Tag Archives: hindi vyangya

चेहरों का चरित्र-हिंदी व्यंग्य कविता


चेहरे वही है

चरित्र भी वही है

बस, कभी बुत अपनी  चाल बदल जाते है,

कभी शिकार के लिये जाल भी बदल आते हैं।

इस जहान में हर कोई करता सियासत

कोई  लोग बचाते है घर अपना

कोई अपना घर तख्त तक ले आते हैं।

कहें दीपक बापू

सियासी अफसानों पर अल्फाज् लिखना

बेकार की बेगार करना लगता है

एक दिन में कभी मंजर बदल जाते

कभी लोगों के बयान बदल जाते हैं।

अब यह कहावत हो गयी पुरानी

सियासत में कोई बाप बेटे

और ससुर दामाद का रिश्ता भी

मतलब नहीं रखता

सच यह है कि

सियासत में किसी को

आम अवाम में भरोसमंद साथी नहीं मिलता

रिश्तों में ही सब यकीन कर पाते हैं।

घर से चौराहे तक हो रही सियासत

अपना दम नहीं है उसे समझ पाना

इसलिये आंखें फेरने की

सियासत की राह चले जाते हैं।

—————–

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
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दिल लग जाये जरूरी नहीं-हिंदी व्यंग्य कविता


खूबसूरत चेहरे निहार कर

आंखें चमकने लगें

पर दिल लग जाये यह जरूरी नहीं है,

संगीत की उठती लहरों के अहसास से

कान लहराने लगें

मगर दिल लग जाये जरूरी नहीं है।

जज़्बातों के सौदागर

दिल खुश करने के दावे करते रहें

उसकी धड़कन समझंे यह जरूरी नहीं है।

कहें दीपक बापू

कर देते हैं सौदागर

रुपहले पर्दे पर इतनी रौशनी

आंखें चुंधिया जाती है,

दिमाग की बत्ती गुल नज़र आती है,

संगीत के लिये जोर से बैंड इस तरह बजवाते

शोर से कान फटने लगें,

इंसानी दिमाग में

खुद की सोच के छाते हुए  बादल छंटने लगें,

अपने घर भरने के लिये तैयार बेदिल इंसानों के लिये

दूसरे को दिल की चिंता करना कोई मजबूरी नहीं है।

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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प्यास बढ़ाओ-हिंदी व्यंग्य कविता


बंदर दे रहा था धर्म पर प्रवचन

उछलकूद करते हुए तमाशा भी

दिखा रहा था

यह सनसनीखेज खबर है

उसके मुखौटे के पीछे

इंसान का चेहरा है

आंखें देखती हैं पर पहचानती नहीं

कान सुनते है मगर समझ नहीं इतनी

बंदर के बोलों में इंसान का ही स्वर है।

कहें दीपक बापू

ज़माना बंटा है टुकड़ों में

कोई दौलत के नशे में मदहोश है,

कोई गरीबी के दर्द से बेहोश है,

जज़्बात सभी के घायल है,

ख्वाबी अफसानों के फिर भी कायल है

दिल के सौदागरों के अपनी चालाकी से

रोते को हंसाने के लिये

खुश इंसान के दिमाग में प्यास बढ़ाने के लिये

मचाया इस जहान  में विज्ञापनों का  कहर है।

देखते देखते

गांवों की खूबसूरती हो गयी लापता

नहीं रही वहां भी पुरानी अदा

घर घर पहुंच गया बेदर्द शहर है।

—————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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हिंदी दिवस पर हास्य व्यंग्य कविता-हिंदी से रोटी खाते मगर अंग्रेजी में गरियाते हैं


14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर

हर बरस लगते हैं

राष्ट्रभाषा के नाम पर मेले,

वैसे हिंग्लिश में करते हैं टॉक

पूरे साल  गुरु और चेले,

एक दिन होता है हिन्दी के नाम

कहीं गुरु बैठे ऊंघते है,

कहीं चेले नाश्ते के लिये

इधर उधर सूंघते हैं,

खाते और कमाते सभी हिन्दी से

अंग्रेजी में गरियाते हैं,

पर्सनल्टी विकास के लिये

हिंग्लिश का मार्ग भी बताते हैं।

कहें दीपक बापू

हिन्दी के शिरोमणियों की

जुबां ही अटक गयी है,

सोचे हिन्दी में

बोली अंग्रेजी की राह में भटक गयी है,

दुनियां में अपना ही देश है ऐसा

जहां राष्ट्रप्रेम का नारा

जोरदार आवाज में सुनाया जाता है,

पर्दे के पीछे विदेशों में भ्रमण का दाम

यूं ही भुनाया जाता है,

हिन्दी शिरोमणि कर रहे हैं

दिखावे की  भारत भक्ति,

मन ही मन आत्मविभोर है

अमेरिका और ब्रिटेन की देखकर शक्ति,

यहीं है ऐसे इंसान

जो हिन्दी भाषा को रूढ़िवादी कहकर  शरमाते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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ज़ज्बात बन गए बाज़ार की चीज़-हिंदी शायरी


