहिए कि उसके धर्म ग्रंथों में कहीं भी धर्म का कोई नाम नहीं दिया गया। कहते हैं कि सनातन धर्म से ही हिन्दू धर्म बना है पर यह नाम भी कहीं नहीं मिलता।  दरअसल हम जिन भारतीय ग्रंथों को धार्मिक कहते हैं वह अध्यात्मिक हैं जिसमें तत्वज्ञान के साथ ही सांसरिक विषयों से भी संबंधित  ज्ञान-विज्ञान का  व्यापक वर्णन मिलता है।  यह अलग बात है कि उसमें तत्वज्ञान का सर्वाधिक महत्व है।

            चूंकि मानव का एक मन है। वह उसे भटकाता है इसलिये अनेक बातें मनोरंजक ढंग से कही गयी हैं जिनका संदेश अनेक प्रकार की कहानियों में मिलता है। वही तत्वज्ञान के भी उनमें दर्शन होते हैं पर उसके साथ कहानियां नहीं होती।  यह अलग बात है कि अगर कोई मनुष्य इस तत्वज्ञान का समझ ले तो वह मनोरंजन का मोहताज नहीं होता क्योंकि हर क्षण वह जीवन का आनंद लेता है।  मनोरंजन की आयु क्षणिक होती है। एक विषय से मनुष्य ऊबता है तो दूसरे में रमने की उसमें इच्छा बलवती होती है।  विषयों में लिप्त व्यक्ति केवल उनसे ही मनोरंजन पाता है जबकि तत्वज्ञानी बिना लिप्त हुए आनंदित रहता है।  उसे कभी ऊब नहीं होती।

                    भारतीय अध्यात्म का सार श्रीमद्भागवत गीता में सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया गया है।  उसमें कोई सांसरिक विषय नहीं पर सारे संसार की समझ उसे पढ़ने पर स्वतः आ जाती है। स्थिति यह हो जाती है कि किसी विषय में निरंतर लिप्त होने वाला आदमी अपने कार्य में इतना ज्ञानी नहीं होता जितना तत्वज्ञानी दूर बैठकर सारा सत्य जान लेता है। कर्म तथा गुण के तत्व का जानने वाले ज्ञानी हर प्रकार की क्रिया के परिणाम को सहजता से जान लेते हैं।  आम आदमी इसे सिद्धि मानते हैं पर तत्वाज्ञानियों के लिये यह ज्ञान और विज्ञान का विषय अत्यंत सहज हो जाता है।  वह अपने सिद्ध होने का दावा नहीं करते न ही किसी चमत्कार का प्रदर्शन करते हैं। धर्म उनके लिये कोई मनुष्य से परे दिखने वाला कोई विषय नहीं बल्कि चरित्र और व्यवहार का प्रमाण देने वाला एक संकेतक होता है।

          पश्चिम में अनेक धर्म प्रचलित हैं पर भारत भूमि से संबंध रखने वाले धर्मों में अध्यात्म की ऐसी जानकारियां हैं जिनका वैज्ञानिक महत्व है पर अंग्रेजी के प्रभाव में फंसे भारतीय समाज ने उसे भुला दिया है।  यह अलग बात है कि यहां के लोगों में अभी भी उसकी स्मृतियां शेष हैं जिस कारण यदाकदा सच्चे साधु संतों के दर्शन हो जाते हैं। इन साधु संतों को न प्रचार से मतलब है न ही शिष्यों के संग्रह में रुचि  होती है। इस कारण लोग उनके संपर्क में नहीं आते।  इसकी वजह से धर्म प्रचार का व्यवसायिक उपयोग करने वालो संत का रूप धरकर उनके पास पहुंच जाते हैं।  इस व्यवसायिक प्रचारकों को नाम तथा नामा दोनों ही मिलता है।  अगर तत्वज्ञान की दृष्टि से देखें तो इन प्रचारकों का कोई दोष नहीं है। आम आदमी का भी दोष नहीं क्योंकि उसके पास तत्वज्ञान का अभाव है। अगर हमारे समाज में श्रीमद्भागवत गीता का पाठ्य पुस्तकों में आम प्रचलन होता तो शायद यह स्थिति नहीं होती। हालांकि यह भी केवल अनुमान है क्योंकि देखा तो यह भी जाता है कि श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान देने वाले संत भी उसमें वर्णित धर्म व्यवहार से परे ही प्रतीत होते हैं।

