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मन और माया की चाल योग से जानना संभव-हिन्दी चिंत्तन लेख(man aur maya ki chal yog se hi janna sambhav-hindi thought article)


            हमारा मानना है कि मन, माया और मय के विचित्र खेल को योगी ही समझ सकता है। यह तीनों उतार चढ़ाव या कहा जाये अस्थिर प्रकृति के हैं। मन पता नहीं कब  कहां और कैसे मनुष्य को चलने के लिये बाध्य कर दे। माया पता नहीं कब हाथ आये और निकल जाये।  मय का नशा चढ़ता है फिर उतर भी जाता है। अंतर इतना है कि मनुष्य देह में स्थित मन ही है जो माया और मय के पीछे भागता है।  इस तरह उसे सहज लगता है।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन में कहा जाता है कि मन पर नियंत्रण कर उसका स्वामी होने मनुष्य  प्रसन्न रह सकता है पर वह इसके विपरीत स्वयं बंधुआ बन जाता है जिससे जीवन में उसकी स्थिति उस मोर की तरह हो जाती है जो नाचने के बाद अपने गंदे पांव देखकर रोता है। मनुष्य भी एक के बाद एक भौतिक उपलब्धि प्राप्त करता है पर तन और मन पर आयी थकावट उसे कभी अपनी ही सफलता का पूर्ण आनंद नहीं लेने देती। एक सामान मिलने पर वह  दूसरी, तीसरी और चौथी की कामना होने से  वह भागता रहता है।  चिंत्तन के लिये उसे समय ही नहीं मिलता। सामानों से सुख नहीं मिलता यह अंतिम सत्य है।  सुख कोई बाहर लटकी वस्तु नहीं है जो हाथ लग जाये।  सुख तो एक अनुभूति जो अंदर प्रकट होती है।

            इस संसार को समझने के लिये बाह्य विषयों पर दक्षता से अधिक अपनी ही इस देह रूपी क्षेत्र को जानने की आवश्यकता है। यह योग साधना से ही पूरी हो सकती है।  योग साधना का विषय ऐसा है जिसमें एक बार अगर सिद्धि मिल जाये तो फिर संसार के सभी विषयों का सत्य सहजता से समझा जा सकता है।  एक योग साधक के खाने का भूख से और पानी पीने का प्यास से संबंध नहीं होता। वह  भोजन दवा की गोली या कैप्सूल की तरह यह सोचते हुए उदरस्थ करता है कि कहीं आगे भूख आक्रमण न करे।  वह समय तय कर लेता है कि निश्चित समय पर वह भोजन करेगा चाहे भूख लगे या नहीं।  वह पानी भी दवा की तरह पीता है ताकि उससे प्राणवाणु सहजता से देह में प्रवाहित होती रहे।  एक पारंगत योग साधक भोजन और जल का सेवन करते हुए भी भूख प्यास के अधीन नहीं होता। इससे वह सांसरिक विषयों में भी दृढ़ता पूर्वक निर्लिप्त भाव से स्थित हो जाता है।

            मनुष्य के बाह्य चक्षु सदैव बाहर के विषयों पर केंद्रित रहते हैं इसलिये बुद्धि भी केवल उन्हीं का चिंत्तन करती है।  मन भी विषयों में इतना अभ्यस्त हो जाता है कि मनुष्य परमात्मा की कृपा से प्राप्त इस देह का महत्व नहीं समझ पाता।  देह के बाह्य विकार जल और साबुन से नष्ट किये जा सकते हैं पर अंदर स्थित दोषों के निवारण का उपाय केवल योग साधक ही कर सकता है। सच यह है कि देह के बाह्य विकार भी आंतरिक दोषों से उत्पन्न होते हैं।  आंतरिक दोषों से मन और बुद्धि भ्रमित होती है और अंततः तनाव चेहरे पर प्रकट होता ही है। ऐसा नहीं है कि योग साधक कभी विकार या तनाव ग्रस्त नहीं होते पर वह आसन, प्राणायाम तथा ध्यान की कला से उनका निवारण कर लेते हैं।

            हमारे देश में योग साधना सिखाने वाले बहुत से विद्वान और संस्थान सकिय  हैं पर भारतीय योग संस्थान के शिविरों में  सक्रिय विशारद निष्काम भाव से जिस तरह यह काम करते हैं वह प्रशंसनीय है। सबसे बड़ी बात यह कि वहां निशुल्क सेवा होती है।  शुल्क लेना और देना माया का ही रूप है। भारतीय योग संस्थान के साथ जुड़ने अनेक साधकों के विभिन्न कार्यक्रमों मिलने जो सुखद अनुभव होता उसका शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है।  इस तरह का सत्संग दुर्लभ होता है।  हम अन्य कार्यक्रमों में सामान्य लोगों से मिलते हैं तो सांसरिक विषयों पर उबाऊ चर्चा होती है पर योग साधकों से मिलने पर हुई योग विषय पर चर्चा अध्यात्मिक शांति मिलती है। तब यह ज्ञान सहज रूप से होता है कि माया, मन और मय के खेल से बचने के लिये योग साधना से बेहतर उपाय नहीं हो सकता।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak Raj kurkeja “Bharatdeep”