यूं तो हमने भी उनसे वादा कियाथा

वफादारी निभानेका

पर उनको यकीन नहीं आया,

लच्छेदार लफ्ज़ों में बहकने केआदी हैं वह

हमारी सीधी सच्ची बातों में भी

उनको बेवफाई के डर नेसताया|

कहें दीपक बापू

इंसानों ने खो दी है

सच सुनने

देखने

छूने और कहने कीतमीज,

उनकी लिए वादेतोड़ने

वफादारी को अपनीतरफ

खरीद करमोड़ने

कीमत के हिसाब से

नीयत जोड़ने

ज़ज्बात बन गए बाज़ार की चीज़,

ज़माने को ले जा रहे हांककर

दिल के सौदागर

दिमाग का इस्तेमाल करना

लोगों को नहींभाया,

खड़े हैं हम चौराहेपर

बाज़ार में खरीददारों की भीड़बहुत है

दिल के सौदे का सच समझ सके

ऐसा कोई शख्स नज़र नहींआया|

————————————-

दीपक राज कुकरेजाभारतदीप

ग्वालियर,मध्यप्रदेश

 

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

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बड़े बोल-हिंदी कविता


बड़े बोल
अपने ही जाल में फंसा देते हैं,
जो बोले वह रोए
बाकी जग को हंसा देते हैं।
कहें दीपक बापू
प्राण शक्ति अधिक नहीं है जिनमें
वही बड़े सपने दिखाते  हैं,
चमकदार ख्वाबों से
अपनी किस्मत लिखते हैं,
मगर ज़मीन पर बिखरे कांटो के सच
उनको गर्दिश में धंसा देते हैं।

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लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

