Tag Archives: hindu-religion

मनु स्मृति-प्रमाद और अहंकार मनुष्य को नष्ट कर देता है (entertainment and proud danger for man-manu smriti)


प्रकृतिव्यसननि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात्। प्रकृतिव्यवसनान्युपेक्षते यो चिरातं रिपवःपराभवन्ति।।

                   विभूति की कामना से उत्पन्न प्रमाद और अहंकार की प्रकृति से उत्पन्न व्यसन की उपेक्षा न करें। प्रकृत्ति की व्यसनों की उपेक्षा करने वाला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।

                        प्रकृति के पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है। जिनके पास भौतिक उपलब्धि है वह उसके आकर्षण में बंधकर मतमस्त हो जाते हैं। दूसरे को गरीब या अल्पधनी मानकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। मज़ाक न उड़ाये तो भी शाब्दिक दया दिखाकर अपने मन को शांति देने का प्रयास करते हैं। दरअसल यह सब दूसरों से ही नहीं बल्कि अपने साथ भी प्रमाद करना ही है। इस संसार में भगवान की तरह माया का खेल भी निराला है। किसी के पास कम है तो किसी के पास ज्यादा है, इसमें मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है। यह अलग बात है कि अज्ञानवश वह अपने को कर्ता मान लेता है। इसी कारण वह कभी प्रमाद तो कभी अहंकार के भाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है।
                        आज हम देश के हालात देखें तो यह बात समझ में आ जायेगी कि जिन लोगों के पास धन, प्रतिष्ठा और पद की उपलब्धि है वह दूसरे को अपने से हेय समझते हैं। नतीजा यह है कि आम इंसानों में उनके प्रति विद्रोह के बीज पड़ गये हैं। शिखर पुरुषों को यह भ्रम है कि आम आदमी उनसे जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्र के बंटवारे के कारण उनसे जुड़े हैं जो कि उनके किराये के बुद्धिजीवी बनाकर रखते हैं। मगर सच तो यह है कि शिखर पुरुषों से अब किसी की सहानुभूति नहीं है। भले ही प्रचार माध्यम कितने भी दावा करें कि जनता प्रसिद्धि लोगों को देखना और सुनना चाहती है। अब तो हर आदमी यह जान गया है कि शिखर पर अब बिना ढोंग, पाखंड या बेईमानी के कोई नहीं पहुंच सकता। अगर ऐसा न होता तो देश के अनेक शिखर पुरुष अपने घरों के बाहर सुरक्षा उपाय नहीं करते। इतना ही नहीं अनेक तो राह चलते हुए भी सुरक्षा लेकर चलते हैं। इसका मतलब सीधा है कि अपने ही कारनामों को उनके अंदर भय व्याप्त है। गरीबों से भरे देश में सुरक्षा एक मुद्दा बन गयी है।
फिर अब शिखर पर भी झगड़े होने लगे हैं। एक जाता है तो दूसरा आ जाता है। यह अस्थिरता इसलिये हैं क्योंकि प्रमाद और अहंकार में लगे शिखर पुरुष जल्दी जल्दी अपना आकर्षण खो देते हैं। शिखर बैठकर वह अपने वैभव का प्रदर्शन कर वह एक दूसरे को प्रभावित तो कर सकते हैं पर आम आदमी को नहीं।
————-
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

संत कबीर दास-हाथी पर चढ़कर चंवर डुलवाने वाले नरक में जाते हैं (hathi par chadhne wale-sant kabir das ke dohe)


हाथी चढि के जो फिरै, ऊपर चंवर ढुराय
लोग कहैं सुख भोगवे, सीधे दोजख जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि तो हाथी पर चढ़कर अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं और लोग समझते हैं कि वह सुख भोग रहे तो यह उनका भ्रम है वह तो अपने अभिमान के कारण सीधे नरक में जाते हैं।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि

जैसे फूल उजाड़ को, मिथ्या हो झड़ जांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी धन, पद और सम्मान पाकर बड़ा हुआ तो भी क्या अगर उसके पास अपनी मति नहीं है। वह ऐसे ही है जैसे बियावन उजड़े जंगल में फूल खिल कर बिना किसी के काम आये मुरझा जाता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-समय ने ऐसी करवट ली है कि इस समय धर्म और जनकल्याण के नाम पर भी व्यवसाय हो गया है। इस मायावी दुनियां में यह पता ही नहीं लगता कि सत्य और माया है क्या? जिसे देखो भौतिकता की तरफ भाग रहा है। क्या साधु और क्या भक्त सब दिखावे की भक्ति में लगे हैं। राजा तो क्या संत भी अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं। उनको देखकर लोग वाह-वाह करते हैं। सोचते हैं हां, राजा और संत को इस तरह रहना चाहिये। सत्य तो यह है कि इस तरह तो वह भी लोग भी भ्रम में हो जाते हैं और उनमें अहंकार आ जाता है और दिखावे के लिये सभी धर्म करते हैं और फिर अपनी मायावी दुनियां में अपना रंग भी दिखाते हैं। ऐसे लोग पुण्य नहीं पाप में लिप्त है और उन्हें भगवान भक्ति से मिलने वाला सुख नहीं मिलता और वह अपने किये का दंड भोगते हैं।
यह शाश्वत सत्य है कि भक्ति का आनंद त्याग में है और मोह अनेक पापों को जन्म देता है। सच्ची भक्ति तो एकांत में होती है न कि ढोल नगाड़े बजाकर उसका प्रचार किया जाता है। हम जिन्हें बड़ा व्यक्ति या भक्त कहते हैं उनके पास अपना ज्ञान और बुद्धि कैसी है यह नहीं देखते। बड़ा आदमी वही है जो अपनी संपत्ति से वास्तव में छोटे लोगों का भला करता है न कि उसका दिखावा। आपने देखा होगा कि कई बड़े लोग अनेक कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिये करते हैं और फिर उसकी आय किन्हीं कल्याण संस्थाओं को देते हैं। यह सिर्फ नाटकबाजी है। वह लोग अपने को बड़ा आदमी सबित करने के लिये ही ऐसा करते हैं उनका और कोई इसके पीछे जनकल्याण करने का भाव नहीं होता।
कभी कभी तो लगता है कि जनकल्याण का नारा देने वाले लोग बड़े पद पर प्रतिष्ठत हो गये हैं पर लगता नहीं कि उनके पास अपनी मति है क्योंकि वह दूसरों की राय लेकर काम करने आदी हो गये हैं। ऐसे लोगों के लिये कल्याण तो बस दिखावा है वह तो उसके नाम पर सुख तथा एश्वर्य प्राप्त करने में ही अपने को धन्य समझते हैं। ऐसे कथित धर्म के सौदागर बहुत दिखाई देते हैं जिनका न तो स्वयं का ज्ञान प्रमाणिक होता है और न ही वह ही वह लोभ और लालच की प्रवृत्ति से परे रहते हैं। उनकी शरण लेने से मनुष्य का न तो उद्धार होता है और न मन का संताप दूर होता है। इसलिए न केवल धन संपदा के मोह से बल्कि उनको प्राप्त करने वाले बड़े लोगों को लेकर कोइ भ्रम अपने अन्दर नहीं रखना चाहिये।

——————-
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
http://dpkraj.blogspot.com
—————————–

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

हिन्दू धर्म संदेश-तप बल के अलावा उद्धार को कोई अन्य मार्ग नहीं (tapbal se uddhar-hindu dharma sandesh)


