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श्रीमद्भागवत गीता का संदेश आज भी प्रासंगिक-श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष हिन्दी लेख


    आज पूरे भारत में भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाई जा रही है।  आज के दिन धार्मिक रुचि वाले लोग मंदिरों में जाकर अपने इष्ट की पूजा अर्चना करते हैं।  कई जगह गोवर्धन मंदिर भी होते हैं जहां  अनेक श्रद्धालु परिक्रमा करते हैं।  भगवान श्रीकृष्ण का रूप ऐसा ही है कि उनकी चारों प्रकार के भक्त-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी-आराधना करते हैं।  सामान्य जीवन व्यतीत करने वाला हो या योग साधक भगवान श्रीकृष्ण से प्रेरणा ग्रहण करता है।

जहां सकाम धार्मिक भक्त मंदिरों में जाकर अपने हृदय की भावनाओं में प्रकाश की अनुभूति करते हैं वही योग साधक तथा गीता पाठक भगवान श्रीकृष्ण के महाभारतकाल में दिये गये संदेश पर चिंत्तन करने का लीन होने का प्रयास करते हैं।  सच बात तो यह है कि भगवान श्रीकृष्ण का योगेश्वर का रूप अत्यंत रहस्यमय रहा हैं।  यह अलग बात है कि अगर तत्वज्ञान का श्रद्धा के साथ अध्ययन किया जाये तो उसे सामान्य बुद्धि में सहजता के साथ उसकी अनुभूति की जा सकती है। श्रीमद्भागवत गीता में उनका संदेश इस संसार की अनमोल विरासत है।  उसमें ज्ञान और विज्ञान के ऐसे सू.त्र हैं जिनको समझा जाये तो संसार में सार्थक और निरर्थक विषयों का अंतर स्पष्ट रूप से सामने आ जाता है। अगर श्रद्धा के साथ उसका अध्ययन किया जाये तो राजनीति, अर्थ, काम, समाज तथा स्वास्थ्य से संबंधित उसमें जो ज्ञान है उसका विस्तार अपने बुद्धि से ही किया जा सकता।  फिर बड़े शास्त्र पढ़ने से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।

वैसे तो भगवान श्रीकृष्ण के अनेक प्रसंग बताये जाते हैं पर महाभारत युद्ध के समय श्री अर्जुन को दिया गया उनका ज्ञान अत्यंत प्रसिद्ध है।  इससे यह पता चलता है कि उन्होंने अपने जीवन काल में केवल बाललीलाऐं या क्रीड़ायें ही नहीं की वरन् तत्वज्ञान की ऐसी स्थापना की जिसे आज भी प्रासांगिक माना जाता है।

हैरानी तो भारतीय समाज को देखकर होती है।  आज के भौतिक जाल में फंसा भारतीय समाज भक्ति के संक्षिप्त मार्ग ढूंढने लगा है।  ज्ञान के लिये अध्ययन से अधिक श्रवण पर निर्भर हो गया है।  उससे अधिक बुरी बात तो यह है कि ज्ञान संदेश नारों की तरह दिया जाता है। मोह मत पालो, लोभ मत करो, काम और क्रोध से बचो आदि आदि।  इनसे कैसे बचें? इसका कोई मार्ग नहीं बताता।  सब मानते हैं कि योगासन, ध्यान, प्राणायाम तथा संयम जीवन में श्रेष्ठ मार्ग की तरफ ले जाते हैं मगर जीवन में उस पर चलते हैं कितने लोग हैं? उंगलियों पर गिनती करने लायक संख्या उन ज्ञानियों की होती है और उन्हें समाज से प्रथक मानकर उपेक्षित कर दिया जाता है।  जीवन मे आनंद का अर्थ आध्यात्मिक शांति नहीं वरन् दूसरे को अपनी भौतिक उपलब्धि से प्रभावित करना मान लिया गया है।  जहां भौतिक साधनों की प्राप्ति का शोर होता है वहां पहुंचकर आदमी इस बात का प्रयास करता है कि उसकी आवाज सबसे अधिक बुलंद हो और न होने पर क्रोध के साथ निराशा का शिकार हो जाता है।  जहां आदमी को शंाति से बैठने की सुविधा मिलती है वहां यह सोचता है कि वह कैसे अपनी आवाज को दूसरे की अपेक्षा अधिक शोर करने वाली बनाये।  इसके विपरीत योग साधकों और गीता पाठकों के लिये सांसरिक विषय त्याज्य नहीं होते वरन् वह उनके साथ अपनी शर्तो पर जुड़ते हैं।  इसलिये सामान्य मनुष्यों की बजाय वह शांति और आनंद से जीते हैं।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर समस्त ब्लॉग लेखक मित्रों तथा पाठकों को बधाई। यह दिन उनको सांसरिक विषयों में सफलता के साथ  आध्यामिक ज्ञान में रूचि प्रदान करें।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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गुरु पूर्णिमा पर विशेष लेख-शिष्य को जीवन का तत्वज्ञान देने वाले गुरु ही सम्मान के अधिकारी (guru shishya aur tatvgyan-guru purnima par vishesh hindi lekh)