आनंद ही आनंद-हिन्दी व्यंग्य चित्तन लेख


       वर्षा ऋतु में मनुष्य मन को एक स्वाभाविक सुखद अनुभूति होती है। इस पर सावन का महीना हो तो कहना ही क्या? अनेक ऋषियों और कवियों ने सावन के महीने के सौंदर्य का वर्णन किया है। अनेक कवियों ने काल्पनिक प्रेयसी को लेकर अनेक रचनायें भी की जिनको गीत और संगीत से इस तरह सजाया गया कि उनको आज भी गुनगुनाया जाता है । इनमें कुछ प्रेयसियां तो अपने श्रीमुख से सावन के महीने में पियत्तम के विरह में ऐसी ऐसी कवितायें कहती हुई दिखाई देती हैं कि श्रृ्रंगार और करुण रस के अनुपम उदाहरण बन जाती हैं।
     उस दिन रविवार का दिन था हम सुबह चाय पीकर घर से बाहर निकले। साइकिल चलाते हुए कुछ दूर पहुंचे तो पास से ही एक सज्जन स्कूटर चलाते हुए निकले और हमसे बोले ‘‘आज पिकनिक चलोगे।’ यहां से आठ किलोमीटर दूर एक तालाब के किनारे हमने पिकनिक का आयोजन किया है। वैसे तो हमने अन्य लोगां से प्रति सदस्य डेढ़ सौ रुपये लिये हैं। तुम्हारे साथ रियायत कर देते हैं। एक सौ चालीस रुपये दे देना पर तुम्हें आना अपने वाहन से ही पड़गा।
            हमने कहा-‘‘न! वैसे हम इस साइकिल पर पिकनिक मनाने ही निकले हैं। यहां से तीन किलोमीटर दूर एक एक मंदिर और पार्क है वहां जाकर पिकनिक मनायेंगे। ’’
         वह सज्जन रुक गये। हमें भी साइकिल से उतरना पड़ा। यह शिष्टाचार दिखाना जरूरी था भले ही मन अपने निर्धारित लक्ष्य पर विलंब से पहुंचने की संभावना से कसमसा रहा था। वह हमार चेहरे को देखने के बाद साइकल पर टंगे झोले की तरफ ताकते हुए बोले-‘इस झोले में खाने का सामान रखा है?’’
         हमने झोले की तरफ हाथ बढ़ाकर उसे साइकिल से निकालकर हाथ में पकड़ लिया और कहा-‘‘ नहीं, इसमें पानी पीने वाली बोतल और शतरंज खेलने का सामान है।’’
      वह सज्जन बोले-‘केवल पानी पीकर पिकनिक मनाओगे? यह तो मजाक लगता है! यह शतरंज किससे खेलोगे। यहां तो तुम अकेल दिख रहे हो।’
     हमने कहा-‘वहां हमारा एक मित्र जिसका नाम फालतु नंदन आने वाला है। उसी ने कहा था कि शतरंज लेते आना।’’
      वह सज्जन हैरान हो गये और कहने लगे कि‘-‘‘वह तुम्हारा दोस्त वहां कैसे आयेगा उसके पास तो स्कूटर या कार होगी?’
     हमने कहा-‘स्कूटर तक तो ठीक, कार वाले भला हमें क्यों घास डालने लगे। वह बैलगाड़ी से आयेगा।’
वह सज्जन चौंके-‘‘ बैलगाड़ी से पिकनिक मनाने आयेगा?’’
      हमने कहा-‘नहीं, वह अपने किसी बीमार रिश्तेदार का देखने पास के गांव गया था। बरसात से वहां का रास्ता खराब होने की वजह से वह बैलगाड़ी से गया है। उसने मोबाइल पर कहा था कि वह सुबह दस बजे पार्क में पहुंच जायेगा और हमसे शतरंज खेलने के बाद ही घर जायेगा। ’’
     वह सज्जन बोले-‘मगर यह तो रुटीन घूमना फिरना हुआ! इसमें खानापीना कहां है जो पिकनिक में होता है?’’
     हमने कहा-‘‘खाने का तो यह है कि पार्क के बाहर चने वाला बैठता है वह खा लेंगे और पीने के लिये वह कुछ ले आयेगा।’’
     वह हमारी आंखों में आंखें डालते हुए पूछा-‘‘मतलब शराब लायेगा! यह तो वास्तव में जोरदार पिकनिक होगी।’
    हमने कहा-‘‘नहीं, वह नीबू की शिकंजी पीने का सामान अपने साथ लेकर निकलता है। गांव से ताजा नीबू लायेगा तो हम वहां दो तीन बार शिकंजी पी लेंगे। हो सकता है वह गांव से कुछ खाने का दूसरा सामान भी लाये।’ अलबत्ता हम तो चने खाकर कम चलायेंगे।’’
   वह सज्जन बोले-‘‘अब आपको क्या समझायें? पिकनिक मनाने का भी एक तरीका होता है। आदमी घर से खाने पीने का सामान लेकर किसी पिकनिक स्पॉट पर जाये। वहां जाकर एन्जॉय (आनंद) करे। यह कैसी पिकनिक है, जिसमें खाने पीने के लिये केवल चने और नीबू की शिकंजी और एन्जॉयमेंट (आनंद)के नाम पर शतरंज। पिकनिक में चार आदमी मिलकर खाना खायें, तालाब में नहायें गीत संगीत सुने और ताश वगैरह खेलें तब होता है एन्जॉयमेंट!’’
       हमने कहा-‘‘मगर साहब, हम तो वहां पिकनिक जैसा ही एन्जॉयमेंट करते हैं।’’
उन सज्जन से अपना सिर धुन लिया और चले गये। अगले दिन फिर शाम को मिले। हमने पिकनिक के बारे में पूछा तो बोले-‘यार, थकवाट हो गयी। लोग पिकनिक तो मनाने आते हैं पर काम बिल्कुल नहीं करते। पैसा देकर ऐसे पेश आते हैं जैसे कि सारा जिम्मा हमारा ही है। सभी के लिये खाना बनवाओ। बर्तन एकत्रित करो। पानी का प्रबंध करो।’ अपना एन्जॉयमेंट तो गया तेल लेने दूसरे भी खुश नहीं हो पाते। व्यवस्था को लेकर मीनमेख निकालने से बाज नहीं आते।’’