महाराज भर्तृहरि के अनुसार 
———————————–
दुराराध्याश्चामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं तु स्थूलेच्छाः सुमहति फले बद्धमनसः।
जरा देहं मृत्युर्हरति दयितं जीवितमिदं सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
हिन्दी में भावार्थ-
राजाओं का चित तो घोड़े की गति से इधर उधर भागता इसलिये उनको भला कब तक प्रसन्न रखा जा सकता है। हमारे अंदर भी ऊंचे ऊंचे पद पाने की लालसा हैं। इधर शरीर को बुढ़ापा घेर रहा है। ऐसे में लगता है कि विवेकवान पुरुषों के लिये तप बल के अलावा अन्य कोई उद्धार का मार्ग नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मनुष्य का यह मूल स्वभाव है कि वह हमेशा  ही अपने लिये मान पाना चाहता है और इसलिये ही धन संग्रह करने के साथ प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये पूरा जीवना गुज़ार देता है।  उच्च पद पाने की उसमें महत्वाकांक्षा हमेशा बलवती रहती है और इसलिये ही अवने अपने से उच्च लोगों की चाटुकारित करने को हमेशा तैयार रहता है।
इस संसार में धनी, उच्च पदस्थ, तथा बाहुबली आदमी की कितनी भी सेवा कर लीजिये पर उनको प्रसन्न नहीं किया जा सकता क्योंकि उनका मन तो घोड़े की तरह दौड़ता है। उनकी सेवा में रत इंसान को लगता है कि स्वामी उनकी तरफ देख रहा है पर सच तो यह है कि राजसी लोगों के पास ढेर सारे सेवक होते हैं और उनमें किसी को वह विशिष्ट नहीं मानते। इतना ही नहीं अगर उनकी सेवा कोई ऐसा व्यक्ति करे जो उनके यहां कार्यरत न हो, उसको लेकर भी उनके मन में यह शंका उत्पन्न होती है कि वह भविष्य में हमारी सेवा पाने का प्रयास कर रहा है।
किसी आदमी को एक पद मिल गया तो फिर उससे बड़े पद की चाहत उसमें होने लगती है। वह भी मिल गया तो फिर उससे ऊंचे पद की आस करने लगता है। यह इच्छा अनंत है और इसका कहीं अंत नहीं है। आदमी अपने भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति में लगा रहता कि उसे बुढ़ापा घेर लेता है। ऐसे में तो केवल एक ही बात उचित लगती है कि अपना समय सत्संग, भक्ति तथा अध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण करने में भी बिताना चाहिये ताकि तत्व ज्ञान होने पर इस संसार में दुःख तथा मानसिक संताप से छुटाकारा पाया जा सके।

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’, ग्वालियर 
editor and writter-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep
http://anant-shabd.blogspot.com————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मन तो जल के समान चंचल है (man jal ke saman chanchal hai-hindu dharma sandesh)


जलान्तश्वन्द्रवशं जीवनं खलु देहिनाम्
तथा विद्यमति ज्ञात्वा शशवत्कल्याणमाचारेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पानी के के भीतर लहलहाते हुए चंद्रमा के बिम्ब के समान चंचल स्वभाव ही समस्त जीवों का जीवन है। यह विचार ज्ञान लोग निरंतर सत्कर्म में लिप्त रहते हैं।
सतः शीलोपसम्पन्नानकस्मादेव दुज्र्जनः।
अन्तः प्रविश्य दहति शुष्कवृक्षानिवालः।।
हिन्दी में भावार्थ-
पर्वत के समान दृढ़ चरित्र वाले सत्पुरुषों के अंतःकरण में दुर्जन भाव प्रविष्ट होकर अग्नि के समान उनको जला कर नष्ट कर डालता है। यह भाव सज्जन व्यक्ति के लिये आत्मघाती होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समस्त जीवों की देह पंचतत्वों के संयोग से निर्मित होती है और मन उसकी एक ऐसी प्रकृत्ति है जो उसका संचालन करती है। पानी से भी पतले इस मन की चाल विरले ही ज्ञानी देख पाते हैं। अपने जीवन में कार्यरत रहते हुए हमारे मन में अनेक विचार आते हैं-वह अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। दरअसल हर जीव को उसका मन चलाता है पर वह यह भ्रम पालता है कि स्वयं चल रहा है। इस मन में काम, क्रोध, लोभ, लालच और घृणा के भाव स्वाभाविक रूप से विचरते रहते हैं। अगर वहां सत्विचारों की स्थापना करनी है तो उसके लिये यह आवश्यक है कि योगासन, ध्यान, मंत्रजाप और नाम स्मरण किया जाये। कहना आसान है पर करना कठिन है। मुख्य बात है कि संकल्प मनुष्य किस प्रकार का करता है। जो मनुष्य दृढ चरित्र के होते हैं वह मन में आये विचार का अवलोकन करते हैं और जिनको ज्ञान नहीं है वह उसी राह चलते हैं जहां मन प्रेरित करता है।
यह मन इतना चंचल होता है कि अनेक बार सज्जन आदमी को भी दुर्जन बना देता है। यह उन्हीं सज्जन लोगों के साथ होता है जो स्वाभाविक रूप से भले होते हैं पर उनके पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं रहता। जब उनके अंदर दुर्जन भाव का प्रवेश होता है तब वह अपराध कर बैठते हैं।
अतः योगाभ्यास तथा सत्संग में निरंतर लगे रहना चाहिये ताकि अपने अंदर ज्ञान का प्रादुर्भाव हो और सज्जन प्रकृत्ति होने के बावजूद कभी किसी भी स्थिति में मन में उत्पन्न कुविचार मार्ग से विचलित न कर सकें। यदि अपने मन पर नियंत्रण किया जाये तो सारे संसार पर नियंत्रण किया जा सकता है और अगर उससे हार गये तो किसी से भी जीतना संभव नहीं है।
——————