        गुरू पूर्णिमा का दिन भारत में धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में गुरु की सेवा का महत्व प्रतिपादित किया है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के ज्ञान का व्यवसायिक रूप से प्रवचन करने वाले अनेक गुरु इस संदेश का महत्व अपने अपने ढंग से बयान करते हुए अपनी छवि गुरु जैसी बना लेते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में गुरू के स्वरूप की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है इसलिये इसका उपयोग चाहे जैसे किया जा सकता है पर जो लोग श्रीमद्भागवत के अक्षरक्षः पालन करने के समर्थक हैं वह गुरू के अधिक व्यापक स्वरूप की बजाय उसके सूक्ष्म अर्थ पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। उनका स्पष्टतः मानना है कि असली गुरु वही है जो अपने शिष्य को तत्वज्ञान से अवगत कराने के साथ ही उसमें धारित या स्थापित करने का सामर्थ्य रखता हो।
          श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान केवल उसके अध्ययन से सभी को नहीं हो सकता और उनको इसके लिये किसी न किसी गुरु की आवश्यकता होगी यह बात श्रीकृष्ण अच्छी तरह से जानते थे। देश में जो आज की शैक्षणिक स्थिति है उससे अधिक बदतर तो महाभारत काल में थी। सभी लोग अक्षर ज्ञान से अवगत नहीं थे और उनको धार्मिक और अध्यात्मिक ज्ञान में वर्णित सामग्री के लिये भाषा ज्ञान रखने वाले लोगों पर निर्भर रहना पड़ता था तब दैहिक गुरु की आवश्यकता बताई गयी। इसी कारण से श्रीमद्भागवत गीता में गुरु के स्वरूप के महत्व बताया गया। महभारत युद्ध में श्रीमद्भागवत गीता का संदेश देते भगवान श्रीकृष्ण के उस समय श्री अर्जुन के सखा न होकर गुरु बन गये थे।
       श्रीमद्भागवत गीता एक अनमोल ग्रंथ है। ऐसा कोई भी पेशेवर या गैर पेशेवर अध्यात्मवेता नहीं है जो उसके स्वर्णिम भंडार रूपी तत्वज्ञान से अपना मोह दूर रख सके। यह अलग बात है कि पेशेवर संत गुरु का अर्थ अत्ंयत व्यापक कर जाते हैं। वह उसमें माता पिता, दादा दादी और नाना नानी भी जोड़ देते हैं ताकि वह अपने शिष्यों के साथ उनके परिवार में भी पैठ बना सकें। जबकि श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों से ऐसा आभास नहीं होता। वहां गुरु से आशय केवल तत्वज्ञान देने वाले परिवार से बाहर के गुरु से ही है। उसकी सेवा की बात करना स्वाभाविक भी हैै। वह भी उस समय जब उससे शिक्षा प्राप्त की जा रही हो। उस समय गुरुकुलोंु में शिक्षा होती थी और सेवा एक आवश्यकता थी। न कि गुरुजी के दिये ज्ञान को धारण किये बिना हर वर्ष उसके यहां मत्था टेककर अपना जीवन धन्य समझना।
         कुछ पेशेवर संत माता पिता की सेवा का उपदेश देकर भीड़ की वाहवाही लूटते हैं क्योंकि उनके भक्तों में अनेक माता पिता भी होते हैं। ऐसे में कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि क्या श्रीमद्भागवत गीता में माता पिता के सेवा के लिये कोई स्पष्टतः उल्लेख नहीं हैं तो उन्हें बता दें कि भगवान श्रीकृष्ण ने तो गृहस्थ जीवन का त्याग करने की बजाय उसे निभाने की बात कही है। हमारे माता पिता हमारी गृहस्थी का ही भाग होते हैं न कि उनसे अलग हमारा और हमसे अलग उनका कोई अस्तित्व होता है। हम उनकी गृहस्थी का विस्तार हैं तो वह हमारी गृहस्थी के शीर्ष होते हैं। जो व्यक्ति गृहस्थ धर्म का पालन करता है वह अपनी गृहस्थी में शामिल हर सदस्य के प्रति अपना कर्तव्य निभाता है। इस दैहिक संसार में कोई भी आदमी अपने गृहस्थ कर्म से विमुख नहीं हो सकता इसलिये गुरु के स्वरूप का विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है।