     हमने कहा-‘‘पर कल हमने खूब एन्जॉय मेंट किया। वहां एक नहीं चार शतरंज के खिलाड़ी मिल गये। बड़ा मजा आया।’’
    वैसे हमने अनेक बार अनेक समूहों में पिकनिक की है पर लगता है कि व्यर्थ ही समय गंवाया। आनंद या एन्जॉयमेंट करने के हजार तरीके हैं आजमा लीजिये पर अनुभूति के लिये संवदेनशीलता भी होना जरूरी है। सतं रविदास ने कहा था कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। यह कोई साधारण बात नहीं है। आदमी अपनी नियमित दिनचर्या से उकता जाता है इसलिये वह किसी नये स्थान पर जाना चाहता है। ऐसे में नदिया तालाब और उद्यान उसके लिये मनोरंजन का स्थान बन जाते हैं। खासतौर से वर्षा ऋतु में नदियों में पानी का बहाव बढ़ता है तो सूखे तालाब भी लुभावने हो जाते हैं। ऐसे में दूर के ढोल सुहावने की भावना के वशीभूत जलस्तोत्रों की तरफ आदमी भागता है यह जाने बगैर कि वर्षा ऋतु में पानी खतरनाक रूप भी दिखाता है।
         मुख्य बात यह है कि हम अपने कामों में इस तरह लिप्त हो जाते हैं कहीं ध्यान जाता नहीं है। हम जहां काम करते हैं और जिस मार्ग पर प्रतिदिन चलते हैं वहीं अगर मजेदार दृश्यों को देखें तो शायद मनोरंजन पूरा हो जाये। ऐसा हम करते नहीं है बल्कि अपनी नियमित दिनचर्या तथा परिवहन के मार्ग को सामान्य मानकर उनमें उदासीन भाव से संलिप्त होते हैं।
         एक दिन एक सज्जन हमारे घर आये और बोले-‘यार, तुम कहीं घूमने चलो। कार्यक्रम बनाते है।’’
उस समय बरसात का सुहाना मौसम था। हमने उसे घर के बाहर पोर्च में आकर बाहर का दृश्य देखने को कहा। वह बोला -‘‘यहां क्या है?’’
        हमने उससे कहा-‘देखो हमारे घर के बाहर ही पेड़ लगा है। सामने भी फूलों की डालियां झूल रही हैं। । आगे देखो नीम का पेड़ खडा है। यहां पोर्च में खड़े होकर ही इतनी हरियाली दिख रही है। शीतल हवा का स्पर्श तन मन को आनंदित किये दे रहा है। अब बताओ ऐसा ही इससे अधिक शुद्ध हवा कहां मिलेगी। फिर अगर इससे मन विरक्त हो जायेगा तो शाम को पार्क चले जायेंगे। तब वहां भी अच्छा लगेगा। हमारी दिक्कत यह है कि बाहर हमें ऐसा देखने को मिलेगा या नहीं इसमें संशय लगता है। फिर इसी दिनचर्या में मन तृप्त हो जाता है तब बाहर कहां आनंद ढूंढने चलें। केवल शरीर को कष्ट देने में ही आनंद मिल सकता है तो वह भी हम रोज कर ही रहे हैं।’’
       हम पिछले साल उज्जैन गये थे। यात्रा ठीकठाक रही पर वहां दिन की गर्मी ने जमकर तपा दिया शाम को बरसात हुई और तब हम बस से घर वापस लौटने वाले थे। सारे दिन पसीने से नहाये। अपने शहर वापस लौटने के बाद एक रविवार हम जल्दी उठकर योगाभ्यास, स्नान और नाश्ता करने के बाद अपने शहर के मंदिरों में गये। एक नहीं पांच छह मंदिरों में गये तो ऐसा लगा कि किसी धार्मिक पर्यटन केंद्र में हों। एक शिव मंदिर पर हमारी एक पुराने मित्र से मुलाकात हुई। जब पता लगा कि वह वहां रोज आता है तो हमने पूछा कि‘यार, बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति के हो कहीं तीर्थ वगैरह पर भी जाते हो।’
       वह हंसकर बोला-‘यार, मेरे लिये तो यह मंदिर ही सबसे बड़ा तीर्थ है। यहीं आकर रोज मन तृप्त हो जाता है।’
      अनेक बार ऐसा लगता है कि जिन लोगों को अपने शहर में ही धूमने की आदत नहीं है या वह जानते ही नहीं कि उनका शहर भी अनेक तरह के रोमांचक केंद्र धारण किये हुए वही दूसरे शहरों में घूमने को लालायित रहते हैं। यह दूर के ढोल सुहावने वाली बात लगती है। मन भटकाता है। अगर वह चंगा नहीं है तो गंगा भी तृप्त नहीं कर सकती और मन चंगा है तो अपने घर के पानी से नहाने पर भी वह शीतलता मिलती है जो पवित्र होने के साथ ही दिन भरी के संघर्ष के लिये प्रेरणादायक भी होती है। अपने अपने अनुभव है और अपनी अपनी बात है। हमें तो हर मौसम में लिखने में मजा आता है पर क्योंकि उससे मन शीतल हो जाता है।
लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
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योग स्वामी ने देखा क्रिकेट में देश का रत्न-हिन्दी लेख (yoga swami and ratna of cricket-hindi lekh)


   विश्व प्रसिद्ध योग शिक्षक ने क्रिकेट के भगवान को देश का रत्न सम्मान देने की मांग का समर्थन किया है-इस खबर ने हमें हैरान कर दिया और अंदर ढेर सारे विचार उठे। इनके क्रम का तारतम्य मिलना ही कठिन लगा रहा हैं।
   तत्वज्ञानी आम लोगों पर हंसते हैं। हमारे देश के अनेक संतों और मनीषियों ने अपनी देह में स्थित आत्मा रूपी रत्नकी परख करने की बजाय पत्थर के टुकड़े को रत्न मानने पर बहुत सारे कटाक्ष किये हैं। वैसे आम लोगों को तत्वज्ञानियों का संसार बहुत सीमित दिखता है पर वह वह उसमें असीमित सुख भोगते हैं। जबकि आम इंसान मायावी लोगों के प्रचार में आकर पत्थर के टुकड़े रत्न और हीरे पर मोहित हेाकर जिंदगी गुजारते हैं। संकट में काम ने के लिये सोने का संग्रह करते हैं जो चंद कागज के टुकड़े दिलवाने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर सकता। माया के चक्कर में पड़े लोगों को हमेशा भय लगा रहता है कि पता नहंी कब वह विदा हो जाये तब सोना, चांदी हीरा जवाहरात और रत्न का उसके विकल्प का काम करेगा। जिस ज्ञान के साथ रहने पर संकट आ ही नहीं सकता- और आये तो असहनीय पीड़ा नहीं दे सकता-उसके संचय से आदमी दूर रहता है। शायद यही कारण है कि इस संसार में दुःख अधिक देखे जाते हैं। मजे की बात है कि लोग सुख भोगना भी नहीं जानते क्योंकि उनका पूरा जीवन ही संकट की सोच को लेकर धन संग्रह की चिंताओं में बीतता है। इस संग्रह में पत्थर के टुकड़ों में रत्न सर्वोच्च माना जाता है। जिसे रत्न मिल गया समझ लो वह इस मायावी संसार हमेशा के लिए तर गया।
    इंसानों में एक प्रवृत्ति यह भी है कि वह इंसान से अधिक कुछ दिखना चाहता है। अगर किसी शिखर पुरुष की चाटुकारिता करनी हो तो उससे यह कहने से काम नहीं चलता कि ‘आप वाकई इंसान है,’ बल्कि कहना पड़ता है कि ‘आप तो देवतुल्य हैं’, या अधिक ही चाटुकारिता करनी हो तो कहना चाहिए कि ‘आप तो हमारे लिये भगवान हैं।’
वैसे ऐसी बातें आम तौर से निरीह लोग बलिष्ठ, धनवान और पदारूढ़ लोगों से कहते हैं। जहां स्तर में अधिक अंतर न हो वहां कहा जाता है कि ‘आप तो शेर जैसे हैं’, ‘आप तो सोने की खान है’, या फिर ‘आप तो इस धरती पर रत्न हैं’।
    आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में चाटुकारिता को भव्य रूप मिला है। इसका कारण यह है कि अमीर और गरीब के बीच अंतर बढ़ गया है। धीरे धीरे दोनों के बीच पुल की तरह काम करने वाला मध्यम वर्ग भी अब लुप्त हो रहा है। ऐसे में अमीर रत्न बनते जा रहे हैं और उनके मातहत जो उनको प्रिय हैं वह भी रत्न से कम नहंी रह जाते। फिर पश्चिम की तर्ज पर नोबल, बूकर और सर जैसे सम्मानों की नकल भारतीय नामों से कर ली गयी है। उनमें रत्न नामधारी पदवियां भी हैं।
     स्थिति यह है कि जिन लोगों ने मनोरंजन का व्यवसाय कर अपने लिये कमाई की उनकी लोकप्रियता को भुनाने के लिये उनका रत्न सम्मान देने की मांग उठती है। हमारे देश में लोकतंत्र है और जनता से सीधे चुनकर आये लोग स्वयं ही रत्न होने चाहिए पर हर पांच साल बाद पब्लिक के बीच जाना पड़ता है। इसलिये अपना काम दिखाना पड़ता है। अब यह अलग बात है कि बढ़ती जनसंख्या की वजह से विकास का काम कम दिखता है या फिर भ्रष्टाचार की वजह से दिखता ही नहीं है। सो जनता को निरंतर अपने पक्ष में बनाये रखने के लियो किया क्या जाये? मनोरंजन के क्षेत्र में क्रिकेट और फिल्म का बोलबाला है। उसमें सक्रिय खिलाड़ियों और अभिनेताओं के बारे में यह माना जाता है कि वह तो लोगों के हृदय में रत्न की तरह हैं तो उनको ही वह सम्मान देकर लागों की वाहवाही लूटी जाये। इसलिये जब जनता से सामना करना होता है तो यह अपने उन्हें अपना मॉडल प्रचारक बना लेते हैं।
     किकेट के एक खिलाड़ी को तो भगवान मान लिया गया है। उसे देश का रत्न घोषित करने की मांग चल रही है। हमें इस पर आपत्ति नहीं है। अभी विश्व कप क्रिकेट फायनल में हमारी टीम की तब नैया डूबती नज़र आई जब बाज़ार के घोषित मास्टर और ब्लास्टर सस्ते में आउट होकर पैवेलियन चले गये। मास्टर यानि भगवान का विकेट गिरते ही मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में सन्नाटा छा गया। मगर विराट, गंभीर, और धोनी न भगवान बनकर लाज रख ली और श्रीलंका के 264 रन के स्कोर से आगे अपनी टीम को पार लगाया। बहरहाल बाज़ार की दम पर चला यह मेला अब समाप्त हो गया है मगर उसका खुमारी अभी बनी हुई है। अब किं्रकेटरों की आरती उतारने का काम चल रहा है।
     सब ठीक लगा पर विश्व प्रसिद्ध योग शिक्षक ने जब क्रिकेट के भगवान को देश का रत्न घोषित करने की मांग की तो थोड़ी हैरानी हुई। हम सच कहें तो योग शिक्षक ही अपने आप में एक रत्न हैं। भारतीय योग को जनप्रिय बनाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है-कम से कम जैसा अप्रतिबद्ध लेखक तो हमेशा ही उनके पक्ष में लिखता रहेगा मगर उनकी यह मांग कुछ नागवार गुजरी। इसके पीछे हमारी अपनी सोच गलत भी हो सकती है पर इतना तय है कि एक योगी से मायावी मेले के कल्पित भगवान को रत्न मानना हैरान करने वाला है। पहली बार हमें यह आभास हुआ कि योग के सूत्रों का प्रतिपादन महर्षि पतंजलि के माध्यम से हो जाने पर भी भगवान श्रीकृष्ण को श्रीमद्भागवत गीता के लिये महाभारत करवाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? वैसे जो योग साधना में निर्लिप्त भाव से अभ्यास करते हैं अंततः स्वतः ही श्रीगीता की तरफ जाते हैं पर जिनको योग का व्यवसाय केवल प्रचार प्रसार के लिये करना है उनको तत्वज्ञान की आवश्यकता नहंी होती। यह अलग बात है कि उसके बिना वह योग शिक्षक होकर रह जाते हैं। हमारे प्रसिद्ध योग शिक्षक योग साधना के आठ अंगों के दो ही अंगों प्राणायाम तथा योगासन में उतने ही सिद्ध हैं जितना एक व्यवसायी को होना चाहिए।
     क्रिकेट खेल इतना मायावी है कि इतने बड़े योगी और कहां उसके चक्कर में फंस गये। एक योगी को हर विषय में जानकारी होना चाहिए। वह न भी रखना चाहे तो उसकी देह विचार और मन में आई शुद्धता उसे सांसरिक जानकारी पाने के लिये प्रेरित करती है और यह बुरा भी नहीं है। जिनसे समाज का उद्धार होता है उन विषयों से योगी का सरोकार होना चाहिए। जहां तक क्रिकेट की बात करें तो वह समाज में समय पास करने या मनोरंजन पास करने के अलावा कुछ नहीं है। इसमें लोग पैसा खर्च करते हैं। टीवी पर इन मैचों के दौरान जो विज्ञापन आते हैं उसका भुगतान भी आम उपभोक्ता को करना पड़ता है। एक योग साधक के रूप में हम इतना तो कह सकते हैं कि क्रिकेट और योग परस्पर दो विरोधी विषय हैं। एक योग शिक्षक को तो लोगों से क्रिकेट में दूसरों की सक्रियता देखकर खुश होने की बजाय योग में अपनी सक्रियता देखने की प्रेरणा देना चाहिए।
     ऐसे में योग शिक्षक ने अपने अभियान को स्वतंत्र होने के आभास को समाप्त ही किया है। उनके आलोचक उन पर उसी बाज़ार से प्रभावित होने का आरोप लगाते हैं जो क्रिकेट का भी प्रायोजक है। ऐसे में योग शिक्षक के समर्थकों के लिये विरोधियों के तर्कों का प्रतिवाद कठिन हो जायेगा। आखिरी बात यह है कि योग साधना एक गंभीर विषय है और यह मनुष्य के अंदर ही आनंद प्राप्त के ऐसे मार्ग खोलती है कि बाह्य विषयों से उसका वास्ता सीमित रह जाता है। क्रिकेट तो एक व्यसन की तरह है जिससे बचना आवश्यक है। यह अलग बात है कि एक योग साधक के नाते समाज में इसके प्रभावों का अवलोकन करते हुए हमने भी क्रिकेट भी देखी। आनंद भी लिया जिसकी कृत्रिमता का आभास हमें बाद में हुआ पर हम अभी योग में इतने प्रवीण नहीं हुए कि उससे बच सकें। अपनी सीमाऐं जानते हैं इसलिये यह नहीं कहते कि योग शिक्षक को ऐसा करना नहीं चाहिए था। बस यह ख्याल आया और इसलिये कि कहंी न कहंी उनके प्रति हमारे मन में सद्भाव है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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आखिर यह कोई सुनियोजित एजेंडा है या अनजाने में बन गयी सोच कि भारतीय संस्कृति, संस्कारों और धर्मों पर टीवी धारावाहिकों और फिल्मों में ऐसी कहानियां दिखाईं जातीं है जिससे उसका नकारात्मक पक्ष अधिक प्रकट होता है। फिल्मों और धारावाहिकों में अनेक बार लंबे समय तक रोतीं हुई नारी पात्र देखकर अनेक लोगों को इससे इतनी सहानुभूति पैदा होती है कि वह अपने समाज में ही दोष देखने लगते हैं. क्या यह दोष विश्व के अन्य समाजों और उनके भारतीय सदस्यों में नहीं है।