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

हिंदू धर्मं सन्देश-विषैले पदार्थ और विषयों से दूर रहना श्रेयस्कर


कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार
—————————
नित्यं जीवस्य च ग्लानिर्जायते विषदर्शनात्।
एषामन्यतमेनापि समश्नीयत्परीक्षितम्।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रतिदिन विष को देखने से ही मन में ग्लानि हो जाती है इसलिये किसीके  सहयोग से भोजन की परीक्षा करें।
चकोरस्य विरज्येत नयने विषदर्शनात्।
सुव्यक्तं माघति क्रोंचो प्रियते कोकिलः किल।
हिन्दी में भावार्थ-
विष को देखने मात्र से चकोर पक्षी की आंख लाल हो जाती है और कोकिल तो मृत्यु के गाल में ही समाज जाता है।
वर्तमानं संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजाओं के लिये लिखा गया है पर एक बात याद रखने लायक है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में व्यंजना विद्या में ही विषय प्रस्तुत किया जाता है जिससे हर वर्ग के मनुष्य के लिये उसका कोई न कोई अर्थ निकले। उनके राजा और प्रजा के लिये समान अर्थ हैं पर उनका भाव प्रथक हो सकता है। हर मनुष्य कहीं न कहीं राजा या प्रमुख पद पर प्रतिष्ठत होता है। आखिर परिवार भी तो राज्य की तरह चलते हैं। यहां कौटिल्य महाराज के विष को अन्य विषयों के साथ व्यापक रूप में लेना चाहिये। वैसे आजकल तो अनेक जगह खानपान की चीजों में जिस तरह विष डाला जा रहा है उसे देखते हुए अत्यधिक सतर्कता के आवश्यकता है।
हम प्रतिदिन ऐसे समाचार पढ़ रहे हैं कि दुग्ध तथा खाद्य पदार्थों  में ऐसे रसायन मिलाये जा रहे हैं जो शरीर के लिए हानिकारक हैं और जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती  हैं, अत: जहाँ तक हो सके बाज़ार की खुली वस्तुओं के सेवन से बचना चाहिए।
 अगर हम विष की बात करें तो  वह खाने के अलावा   अन्य सांसरिक विषयों से भी संबंधित  है। कुछ विषय विष प्रदान करते हैं-जैसे परनिंदा, ईर्ष्या तथा दूसरे का दुःख देकर मन में हंसना। कुछ ऐसे स्थान भी होते हैं जहां जाकर हमारा मन खराब होता है। उसी तरह कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनसे मिलने पर हमारे अंदर विकार पैदा होते हैं जिससे दुष्कर्म करने की प्रेरणा आती है। कहने का अभिप्राय यह है कि मन में विष पैदा करने वाले विषयों और व्यक्तियों  से संपर्क नहीं रखना चाहिये।
इसलिये समय समय पर आत्म मंथन अवश्य करते हुए यह देखना चाहिये कि कौनसे व्यक्ति, विषय या स्थान हमारी मनस्थिति को डांवाडोल करते हैं। जहां तक हो सके उनसे दूर रहें। प्रतिदिन उनसे संपर्क रखने से न केवल अपना मन कलुषित होता है जिससे जीवन में आचरण में कलुषिता आती है और जो अंततः कर्ता के लिये ही संकट का कारण बनती है। जहां मन में प्रसन्नता रूपी अमृत मिलता हो वहीं जाना चाहिये। जिससे हृदय में पवित्रता, निर्मलता तथा दृढ़ता का भाव बना रहे उन्हीं विषयों की संगति करना ही उचित है। जिनसे विष का अनुभव हो उनसे दूर रहना ही अच्छा है। तभी जीवन तनाव मुक्त रह सकता है।

