जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग
कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।
आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।
जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है। जब तक समाज का धनी तबका गरीब पर दया नहीं करेगा तब तक आपसी वैमनस्य कभी ख़त्म नहीं हो सकता है।
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अक्सर लोग योग साधना को केवल योगासन तक ही सीमित मानकर उसका विचार करते हैं। जबकि इसके आठ अंग हैं।
योगांगानुष्ठानादशुद्धिये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।।
हिंदी में भावार्थ-योग के आठ अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
इसका आशय यही है कि योगसाधना एक व्यापक प्रक्रिया है न कि केवल सुबह किया जाने वाला व्यायाम भर। अनेक लोग योग पर लिखे गये पाठों पर यह अनुरोध करते हैं कि योगासन की प्रक्रिया विस्तार से लिखें। इस संबंध में यही सुझाव है कि इस संबंध में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं और उनसे पढ़कर सीखें। इन पुस्तकों में योगासन और प्राणायम की विधियां दी गयी हैं। योगासन और प्राणायम योगसाधना की बाह्य प्रक्रिया है इसलिये उनको लिखना कोई कठिन काम है पर जो आंतरिक क्रियायें धारणा, ध्यान, और समाधि वह केवल अभ्यास से ही आती हैं।
इस संबंध में भारतीय योग संस्थान की योग मंजरी पुस्तक बहुत सहायक होती है। इस लेखक ने उनके शिविर में ही योगसाधना का प्रशिक्षण लिया। अगर इसके अलावा भी कोई पुस्तक अच्छी लगे तो वह भी पढ़ सकते हैं। कुछ संत लोगों ने भी योगासन और प्राणायाम की पुस्तकें प्रकाशित की हैं जिनको खरीद कर पढ़ें तो कोई बुराई नहीं है।
चूंकि प्राणयाम और योगासन बाह्य प्रक्रियायें इसलिये उनका प्रचार बहुत सहजता से हो जाता है। मूलतः मनुष्य बाह्यमुखी रहता है इसलिये उसे योगासन और प्राणायाम की अन्य लोगों द्वारा हाथ पांव हिलाकर की जाने वाली क्रियायें बहुत प्रभावित करती हैं पर धारणा, ध्यान, तथा समाधि आंतरिक क्रियायें हैं इसलिये उसे समझना कठिन है। अंतर्मुखी लोग ही इसका महत्व जानते हैं। धारणा, ध्यान और समाधि शांत स्थान पर बैठकर की जाने वाली कियायें हैं जिनमें अपने चित की वृत्तियों पर नियंत्रण करने के लिये अपनी देह के साथ मस्तिष्क को भी ढीला छोड़ना जरूरी है।
इसके अलावा कुछ लोग तो केवल योगासन करते हैं या प्राणायम ही करके रह जाते हैं। इन दोनों ही स्थितियों में भी लाभ कम होता है। अगर कुछ आसन कर प्राणायम करें तो बहुत अच्छा रहेगा। प्राणायम से पहले अगर अपने शरीर को खोलने के लिये सूक्ष्म व्यायाम कर लें तो भी बहुत अच्छा है-जैसे अपने पांव की एड़ियां मिलाकर घड़ी की तरह घुमायें, अपने हाथ मिलाकर ऐसे आगे झुककर घुमायें जैसे चक्की चलाई जाती है। अपनी गर्दन को घड़ी की तरह दायें बायें आराम से घुमायें। अपने दोनों हाथों को कंधे पर दायें बायें ऊपर और नीचे घुमायें। अपने दायें पांव को बायें पांव के गुदा मूल पर रखकर ऊपर नीचे करने के बाद उसे अपने दोनों हाथ से पकड़ दायें बायें करें। उसके बाद यही क्रिया दूसरे पांव से करें। इन क्रियायों को आराम से करें। शरीर में कोई खिंचाव न देते सहज भाव से करें। सामान्य व्यायाम और योगासन में यही अंतर है। योगासनों में कभी भी उतावली में आकर शरीर को खींचना नहीं चाहिये। कुछ आसन पूर्ण नहीं हो पाते तो कोई बात नहीं, जितना हो सके उतना ही अच्छा। दूसरे शब्दों में कहें तो सहजता से शरीर और मन से विकार निकालने का सबसे अच्छा उपाय है योग साधना। शेष फिर कभी
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भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेंिद्रयशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कुपखननं प्रत्युद्यम कीदृशः
हिंदी में भावार्थ- जब शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था परे है, इंद्रियां सही ढंग से काम कर रही हैं और आयु भी ढलान पर नहीं है विद्वान और ज्ञानी लोग तभी तक अपनी भलाई का काम प्रारंभ कर देते हैं। घर में आग लगने पर कुंआ खोदने का प्रयास करने से कोई लाभ नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज का यहां आशय यह है कि जब तक हम शारीरिक रूप से सक्षम हैं तभी तक ही अपने मोक्ष के लिये कार्य कर सकते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि प्रारंभ से ही मन, वचन, और शरीर से हम भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखें। कुछ लोग यह कहते हैं कि अभी तो हम सक्षम हैं इसलिये भगवान की भक्ति क्यों करें? जब रिटायर हो जायेंग्रे या बुढ़ापा आ जायेगा तभी भगवान की भक्ति करेंगे। सच बात तो यह है कि भगवान की भक्ति या साधना की आदत बचपन से ही न पड़े तो पचपन में भी नहीं पड़ सकती। कुछ लोग अपने बच्चों को इसलिये अध्यात्मिक चर्चाओंे में जाने के लिये प्रेरित नहीं करते कि कहीं वह इस संसार से विरक्त होकर उन्हें छोड़ न जाये जबकि यह उनका भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान किसी भी आदमी को जीवन से सन्यास होने के लिये नहीं बल्कि मन से सन्यासी होने की प्रेरित करता है। सांसरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उसके फल की कामना से परे रहना कोई दैहिक सन्यास नहीं होता।
हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यह कहता है कि आदमी अपने स्वभाव वश अपने नित्यप्रति के कर्तव्य तो वैसे ही करता है पर भगवान की भक्ति और साधना के लिये उसे स्वयं को प्रवृत्त करने के लिये प्रयास करना होता है। एक तो उसमें मन नहीं लगता फिर उससे मिलने वाली मन की शांति का पैमाना धन के रूप में दृश्यव्य नहीं होता इसलिये भगवान की भक्ति और साधना में मन लगाना कोई आसान काम नहीं रह जाता। बुढ़ापे आने पर जब इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब मोह और बढ़ जाता है ऐसे में भक्ति और साधना की आदत डालना संभव नहीं है। सच बात तो यह है कि योगसाधना, ध्यान, मंत्रजाप और भक्ति में अपना ध्यान युवावस्था में ही लगाया जाये तो फिर बुढ़ापे में भी बुढ़ापे जैसा भाव नहीं रहता। अगर युवावस्था में ही यह आदत नहीं डाली तो बुढ़ापे में तो नयी आदत डालना संभव ही नहीं है।
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फिल्मी अभिनेताओं और नेताओं के प्रति दक्षिण भारतीय लोगों की भावुकता देखकर अनेक लोग हतप्रभ रह जाते हैं। दक्षिण भारतीय जहां अपने नेताओं और अभिनेताओं के जन्म दिन पर अत्यंत खुशी जाहिर करते हैं वहीं उनके साथ हादसा होने पर गमगीन हो जाते हैं। इतना ही नहीं उनके निधन पर कुछ लोगों को इतना धक्का पहुंचता है कि उनकी मौत हो जाती है या कुछ आत्महत्या कर लेते हैं। इस पर भारत के अन्य दिशाओं तथा शेष विश्व के लोगों को बहुत हैरानी होती है मगर बहुत कम लोग इस बात को जानेंगे और समझेंगे कि उनकी यह भावुकता एकदम स्वाभाविक है। जिन लोगों को भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान की समझ है वह दक्षिण भारतीयों के इस तरह के भक्ति भाव पर बिल्कुल आश्चर्य नहीं करते।
कई बातें तर्क से परे होती हैं और जहां मनोविज्ञान हो तो तर्क ढूंढना कोई आसान नहीं होता। इससे पहले कि हम दक्षिण भारतीयों की स्वाभाविक भावुकता पर दृष्टिपात करें उससे पहले श्रीगीता का यह संदेश समझे लें कि यह पूरा विश्व त्रिगुणमयी माया के वशीभूत हो रहा है और गुण ही गुणों को बरतते हैं। स्पष्तः हमारी देह में तीन गुणों में से-सात्विक, राजस और तामस- कोई एक मौजूद रहता है और उनका निर्माण हमारे अंदर खानपान, जलवायु और संगत से ही होता है उसी के वशीभूत होकर काम करते है। । ऐसा लगता है कि दक्षिण की जलवायु में ही कुछ ऐसा है जो वहां के लोगों में भक्ति का भाव एकदम शुद्ध रूप से मौजूद होता है और सच कहें तो वह एकदम पवित्र होता है। वजह यह है कि भक्ति का जन्म ही द्रविण प्रदेश में होता है। वहां वह एकदम बाल्यकाल में होती है और हम सभी जानते हैं कि यह काल ही भगवत्स्वरूप होता है।
श्रीमद्भागवत में प्रारंभ में ही एक कथा आती है जिसमें वृंदावन में पहुंची भक्ति की मुलाकात श्री नारद जी से होती है। वह वहां सुंदर युवती के रूप में थी पर उसके साथ दो बूढ़े थे जो कि उसके पुत्र वैराग्य और ज्ञान थे। वह करूणावस्था में थी और नारद जी को अपनी कथा सुनाते हुए कहती है कि ‘मेरा जन्म द्रविण प्रदेश में हुआ। कर्नाटक प्रदेश में पली बढ़ी और महाराष्ट्र में कुछ जगह सम्मानित हुई पर गुजरात में मुझे बुढ़ापा आ गया। इधर वृंदावन में आई तो मुझे तो तरुणावस्था प्राप्त हो गयी।’
हम यहां कथा का संदर्भ केवल दक्षिण तक ही सीमित रखें तो समझ सकते हैं कि वहां की जलवायु, अन्न जल तथा मिट्टी में ही कुछ ऐसा होता है कि लोगों की भक्ति एकदम शिशु मन की तरह पवित्र तथा कोमल होती है। भक्ति तो वह अदृश्य देवी है जो हर मनुष्य के मन में विचरती है और चाहे इंसान जैसा भी हो उसको इसका सानिध्य मिलता है क्योंकि कोई भी इंसान ऐसा नहीं हो सकता हो जो किसी व्यक्ति से प्रेम न करता हो। बुरा से बुरा आदमी भी किसी न किसी से प्रेम करता है। भक्ति हमारे अंदर सारे भावों की स्वामिनी है। पंचतत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार तमाम तरह के भावों के साथ चलते हैं और कहीं न किसी से प्रेम या भक्ति अवश्य होती है-यह अलग बात है कि कहीं सजीव तो कहीं निर्जीव वस्तु से लगाव होता है पर देन इसी भक्ति भाव की है। कुछ लोग कह सकते हैं कि अगर यह बात है तो वहां के सभी लोगों में एक जैसी भक्ति नहीं है क्योंकि नेताओ के साथ हादसे में कुछ ही लोग आघात नहीं झेल पाते और उनकी इहलीला समाप्त हो जाती है पर बाकी तो बचे हुए रहते हैं। दरअसल भक्ति का मतलब यह नहीं है कि सभी भक्त अपने प्रिय के साथ हादसा होते ही एक जैसा कदम उठायें। जो लोग बचे रहते हैं वह भी मानसिक आघात कम नहीं झेल रहे होते हैं। याद रखिये भगवान ने पांचों उंगलियां एक जैसी नहीं! दूसरा यह भी कि भक्ति के दो पुत्र भी हैं जिन्होंने भगवत्काल में तरुणावस्था प्राप्त कर ली थी और उनका भी अब महत्व कम नहीं है और संचार साधनों के विस्तार के साथ उनकी पहुंच भी सब जगह है।