यह ख्याल सभी हिन्दी चैनलों की एकरूपता देखकर लगा जो अधिक से अधिक ऐसे धारावाहिक बना रहे हैं जिनमें ग्रामीण परिवेश वाले अमीरों की मूर्खतापूर्ण तथा अंधविश्वासों में लिप्त हरकतें शामिल होती हैं। कुछ समय पहले शहरी परिवेश वाले अमीरों पर बनी कहानियों पर धारावाहिक बनते थे जिसमें नारियां महंगी साड़ी पहनकर भारतीय धर्म का निर्वाह करते हुए केवल घर का खाना बनाती और बाकी काम नौकरों के हवाले होता था। अब ग्रामीण परिवेश के अमीरों पर भी ऐसी कहानियां बन रही हैं। आखिर यह कौनसा ऐजेंडा है जिसमें भारतीय समाजों को ही बदनाम किया जा रहा है जिनमें नारियां इतनी बेबस दिखाई जाती हैं।
दो आदमियों में उस दिन चर्चा हो रही थी कि क्या औरत इतनी लाचार है जितनी दिखाई जा रही है।
दूसरा शायद विकासवादी धारा का था वह बोला-‘तुम तो शहरी हो तुम्हें क्या पता नारियों पर कितना अत्याचार होता है, खासतौर गरीब महिलाओं पर।’
दूसरे ने कहा-‘पर यहां तो इन धारावाहिकों की चर्चा हो रही है जिसमें इस तरह की अमीर परिवार की औरते दिख रही हैं जिसमें उनको इतना बेबस दिखाया जा रहा है।’
अगर इन धारावाहिकों में औरत का व्यवहार देखा जाये तो ऐसा लगता है कि जैसे वह केवल आदमी की बताई राह पर ही चलती हैं पर क्या वाकई सच है?
इसमें संदेह नहीं है कि हमारे देश में नारियों की दशा बहुत अच्छी नहीं है और उनका संघर्ष अन्य देशों की नारियों से कहीं अधिक होता है पर वह इतनी बेबस नहीं है जितनी इन धारावाहिकों में दिखाई जा रही है।
इससे भी आगे एक सवाल यह है कि इस मामलें में एक चैनल रेटिंग में सबसे आगे हैं और उसकी बराबरी कोई चैनल बरसोंु से नहीं कर पा रहा। अन्य चैनल उस चैनल की बराबरी तो करना चाहते हैं पर ढर्रा उनका वैसा ही है-वह भी उसी तरह के रोने धोने और कथित रूप से सामाजिक धारावाहिक बना रहे हैं। वह आखिर उनससे हटकर कोई अन्य धारावाहिक क्यों नहीं बनाते। ऐजेंडा इसलिये लगता है क्योंकि जब समाचार चैनल खोलो तो एक ही हीरो के जन्म दिन का प्रसारण सभी चैनलों पर एकसाथ होता है। उस समय आप चाहकर भी दूसरा नहीं देख सकते। यही हाल इन सामाजिक धारावाहिकों के प्रसारण का भी है। आप कोई चैनल खोलकर देखें आपको वही सामाजिक मसाला इन धारावाहिकों में सजा दिखेगा जिससे आप इधर उधर भागते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि दिखने को सभी का स्वामित्व अलग हैं पर उनका स्वामी कहीं एक ही है जो उनको यह निर्देश देता है उनसे विज्ञापन वाले प्रबंधक इस बात का ध्यान रखें कि उपभोक्ता या दर्शकों के बीच में स्पर्धा कतई नहीं होना चाहिये। वह हमारी काबू में रहे। यह स्वामी तो विज्ञापन ही हो सकता है। लेदेकर कुछ ही कंपनियां तो हैं जो विज्ञापन देती हैं और उनके प्रबंधक नहीं चाहते होंगे कि कहीं उनका विज्ञापन कम दिखे तो कहीं ज्यादा। उपभोक्ता या दर्शक उनको ही देखता रहे। यह विज्ञापन असली रूप में स्वामी है। अब इसके अलावा अन्य कोई अदृश्य स्वामी हो तो पता नहीं पर इतना तय है कि कोई एक समाचार या घटना पर सभी चैनल जिस तरह टूट पड़ते हैं तब ऐसा ही लगता है जब कोई खबर इतनी महत्वपूर्ण न हो तब तो शक हो ही जाता है। ऐसे में तो यही लगता है कि विज्ञापन स्वामी की जय!
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