—————– 

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

हिन्दू धर्म संदेश-धर्म रहित कार्य केवल मूर्ख आदमी ही करता है (moorkh aadmi karta hai dharma rahit karya-hindu dharma sandesh)


आधिव्याधिविपरीतयं अद्य श्वो वा विनाशिने।
कोहि नाम शरीराय धम्मपितं समाचरेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
तमाम तरह के दुःखों से भरे और कल नाश होने वाले इस शरीर के लिये धर्म रहित कार्य केवल कोई मूर्ख आदमी ही कर सकता है।

महावाताहृतभ्त्रान्ति मेघमालातिपेलवैः।
कष्टां नाम महात्मानो हियन्ते विषयारिभिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस तरह बादलों का समूह वायु की तीव्र गति से डांवाडोल होता है उसी तरह महात्मा लोग भी विषयरूपी शत्रुओं के प्रहार से विचलित हो ही जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार के विषयों की भी अपनी महिमा है। मनुष्य देह में चाहे सामान्य व्यक्ति हो या योगी इन सांसरिक विषयों के चिंतन से बच नहीं सकते। जैसे ही उनका चिंतन शुरु हुआ नहीं कि आसक्ति घेर लेती है और तब सारा का सारा ज्ञान धरा रह जाता है। सामान्य मनुष्य हो या योगी विषयों से प्रवाहित तीव्र आसक्ति की वायु से उसी तरह डांवाडोल होते हैं जैसे संगठित बादलों का समूह तेज चलती हवा के झौंकों से विचलित हो जाते हैं।
किसी ज्ञान को रटने और धारण करने में अंतर है। यह शरीर नश्वर है तथा अनेक प्रकार के रोगाणु उसमें विराजमान हैं। ऐसे शरीर से अधर्म का काम करना मूर्खता है पर सबसे मुख्य बात यह है कि इस बात को समझते कितने लोग हैं? अनेक लोग धार्मिक संतों का प्रभाव देखकर उन जैसा बनने के लिये शब्द ज्ञान ग्रहण कर उसे दूसरों को सुनाने का अभ्यास करते हैं। जब वह अभ्यास करते हैं तो उनके अंदर यह एक व्यवसायिक गुण निर्मित हो ही जाता है कि वह दूसरे पर अपना प्रभाव कायम कर सकें, मगर ऐसे लोग केवल ज्ञान का बखान करने वाले होते हैं पर उस राह पर कभी चले नहीं होते। नतीजा यह होता है कि कभी न कभी उनको विषय घेर लेते हैं और तब वह इसी नश्वर देह के लिये अधर्म का काम करते हैं। यही कारण है कि अपने देश में बदनाम होने वाले संतों की भी कमी नहीं है।
यह जरूरी नहीं है कि सभी सन्यासी हमेशा ही ज्ञानी हों। उसी तरह यह भी कि सभी गृहस्थ अज्ञानी भी नहीं होते। जो तत्व ज्ञान को समझता है वह चाहे गृहस्थ ही क्यों न हो, योगियों और सन्यासियों की श्रेणियों में आता है। अपने सांसरिक कार्य करते हुए विषयों में आसक्ति न होना भी एक तरह से सन्यास है। दूसरी बात यह है कि सांसरिक विषयों की चर्चा करने वाले तथा संपत्ति संचय में कथित रूप से लोग सन्यासी नहीं हो सकते जैसा कि वह दावा करते हैं। सच बात तो यह है कि विषय उनको विचलित क्या करेंगे वह तो उनको हमेशा ही घेरे रहते हैं।

संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

मनुस्मृति-श्रमिक का हाथ सदैव पवित्र रहता है (worker is hollyman-hindu dharma sandesh)