                      सच बात तो यह है कि लोग मनोरंजन के लिये मोहताज हैं और उनको बहलाने वाले धर्म, कला, फिल्म, राजनीति तथा शिक्षा के क्षेत्र में अलग व्यवसायिक प्रवृत्तियों वाले कुछ चालाक लोग सक्रिय है। अनेक जगह तो धर्म के नाम भी ऐसी गतिविधियां दिखने को मिलती हैं जिनका धर्म से कोई संबंध नहीं होता।  जिन धुनों की गीतों के लिये उपयोग किया जाता है धर्मभीरुओं के भरमाने के लिये उन्हीं पर भजन बनाये जाते हैं। संगीत मानव मन की कमजोरी तो धर्म भी मजबूरी  है उसका शिकार आम आदमी किस तरह हो सकता है इसे मनोरंजन के व्यापारी अच्छी तरह जानते हैं।  यह मनोरंजन अधिक देर नहीं टिकता। इसके विपरीत तत्वज्ञानी संसार की इन्हीं गतिविधियों पर हमेशा हंसते हुए आनंद लेते हैं।  सांसरिक आदमी मनोरंजन में लिप्त फिल्म और टीवी के साथ संगीत  में लीन होकर अपना उद्धार ढूंढता है तो ज्ञानी उसे देखकर हंसता है।  आम आदमी कल्पित कहानियों में कभी हास्य तो कभी गंभीर कभी वीभत्स तो कभी श्रृंगार रस की नदी में  बहकर मनोरंजन करता है तो ज्ञानी उसके भटकाव की असली कहानी का आनंद उठाता है।  एक सांसरिक मनुष्य और ज्ञानी में बस अंतर इतना ही है कि एक मनोरंजन के लिये बाहर साधन ढूंढता है जो क्षणिक और अप्रभावी होता है तो दूसरा अपने अंदर से ही प्राप्त कर आनंद स्थापित कर अपनी शक्ति और ज्ञान दोनों ही बढ़ाता है।

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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उत्तराखंड में प्राकृतिक पर प्रकोप पर हिंदी समाचार चैनलों का प्रसारण सराहनीय-हिंदी सम्पादकीय


     उत्तराखंड में हादसे के बाद हिन्दी समाचार चैनलों ने जो किया वह प्रशंसनीय है।  यकीनन अगर इन चैनलों ने सीधे जाकर घटनाक्रम का जीवंत प्रसारण नहीं किया होता तो शायद देश के लोग इस आपदा से जुड़ी  अनेक घटनाओं के बारे में जान नहीं पाते। इससे भी बड़ी बात यह कि जितनी सहायता भले ही वह  अपर्याप्त अभी तक अपर्याप्त ाीर हो पर पीड़ितों को मिल पायी, उसका श्रेय इन्ही समाचार चैनलों के माध्यम से मिल पाया। ऐसा लगता है कि उस समय आपदा प्रबंध में लगी शासकीय तथा सामाजिक संस्थायें इन्हीं चैनलों की खबरों के आधार पर पीड़ितों की सहायता को पहुंच रही होंगी।  उससे भी बड़ी बात यह कि लापता लोगों की जानकारी इन चैनलों ने एकत्रित की उसी आधार पर ही मृतकों का आंकड़ा तय होगा यह बात तय है। अभी एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने लापता लोगों की संख्या 16000 हजार से अधिक का जो आंकड़ा दिया है लगता  वह इन्हीं चैनलों के समाचार के आधार से एकत्रित किया गया होगा।  कोई अन्य संस्था इसे उपलब्ध करा पाये यह संभव नहीं  है।  अब यह खबर इन्हीं चैनलों ने उस संस्था के हवाले से दी कि उत्तराखंड में मृतकों की संख्या बताई है वह उन्हीं के प्रयासों पर आधारित लगती है।  आजतक, इंडिया, आईबीएन, जी न्यूज, एनडीटीवी, एबीवीपी न्यूज, इंडिया टीवी तथा अन्य चैनलों ने लापता लोगों की सूचनायें एकत्रित कीं।  अगर कोई व्यक्ति इनकी सूची के आधार पर काम करे तो संभवतः तो पूरी तरह न  सही पर कुछ हद तक एक अनुमानित संख्या मिल सकती है।