          माता पिता तो अपनी संतान के संसार का ही ज्ञान देते हैं जबकि गुरु इस प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित करने वाला ज्ञान देकर अपने शिष्य को इस जीवन को जीने का तरीका सिखाता है जिसके आगे सांसरिक ज्ञान तुच्छ साबित होता है। इसके विपरीत हम देख रहे है कि धर्म से जुड़े पेशेवर और गैरपेशेवर प्रवचन कर्ता अपने श्रोताओं और शिष्यों को सांसरिकता का पाठ ही अवश्य पढ़ाते हैं। उनका लक्ष्य समाज में चेतना लाने की बजाय उसे बौद्धिक विलासी बनाकर उसका दोहन करना होता है। स्थिति यह है कि इनमें से कई शिखर पर पहुंच कर अपने शिष्य और श्रोता समुदाय की संख्या का प्रभाव दिखाने की कोशिश सार्वजनिक रूप से करते हैं। ऐसे लोग श्रीमद्भागवत गीता जिसमें जिसमें निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन दया का पाठ पढ़ाया है उसका वाचन कर लोगों में विषयों के प्रति आसक्ति को तीव्रतर करने के लिये करते हैं।
        इसका छोटा उदाहरण यह है कि श्रीमद्भागवत गीता के पहले अध्याय में अर्जुन ने युद्ध से विरक्त होकर जब हथियार डाले और श्रीकृष्ण को भविष्य के दुष्परिणामों के बारे में बताया तो उसमें उसने यह भी कहा था कि जब दोनों तरफ के योद्धा अपने परिवार के समस्य पुरुष सदस्यों के साथ मारे जायेंगे तो फिर उनका श्राद्ध और तर्पण कौन करेगा? उन्होंने अन्य आसन्न संकटों की भी चर्चा की। भगवान श्री कृष्ण ने दूसरे अध्याय में उसके इस तरह के सारे संकटों को वहम बताया। वहां भगवान श्रीकृष्ण ने उसे बताया कि यह सारे ढकोसले हैं। श्रीमद्भागवत गीता में किसी भी कर्मकांड का समर्थन नहीं किया गया। इसी श्रीगीता के आधार पर बोलने वाले गुरु अपने शिष्यों को श्राद्ध तथा पितृपक्ष का महत्व बताते हुए उसे निभाने की बात करते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण और भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र की यह विशेषता है कि दोनेां ही गुरु महिमा का बखान करते हैं पर एक बार वह अपने कर्मक्षेत्र में उतरे तो पलट कर अपने गुरु के पास नहीं गये। स्पष्टतः उनका आशय केवल शिक्षा के दौरान ही गुरु की सेवा से रहा है। उनके गुरुओं ने भी कभी उनका संपूर्ण जीवन तक दोहन नहीं किया। तत्वज्ञान देने वाला गुरु पूर्ण रूप से शिष्य को शिक्षित कर फिर उससे भी विरक्त हो जाता है। न वह शिष्य में मोह रखता है न वह उससे ऐसी अपेक्षा करता है। यही त्याग गुरु की सबसे बड़ी शक्ति है और आज हम अपने अध्यात्मिक ज्ञान के विश्व में सबसे अधिक संपन्न देखते हैं तो वह केवल इन्हीं गुरुओं की तपस्या का परिणाम है।
      लोग अक्सर कहते हैं कि सच्चे गुरु मिलते ही कहां है़? दरअसल वह इस बात को नहीं समझते कि पुराने समय में शिक्षा के अभाव में गुरुओं की आवकश्यता थी पर आजकल तो अक्षर ज्ञान तो करीब करीब सभी के पास है। जीवन में गुरु होना चाहिए पर न हो तो फिर श्रीमद्भागवत गीता को ही गुरू मानकर शिष्य भाव से उसका अध्ययन करना चाहिये जो अब सभी भाषाओं में उपलबध है। भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन किया जाये तो ज्ञान चक्षु स्वतः खुल जायेंगे। फिर कहीं सत्संग और चर्चा करें तो अपने ज्ञान को प्रमाणिक भी बना सकते हैं। मुख्य बात संकल्प की है। हमारा स्वय का संसार हमारे सामने अपने ही संकल्प से वैसे ही स्थित होता है जैसे परमात्मा के संकल्प से स्थित है। अगर द्रोणाचार्य जैसे गुरु नहीं मिलते तो एकलव्य जैसा शिष्य तो बना ही जा सकता है।