नित्यमास्यं शुचिः स्त्रीणां शकुनि फलपातने।
प्रस्त्रवे च शुचर्वत्सः श्वा मृगग्रहणे शुचिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
नारियों का मुख, फल गिराने के लिये उपयोग  में लाया गया पक्षी, दुग्ध दोहन के समय बछड़ा तथा शिकार पकड़ने के लिये उपयोग में लाया गया कुत्ता पवित्र है।
नित्यं शुद्धः कारुहस्तः पण्ये यच्च प्रसारितम्।
ब्रह्मचारिगतं भैक्ष्यं नित्यं मेध्यमिति स्थितिः।
हिन्दी में भावार्थ-
शास्त्रों के अनुसार कारीगर का हाथ, बाजार में बेचने के लिये रखी गयी वस्तु तथा ब्रह्मचार को दी गयी भिक्षा सदा ही शुद्ध है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में पाश्चात्य सभ्यता के अनुसरण ने लोगों के दिमाग में श्रम की मर्यादा को कम किया है। आधुनिक सुख सुविधाओं के उपभोग करने वाले धनपति मजदूरों और कारीगरों को हेय दृष्टि से देखते हैं। उनके श्रम का मूल्य चुकाते हुए अनेक धनपतियों का मुख सूखने लगता है। जबकि हमारे मनु महाराज के अनुसार कारीगर का हाथ हमेशा ही शुद्ध रहता है। इसका कारण यह है कि वह अपना काम हृदय लगाकर करता है। उसके मन में कोई विकार या तनाव नहीं होता। यह शुद्ध भाव उसके हाथ को हमेशा पवित्र तथा शुद्ध करता रहता है। भले ही सिर पर रेत, सीमेंट या ईंटों को ढोते हुए कोई मजदूर पूरी तरह मिट्टी से ढंक जाता है पर फिर भी वह पवित्र है। उसी तरह मैला ढोले वालों का भले ही कोई अछूत कहे पर यह उनका नजरिया गलत है। मैला ढोले वाले के हाथ भले ही गंदे हो जाते हैं पर उसके हृदय की पवित्रता उनको शुद्ध रखती है।
जो लोग मजदूरों, कारीगरों या मैला ढोले वालों को अशुद्ध समझते है वह बुद्धिहीन है क्योंकि श्रमसाध्य कार्य करना एक तो हरेक के बूते का नहीं होता दूसरे उनको करने वाले अत्यंत पवित्र उद्देश्य से यह करते हैं इसलिये उनके हाथों को अशुद्ध मानना या उनकी देह को अछूत समझना अज्ञानता का प्रमाण है।
यहां बाजार में रखी वस्तु के शुद्ध होने से आशय यह कतई न लें कि हम चाहे जो भी वस्तु रखें वह पवित्र ही होगी। दरअसल इसका यह भी एक आशय है कि आप जो चीज बेचने के लिये रखें वह पवित्र और शुद्ध होना चाहिये। इसके अलावा इस बात का ध्यान रखें कि जो लोग अपने हाथों से कुशल या अकुशल श्रम करते हैं उनको हेय दृष्टि से न देखों तथा उनके परिश्रम का उचित मूल्य चुकायें।

——————————-
लेखक,संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

विदुर दर्शन-सत्संग से बुद्धि प्राप्त करे वही पण्डित (satasang kare vahi pandit-hindu dharma sandesh)


प्रज्ञामेवागमयति यः प्राज्ञेभ्यःस पण्डितः।
प्राज्ञो ह्यवापप्य धर्मार्थौं शक्नोति सुखमेधितम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर जी के मतानुसार जो मनुष्य बुद्धिमानों की संगत कर सद्बुद्धि प्राप्त करता है वही पण्डित है। बुद्धिमान पुरुष ही धर्म और अर्थ को प्राप्त कर अनायास ही अपना विकास करता है।