हमारे अध्यात्मिक में ज्ञान के साथ मनोविज्ञान और विज्ञान भी है और वह गुण विभाग का कर्म के साथ परिणाम भी बताता है पर उनमें दुनियावी चीजों पर शोध नहीं हुआ कि ऐसा क्यों होता है? या कौनसा जींस दक्षिण में अधिक सक्रिय है? यह काम तो पश्चिमी वैज्ञानिक करते हैं और हो सकता है कि किसी दिन वह इस तरह भी खोज करें कि आखिर दक्षिण में ऐसी भावुकता के पीछे कौनसा जींस या चीज काम कर रही है पर हमारे अध्यात्मिक दर्शन को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारे दक्षिणवासियों की यह भावुकता कोई अस्वाभाविक नहीं है।
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एक टीवी चैनल का एक दृश्य है। उसमें एक अधेड़ महिला-धारावाहिकों में काम करने वाली महिलाओं को बुढ़िया इसलिये भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि परदादी होने पर भी उनके बाल काले होते हैं-कुछ बोलते हुए पढ़ रही है-‘इस संसार में क्या साथ लाये हो और क्या ले जाओगे। जो कुछ भी पास में है यही छोड़ जाओगे।’
इतने में उसका पति आता है-यह बाद में ही पता चलता है क्योंकि उसके बाल सफेद हैं-और वह उसे देखकर चुप हो जाती है। वह उससे पूछता है-‘क्या पढ़ रही हो?’
वह उत्तर देती है-‘गीता पढ़ रही हूं।’
वह कहता है-‘अच्छा कर रही हो। इस उम्र में यही ठीक रहता है।’
अपने देश के हिंदी धारावाहिक चैनलों के निर्माता दर्शकों की धाार्मिक प्रवृत्तियों का दोहन करने के लिये मनोरंजन के नाम पर उसमें कुछ दृश्य ऐसे जोड़ते हैं जिससे उसके सामाजिक होने को प्रमाणित किया जा सके-यह अलग बात है कि वह इस आड़ में कर्मकांड और अंधविश्वास वाले दृश्य भी जोड़ते जाते हैं। प्रसंगवश इन्हीं चैनलों में नारी को घर की एक निष्क्रिय सदस्य माना जाता है जो हमेशा प्रपंचों में लगी रहती है। कोई नारी स्वातंत्र्य समर्थक बुद्धिजीवी इस विचार नहीं करता और कभी कभी तो लगता है कि वह भी इन्हीं से प्रभावित होकर अपने विचार व्यक्त करते हैं।
मगर इस चर्चा का उद्देश्य यह नहीं है। हम तो बात उस दृश्य की कर रहे हैं जिसने इस लेखक को हैरान कर रख दिया। वह महिला उस किताब को पढ़ते हुए जो वाक्य बोली थी वह कहीं श्रीगीता में नहीं है। श्रीगीता के संदेशों का जो आशय है उस पर यहां चर्चा नहीं की जा रही है। जब कोई यह कहता है कि वह श्रीगीता पढ़ रहा है तो उसका मतलब यह है कि वह संस्कृत के श्लोक पढ़ रहा है या उसका अनुवाद। जो लोग नियमित रूप से श्रीगीता पढ़ते हैं वह अच्छी तरह से जानते हैं कि उसमें क्या लिखा है? यकीनन उपरोक्त वाक्य कहीं भी श्रीगीता में नहंी है।
इतना ही नहीं इन संवादों भाव भी देखें। यह वैराग्य भाव को प्रेरित करते हैं जबकि श्रीगीता मनुष्य को संपूर्ण अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करते हुए विज्ञान में विकास के लिये प्रेरित करने के साथ ही जीवन में अपने स्वाभाविक कर्म करने के लिये प्रेरित करती है-जिन पाठकों को लेखक की इस बात पर संदेह हो वह उसे लेकर किसी श्रीगीता सिद्ध के पास ही जाकर उसकी जानकारी मांगें क्योंकि अनेक संतों और धार्मिक संस्थाओं द्वारा श्रीगीता के संबंध में जो उसका आशय प्रकाशित किया जाता है वह भी श्रीगीता में नहीं है।
इस दृश्य में ऐसे दिखाया गया है कि जिनकी जिंदगी की रंगीन नहीं रही है या जिनके रोमांस की आयु बीत गयी है उन्हें ही श्रीगीता का अध्ययन करना चाहिये। शायद कुछ लोगों को अजीब लगे पर सच यह है कि श्रीगीता का अध्ययन करने का समय ही युवावस्था है जिसमें लोग गल्तियां अधिक करते हैं। यही वह आयु होती है जिसमें पाप और पुण्य अर्जित किये जाते हैं। ऐसे में श्रीगीता का अध्ययन करने से ही वह बुद्धि प्राप्त होती है जो न केवल जीवन के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाती है बल्कि स्वयं को गल्तियां करने से भी बचाती है।
अब आते हैं मुख्य बात पर।
आमतौर से हिंदी, हिन्दू और हिन्दुत्व को लेकर अनेक प्रकार की बहसें चलती हैं। निश्चित रूप से इसमें बुद्धिजीवी अपनी विचाराधाराओं के अनुसार विचार व्यक्त करते हैं। देश में लोकतंत्र है और इसमें कोई आपत्ति नहीं है पर यह प्रश्न तो उठता ही है कि वह जिन ग्रंथों को लेकर भारतीय धर्म की आलोचना करते हैं क्या वह उन्होंने पढ़े है? मगर यह सवाल केवल आलोचकों से ही नहीं वरन् भारतीय धर्मों के समर्थकों से भी है।
आलोचकों ने भारतीय धर्म का आधार स्तंभ मानते हुए वेदों और मनुस्मृति से चार पांच श्लोक और तुलसीदास का एक दोहा ढूंढ लिया है जिसे लेकर वह भारतीय धर्म पर बरसते हैं मगर समर्थक भी क्या करते हैं? वह दूसरे धर्मों के दोष गिनाने शुरु कर देते हैं। मतलब भारतीय धर्म के आलोचकों और प्रशंसक दोनों ही नकारात्मक सोच के झंडाबरदार हैं। नकारात्मक बहस में शब्द और वाणी में आक्रामकता आती है और प्रचार माध्यमों के लिये वह इसलिये रोचक हो जाती है।
देश का एक बहुत बड़ा बुद्धिजीवी समुदाय बहस बहुत करता है पर न तो वह भारतीय अध्यात्म ज्ञान की जानकारी रखता है और न ही रखना चाहता है। इसकी उसे जरूरत ही नहीं है क्योंकि प्रचार माध्यम उनको वैसे ही प्रसिद्ध किये दे रहे हैं। इससे हुआ यह है कि जिन लोगों के नाम के साथ भारतीय धर्म की पहचान लगी हुई है वह अध्यात्मिक ज्ञान को समझे बगैर ही उसका प्रचार प्रसार करते हैं-बशर्त इससे उनको व्यवसायिक लाभ होता हो। वह धारावाहिक जिन लोगों ने देखा होगा उनका मन उस निर्माता, निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री के प्रति अंधश्रद्धा से भर गया होगा-वाह क्या दृश्य है?
इधर भारतीय धर्म के व्यवसायिक साधु और संतों ने भी कोई कम हानि नहीं पहुंचाई है। अधिकतर प्रसिद्ध संतों और साधुओं ने अनेक तरह की संपत्ति का निर्माण किया है-हमें इस पर भी आपत्ति नहीं है क्योंकि लोग सभी जानते हैं और फिर भी उनके पास जाते हैं। यह लेखक भी कभी कभार उनके प्रवचनों में चला जाता है क्योंकि वही जाकर पता लगता है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान क्या है और उसे बताया किस तरह जा रहा है?
आज श्री बालसुब्रण्यम का एक आलेख पढ़ा जिसमें उन्होंने भक्तिकाल के साहित्य को सामंतशाही के विरुद्ध एक आंदोलन निरुपित किया। यह एक नया विचार था। उन्होंने वर्ण संबंधी ऐसे श्लोकों और दोहों की भी चर्चा की जिनको लेकर भारतीय धर्म को बदनाम किया जाता हैं। इस लेखक ने अपनी टिप्पणी लिखी जिसका आशय यह था कि भारतीय भाषाओं में अनेक बातें व्यंजना विद्या में लिखे जाने की प्रवृत्ति है और विदेशी पद्धति से चलने वाले विद्वानों उसका केवल शब्दिक या लाक्षणिक अर्थ लेते हैं।
सच बात तो यह है कि इस देश को सांस्कृतिक या धार्मिक खतरा विदेशी भाषाओं, विचारधाराओं और उनके प्रचारकों से नहीं बल्कि देश के लोगों की बौद्धिक गरीबी से है जो भले ही अंग्रेजी नहीं जानते पर उस पर आधारित शिक्षा पद्धति से शिक्षित होने के कारण बाहरी आवरण से अपनी भाषा और संस्कृति में रंगे जरूर लगते हैं पर भावनात्मक रूप से बहुत परे हैं। वह व्यवसायिक प्रचार माध्यमों और कथित साधु संतों की बातों से अपने अध्यात्म को समझते हैं जो उनको कर्मकांडों और अंधविश्वासों से कभी बाहर नहीं निकलने देती।
देश की फिल्मों, टीवी चैनलों, और व्यवसायिक प्रकाशनों में ऐसे ही अल्पज्ञानी लोग भारतीय धर्म के पैरोकार बनते हैं जो आलोचकों के वाद और नारों का उत्तर भी वैसा ही देते हैं जिनसे बहस और अभियानों का परिणाम नहीं निकलता।
हमें किसी की सक्रियता पर कोई आपत्ति नहीं करना चाहिए मगर जब यह बातें सामने आती हैं तो अपना दायित्व समझते हुए सचेत करना अपना कर्तव्य समझते हैं कि पहले भारतीय अध्यात्म ज्ञान को समझें फिर उसके समर्थन में आगे बढ़ें। यहां यह भी बता दें श्रीगीता में कोई लंबा चैड़ा ज्ञान भी नहीं हैं। न ही उसमें कोई रहस्य छिपा है-जैसा कि कुछ विद्वान दावा करते हैं। पढ़ने में समझ में सब आ जायेगा मगर पहले यह देखना होगा कि संकल्प किस तरह का है। अगर आप उससे सीखने और समझने के लिये पढ़ रहे हैं तो उसका ज्ञान स्वतः आता जायेगा। अगर आप ऐसे सिद्ध बनने की कामना करते हुए पढ़ना चाहते हैं जिससे ढेर सारे लोग गुरु मानकर पूजा करें तो ं तो फिर कुछ नहीं होने वाला। फिर तो आप प्रसिद्ध ज्ञानी जरूर हो जायेंगे। लोग आपके ज्ञान को श्रीगीता का ही ज्ञान कहेंगे मगर जो उसके नियमित पढ़ने वाले होंगे वह आपके पाखंड को समझ जायेंगे।
यहां कुछ उदाहरण देना अच्छा रहेगा
कई जगह लिखा मिल जाता है कि
1. ‘भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि कर्म ही मेरी पूजा है’।
स्पष्टीकरण-पूरी श्रीगीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहीं भी ऐसा नहीं कहा। हां, उसमें निष्काम कर्म करने की प्रेरणा दी गयी है पर उसे भी अपनी पूजा नहीं कहा।
2.‘भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि सभी जीवों पर दया करो।’