ब्लाग पत्रिका का विमोचन (हास्य व्यंग्य) (blog ka lokarpan-hasya vyangya in hindi)


कविराज जल्दी जल्दी घर जा रहे थे और अपनी धुन में सामने आये आलोचक महाराज को देख नहीं सके और उनसे रास्ता काटकर आगे जाने लगे। आलोचक महाराज ने तुरंत हाथ पकड़ लिया और कहा-‘क्या बात है? कवितायें लिखना बंद कर दिया है! इधर आजकल न तो अखबार में छप रहे हो और न हमारे पास दिखाने के लिये कवितायें ला रहे हो। अच्छा है! कवितायें लिखना बंद कर दिया।’
कविराज बोले-‘महाराज कैसी बात करते हो? भला कोई कवि लिखने के बाद कवितायें लिखना बंद कर सकता है। आपने मेरी कविताओं पर कभी आलोचना नहीं लिखी। कितनी बार कहा कि आप मेरी कविता पर हस्ताक्षर कर दीजिये तो कहीं बड़ी जगह छपने का अवसर मिल जाये पर आपने नहीं किया। सोचा चलो कुछ स्वयं ही प्रयास कर लें।’
आलोचक महाराज ने अपनी बीड़ी नीचे फैंकी और उसे पांव से रगड़ा और गंभीरता से शुष्क आवाज में पूछा-‘क्या प्रयास कर रहे हो? और यह हाथ में क्या प्लास्टिक का चूहा पकड़ रखा है?’
कविराज झैंपे और बोले-‘कौनसा चूहा? महाराज यह तो माउस है। अरे, हमने कंप्यूटर खरीदा है। उसका माउस खराब था तो यह बदलवा कर ले जा रहे हैं। पंद्रह दिन पहले ही इंटरनेट कनेक्शन लगवाया है। अब सोचा है कि इंटरनेट पर ब्लाग लिखकर थोड़ी किस्मत आजमा लें।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम्हें रहे ढेर के ढेर। हमने चूहा क्या गलत कहा? तुम्हें मालुम है कि हमारे देश के एक अंग्रजीदां विद्वान को इस बात पर अफसोस था कि हिंदी में रैट और माउस के लिये अलग अलग शब्द नहीं है-बस एक ही है चूहा। हिंदी में इसे चूहा ही कहेंगे। दूसरी बात यह है कि तुम कौनसी फिल्म में काम कर चुके हो कि यह ब्लाग बना रहे हो। इसे पढ़ेगा कौन?’
कविराज ने कहा-‘अब यह तो हमें पता नहीं। हां, यह जरूर है कि न छपने के दुःख से तो बच जायेंगे। कितने रुपये का डाक टिकट हमने बरबाद कर दिया। अब जाकर इंटरनेट पर अपनी पत्रिका बनायेंगे और जमकर लिखेंगे। हम जैसे आत्ममुग्ध कवियों और स्वयंभू संपादकों के लिये अब यही एक चारा बचा है।’
‘हुं’-आलोचक महाराज ने कहा-‘अच्छा बताओ तुम्हारे उस ब्लाग या पत्रिका का लोकार्पण कौन करेगा? भई, कोई न मिले तो हमसे कहना तो विचार कर लेंगे। तुम्हारी कविता पर कभी आलोचना नहीं लिखी इस अपराध का प्रायश्चित इंटरनेट पर तुम्हारा ब्लाग या पत्रिका जो भी हो उसका लोकार्पण कर लेंगे। हां, पर पहली कविता में हमारे नाम का जिक्र अच्छी तरह कर देना। इससे तुम्हारी भी इज्जत बढ़ेगी।’
कविराज जल्दी में थे इसलिये बिना सोचे समझे बोल पड़े कि -‘ठीक है! आज शाम को आप पांच बजे मेरे घर आ जायें। पंडित जी ने यही मूहूर्त निकाला है। पांच से साढ़े पांच तक पूजा होगी और फिर पांच बजकर बत्तीस मिनट पर ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण होगा।’
‘ऊंह’-आलोचक महाराज ने आंखें बंद की और फिर कुछ सोचते हुए कहा-‘उस समय तो मुझे एक संपादक से मिलने जाना था पर उससे बाद में मिल लूंगा। तुम्हारी उपेक्षा का प्रायश्चित करना जरूरी है। वैसे इस चक्कर में क्यों पड़े हो? अरे, वहां तुम्हें कौन जानता है। खाली पीली मेहनत बेकार जायेगी।’
कविराज ने कहा-‘पर बुराई क्या है? क्या पता हिट हो जायें।’
कविराज वहां से चल दिये। रास्ते में उनके एक मित्र कवि मिल गये। उन्होंने पूरा वाक्या उनको सुनाया तो वह बोले-‘अरे, आलोचक महाराज के चक्कर में मत पड़ो। आज तक उन्होंने जितने भी लोगो की किताबों का विमोचन या लोकर्पण किया है सभी फ्लाप हो गये।’
कविराज ने अपने मित्र से आंखे नचाते हुए कहा-‘हमें पता है। तुम भी उनके एक शिकार हो। अपनी किताब के विमोचन के समय हमको नहीं बुलाया और आलोचक महाराज की खूब सेवा की। हाथ में कुछ नहीं आया तो अब उनको कोस रहे हो। वैसे हमारे ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण तो इस माउस के पहुंचते ही हो जायेगा। इन आलोचक महाराज ने भला कभी हमें मदद की जो हम इनसे अपने ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करायेंगे?’
मित्र ने पूछा-‘अगर वह आ गये तो क्या करोगे?’
कविराज ने कहा-‘उस समय हमारे घर की लाईट नहीं होती। कह देंगे महाराज अब कभी फिर आ जाना।’
कविराज यह कहकर आगे बढ़े पर फिर पीछे से उस मित्र को आवाज दी और बोले-‘तुम कहां जा रहे हो?’
मित्र ने कहा-‘आलोचक महाराज ने मेरी पत्रिका छपने से लेकर लोकार्पण तक का काम संभाला था। उस पर खर्च बहुत करवाया और फिर पांच हजार रुपये अपना मेहनताना यह कहकर लिया कि अगर मेरी किताब नहीं बिकी तो वापस कर देंगे। उन्होंने कहा था कि किताब जोरदार है जरूर बिक जायेगी। एक भी किताब नहीं बिकी। अपनी जमापूंजी खत्म कर दी। अब हालत यह है कि फटी चपलें पहनकर घूम रहा हूं। उनसे कई बार तगादा किया। बस आजकल करते रहते हैं। अभी उनके पास ही जा रहा हूं। उनके घर के चक्कर लगाते हुए कितनी चप्पलें घिस गयी हैं?’