अन्नसूयुः कुतप्रज्ञः शोभनान्याचरन् सदा।
न कृच्छ्रम् महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिसकी बुद्धि दोषदृष्टि से रहित है वह मनुष्य सदा ही पवित्र और शुभ करता हुआ जीवन में महान आनंद प्राप्त करता है। जिससे उसका अन्य लोग भी सम्मान करते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस जीवन का रहस्य वही समझ सकते हैं जिनकी बुद्धि दूसरे में दोष नहीं देखती। जीवन भर आदमी सत्संग सुने या ईश्वर की वंदना करे पर जब तक उसमें ज्ञान नहीं है तब तक वह भी यह जीवन प्रसन्नता से व्यतीत नहीं कर सकता। सच बात तो यह है कि जैसी अपनी दृष्टि होती है वैसा ही दृश्य सामने आता है और वैसी ही यह दुनियां दिखाई देती है। इतना ही नहीं जब हम किसी में उसका दोष देखते हैं तो वह धीरे धीरे हम में आकर निवास करने लगता है। जब हम अपना समय दूसरो की निंदा करते हुए बिताते हैं तो यही काम दूसरे लोग हमारी निंदा करते हुए करते हैं। यही कारण है कि अक्सर लोग यही कहते हैं कि ‘इस संसार में सुख नहीं है।’

सच्चाई तो यह है कि इस संसार में न तो कभी सतयुग था न अब कलियुग है। यह बस बुद्धि से देखने का नजरिया है। जिन लोगों की बुद्धि दोष रहित है वह प्रातःकाल योगसाधना, ध्यान तथा मंत्रोच्चार करते हुए अपना दिन प्रारंभ करते हैं। उनके लिये वह काल स्वर्ग जैसा होता है। मगर जिनकी बुद्धि दोषपूर्ण है वह सुबह उठते ही निंदात्मक विचार व्यक्त करना प्रारंभ कर देते हैं। कई लोग तो प्रातःकाल ही चीखना चिल्लाना प्रारंभ करते हैं और उनको भगवान के नाम जगह अपने कष्टों का जाप करते हुए सुना जा सकता है। सुबह उठते ही अगर मनुष्य में प्रसन्नता का अनुभव न हो तो समझ लीजिये वह नरक में जी रहा है। यह तभी संभव है जब आदमी अपनी बुद्धि को पवित्र रखते हुए दूसरे में दोष देखना बंद कर दे। दूसरे के दोषों को देखना तो क्या उन्क्स स्मरण तक नहीं करना चाहिए क्योंकि वह अपने अन्दर आ जाते हैं।

————-
लेखक,संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

चाणक्य दर्शन-आमदनी से अधिक खर्च मुसीबत का कारण (amdani aur kharcha-chankya niti)


अनालोक्य व्ययं कर्ता ह्यनाथःः कलहप्रियः।
आतुर सर्वक्षेत्रेपु नरः शीघ्र विनश्चयति ।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि बिना विचारे ही अपनी आय के साधनों से अधिक व्यय करने वाला सहायकों से रहित और युद्धों में रुचि रखने वाला तथा कामी आदमी का बहुत शीघ्र विनाश हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-आज समाज में आर्थिक तनावों के चलते मनुष्य की मानसिकता अत्यंत विकृत हो गयी है। लोग दूसरों के घरों में टीवी, फ्रिज, कार तथा अन्य साधनों को देखकर अपने अंदर उसे पाने का मोह पाल लेते हैं। मगर अपनी आय की स्थिति उनके ध्यान में आते ही वह कुंठित हो जाते हैं। इसलिये कहीं से ऋण लेकर वह उपभोग के सामान जुटाकर अपने परिवार के सदस्यों की वाहवाही लूट लेते हैं पर बाद में जहां ऋण और ब्याज चुकाने की बात आयी वहां उसके लिये आय के साधनों की सीमा उनके लिये संकट का कारण बन जाती है। अनेक लोग तो इसलिये ही आत्महत्या कर लेते हैं क्योंकि उनको लेनदार तंग करते हैं या धमकी देते हैं। इसके अलावा कुछ लोग ठगी तथा धोखे की प्रवृत्ति अपनाते हुए भी खतरनाक मार्ग पल चल पड़ते हैं जिसका दुष्परिणाम उनको बाद में भोगना पड़ता है। इस तरह अपनी आय से अधिक व्यय करने वालें जल्दी संकट में पड़ जाने के कारण अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं। समझदार व्यक्ति वही है जो आय के अनुसार व्यय करता है। आय से अधिक व्यय करना हमेशा ही दुःख का मूल कारण होता है।
यही स्थिति उन लोगों की भी है जो नित्य ही दूसरों से झगड़ा और विवाद करते हैं। इससे उनके शरीर में उच्च रक्तचाप और हृदय रोग संबंधी विकास अपनी निवास बना लेते हैं। अगर ऐसा न भी हो तो कहीं न कहीं उनको अपने से बलवान व्यक्ति मिल जाता है जो उनके जीवन ही खत्म कर देता है या फिर ऐसे घाव देता है कि वह उसे जीवन भर नहीं भर पाते। अतः प्रयास यही करना चाहिये कि शांति से अपना काम करें। जहाँ तक हो सके अपने ऊपर नियत्रण रखें।
———————–
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