स्पष्टीकरण-श्रीगीता में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा गया बल्कि उसमें निष्प्रयोजन दया का संदेश है।
लेखक द्वारा यह चर्चा करने का उद्देश्य स्वयं को सिद्ध प्रमाणित करने के लिये नहीं किया जा रहा है बल्कि इस आशा के साथ किया जाता है कि अगर कोई ज्ञान में कमी हो तो उसमें सुधार किया जाये। शेष फिर कभी
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शायद कुछ समाज सुधारकों को यह बुरा लगे पर सच यही है कि इस धरती पर पैदा हर जीव की नस्ल होती है और उसमें कुछ स्वाभाविक गुण जन्मजात होते हैं जिनमें इंसान भी शामिल है। इंसानों में नस्ल होती हैं यही कारण है कि शरीर विज्ञान के विशेषज्ञ अनेक प्रकार के जींसों की मौजूदगी अलग अलग लोगों में अलग अलग रूप से देखते हैं। हां, इतना अवश्य है कि अन्य जीवों से पृथक इंसान अपनी बुद्धि की व्यापकता के कारण अभ्यास से जन्मजात गुणों से प्रथक गुण भी प्राप्त करता है और दुर्गुणों से मुक्ति भी इनसे मिल जाती है।
जींसों के विषय में इस लेखक के मित्र ने लेख लिखा था उसमेें यह बताया गया था कि किस तरह कुछ जातियों के लोग गोरे और कुछ के काले होते हैं। इतना ही नहीं विचार और काम करने की शैलियां और तरीके भी अलग अलग स्थानों पर होने के बावजूद एक जैसे होते हैं जबकि उनका आपस में कोई संपर्क नहीं होता।
अगर कोई गोरा दंपत्ति ऐसे स्थान पर होता है जहां कालों की बहुतायत है उसके बच्चे भी गोरे होते हैं और कहीं काला दंपत्ति अगर गोरा बाहुल्य इलाके मेें हुआ तो उसका बच्चा भी काला होता है। उस मित्र से लेख पर चर्चा हुई थी तब इस लेखक ने उससे पूछा था कि-‘क्या जलवायु और अन्न जल मनुष्य के मूल स्वभाव को प्रभावित नहीं करता?
उसने कहा कि‘-नहीं।’
लेखक ने पूछा-‘क्या तुम्हारे मेरे स्वभाव में अंतर केवल जाति या नस्ल के कारण है या जलवायु भी इसमें शामिल है। वैसे इस समय हम दोनों एक ही स्थान का अन्न जल ग्रहण कर रहे हैं।’
मित्र हंस पड़ा और उसने कहा-‘शायद दोनो कारण से ही अंतर है। जाति और जन्म स्थान अलग अलग होने से हमारे स्वभाव और विचारों में अंतर हो सकता है।’
फिर कुछ देर बाद चुप रहने के बाद वह बोला-‘शिक्षा प्रणाली और धार्मिक साम्यता के कारण हम दोनों कई मसलों पर एक ढंग से सोचते हैं। कई मसलों पर सहमत हों सकते हैं पर अभिव्यक्ति की शैली में अंतर हो सकता है जो शायद जाति, जलवायु और के साथ हमारे वर्तमान जीवन स्तरों से कहीं न कही जरूर प्रभावित होगा।’
वह स्पष्ट जवाब नहीं दे रहा था पर उसने अपने लेख में जातियों की नस्ल को लेकर कहीं दूसरे स्थान से प्रकाशित लेख उठाकर उस पत्रिका में लिखा था जिसमें इस लेखक का व्यंग्य भी था। वह पत्रिका इस लेखक के पास अल्मारी में जमा है और ढूंढने पर वह लेख लिखने का प्रयास किया जायेगा। वह स्वयं उस लेख का महत्व नहीं समझ सका। उस दिन जब उससे उस लेख की तारीख मांगी तो उसने उस लेख का शीर्षक और विषय बताया जो इस लेखक का था। जब भी नस्ल को लेकर कहीं चर्चा होती है उस मित्र का लेख अक्सर याद आता है। उस लेख में नस्ल से मनुष्य की देह और बुद्धि के प्रभावित होने के सिद्धांत की पुष्टि करते हुए भारत के जातिगत ढांचे की सार्थकता प्रमाणित करने का प्रयास उसमें किया गया था पर लेखक स्वयं उसमें अपनी कोई राय नहीं दे सका।
बहरहाल नस्ल का संबंध देह से इसलिये उससे जुड़ी तीनों प्रकृतियां-बुद्धि, मन और अहंकार-प्रभावित होती हैं पर दूसरा सच यह है कि सभी जगह लोगों का स्वभाव एक जैसा नहीं होता। सभी जगह अपराधी नहीं होते तो सभी पुण्यात्मा भी नहीं होते। धोखा, मक्कारी, अपराध और अनावश्यक रूप से दूसरे को सताने की घटनायें सभी जगह होती है तो बचाने वाले भी सभी जगह होते हैं। हम कहते हैं कि अमुक जगह अमुक जाति, भाषा, क्षेत्र या धर्म से जुड़े लोगों पर हमले हो रहे हैं क्योंकि वह बाहर से वहां आये हैं। इसका आशय यह नहीं है कि सभी लोग हमला कर रहे हैं क्योंकि तब यह सवाल उठ सकता है कि स्थानीय लोगों की सहायता के बिना वहां बाहर के लोग कैसे पहुंच सकते हैं। तय बात है कि वहां एक समूह ऐसा भी है जो उनको अपने स्वार्थ की वजह से वहां रोके रहता है और वह ऐसे हमलों को पसंद नहीं करता।
मनुष्य के स्वभाव में कुछ गुण मूल रूप से होते हैं तो कुछ परिस्थितिजन्य भी उसे ऐसा कार्य कराते हैं जो वह सामान्य हालत में नहीं करता। कई बार वह भीड़ में शामिल होकर ऐसा काम करता है जो वह अकेले वह सोचता भी नहीं। तात्पर्य यह है कि किसी भी घटना को किसी समूह के स्वभाव से जोड़ना एक गलती है। दुनियां में हर देश, भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र में कवि पैदा होते हैं। उन समूहों में भी कवि मिल जाते हैं जिसके सदस्य आक्रामक माने जाते हैं।
इस लेखक का यह अनुभव रहा है कि जलवायु का प्रभाव आदमी के स्वभाव पर अवश्य पड़ता है-जिस मनुष्य का जन्म जिस स्थान पर हुआ है उसकी जलवायु का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। उसकी देह की नस्ल कोई भी हो मनुष्य पर जन्म वाले स्थान की जलवायु का प्रभाव अवश्य दृष्टिगोचर होता है। उसके स्वभाव का जाति,भाषा और धर्म से अधिक संबंध नहीं होता। हां, जन्म के बाद इंसान कर्म अपनी बुद्धि के अनुसार वैसे ही करता है जैसा कि उसका अन्न जल होता है। यही बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। श्रीगीता का अध्ययन करने से भी इस बात की प्रेरणा मिलती है कि जैसे आदमी भोजन करता है वैसे ही उसकी बुद्धि हो जाती है और फिर कर्म भी उसी के अनुसार होते हैं। ‘गुण ही गुणों को बरतते है’-यह एक ऐसा नियम है जिसको आधुनिक विज्ञान मान्य नहीं करता क्योंकि उसमें उसे धर्म की बू आती है मगर सच यही है। इस देह में जैसा अन्न जल अन्दर जायेगा वैसी ही प्रवृत्ति होगी। अन्न जल से भी दो आशय है-एक तो उसको पाने के लिये धन का स्त्रोत अगर पवित्र नहीं है तो भी उसके सेवन का भी बुरा प्रभाव होगा और दूसरा यह कि अगर वह मांस आदि खाने से भी देह में स्थित बुद्धि भ्रष्ट होने के साथ मन में क्रूरता का भाव पैदा होता है जो अहंकार को बढ़ाता है। उससे आदमी फिर दूसरों की बाह्य देह देखकर ही दूसरे के गुणों और दुर्गुणों का अनुमान करते हुए पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर व्यवहार करता है। शायद ‘गुण ही गुणों को बरतते’ का सिद्धांत पूरे विश्व में प्रचारित किया जाये तो लोग यह समझ पायेंगे कि किस तरह उनके समूह के शीर्षस्थ लोग उनको भ्रमित कर आपस में झगड़ा कराते हैं। शेष फिर कभी।
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अगर किसी समुदाय का एक जोड़ा अपने किसी दूसरे समुदाय की रीति के अनुसार विवाह करता है तो क्या उस समुदाय के गुरुओं या शिखर पुरुषों को उसके विरुद्ध बयान देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है? क्या यह स्वतंत्र रूप से किसी को अपना जीवन स्वतंत्र रूप व्यतीत करने के अधिकार को चुनौती नहीं देता?
एक छोटी घटना पर बड़ी प्रतिक्रिया होती है तो बड़े सवाल भी उठते हैं। प्रसंग यह है कि एक ही समुदाय के गैर हिंदू जोड़े ने हिंदू रीति से विवाह किया। इस पर उस समुदाय के गुरुओं ने सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया कि उनका विवाह उनकी पवित्र पुस्तक के अनुसार मान्य नहंी है! क्या किसी भी समुदाय के गुरु को यह अधिकार प्राप्त है कि वह उसके हर सदस्य के व्यक्तिगत मामले में सार्वजनिक हस्तक्षेप करने वाले बयान जारी करे?
यह एक सामाजिक प्रश्न है पर मुश्किल यह है कि देश के बुद्धिजीवी वर्ग के साथ ही सामजिक गतिविधियेां के मसीहा भी अपने राजनीतिक विचारों से अपने दृष्टिकोण रखते हैं। अगर कोई घटना धार्मिक या सामाजिक है तो सभी सक्रिय संगठन अपनी प्रतिबद्धता, लोगों की जरूरतों और समस्याओं से अधिक अपने पूर्वनिर्धारित वैचारिक ढांचे में तय करते हैं। अगर हम इस घटना को देखें तो केवल वही संगठन उस जोड़े को समर्थन देंगे जो अपने समुदाय की परंपराओं की प्रशंसा इस घटना में देखते हैं और उनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के प्रत्युत्तर में उनके प्रतिद्वंद्वी संगठन खामोश रहेंगे या फिर कोई अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे जिससे अपने समुदाय में उनकी अहमियत बनी रहे।
सवाल यह है कि कोई हिंदू जोड़ा गैर हिन्दू तरीके से या कोई गैरहिन्दू हिन्दू तरीके से विवाह करता है तो उसे सार्वजनिक रूप से चर्चा का विषय क्यों बनाया जाना चाहिए? क्या यह जरूरी है कि देश के बुद्धिजीवी जब सामाजिक विषयों पर लिखें तो हर घटना को अपने अपने राजनीतिक चश्में से ही देखें? क्या यह जरूरी है कि सामाजिक विषयों पर केवल राजनीतिक विषयों पर ही लिखने वाले अपने विचार रखें। क्या शुद्ध रूप से किसी सामाजिक लेखक को इसका अधिकार नहीं है कि वह ऐसे मसलों पर लिखे जिनका जानबूझकर राजनीतिक करण किया गया हो या लेखकों ने यह अधिकार स्वयं ही छोड़ दिया है।
यह घटना तो इस आलेख में केवल संदर्भ के लिए उपयोग की गयी है पर मुख्य बात यह है कि हर व्यक्ति को-चाहे वह किसी भी समुदाय,जाति,भाषा या क्षेत्र का हो- अपनी दैनिक गतिविधियों के स्वतंत्र संचालन के राज्य का संरक्षण मिलना चाहिये क्योंकि वह देश की एक इकाई है मगर समाजों को संरक्षण देने की बात समझ से परे है। संरक्षण की जरूरत व्यक्ति को है क्योंकि वह उसका अधिकारी है-राज्य द्वारा दिये जाने वाले करों को चुकाने के साथ वह मतदान भी करता है-पर समाजों को आखिर संरक्षण की क्या जरूरत है?