Gwalior Madhya Pradesh

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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ओ माई गॉड फिल्म से पीके की तुलना ठीक नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख


            हिन्दू धर्म रक्षक पीके का विरोध करते हुए जो तर्क दे रहे हैं वह ठीक है या नहीं यह अलग से विचार का विषय है पर हम परेश रावल, मिथुन चक्रवर्ती, अक्षय कुमार तथा अनेक उच्च कलाकारों से सजी फिल्म  ओ माई गॉड फिल्म हम जैसे अध्यात्मिक चिंत्तकों के लिये अच्छी फिल्भ्म थी। पीके और ओ माई गॉड में भारतीय धर्मों पर व्यंग्य जरूर कसे गये हैं यह सही है पर ओ माई गॉड में श्रीमद्भागवत  गीता के संदेश का महत्व बताया गया था। ओ माई गॉड में अंधविश्वास के विरुद्ध विश्वास की स्थापना का प्रयास था जबकि पीके में अंधविश्वास की आड़ में एक प्रेम कहानी प्रचारित हुआ है। ओ माई गॉड में कोई प्रेम कहानी नहीं थी। इस फिल्म को आधुनिक कला फिल्म भी कहा जा सकता है। पीके में एक प्रेम कहानी के माध्यम से समाज को सुधारने का परंपरागत प्रगतिशील और जनवादी प्रयास करने का संदेश दिया जा रहा है। अनेक लोग इस फिल्म के प्रायोजन से जुड़े तत्वों पर ही संदेह कर रहे हैं जबकि ओ माई गॉड में बिना प्रेम कहानी के मनोरंजन प्रस्तुत कर यह प्रमाणित किया गया था कि फिल्मों के शारीरिक आकर्षण आवश्क नहीं है।

            इसलिये पीके के विरोध करने वालों को सलाह है कि वह ओ माई गॉड से  तुलना के प्रयासों से बचें। इस तरह उनके विरोध को तर्कहीन बनाने का प्रयास हो रहा है। कभी कभी तो यह लगता है ओ माई गॉड के संदेश को अप्रासंगिक करने के लिये यह फिल्म बनी है। अगर पीके का विरोध करते हुए ओ माई गॉड भी वाक्य प्रहार करेंगे उनके सारे प्रयास निरर्थक हो जायेंगे।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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परकाया में प्रवेश की बात पतंजलि योग साहित्य में प्रमाणिक नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख


            हमारे यहां आजकल एक कथित संत की समाधि पर चर्चा चल रही है। इन संत को पहले रुगणावस्था में चिकित्सकों के पास ले जाया गया जहां उनको मृत घोषित कर दिया।  उनके पास अकूत संपत्ति है जिस पर उनके ही कुछ लोगों की दृष्टि है इसलिये कथित भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की आड़ में उन संत को समाधिस्थ घोषित कर दिया।  दस महीने से उनका शव शीत यंत्र में रखा गया है और उनके कथित अनुयायी यह प्रचार कर रहे हैं कि वह समाधिस्थ है। अब न्यायालय ने उनका अंतिम संस्कार करने का आदेश दिया है पर कथित शिष्य इसके बावजूद अपनी आस्था की दुहाई देकर संत की वापसी का दावा कर रहे हैं।

            हमारे देश में धर्म के नाम पर जितने नाटक होते हैं उससे भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से लोग दूर हो जाते हैं।  सत्य यह है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन तार्किक रूप से प्रमाणिक हैं पर कर्मकांडों और आस्था के नाम पर होने वाले नाटकों से भारतीय धर्म और संस्कृति की बदनामी ही होती हैं। जब हम उन संत की कथित समाधि की चर्चा करते हैं तो अभी तक इस प्रश्न का उत्तर उनके शिष्यों ने नहीं दिया कि वह उन्हें चिकित्सकों के पास क्यों ले गये थे? तब उन्हें समाधिस्थ क्यों नहीं माना गया था?

            इस पर चल रही बहसों में अनेक विद्वान संत को समाधिस्थ नहीं मानते पर समाधि के माध्यम से दूसरे की काया में प्रवेश करने के तर्क को स्वीकृति देते हैं।  यह हैरानी की बात है कि पतंजलि योग साहित्य तथा श्रीमद्भागवत गीता के पेशेवर प्रचारक हमारे देश में बहुत है पर उनका ज्ञान इतना ही है कि वह अपने लिये भक्त के रूप में ग्राहक जुटा सकें। स्वयं उनमें ही धारणा शक्ति का अभाव है इसलिये उन्हें ज्ञानी तो माना ही नहीं जा सकता।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि

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जन्मौषधिधिमन्त्रतपःसमाधिजाः सिद्धयः।

            हिन्दी में अर्थ-जन्म, औषधि, मंत्र तथा तप से होने वाली समाधि से सिद्धियां प्राप्त होती हैं।

            भावार्थ-समाधि के यह चार प्रकार ही प्रमाणिक माने जा सकते हैं। जन्म से समाधि से आशय यह है कि जब साधक एक योनि से दूसरी यौनि में प्रवेश करता है तो उसके अंदर असाधारण शक्तियां उत्पन्न हो जाती हैं।  इसका आशय यही है कि जब कोई मनुष्य एक देह का त्याग कर वह दूसरा जन्म लेता है तब अपनी योग शक्ति से अपना भविष्य तय कर सकता है।  यह कतई नहीं है कि किसी जीव के शरीर में बिना प्रवेश कर सकता है।  औषधि से समाधि किसी द्रव्य या भौतिक पदार्थ के सेवन से होने वाली समाधि है।  इसके अलावा मंत्र और तप से भी समाधि की अवस्था प्राप्त की जा सकती है।

            योग साधक जब अपने अभ्यास में परिपक्व हो जाता है तब वह चाहे जब समाधि ले सकता है।  उसके चार प्रकार है पर समाधि की प्रक्रिया के बाद उसकी देह, मन, बुद्धि तथा विचार में प्रकाशमय अनुभव होता है।  जितना ही कोई साधक समाधिस्थ होने की क्रिया में प्रवीण होता है उतना ही वह अंतमुर्खी हो जाता है। वह कभी भी देवता की तरह धर्म के बाज़ार में अपना प्रदर्शन करने का प्रयास नहीं करता।  शिष्य, संपत्ति अथवा सुविधाओं का संचय करने की बजाय अधिक से अधिक अपने अंदर ही आनंद ढूंढने का प्रयास करता है। परकाया में प्रवेश करने की इच्छा तो वह कर ही नहीं सकता क्योंकि उसे अपनी काया में आनंद आता है। समाधि एक स्थिति है जिसे योग साधक समझ सकते हैं पर जिन्हें ज्ञान नहीं है वह इसे कोई अनोखी विधा मानते हैं।  यही कारण है कि अनेक कथित संत बड़े बड़े आश्रम बनवाकर उसमें लोगों के रहने और खाने का मुफ्त प्रबंध करते हैं ताकि उनके भोगों के लिये भीड़ जुटे जिसके आधार पर वह अधिक प्रचार, पैसा तथा प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकें। हम इन संत की समाधि पर पहले भी यह स्पष्ट कर चुके हैं कि प्राण तथा चेतना हीन समाधि पतंजलि योग साहितय के आधार पर प्रमाणिम नहीं मानी जा सकती।

            यहां हम यह भी स्पष्ट कर दें कि लोग अज्ञानी हो सकते हैं पर मूर्ख या मासूम नहीं कि ऐसे पेशेवर संतों के पास जायें ही नहीं।  मु्फ्त रहने और खाने को मिले तो कहीं भी भीड़ लग जायेगी।  इसी भीड़ को भोले भाले या मूर्ख लोगों का समूह कहना स्वयं को धोखा देना है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

कृषि भूमि रूपी शरीर में गुण रूपी बीज बोना जरूरी-श्री गुरूनानक जयंती प्रकाश पर्व पर श्रीगुरूग्रंथ साहिब के आधार पर चिंत्तन लेख


            अनेक लोगों में अध्यात्मिक भाव है प्राकृतिक रूप से विद्यमान होता है पर कभी उनका ध्यान इस तरफ नहीं जाता।  विषयों के रसस्वादन से उत्पन्न विषरूप मानसिक तनाव और अध्यात्मिक अमृत से दूरी के बीच वह झूलते हैं।  उन्हें यह समझ में नहीं आता कि वह कैसे सुख अनुभव करें।  जीवन के सुख का सारा सामान जुटाने के बावजूद उन्हें सुख अनुभव नहीं होता। ऐसे लोगों को एकांत चिंत्तन अवश्य करना चाहिये तब उनकी ज्ञानेंद्रियां स्वतः जागत हो जाती हैं। हमारे देश में को कथायें, सत्संग और धार्मिक त्यौहार इतने होते हैं कि लोगों में श्रवण, पठन पाठन, तथा दृश्यों से उनमें ज्ञान की धारा स्वाभाविक रूप से प्रभावित होती है।  अनेक लोग मंदिरों में जाकर भी अपनी आस्था को जीवंत बनाये रखने का प्रयास करते हैं जिससे उनके अंदर अध्यात्मिक तत्व तो बना रहता है फिर भी उन्हें शांति नहीं मिलती है। आजकल तो योग साधना का प्रचार भी हो रहा है जिसके अभ्यास से लोगों में देह तथा मन में पवित्र आती है।  फिर भी ज्ञान के अभाव का दृश्य दिखाई देता है।

श्री गुरू ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि

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इहु तनु धरती बीजु करमा करो सलिल आपाउ सारिंगपाणी।

मन किरसाणु हरि रिदै जंमाइ लै इउ पावसि पटु निरवाणी।।

            हिन्दी में भावार्थ-हमारी मनुष्य देह धरती के समान है, एक किसान की तरह इसमें  शुभ भाव के बीज बोकर परमात्मा के नाम स्मरण रूपी पानी से खेती की जाये तो जीवन धन्य हो जाता है।