इस अवसर पर अपने ब्लाग लेख्कों और पाठकों को बधाई।
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लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
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रहीम के दोहे-समय के अनुसार बदलाव आता है (rahim ke dohe-samay aur badlav)



     मनुष्य जब संकट में होता है तब उसका धैर्य जवाब देता है और लगता है कि वह कभी खत्म होने वाला नहीं है। यह सोच अज्ञान के कारण ही आती है। जिस तरह पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा अपनी धुरी पर घूमते हुए रात्रि और दिन लाते हैं वैसे ही समय के अनुसार सब बदलता है।    आदमी के सुख के पल कट जाते हैं तो उसे पता नहीं लगता पर दुःख के समय वह तमाम तरह के ऐसे कदम उठाता है जिससे उसकी परेशानी बढ़ जाती है। अतः विवेकी मनुष्य सुख के समय तो अधिक प्रसन्न होते हैं और न ही दुःक्ष के समय विचलित। समय की अपनी महिमा है और वह अपने अनुसार सुख दुःख लाकर निकलता है।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय
सदा रहे नहिं एक सौ, का रहीम पछिताय
    कविवर रहीम कहते हैं कि समय आने पर अपने अच्छे कर्मों के फल की प्राप्ति अवश्य होती है। वह सदा कभी एक जैसा नहीं रहता इसीलिये कभी बुरा समय आता है तो भयभीत या परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।
समय परे ओछे बचन, सब के सहे रहीम
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम
    कविवर रहीम कहते हैं कि बुरा समय आने पर तुच्छ और नीच वचनों का सहना करना पड़ा। जैसे भरी सभा में देशासन ने द्रोपदी का चीर हरण किया और शक्तिशाली भीम अपनी गदा हाथ में लिए रहे पर द्रोपदी की रक्षा नहीं कर सके।
    वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में सभी के पास कभी न कभी अच्छा समय आता है ऐसे में अपना काम करते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है। आजकल लोग जीवन में बहुत जल्दी सफलता हासिल करने को बहुत आतुर रहते हैं और कुछ को मिल भी जाती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है।
    कई लोग जल्दी सफलता हासिल करने के लिये ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं वहां उन्हें शुरूआत में बहुत अच्छा लगता है पर बाद में वह पछताते है।
    यह सही है कि कुछ लोगों के लिये जीवन का संघर्ष बहुत लंबा होता है पर उन्हें अपना धीरज नहीं खोना चाहिए। कई बार ऐसा लगता है कि हमें जीवन में किसी क्षेत्र मे सफलता नहीं मिलेगी पर सत्य तो यह है कि आदमी को अपने अच्छे कर्मों का फल एक दिन अवश्य मिलता है।
    जिस तरह दिन रात हैं और धूप छांव है वैसे ही जीवन में समय का फेर आता है। कभी दुःख तो कभी सुख की अनुभूति के साथ ही जीवन आगे बढ़ता है। जब आदमी तकलीफ में होता है तो संसार वाले उसका मजाक बनाते हुए कटु वचन तक कहते हैं। जब आदमी शक्तिशाली होता है तब सभी उसके सामने नतमस्तक होते हैं। ऐसे में जीवन में आये हर पल को सहजता से स्वीकार करना चाहिए।

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कबीर के दोहे-दुष्टों की निंदा के बजाय साधुओं की प्रशंसा में वक्त बिताएं (kabir ke dohe-ninda aur prashansa)


काहू को नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय।
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय।।
       संत कबीरदास का कहना है कि चाहे व्यक्ति अच्छा हो या बुरा उसकी निंदा न करिये। इसमें समय नष्ट करने की बजाय उस आदमी की बार बार प्रशंसा करिये जिसके लक्षण साधुओं की तरह हों।
सातो सागर मैं फिर, जम्बुदीप दै पीठ।
परनिंदा नाहीं करै, सो कोय बिरला दीठ।।
       संत कबीरदास जी कहते हैं कि मैं सारा संसार फिरा पर ऐसा कोई नहीं मिला जो परनिंदा न करता हो। ऐसा तो कोई विरला ही होता है।
       वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य का स्वभाव है परनिंदा करना। सच बात तो यह है कि हर मनुष्य अपने घर संसार के कामों में व्यस्त रहता है पर यह चाहता है कि लोग उसे भला आदमी कहें। ऐसा सम्मान तभी प्राप्त हो सकता है जब अपने जीवन से समय निकालकर कोई आदमी दूसरों का काम करे और सुपात्र को दान देने के साथ ही असहाय की सहायत के लिये तत्पर रहे। यह काम विरले ही लोग करते हैं और सामान्य मनुष्य उनको फालतु या बेकार कहकर उनकी अनदेखी करते हैं अलबत्ता उनको मिलने वाली इज्जत वह भी पाना चाहते हैं। ऐसे में होता यह है कि लोग आत्मप्रचार करते हुए दूसरों की निंदा करते हैं। अपनी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की लकीर को छोटा करते हैं। दुनियां में ऐसे लोग की बहुतायत है पर संसार में भले लोग भी कम नहीं है। सच बात तो यह है ऐसे ही परोपकारी, दानी, ज्ञान और कोमल स्वभाव लोगों की वजह से यह संसार भले लोगों की भलाई के कारण चल रहा है। सामान्य मनुष्य तो केवल अपना घर ही चला लें बहुत है।
       अधिकतर मनुष्य अपने काम में व्यस्त हैं पर सम्मान पाने का मोह किसे नहीं है। कहीं भी किसी के सामने बैठ जाईये वह आत्मप्रवंचना करता है और उससे भी उसका मन न भरे तो किसी दूसरे की निंदा करने लगता है। कबीरदास जी के कथनों पर विचार करें तो यह अनुभव होगा कि हम ऐसी गल्तियां स्वयं ही करते हैं। अतः अच्छा यही है कि खाली समय में कोई परोपकार करें या अध्ययन एवं भक्ति के द्वारा अपना मन शुद्ध करें। दूसरों की निंदा से कुछ हासिल नहीं होने वाला। हां, अगर कोई भला काम करता है तो उसकी प्रशंसा करें। एक बार नहीं बार बार करें। संभव है उसके गुण अपने अंदर भी आ जायें। याद रखिये दूसरे के अवगुणों की चर्चा करते हुए वह हमारे अंदर भी आ जाते हैं।  शायद इसलिए ही कहा जाता है कि बुरा मत कहो,बुरा मत देखो और बुरा मत सुनो।  साथ ही यह भी कहा जाता है कि सबसे अच्छा बर्ताव करो पता नहीं कब किसकी जरूरत पड़ जाए।

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विदुर नीति-पैसे का बुद्धि से कोई रिश्ता नहीं (hindu dharma sandesh-buddhi aur paise ka rishta)


न बुद्धिर्धनलाभाय न जाह्यमसद्धये।
लोकपर्यावृतांत प्राज्ञो जानाति नेतरः।।
हिंदी में भावार्थ-
धन केवल बुद्धि से ही प्राप्त होता है या मूर्खता के कारण आदमी दरिद्र रहता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस संसार के नियमों को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं।
असंविभागो दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः।
तादृंनारिधपो लोके वर्जनीवो नारधिपः।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने व्यक्ति अपने आश्रितों में अपनी धन संपत्ति को ठीक से बंटवारा नहीं करे तो दुष्ट कृतघ्न और निर्लज्ज है उसे इस लोक में त्याग देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिन लोगों के पास धन नहीं है या अल्पमात्रा में है उन्हें धनवान लोग मूर्ख और अज्ञानी मानते हैं। अक्सर धनवाल लोग कहते हैं कि ‘अक्ल की कमी के कारण लोग गरीब होते हैं।’
उनका यह तर्क गलत और बेहूदा है। अगर ऐसा है तो अनेक धनवान गरीब क्यों हो जाते हैं? जिनके पास धन और संपत्ति विपुल मात्रा में वह अपने व्यवसाय में हानि उठाने या अपने बच्चों की गलत संगत के कारण उनके द्वारा किये जा रहे अपव्यय के से संकटग्रस्त हो जाने से निर्धनता को प्राप्त हो जाते हैं। तब उनके बारे में क्या यह कहना चाहिये कि ‘वह अक्ल के कारण ही अमीर हुए और अब उसके न रहने से गरीब हो गये।’ या ‘अब धन नहीं है तो उनके पास अक्ल भी नहीं होगी।’
कहने का तात्पर्य है कि यह धारणा भ्रांत है कि बुद्धि या अक्ल के कारण कोई अमीर या गरीब बनता है। संसार का अपना एक चक्र है। शाश्वत सत्य कभी नहीं बदलता पर माया तो महाठगिनी है। आज इस घर में सुशोभित है तो कल वह किसी दूसरे दरवाजे पर जायेगी। लक्ष्मी के नाम का एक पर्यायवाची शब्द ‘चंचला’ भी है। वह हमेशा भ्रमण करती हैं। अतः हमेशा ही अमीरों को बुद्धिमान और गरीबों को बुद्धिहीन मानने वालों को अपने विचार बदलना चाहिए। इस तरह के सोच ने ही समाज में जो वैमनस्य फैलाया है उसे अब दूर करने की आवश्यकता है। जिस तरह आज चारों तरफ हिंसक संघर्ष का वातावरण दिख रहा है उसके पीछे ऐसी ही सोच जिम्मेदार है।

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विदुर नीति-हर समय सहज रहने वाला ही सुखी (sahaj manushya sukhi rahta hai-hindu dharma sandesh)


  1. बोलने से न बोलना अच्छा बताया गया है, किन्तु सत्य बोलना भी एक गुण है। चुप या मौन रहने से सत्य बोलना दो गुना लाभप्रद है। सत्य मीठी वाणी में बोलना तीसरा गुण है और धर्म के अनुसार बोला जाये यह उसका चौथा गुण है।
  2. मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है और जिन लोगों की सेवा में रहता है और जैसी उसकी कामनाएं होतीं है वैसा ही वह हो भी जाता है।
  3. मनुष्य जिन विषयों से मन हटाता है उससे उसकी मुक्ति हो जाती है। इस प्रकार यदि सब और से निवृत हो जाये तो उसे कभी भी दुख प्राप्त नहीं होगा।
  4. जो न तो स्वयं किसी से जीता जाता है न दूसरों को जीतने के इच्छा करता है न किसी से बैर करता और न दूसरे को हानि पहुंचाता है और अपनी निंदा और प्रशंसा में भी सहज रहता है वह दुख और सुख के भाव से परे हो जाता है।
    असूयको दन्दशूको निष्ठुरो वरकृच्छठः। सं कृच्छ्रम् महदाप्नोति न चिरात् पापमाचरन्।।
    हिंदी में भावार्थ-दूसरे व्यक्ति के गुणों में भी दोष देखने वाला, दूसरे के मर्म को आघात पहुंचाने वाला, निर्दयता और शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाले शठ मनुष्य अपने आचरण करे कारण शीघ्र नष्ट हो जाता है। अनूसूयुः कृतयज्ञः शोभनान्याचरन् सदा। न कृष्छ्रम महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।। हिंदी में भावार्थ-जिसकी दृष्टि दोष रहित है ऐसा व्यक्ति हमेशा ही शुभ कर्म करता हुआ महान सुख प्राप्त करने के सर्वत्र ही प्रशंसा का पात्र बनता है। वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- कहा जाता है कि जैसा दूसरे से व्यवहार करोगे वैसा स्वयं को भी मिलेगा। उसी तरह जिस दृष्टि से यह संसार देखोगे वैसे ही सामने दृश्य भी प्रस्तुत होंगे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनमें ज्ञान और अनुभव तो नाममात्र का होता है पर आत्मप्रचार की इच्छा उनको कुंठित कर देती है। किसी दूसरे की प्रशंसा देखकर वह उसके प्रतिकुल टिप्पणी करते हैं। भले ही दूसरे में गुण हो पर उसमें वह दोष निकालते हैं। जैसे मान लो कोई अच्छा लिखता है तो वह उसके विषय में दोष निकालेंगे या उसे गौण प्रमाणित करेंगे। कोई अच्छा खाना बनाता है तो वह उसके लिये मसालों को श्रेय देंगे। कहने का तात्पय यह है कि उनकी दृष्टि दोष देखने की आदी होती है। ऐसे लोग न हमेशा कष्ट उठाते हैं बल्कि उनकी जीवन भी जल्दी नष्ट होता है। इसके विपरीत दूसरे के गुण देखकर उनसे सीखने वाले विकास पथ पर चलते हैं। वह अपने कार्य से न केवल उपलब्धियां प्राप्त करते हैं बल्कि समाज में उनको सम्मान भी प्राप्त होता है। इसलिये अपना रवैया हमेशा सकारात्मक रखते हुए जीवन पथ पर बढ़ना चाहिये। वैसे आजकल अपने आपको तर्कशास्त्री कहने वाले लोग भारतीय धर्म ग्रंथों में ढेर सारे दोष ढूंढते हैं पर वह उन जीवन रहस्यों को नहीं जानते जिसके आधार वह सांस ले रहे हैं। वैसे हमारे समाज को आधुनिक शिक्षा ने अध्यात्मिक ज्ञान से विमुख कर दिया है इसलिये लोग दूसरों के दोषों का प्रचार अपने श्रेष्ठ होने का प्रचार करते हैं यही कारण है कि समाज में सामाजिक समरसता और प्रेम का अभाव हो गया है।

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कौटिल्य दर्शन-अनापशनाप बकने से जमाना विपरीत हो जाता है (bakbas karna theek nahin-hindu dharama sandesh)


अकस्मादेव यः कोपादभीक्ष्णं बहु भाषते।
तसमाबुद्धिजते लोकः सस््फुलिंगदिवानलात्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति अचानक ही क्रोध में अनापशनाप बकने लगता है वह संसार को वैसे ही अपने विपरीत बना लेता है जैसे आग से निकलने वाली चिंगारी से लोग उत्तेजित होकर उससे दूर हो जाते हैं।
वाक्पारुष्यपरं लोक उद्वेजनमनर्थम्।
न कुर्यात्प्रियया वाचा प्रकृर्यात्ज्जगदात्मताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस मनुष्य के वाक्यों में कठोरता है उससे लोग उत्तेजित हो जाते हैं। ऐसी अनर्थकारी वाणी न बोलें। इस जगत को अपने मधुर वाणी से वश में किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर इतिहास का अवलोकन करें तो अधिकतर संघर्ष अहंकार को लेकर हुऐ हैं वरना किसी को किसी पर आक्रमण करने की आवश्यकता क्या है? अपने आसपास होने वाली हिंसक वारदातों को देखें तो उनके पीछे बात का बतंगड़ अधिक होता है। हर समस्या का हल होता है पर उसे व्यक्त करने का अपना एक तरीका होता है। कहीं पानी को लेकर झगड़ा है तो कहीं जमीन का झगड़ा है। किसी की वजह से अगर पानी नहीं मिल रहा है तो उससे प्रेम से भी अपनी बात भी कही जा सकती है तो दूसरा व्यक्ति सहजता से मान भी जाये पर जहां दादागिरी, क्रोध या घृणा से बात कही गयी वहां अच्छे परिणाम की संभावना नगण्य हो जाती है। मनुष्य में अहंकार होता है और जहां उससे लगता है कि वह प्रेम से बोलने पर सामने वाले की आंखों में छोटा हो जायेगा या कड़ा बोलकर बड़प्पन दिखायेगा वहां विवाद होता है वहीं उसके अंदर अहंकार के कारण जो क्रोध पैदा होता है वही झगड़े का कारण बनता है।
इसलिये जहां तक हो सके मधुरवाणी बोलना चाहिये। इसे सज्जनता समझें या चालाकी पर इस संसार को इसी तरह ही जीता जा सकता है। आज जब मनुष्य में विवेक की कमी है वहां तो बड़ी सहजता से किसी में हवा से फुलाकर काम निकलवाया जा सकता है तब क्रोध करने की आवश्यकता है? दूसरी बात यह है कि लोगों में सहिष्णुता के भाव की कमी हो गयी है जिससे वह किसी की बात को सहन नहीं कर सकते। ऐसे समय में उनसे जरा सी कटु बात कहना भी उनको शत्रु बनाना है। अतः अच्छा यही है कि सभी से मधुरवाणी में बोलकर अपना काम निकालें।
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