कविराज ने कहा-‘किसी अच्छी कंपनी की चपलें पहना करो।’
मित्र ने कहा-‘डायलाग मार रहे हो। कोई किताब छपवा कर देखो। फिर पता लग जायेगा कि कैसे बड़ी कंपनी की चप्पल पहनी जाती है।’
कविराज ने कहा-‘ठीक है। अगर उनके घर जा रहे हो तो बोल देना कि हमारे एक ज्ञानी आदमी ने कहा कि उनकी राशि के आदमी से ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करवाना ठीक नहीं होगा!’
मित्र ने घूर कर पूछा-‘कौनसी राशि?’
कविराज ने कहा-‘कोई भी बोल देना या पहले पूछ लेना!’
मित्र ने कहा-‘एक बात सोच लो! झूठ बोलने में तुम दोनों ही उस्ताद हो। उनसे पूछा तो पहले कुछ और बतायेंगे और जब तुम्हारा संदेश दिया तो दूसरी बताकर चले आयेंगे। वह लोकार्पण किये बिना टलेंगे नहीं।’
कविराज बोले-‘ठीक है बोल देना कि लोकार्पण का कार्यक्रम आज नहीं कल है।’
मित्र ने फिर आंखों में आंखें डालकर पूछा-‘अगर वह कल आये तो?’
कविराज ने कहा-‘कल मैं घर पर मिलूंगा नहीं। कह दूंगा कि हमारे ज्ञानी ने स्थान बदलकर ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करने को कहा था आपको सूचना नहीं दे पाये।’
मित्र ने कहा-‘अगर तुम मुझसे लोकर्पण कराओ तो एक आइडिया देता हूं जिससे वह आने से इंकार कर देंगे। वैसे तुम उस ब्लाग पर क्या लिखने वाले हो? कविता या कुछ और?’
कविराज ने कहा-‘सच बात तो यह है कि आलोचक महाराज पर ही व्यंग्य लिखकर रखा था कि यह माउस खराब हो गया। मैंने इंजीनियर से फोन पर बात की। उसने ही ब्लाग बनवाया है। उसी के कहने से यह माउस बदलवाकर वापस जा रहा हूं।’
मित्र ने कहा-‘यही तो मैं कहने वाला था! आलोचक महाराज व्यंग्य से बहुत कतराते हैं। इसलिये जब वह सुनेंगे कि तुम पहले ही पहल व्यंग्य लिख रहे हो तो परास्त योद्धा की तरह हथियार डाल देंगे। खैर अब तुम मुझसे ही ब्लाग पत्रिका का विमोचन करवाने का आश्वासन दोे। मैं जाकर उनसे यही बात कह देता हूं।’
वह दोनों बातें कर रह रहे थे कि वह कंप्यूटर इंजीनियर उनके पास मोटर साइकिल पर सवार होकर आया और खड़ा हो गया और बोला-‘आपने इतनी देर लगा दी! मैं कितनी देर से आपके घर पर बैठा था। आप वहां कंप्यूटर खोलकर चले आये और उधर मैं आपके घर पहुंचा। बहुत देर इंतजार किया और फिर मैं अपने साथ जो माउस लाया था वह लगाकर प्रकाशित करने वाला बटन दबा दिया। बस हो गयी शुरुआत! अब चलिये मिठाई खिलाईये। इतनी देर आपने लगाई। गनीमत कि कंप्यूटर की दुकान इतने पास है कहीं दूर होती तो आपका पता नहीं कब पास लौटते।’

कविराज ने अपने मित्र से कहा कि-’अब तो तुम्हारा और आलोचक महाराज दोनों का दावा खत्म हो गया। बोल देना कि इंजीनियर ने बिना पूछे ही लोकार्पण कर डाला।’
मित्र चला गया तो इंजीनियर चैंकते हुए पूछा-‘यह लोकार्पण यानि क्या? जरा समझाईये तो। फिर तो मिठाई के पूरे डिब्बे का हक बनता है।’
कविराज ने कहा-‘तुम नहीं समझोगे। जाओ! कल घर आना और अपना माउस लेकर यह वापस लगा जाना। तब मिठाई खिला दूंगा।’
इंजीनियर ने कहा-‘वह तो ठीक है पर यह लोकार्पण यानि क्या?’
कविराज ने कुछ नहीं कहा और वहां से एकदम अपने ब्लाग देखने के लिये तेजी से निकल पड़े। इस अफसोस के साथ कि अपने ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण वह स्वयं नहीं कर सके।
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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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