विखै विकार दूसट किरखा करे इन तजि आतमै होइ धिआई।

जपु तपु संजमु होहि जब राखे कमलु विबसै मधु अजमाई।।

            हिन्दी में भावार्थ-विषय विकार तो ऐसे पौद्ये जिनमें मन लगाना व्यर्थ है उन्हें उखाड़कर जप, तप और संयम के पौद्ये हृदय में कमल की भाव रूप वृक्ष उगायें जिनसे मधुर रस टपकता है।

            इसका कारण यह है कि सामान्य जनों में उस तत्वज्ञान को धारण करने की शक्ति का अभाव है जो केवल ध्याना, धारणा और समाधि से आती है।  परमात्मा की हार्दिक भक्ति से लाभ होता है पर हृदय और आत्मा का मिलन किस तरह हो, यह ज्ञान बहुत कम लोगों हैं। किसी की कहने या स्वयं के सोचने से हार्दिक भक्ति नहीं हो पाती।  इसके लिये यह आवश्यक है कि यह बात समझ ली जाये कि संसार के विषयों से हम सदैव संपर्क नहीं रख सकते।  हमें जीवन में जो सुख सुविधायें मिलती हैं वह हमारा अध्यात्मिक लक्ष्य नहीं होती। अनेक लोगों ने आकर्षक भवन बनाये हैं।  उनमें पेड़ पौद्ये और बाग लगे होने के साथ ही फव्वारी भी होते हैं।  अगर कोई लघु श्रेणी का व्यक्ति देखे तो आह भरकर रह जाये पर इस सच को सभी जानते हैं कि ढेर सारी भौतिक उपलब्धियों के बावजूद संपन्न लोग सुख का अनुभव नहीं कर पाते।

            इसका एक ही तरीका है कि अध्यात्मिक अभ्यास के समय सांसरिक विषयों के प्रति एकदम निर्लिप्पता का भाव हृदय में लाया लाये।  कहने में सहज लगने वाली बात प्रारंभ में अत्यंत कठिन लगती है मगर निरंतर ध्यान की प्रक्रिया अपनाने के बाद धीमे धीमे ऐसा अभ्यास हो जाता है कि मनुष्य का मन भोग की बजाय योग की तरफ इस तरह प्रवृत्त होता है कि उसका जीवन चरित्र ही बदल जाता है।  मूल बात संकल्प की है। मन में कहीं बाहर से लाकर बोया नहीं जा सकता।  हम अगर निरंतर बाहरी विषयों की तरफ ध्यान लगायेंगे तो मन में भोग के बीज पैदा होंगे। वहां से मन हटाते रहे तो स्वतः ही अंतर्मन से योग के बीज मन में आयेंगे।  इसे हम ज्ञान और विज्ञान का संयुक्त सिद्धांत भी कह सकते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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स्वर्ण मंदिर अमृतसर की यात्रा का स्वर्णिम अनुभव-हिन्दी चिंत्तन लेख


            हमने  11 अक्टुबर से 13 अक्टुबर 2014 शनिवार से मंगलवार तक अमृतसर के स्वर्ण मंदिर-जिसे हरमिंदर साहब भी कहा जाता है-पर जो समय बिताया वह वास्तव में स्वर्णिम स्मृति की तरह हमारे मन मस्तिष्क में जीवन भर रहेगा। वहां रहने के लिये गुरुद्वारा प्रबंध समिति के कार्यकर्ता ने हमें श्री बाबा दीपसिंह बाबा निवास प्रदान किया।  वह हरमिंदर साहिब से करीब एक किलोमीटर दूर होगा। उसे ढूंढने में हमें परेशान हुई। ऐसा लगा कि हमें असहयोग के मार्ग पर धकेला गया पर वहां कमरे में तीन दिन रहे तब लगा कि जिन महानुभाव ने हमें वहां भेजा उनकी हृदय में हमारे लिये सामान्य पर पवित्र भाव ही था।

            जिस तरह की सफाई, पेयजल तथा अन्य व्यवस्थायें वहां देखने को मिलीं वह रोमांचित करने वाली थी।  उस निवास के सामने ही श्रीबाबादीपसिंह गुरुद्वारा था जहां हमने हरमिंदर साहिब के बाद सबसे अधिक भीड़ देखी।  वहां लंगर और चाय की व्यवस्था भी थी।  हरमिंदर साहिब में तो लंगर की व्यवस्था इस तरह चल रही थी जैसे कि कारखाना या कोई उद्योग चलता हो।  बर्तनों के आपस में टकराने से निकले स्वर ऐसे आभास दे रहे थे कहीं कोई मशील चल रही हो।  हरमिंदर साहिब के सामने ही रामदास सराय में पर्यटकों के लिये अपनी देह स्वच्छ करने की व्यवस्था थी। वहां सेवादार इस तरह सक्रिय थे जैसे कि किसी कारखाने में कार्यरत हों। उसकी निरंतर सफाई इस तरह जारी थी जैसे कि वहां व्यवसायिक स्थान हो।

            swarnसभी स्थानों पर लंगरों  नियमित सेवादार तो नियुक्त थे पर ऐसे लोग भी कार्य कर रहे थे जिनके हृदय में गुरुभक्ति कूट कूट कर भरी रहती है। लंगर में अनेक आम तीर्थप्रेमी भी बर्तन आदि साफ करने का काम कर अपने हृदय के सेवा भाव का परिचय दे रहे थे।  सिख गुरुओं ने परोपकार तथा श्रम को अत्यंत महत्व दिया है।  हमारा मानना तो यह है कि आज के युग में श्रीमद्भागवत गीता तथा गुरुग्रंथ साहिब के संदेशों में जिस तरह अकुशल शारीरिक श्रम को सम्मान योग्य माना गया है उस हृदय में धारण करना ही चाहिये।

गुरु ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि

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जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ निरमलु चीतु।

            हिन्दी में भावार्थ-जिस व्यक्ति में दूसरे मनुष्य का रक्त पीने की आदत है उसका मन कभी निर्मल हो ही नहीं सकता।

आप गवाए सेवा करे ता किछ पाए मान

            हिन्दी में भावार्थ-अपना अहंकार त्याग कर सेवा करें तभी कुछ सम्मान मिल सकता है।

            कहा जाता है कि सिख धर्म का प्रादुर्भाव ही हिन्दू संस्कृति या धर्म की रक्षा के लिये हुआ।  यह अलग बात है कि आधुनिक  राजनीतिक द्वंद्वों के चलते  हिन्दू और सिख धर्म को प्रथक प्रथक बताने का प्रयास हो रहा है।  हरमिंदर साहिब में जाने पर यह पता चलता है कि वहां हर धर्म, वर्ण और समाज का धर्म प्रेमी अत्यंत श्रद्धभाव  हृदय में स्थापित कर आता है।  भारत ही नहीं वरन् पूरे विश्व में सिख धर्म गुरुओं के प्रति सकारात्मक रुचि है।  आज जब भौतिक विलासिता के प्रभाव में शारीरिक श्रम के अभाव हो गया है तब हम मनुष्यों में बढ़ते मानसिक रोगों का दुष्प्रभाव भी देख सकते हैं।  इतना ही नहीं धन, पद और प्रतिष्ठा का संग्रह कर चुके लोगों में जो अहंकार भाव दिखता है उसकी वजह से समाज में वैमनस्य भी बढ़ा है।  हालांकि लोगों का धर्म के प्रति झुकाव भी बढ़ा दिखता है पर सच यह है कि धार्मिक स्थानों पर पर्यटन की दृष्टि से मन बहलाने में ही उनकी रुचि अधिक दिखती है।  गुरुओं के संदेशों पर अमल करने वाले कितने हैं यह अलग से चर्चा का विषय है पर एक बात निश्चित है कि गुरु सेवा में निरंतर निष्काम भाव से लगे लोगों गुरुग्रंथ साहिब के संदेशों के प्रचार में सक्रियता प्रशंसनीय है।  इसके अलावा जो परोपकार में लगे हैं तो उन्हें ज्ञानी ही कहा जाना चाहिये।swart2

            एक योग साधक तथा ज्ञान प्रिय होने के नाते अमृतसर की यह यात्रा हमारे लिये अत्यंत रुचिकर रही। हमने जो देखा उस पर लगातार लिखते ही रहेंगे। हम जैसे लोगों के लिये भौतिक स्वर्ण से अधिक ज्ञान का स्वर्ण महत्वपूर्ण रहता है जो  ऐसे स्थानों पर जाने पर स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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धन तेरस के दिन मन का प्रसन्न रहना जरूरी-दीपावली पर हिन्दी चिंत्तन लेख


            आज पूरे देश में धनतेरस का पर्व मनाया जा रहा है। भारतीय धर्मों को मानने वाले लोग आज के दिन  दीपावली की पूजा के लिये सामान आदि खरीदते हैं।  इस दिन बाज़ार में भीड़ रहती है तो यह भी सच है कि स्टील, पीतल, सोने तथा अन्य धातुओं से निर्मित सामान भी अन्य दिनों की अपेक्षा अत्यंत महंगे हो जाते है। यही  कारण  है कि वर्ष के किसी भी दिन की अपेक्षा धनतेरस के दिन सामान्य व्यापार में सर्वाधिक आय वाला दिन होता है।  खेरिज व्यापार में सामान्य दिनों की अपेक्षा चार से दस गुना का विक्रय होता है। यह अलग बात है कि दिपावली गुजरते हुए तत्काल मंदी भी आ जाती है।