कबीर के दोहे-दुष्टों की निंदा के बजाय साधुओं की प्रशंसा में वक्त बिताएं (kabir ke dohe-ninda aur prashansa)


काहू को नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय।
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय।।
       संत कबीरदास का कहना है कि चाहे व्यक्ति अच्छा हो या बुरा उसकी निंदा न करिये। इसमें समय नष्ट करने की बजाय उस आदमी की बार बार प्रशंसा करिये जिसके लक्षण साधुओं की तरह हों।
सातो सागर मैं फिर, जम्बुदीप दै पीठ।
परनिंदा नाहीं करै, सो कोय बिरला दीठ।।
       संत कबीरदास जी कहते हैं कि मैं सारा संसार फिरा पर ऐसा कोई नहीं मिला जो परनिंदा न करता हो। ऐसा तो कोई विरला ही होता है।
       वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य का स्वभाव है परनिंदा करना। सच बात तो यह है कि हर मनुष्य अपने घर संसार के कामों में व्यस्त रहता है पर यह चाहता है कि लोग उसे भला आदमी कहें। ऐसा सम्मान तभी प्राप्त हो सकता है जब अपने जीवन से समय निकालकर कोई आदमी दूसरों का काम करे और सुपात्र को दान देने के साथ ही असहाय की सहायत के लिये तत्पर रहे। यह काम विरले ही लोग करते हैं और सामान्य मनुष्य उनको फालतु या बेकार कहकर उनकी अनदेखी करते हैं अलबत्ता उनको मिलने वाली इज्जत वह भी पाना चाहते हैं। ऐसे में होता यह है कि लोग आत्मप्रचार करते हुए दूसरों की निंदा करते हैं। अपनी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की लकीर को छोटा करते हैं। दुनियां में ऐसे लोग की बहुतायत है पर संसार में भले लोग भी कम नहीं है। सच बात तो यह है ऐसे ही परोपकारी, दानी, ज्ञान और कोमल स्वभाव लोगों की वजह से यह संसार भले लोगों की भलाई के कारण चल रहा है। सामान्य मनुष्य तो केवल अपना घर ही चला लें बहुत है।
       अधिकतर मनुष्य अपने काम में व्यस्त हैं पर सम्मान पाने का मोह किसे नहीं है। कहीं भी किसी के सामने बैठ जाईये वह आत्मप्रवंचना करता है और उससे भी उसका मन न भरे तो किसी दूसरे की निंदा करने लगता है। कबीरदास जी के कथनों पर विचार करें तो यह अनुभव होगा कि हम ऐसी गल्तियां स्वयं ही करते हैं। अतः अच्छा यही है कि खाली समय में कोई परोपकार करें या अध्ययन एवं भक्ति के द्वारा अपना मन शुद्ध करें। दूसरों की निंदा से कुछ हासिल नहीं होने वाला। हां, अगर कोई भला काम करता है तो उसकी प्रशंसा करें। एक बार नहीं बार बार करें। संभव है उसके गुण अपने अंदर भी आ जायें। याद रखिये दूसरे के अवगुणों की चर्चा करते हुए वह हमारे अंदर भी आ जाते हैं।  शायद इसलिए ही कहा जाता है कि बुरा मत कहो,बुरा मत देखो और बुरा मत सुनो।  साथ ही यह भी कहा जाता है कि सबसे अच्छा बर्ताव करो पता नहीं कब किसकी जरूरत पड़ जाए।

—————————
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anantraj.blogspot.com
————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन