हम जो भी दृश्य देखते
उस पर सोचने लगते हैं,
अपने अंतर्मन में पहले से ही स्थित
तयशुदा विश्लेषणों के अनुसार
उस पर निकालते हैं निष्कर्ष।
हम कुछ सुनते हैं
उस पर वैसे ही सोचते हैं
जैसे कि पहले सुना हो।
हम स्पर्श करते हैं फूल या लोहा
बेपरवाह होकर जैसे कि उनको पहले भी छू कर देखा है।
मतलब हम देख कर भी
कभी कुछ नया नहीं देख पाते,
सुनकर भी अहसास में ताज़गी नहीं पाते,
छूकर भी नया नहीं सोच पाते,
जिंदगी एक राह पर चलते हुए
बिता देना कितना सहज लगता है,
हम बेखबर हैं
बीतता है हमारा भी समय
घड़ियों की सुईयां घूमने से तो महज लगता है,
हाथ हिलाकर
पांव चलाकर
जिंदगी के चलने की अनुभूति करना ठीक है
पर अपनी सोच कभी आज़ाद नहीं रख पाये
जब होता है यह अहसास
आदमी अपने को बौना समझने लगता है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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शोला कहो या शबनम
मोहब्बत के जज्बातों के
इजहार में हर लफ्ज़ है कम।
मगर जिदंगी में सफर में
खूबसूरत हमसफर भी
लगते हैं बदसूरत
जब होते है सामने गम।
चैहरे को कब तक बनावटी सामान से
कितना चमकाओगे
उम्र के साथ फीके होते जाओगे
जला सके ताउम्र खूबसूरत कोई चिराग
जिस्म की मोहब्बत में नहीं है इतना दम।
…………………….
रंगबिरंगे कागज पर शायरी लिखने से
रंगीन नहीं हो जाएगी
शब्द को शोर करते हुए लिखने से
संगीन नहीं हो जाएगी।
रोते हुए उसके जज़्बातों से
वह गमगीन नहीं हो जाएगी।
ओ शायर!
जब तेरे अल्फ़ाजों में
तुझे तेरा अक्स दिखने लगे
तू हो जाये बेहोश
तेरे जज़्बात खुद लिखने लगे
तभी समझना कि तेरी शायरी
जमाने में रौशन हो जायेगी।
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