            समय के साथ महंगाई बढ़ी तो धीमे धीमे धनतेरस के दिन खरीददारी एक औपचारिकता बन कर रह गयी है।  अर्थशास्त्र की दृष्टि से भारत में धन का असमान वितरण एक बहुत भारी समस्या है, यह हमने आज से तीस बरस पहले पढ़ा था।  अर्थशास्त्र के विद्यार्थी को समाज का भी ज्ञान रखना चाहिये और इस आधार पर हम कह सकते हैं कि भले ही हम शहरी क्षेत्रों में धनी लोगों की संख्या बढ़ने का दृश्य देखकर प्रसन्न हों पर सच यह है कि उसके अनुपात में अल्प धनियों की संख्या बढ़ी है।  जहां धातुओं के बड़े सामानों को खरीदने वाले दिखते हैं वहां उनका दाम पूछकर उनसे मुंह फेरने वालों की संख्या ज्यादा होती है। अनेक लोग तो स्टील की टंकी का दाम पूछकर एक चम्मच खरीद कर ही धनतेरस मना लेते हैं। जहां कथित आर्थिक विकास ने अनेक ऐसे लोगों को धनवान बना दिया कि जिनके पास स्टील की कटोरी खरीदने की ताकत नहीं थी अपनी वर्तमान भारी भरकम आये के सामने सोने का कड़ा भी सस्ता लगता है तो वहीं अनेक लोग जो मध्यम वर्ग के थे अब स्वयं को निम्न वर्ग का अनुभव करने लगे हैं। जिनके लिये धनतेरस का दिन औपचारिकता से ही बीतता है।

            इस तरह की चर्चा राजसी विषय है मगर हम  सात्विक दृष्टि से विचार करें तो  इस संसार में सहज जीवन के लिये हृदय में प्रसन्नता होना ही सच्चा सुख है।  धन कितना है, यह महत्वपूर्ण नहीं है हम उसका उपयोग कितना करते हैं यह बात विचारणीय है।  तिजोरियों में पड़ा या बैंक खातों में दर्ज धन मन को प्रसन्न कर सकता है पर उसका उपयोग न करने से वह एक कूड़े के समान है।  दूसरी बात यह कि धन अपने उपयोग के लिये खर्च करने से क्षणिक आनंद मिलता है पर जरूरतमंद की सहायता निष्काम भाव से करने से हृदय में जो उच्च भाव आता है उसका कोई मोल नहीं है।  दूसरी बात यह कि कि धन और पानी एक समान है।  रुके रहे तो सड़ जाते हैं या फिर निकलने का मार्ग बनाते हैं।  धन आता है तो उसके जाने का मार्ग भी बनाते रहना चाहिये वरना वह सड़े हुए पानी की तरह स्वयं के लिये भी कष्टदायक हो जाता है। इंसान जब स्वेच्छा से धन नहीं निकालता तो प्रकृतिक कारण उसे इसके लिये विवश करते हैं कि वह अपनी जेब खोले।

            अपने धन का उपयोग का स्वयं की आवश्यकताओं के लिये सभी करते हैं पर जो दूसरे की आवश्यकता पर उसे देते हैं वह दान या सहायता कहलाता है।  जिन लोगों को धनतेरस के दिन कमाई होती है वह स्वयं के लिये कोई खरीददारी नहीं कर पाते।  मिट्टी के दीपक, फटाखे तथा पूजा का सामान बेचने के लिये फेरी लगाने वाले तो इस प्रयास में रहते हैं कि सामान्य दिनों की अपेंक्षा उनको अधिक मजदूरी मिल जाये तो शायद अपनी अतिरिक्त आवश्यकतायें पूरी हों जायें।  उनकी अपेक्षायें कितनी पूरी होती हैं यह अलग बात है पर निजी क्षेत्र में मजदूरी करने वालों के लिये भी दीपावली का पर्व आशा लेकर आता है।  इस तरह धनतेरस और दीपावली सभी वर्गों के लिये खरीद और बेचने का अवसर समान रूप से ले आता है।

            इस समय मौसम समशीतोष्ण हो जाता है जिससे शीतल हवायें बहते हुए देह और हृदय को प्रसन्न करती हैं। यही तत्व दीपावली को अधिक आनंददायक बना देता है।  हम अपने सभी मित्र ब्लॉग लेखक मित्रों तथा पाठकों हार्दिक बधाई। जय श्रीराम, जय श्रीकृष्ण।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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भारत मे बेहतर स्वास्थ्य के लिये स्वच्छता अत्यंत आवश्यक-2 अक्टूबर महात्मा गांधी जयंती पर भारत स्वच्छता अभियान पर विशेष हिन्दी लेख


            2 अक्टूबर से महात्मा गांधी जयंती पर भारत स्वच्छता अभियान प्रारंभ हो रहा है। भौतिकतावाद में डूबे भोगी भारतीय समाज में कथित सभ्रांत वर्ग के  बहुत कम लोग स्वच्छता का मतलब समझते होंगे यह बात तय हैं। सच तो यह है कि जिन सामान्य वर्ग के लोगों  यह वर्ग ग्रामीण, अशिक्षित अथवा गरीब कहकर हिकारत से देखता है वह इन्हीं की फैलाई गंदगी का शिकार है। बहुत समय से यह चर्चा चलती रही है कि पर्यटन स्थलों पर अपने मन की भूख शांत करने गये पेट भरने के लिये साथ लेकर गये बंद सामान के अवशेष वहीं छोड़ कर चले आते हैं जिनमें प्लस्टिक ज्यादा होती है।  प्लास्टिक प्रकृति की शत्रु है यह सभी जानते हैं।  हम छोटे बड़े शहरों में भी देखते हैं जहां सड़कें और उद्यान भी ऐसे मनोंरजन प्रिय लोगों की क्रूर उदासीनता की वजह से गंदे दिखाई देते हैं। भारत में तीन तरह की गंदगी फैलाने वाले लोग दिखाई देते हैं।  एक तो वह जो गंदगी में रहने के आदी हैं और अपने आसपास ही सफाई नहंी करते। दूसरे इतने सफाई पसंद तो होते हैं जो अपने आसपास का कचड़ा दूसरे के घर के पास या सामने सरका कर कर्तव्य निभाते हैं। तीसरे वह हैं जो सार्वजनिक स्थान पर कचरा करना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।

            यातायात नियमों में अनुसार हेल्मेट पहनकर चलना जरूरी है। हमने देखा है जब सख्ती होती है तब लोग हेल्मेट मजबूरी में पहनकर जाते हैं।  अनेक तो ऐसे हैं जो गाड़ी पर हेल्मेट लटकाकर चलते हैं यह सोचकर कि कहीं पहरेदार सक्रिय देखे तो पहन लेंगे।  अब यहां यह सवाल उठता है कि गाड़ी पर हेल्मेट पहनकर चलना जरूरी क्यों माना गया है? आदमी की सुरक्षा के लिये बनाये गये हेल्मेट को लोग बोझ मानते हैं।  आंकड़े गवाह है कि दुपहिया वाहन को चलाते हुए जितने चालक  सिर की चोट के कारण  हताहत होते हैं उतना किसी अन्य अंग पर प्रहार से नहीं होते।

            चालान के भय से लोग हेल्मेट पहनते हैं। भारत के सार्वजनिक स्थानों पर गदंगी फैलाने वालों पर भी अगर इसी तरह चालान होने लगें तो मान लीजिये कहीं कचरा दिखाई नहीं देगा।  इसके लिये सार्वजनिक स्थानों पर उपस्थित आम लोगों को ही यह अधिक दिया जाना चाहिये कि वह किसी कचरा फैंकने वाले का वीडियो या फोटो निकालकर सक्षम अधिकारी के सामने पेश कर दें जो कि इनसे चालान वसूल सके।  हम में से अनेक लोग जानते हैं कि पहले हर जगह बीड़ी या सिगरेट पीने वाले मिल जाते थे पर जब से दंड का प्रावधान हुआ यह समस्या कम हो गयी है।  महत्वपूर्ण बात यह कि अब जिन लोगों से इसका धुंआ सहन नहीं होता वह पीने वाले को टोक देते हैं।  अनेक जगह बस और रेल में हमने देखा कि  लोगों के विरोध करने पर धुम्रपान करने वाले ने अपनी बीड़ी या सिगरेट फैंक दी।

            कहने का अभिप्राय यह है कि इस तरह के सफाई अभियान की सफलता के लिये यह भी जरूरी है कि गंदगी फैलाने वाले पर दंड लगाना ही चाहिये।  अनेक लोग प्रार्थना या सुझाव पर ध्यान नहीं देते पर दंड का भय उन्हें बुरा काम करने नहीं देता।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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नाकाम आशिक कलम छोड़ हथियार उठाते हैं-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


आशिकों के कातिल बन जाने की खबर रोज आती है,

टीवी पर विज्ञापनों के बीच सनसनी छा जाती है।

कहें दीपक बापू दिल कांच की तरह टूट कर नहीं बिखरते

अब भड़ास अब गोली की तरह चलकर आग बरसाती है।

——-

आशिक नाकाम होने पर अब मायूस गीत नहीं गाते है,

कहीं गोली दागते कहीं जाकर चाकू चलाते हैं।

कहें दीपक बापू इश्कबाज हो गये इंकलाबी

नाकाम आशिक कलम छोड़कर  हथियार चलाते हैं।

———-

आशिकों ने प्रेमपत्र लिखने के लिये कलम उठाना छोड़ दिया है,

एक हाथ का मोबाइल दूसरे का चाकू से नाता जोड़ दिया है,

कहें दीपक बापू इश्क पर क्या कविता और कहानी लिखें,

टीवी पर चलती खबरों ने उसे सनसनी की तरफ मोड़ दिया है।

————–

 

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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भर्तृहरि नीति शतक-अपने स्वार्थ हो तो भी गजराज की तरह व्यवहार करें


      इस संसार में भूख सभी को लगती है पर भोजन पाने और करने के सभी के तरीके अलग हैं।  अपना कमाकर खाने वाले लोग जहां जीवन में आत्मविश्वास से भरे होते हैं वही दूसरे से कर्ज, भीख अथवा मदद मांगने वाले लोग हमेशा ही हृदय में दीनता का भाव लेकर जीते हैं। कहा जाता है कि जैसा खायें अन्न वैसा ही होता है मन। इसका आशय अन्न के दानों का स्वरूप ही नहीं वरन् उसके लिये अर्जित धन से साधन से भी जोड़ना चाहिये।  यह भी कहा जाता है कि परमात्मा पेट देने से ही पहले अन्न के दानों पर खाने वाले का नाम लिख देता है। यह ज्ञान रखने वाले लोग आत्मविश्वास से जीवन में अपना हर काम करते हैं। इसके विपरीत जो मन में कर्ता का भाव लिये होते हैं उन्हें परमात्मा की इस सांसरिक कृति पर यकीन नहीं होता इसलिये अपनी आवश्यकताओं के लिये वह अतिरिक्त सक्रियता दिखाते हैं। उनके मस्तिष्क में चिंताओं का ढेर भरा होता है।  जिसके चलते न केवल वह दैहिक बल्कि मानसिक रूप से भी अस्वस्थ हो जाते हैं।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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ङ्गल चालनमधरश्चरणावपातं भूमी निपत्य वदनोदर दर्शनं च।

श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्वते।।

     हिन्दी में भावार्थ-कुत्ता भोजन देने वाले के आगे पूंछ हिलाकर उसके सामने मुंह वह पेट दिखाते हुए लोटपोट उसके  अपनी दीनता प्रदर्शित करता है जबकि हाथी उसे गंभीरता से देखता है और कई बार मनाने पर ही भोजन ग्रहण करता है।

कृमिकुलचित्तं लालक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितमु निरुपमरसं प्रीत्या खादनन्नरास्थि निरामिषम्।

सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्यं विलोक्य न शंकते न हि गणवति क्षुद्रो जन्तु पिरग्रहफलगुनाम्।।

हिन्दी में भावार्थ-कीड़ों से युक्त, रसहीन, दुर्गंध से भरी, स्वादरहित, घृणित हड्डी को पकड़ कर बहुत उत्साह से चबाता है। उस सयम अपने पास आये देवता की भी उसे परवाह नहीं होती।

      हम देख रहे हैं कि हमारा परंपरागत भारतीय समाज पूरी तरह से बिखर चुका है।  यह कहा जरूर जाता है कि हम एक संगठित भारतीय समाज के सदस्य हैं पर  सभी को पता है कि यह दावा एकदम खोखला है।  सभी दावा करते हैं कि वह किन्हीं जातीय, धार्मिक, भाषाई अथवा विशिष्ट समाज के सदस्य होने के कारण सुरक्षित अनुभव करते हैं पर सच यह है किसी को हृदय से अपनी ही बात पर ही यकीन नहीं होता है।  पाश्चात्य वस्तुओं को अपनी दैनिक तथा सांस्कारिक आवश्यकताओं के मूल से जोड़ने वाले हमारे  भारतीय समाज का मनोबल गिरा हुआ है।  हम भ्रष्टाचार तथा बेईमानी के विरुद्ध प्रत्यक्ष रूप से अभियान छेड़ने की बात तो करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि इसमें लिप्त लोग इसी भारतीय समाज के सदस्य हैं।  भ्रष्टाचार और बेईमानी में लगे लोगों को दूसरे का अपराध तो दिखता है पर अपना धन का लोभ इस आशंका के मारे नहीं छोड़ पाते कि अगर संपन्नता नहीं है तो समाज उनको पूछेगा भी नहीं-यही नहीं वह लोग अपने बेईमानी को मेहनत की कमाई मानने का तर्क स्वयं को देकर ही समझाते हैं।

      कहने का अभिप्राय यह है कि हम दूसरे की तरफ न देखें वरन् अपने व्यवहार, विचार तथा व्यक्तित्व पर दृष्टिपात करें।  अगर हम दृढ़ता पूर्वक सत्य का मार्ग लेंगे तो कभी जीवन में कुंठा का अनुभव नहीं होगा।  जो व्यक्ति सिद्धांत पर दृढ़ रहता है उसके मुख मंडल पर तेज स्वतः प्रकट होता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

 

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

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पर्दे पर रोज नयी खबर चाहिये-हिन्दी व्यंग्य कविता


लोगों के सामने पर्दे चलने के लिये रोज नयी खबर चाहिये,

प्रचार प्रबंधक ढूंढते हैं बयानवीन इस पर नाराजगी नहीं जताईये।

सनसनीखेज शब्द हों तो चर्चा और बहस की सामग्री जुटाते हैं,

बीच में चलते सामानों के विज्ञापन जिन पर लोग दिल लुटाते हैं,

चमकाये जाते हैं वह चेहरे जो देते हैं किसी का नाम लेकर गालियां,

उस पर जारी बहस में कोई वक्ता होता नाराज कोई बजाता तालियां,

पर्दे पर खबरें ताजा खबर के लिये किसी को भी बनाते नायक,

बासी होते ही उसके चेहरे में ताजगी भरते बताकर खलनायक,

कहें दीपक बापू बयानवीरों और प्रचार प्रबंधकों खेल तयशुदा है

इधर से सुनिये उधर से निकालिये अपना दिल न सताईये।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

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