हम एक व्यक्ति को देखें तो उसको समाज की जरूरत केवल शादी और गमी में ही होती है बाकी समय तो वह अकेला ही जीवन यापन करता है। समाज की उसके लिये कोई अधिक भूमिका नहीं है। वैसे भी हम इस देश में जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म के आधार पर बने समाजों को देखें तो उनके स्वाभाविक रूप से बने संगठन उनके लिये अपनी भूमिका हमेशा नकारात्मक प्रचार में ढूंढते हैं। संगठन पर बैठते हैं धनी, उच्च पदस्थ या बाहूबली जिनके भय से आम आदमी दिखावे के लिये उनका समर्थन करता है। इसी का लाभ उठाते हुए ही इन संगठनों के माध्यम से समाजों पर नियंत्रण का प्रयास किया जाता है। यह केवल आज की बात नहीं बल्कि सदियों से होता आया है इसलिये ही जिस समाज के लोगों के हाथ में सत्ता रही वह अन्य समाजों को दूसरे दर्जे का मानते रहे। परिणामस्वरूप इस देश में हमेशा संघर्ष रहा।
आजादी के बाद भी समाजों को संरक्षण देने के लिये राज्य द्वारा प्रयास किया गया। यह प्रयास भले ही ईमानदारी से किया गया पर इसका जमकर दुरुपयोग हुआ। समाज को नियंत्रित करने वाले संगठनों के शीर्ष पुरुषों ने कभी यह प्रयास नहीं किया कि वह मिलकर रहें उल्टे वह आपस में लड़ाते रहे। मजे की बात यह है कि आम लोगों को आपस में लड़ाने वाले इन शीर्ष पुरुषों में कभी आपस में सीधे संघर्ष हुआ इसकी जानकारी नहीं मिलती।
कहा जाता है कि बिटिया सांझी होती है। आदमी अपने शत्रु की बेटी का नाम भी कभी सार्वजनिक रूप से नहीं उछालता। इस प्रसंग में देखा गया कि लड़के के साथ लड़की का नाम भी उछाला गया जो कि किसी भी समुदाय की मूल पंरपराओं को विरुद्ध है। नितांत एक निजी विषय को सार्वजनिक रूप से उछालना कोई अच्छी बात नहीं है। जहां तक किसी गैर हिन्दू जोड़ द्वारा हिन्दू रीति से विवाह करने का प्रश्न है तो पाकिस्तान में कुछ समय पूर्व एक ऐसी शादी हुई जिसमें पूरा परिवार शामिल हुआ। तब वहां पर उनके समुदाय की तरफ से ऐसा कोई विरोध नहीं आया पर भारत में तो सभी समुदाय के शीर्ष पुरुषों ने मान लिया है कि उनका हर सदस्य उनकी प्रजा है। यह शीर्ष पुरुष आपस में ऐसे बतियाते हैं जैसे कि वह पूरे समुदाय के राजा हों।
राज्य के समाजों को संरक्षण का यह परिणाम हुआ है कि उनके शीर्ष पुरुष आम आदमी को अपनी संपत्ति समझने लगे हैं।
सच बात तो यह है कि जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर बने कथित संगठन किसी अहम भूमिका में नहीं है पर प्रचार माध्यमों से मिलने वाला उन्हें जीवित रखे हुए है। पुरानी पीढ़ी के साथ नयी पीढ़ी भी कथित सामाजिक नियमों उकताई हुई है। अंतर यह है कि पुरानी पीढ़ी के लिये विद्रोह करने के अधिक अवसर नहीं थे पर नयी पीढ़ी को किसी चीज की परवाह नहीं है। सारे समाज अपना अस्तित्व खोते जा रहे पर उनके खंडहर ढोने का प्रयास भी कम नहीं हो रहा। मुश्किल यह है कि लोगों के निजी मामलों में इस तरह सार्वजनिक दखल रोकने का कोई प्रयास नहीं हो रहा। इसके लिये कानून बने यह जरूरी नहीं पर समाज के निष्पक्ष और मौलिक चिंतन वाले लोगों को चाहिए कि वह दृढ़तापूर्वक सभी समुदायों के शीर्ष पुरुषों पर इस बात के लिये दबाव डालें कि वह लोगों के निजी मामलों में दखल देने से बचें। वह किसी के साथ गुलाम जैसा व्यवहार न करें। यहां किसी विशेष समुदाय को प्रशंसा पत्र नहीं दिया जाना चाहिये कि वह अन्य से बेहतर है क्योंकि ऐसी अनेक घटनायें हैं जिससे हर समाज या समूह पर कलंक लगा है।
इस कथित सामाजिक गुलामी से मुक्ति के लिये निष्पक्ष और मौलिक सोच के लोगों को अहिंसक प्रचारात्मक अभियान छेड़ना चाहिये। जो लोग समाजों को अपनी संपत्ति समझते हैं वह इसलिये ही आक्रामक हो जाते हैं क्योंकि उनको दूसरे समूहों के अपनी तरह के ही शीर्षपुरुषों का समर्थन मिल जाता है। कभी कभी तो लगता है कि वह अपने अपने समाज में वर्चस्व बनाये रखने के लिये ही नकली लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे में राज्य से हर व्यक्ति को जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के आधार पर संरक्षण तो मिलना चाहिये पर समाज के संरक्षण से बचना चाहिए। उनके आधार पर बने संगठनों को लोगों के निजी मामलों से रोकने का प्रयास जरूरी है। इस तरह की सामाजिक गुलामी समाप्त किये बगैर देश में पूर्ण आजादी एक ख्वाब लगती है। राज्य या कानून से अधिक वर्तमान समय में युवा और पुरानी पीढ़ी के निष्पक्ष, स्वतंत्र और मौलिक लोगों के प्रयासों द्वारा ही अहिंसक, सकारात्मक और दृढ़ प्रयास कर ऐसे तत्वों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