         हालांकि यह चैनल हमेशा ही फालतू खबरें देते हैं। कभी कभी एक खबर को इतना लंबा खींच देते हैं कि बोरियत हो जाती है। मुख्य बात यह है कि खोजी पत्रकारिता का इन चैनलों में पूरी तरह से अभाव दिखता है। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन पर उन्हीं  पूंजीपतियों का हाथ है जिनका देश की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण है।  इसलिये अपने सेठों के अनुकूल प्रतिकूल खबरों का चयन इनको करना पड़ता होगा यह बात तय है। ऐसे में खोजी पत्रकारिता के अपने जोखिम हैं।  किसी बड़े औद्योंगिक घराने की पोल खोले जाने की संभावना इसलिये बन भी नहीं सकती।  जब कोई विशेष खबर न हो तो क्रिकेट और फिल्म की खबरें चलाते हैं।  विभिन्न चैनलों में प्रसारित कॉमेडी और बोरियत भरे सामाजिक धारावाहिकों के अंश प्रसारित करते हैं। एक तरह से वह पूंजीपतियों के विज्ञापन दिखाने वाले यह प्रचार माध्यम समाचारों की सामगं्री इस तरह जुटाते हैं जैसे कि वह कोई सामाजिक दायित्व निभा रहे हों।   वास्तविकता यह है कि आज भी भारत सरकार का उपक्रम दूरदर्शन  केवल  समाचार सुनने वालों के लिये एक उपयुक्त माध्यम हैं

   हिन्दी भाषी क्षेत्रों की जनंसख्या अधिक होने कारण इन चैनलों को विज्ञापन भी खूब मिलते हैं।  ऐसे में अब यह चैनल बहसें भी चलाने लगे हैं।  उसमें भी सभी के पर्दे पर  दिल्ली और मुंबई में बैठे चंद विद्वान ही आते हैं।  क्रिकेट, फिल्म और राजनीति की छोटी छोटी बातों पर बड़ी बड़ी बहस होती है।  तय चेहरे होने के कारण यह बात तो साफ पता लग ही जाती है कि यह ऐसे किसी नये व्यक्ति को ला नहंी सकते जिससे किसी आक्रामक और विवादास्पद स्थिति पैदा हो।  सामाजिक, राजनीतिक, फिल्म, क्रिकेट तथा अन्य जनाभिमुख क्षेत्रों में कार्यरत शिखर पुरुषों के  ट्विटर, ब्लॉग, फेसबुक तथा बेवसाईटों पर कही गयी छोटी बात को भी यह चैनल उछालते हैं पर आम ब्लॉग लेखक की बड़ी बात पर भी चर्चा नहीं करते।  दोष इनका नहीं समाज का है जो लेखक किसी को तभी मानता है जब उसके पास पद, पैसे और प्रतिष्ठा का शिखर हो।  सच बात तो यह है कि हमें लगने लगा है कि हम अंतर्जाल सक्रिय हिन्दी के अनेक ऐसे लेखकों को देख रहे हैं जो इन कथित विद्वानों से अधिक तेजस्वी है। अनेक विषयों पर बहसें देखकर हमें लगता है कि अगर हम अगर वहां होते तो शायद अपनी बात अपने ढंग से कहते और यकीन मानिए सुनने वाले हतप्रभ रह जाते।

      दरअसल अंतर्जाल के आम लेखकों को पूंजीपतियों के वरतहस्त के कारण प्रचारकर्मी आम प्रयोक्ता ही मानते हैं।  यही कारण है कि अनेक लेखकों की रचनायें बिना नाम दिये अखबार में छप रही हैं तथा उनके विचारों को बहसों में इस तरह अनेक विद्वान शामिल करते हैं जैसे  कि वह उनके मौलिक हो।  भारत में अंतर्जाल  आये इतना समय हो गया पर एक भी हिन्दी लेखक को यह प्रचार माध्यम प्रतिष्ठित नहीं कर पाये यह इनकी कमी है।  यह कहना बेकार है कि हिन्दी में ब्लॉग पर लिखा कम जा रहा है।  अनेक बार हमारे मन में आता है कि हमने इतना लिखा है पर किसी ने आज तक ध्यान नहीं दिया तो इसमें हमारी कमी नहीं वरन् समाज की कमी है।  हालांकि एक यह भी है कि हम लिख रहे हें पर इससे कमा क्या रहे हैं? आज के भौतिक युग में किसी क्षेत्र के अकमाऊ व्यक्तित्व को आदर्श बनाकर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

          इधर केदारनाथ, गंगोत्री, बद्रीनाथ तथा यमुनोत्री पर विपदा आयी तो उनकी मदद के लिये दान मांगने  का सिलसिला प्रारंभ हो गया।  यह कहना कठिन है कि कितने लोग पीड़ितों के लिये धन लेंगे और कितना अपने पास रखेंगे। संभव है कुछ वह अपने आगे वाले की तरफ बढ़ायें और कुछ हिस्सा अपने पास रखें। एक बात तय है कि उत्तराखंड  में मदद पहुंचाना आसान नहीं है। वहां सड़कें, पुल और तमाम तरह की इमारतें नष्ट हो गयीं हैं।  बिजली का संकट भी है।  ऐसे में कोई वहां पहुंचकर पहले की तरह सुविधाजनक स्थिति में नहीं रहेगा।  मदद देने के लिये बहुत चढ़ाई चढ़ने के साथ ही पैदल भी चलना होगा।  अपनी देह भारी कष्ट देकर पीड़ितों की मदद करना ही संभव है।  ऐसे में यह भी देखना होगा कि मदद के लिये योजना बना रहे लोगों का शरीर पुष्ट है भी कि नहीं, कहीं वह सुविधाओं के भोग के कारण जर्जर तो नहीं हो गया।  एक ज्ञान तथा योग साधक होने के नाते हमारी दृष्टि इस पर गयी है।  हम नियमित साइकिल चलाने वाले हैं। कभी कभी सप्ताह भर साइकिल नहीं चलाते तो अगली बार उसको चलाने में ऐसा लगता है कि हमारी टांगे जवाब दे रही हैं।  अंतर्जाल के कारण लंबी दूरी तक साइकिल नहीं चलाते। घर के आसपास दो तीन किलोमीटर की दूरी तय कर लेते हैं।  सात आठ किलोमीटर साइकिल चलाने का विचार आता है पर फिर छोड़ देते हैं।  ऐसे में मदद की घोषणा कर दूसरे से पैसा लेने वालों की फिटनेस का विचार हमारे मन में आता है।

        टीवी चैनल वाले जब उत्तराखंड की आपदा का जीवंत प्रसारण दे रहे थे तब उनको हांफता देखकर हमें तरस आ रहा था। यह उनके लिये शायद पहला अवसर था जब उनको सामग्री स्वतः जुटानी पड़ रही थी।  अभी तक तो वह फिल्म, क्रिकेट, राजनीति और कला से जुड़े शिखर पुरुषों की सनसनी पर उनके समाचार प्रसारण चलते रहे थे। बहरहाल इन समस्त चैनलों को अपने प्रसारण के लिये हम इस मायने में आभार व्यक्त करते हैं कि उन्होंने पीड़ितों की मदद के लिये बहुत काम किया।

 

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
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