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चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात
एक निस प्रेमी निराधार का गाहक गोपीनाथ
संत कबीरदास जी का आशय यह है कि चुतराई करने से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। निष्काम भक्ति से उनको प्राप्त किया जा सकता है। वह निस्वाथी भक्त को ही पंसद करते हैं।
पथ से बूढ़ी प्रथमी, झूठे कुल की लार
अलघ बिसारियो भेष में बूढ़े काली धार
संत कबीरदास जी का कहना है कि पूरी दुनियां पुरानी परंपराओं और कुल की मर्यादा का वहम पालकर डूब जाती है। परमात्मा को भुलाकर आदमी उनके पीछे घूमते हुए एक दिन इस दुनियां से विदा हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोग अपने गुरुओं के पास जाते हैं तो वह कथित रूप से उनको परमात्मा प्राप्ति का उपाय बताते हैं। उपाय थोड़ा बड़ा या लंबा होता है तो भक्त के आग्रह पर उसे छोटा कर दिया जाता है। उनसे कहा जाता है कि ‘अगर यह नहीं होता तो इतना कर लो’ या एक घंटे नहीं जाप कर सकते तो पांच मिनट ही कर लो‘। यह सब ढोंग है। सच तो यह है कि परमात्मा का प्राप्ति निष्काम भक्ति से ही की जा सकती हैं। अपना काम करते हुए उसका स्मरण हर पल करने से ही ऐसी भक्ति प्राप्ति की जा सकती है। यह नहीं कि सुबह अगरबती जलाकर चले गये और फिर दिन भर उसका स्मरण नहीं किया। इस जीवन में देह की क्षुधा शांत करने के लिये जैसे हर पल काम करना पड़ता है वैसे ही आत्मा की शांति के लिये उसका स्मरण करना चाहिये। परमात्मा की प्राप्ति का कोई शार्टकट नहीं है। उसका नाम हर पल लेते हुए अपना काम करना चाहिये तभी सच्ची भक्ति प्राप्ति हो सकती है।
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के अनुसार
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आस्रावयेदुपचितान् साधु दुष्टऽव्रणनि।
आमुक्तास्ते च वतैरन् वह्मविव महीपती।।
हिंदी में भावार्थ-दुष्ट व्रणों की तरह पके हुए धन से संपन्न असाधु पुरुष को निचोड़ लेना ही ठीक है वरना वह दुष्ट स्वभाव वाले अग्नि के समान राज्य के साथ व्यवहार कर उसे त्रस्त करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-धन कमाने के दो ही मार्ग है-एक प्राकृतिक व्यापार से और दूसरा अप्राकृतिक व्यापार। जिन लोगों के पास अप्राकृतिक व्यापार से धन आता है वह न केवल स्वयं दुष्ट प्रवृत्ति के होते हैं बल्कि दूसरों को भी अपराध करने के लिये उकसाते हैं। वह अवैध रूप से धन कमाने के लिये राज्य का ध्यान भटकाने के उद्देश्य से ऐसे अपराधियों को साथ रखते हैं जो उनकी इस काम में सहायता करें। अधिक धन से पके हुए ऐसे दुष्ट पुरुष राज्य के लिये आग के समान होते हैं भले ही वह प्रत्यक्ष रूप से समाज का हितैषी होने का दावा करते हैं पर अप्रत्यक्ष रूप से वह असामजिक तत्वों और अपराधियों की सहायता कर पूरे राज्य में कष्ट पैदा करते हैं। वैसे आजकल तो प्राकृतिक व्यापार और अप्राकृतिक व्यापार का अंतर ही नहीं दिखाई देता क्योंकि लोग दिखावे के लिये सफेद धंधा करते हैं पर उनको काला धंधा ही शक्ति प्रदान करता है। राज्य को चाहिये कि ऐसे लोगों पर दृष्टि रखते हुए उनको निचोड़ ले।
भले राज्य के प्रसंग में बात कही गयी है पर एक आम व्यक्ति के रूप में भी ऐसे धनिकों से सतर्क रहना चाहिये जो अप्राकृतिक और काला व्यापार करते हैं। ऐसे लोग धन कमाकर अहंकार के भाव को प्राप्त हो जाते हैं। इनसे संपर्क रखना मतलब आपने लिये आफत मोल लेना है। वह अपना उद्देश्य से कभी भी उपयोग कर किसी भी व्यक्ति को संकट में डाल सकते हैं। इतना ही नहीं संबंध होने पर अगर किसी काम के लिये मना किया जाये तो वह उग्र होकर बदला भी लेते हैं। उनके लिये स्त्री हो या पुरुष पर काम निकालते हुए वह उसे केवल एक वस्तु या हथियार ही समझते हैं। अपना काम न करने पर पूरे परिवार के लिये अग्नि के समान व्यवहार करते हैं। धन के बदले काम लेकर ही यह संतुष्ट नहीं होते बल्कि आदमी को अपना गुलाम समझकर उसे त्रास भी देते हैं।
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