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विश्व को योग दिवस मनाना ही चाहिये-हिन्दी चिंत्तन लेख


            प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने संबोधन में सारे विश्व में योग दिवस मनाने का प्रस्ताव दिया है। इस तरह की बात विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक मंच पर अधिकारिक रूप से पहली बार कही गयी है इसलिये इसका महत्व निश्चित रूप से बहुत है।  इसकी भारत में स्वाभाविक रूप से प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई।  हम जैसे अध्यात्मिक और ज्ञान साधकों के लिये इस तरह के घटनाक्रम न केवल रुचिकर होते हैं बल्कि शोध का अवसर भी प्रदान करते हैं।

            देश में अनेक प्रतिक्रियायें आयीं। उनमें एक योग शिक्षक ने एक  महत्वपूर्ण बात कही कि योग के विषय पर जब कोई साधना करने वाला बोलता है तब उसका महत्व बहुत होता है।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं योग साधना करते हैं इसलिये उनके पास इस विषय पर बोलने का अधिकार है।  उन्होंने एक तरह से अपना अनुभव बांटा है।  इसकी हमारे जैसे लोगों पर सुखद प्रतिक्रिया होती है पर जब हम अन्य लोगों को योग विषय बोलते और लिखते हुए देखते हैं तो यह यकीन करना कठिन होता है कि उनके पास योग का कोई ज्ञान भी है। मोदी जी को योग साहित्य का ज्ञान भी है यह देखकर प्रसन्नता होती है पर उनके संबोधन पर प्रसन्न होने वालों में ऐसे लोग भी हैं जो केवल भारतीय विचाराधारा के प्रचार पर ही उछलते हैं पर उसके मूल सिद्धांतों को नहीं समझते।

            जिस योग साधना की बात होती है वह अनेक लोगों के लिये इसलिये कठिन नहीं है बल्कि  उसमें समय और श्रम का व्यय होता है जिससे आज के भौतिक प्रभाव में फंसे समाज के अनेक लोग बचना चाहते हैं।  योग साधना मनुष्य को शक्तिशाली, आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी सहज वाणी का प्रवाहक बनाती है। इसके प्रभाव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे योग साधना में निरंतर सक्रिय रहने वाले  लोग ही अनुभव कर सकते हैं।

            योग के आठ भाग हैं।  आमतौर से लोग प्राणायाम और आसनों को ही योग साधना समझते हैं।  एक तरह से समाज इसे  व्यायाम समझता है जबकि मोदी ने अपने संबोधन में यह स्पष्ट रूप से बताया कि यह एक व्यापक सिद्धि प्रदान करने वाली साधना है। हम यहां बता दें कि इस सिद्धि का यह आशय कतई नहीं समझना चाहिये कि इससे कोई आकाश से तारे जमीन पर उतार कर ला सकता है। योग साधना मनुष्य के व्यवहार, विचार तथा व्यक्तित्व में ऐसे तत्व स्थापित कर देती है कि वह इस जीवन सागर में बिना थपेड़ों के तैरता है-हमारा अभिप्राय यही है।

            मुख्य बात संकल्प की है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार परमात्मा के संकल्प के आधार पर संसार के सारे भूत स्थित हैं पर वह किसी में स्थित नहीं है।  उससे यह समझना चाहिये कि जिस तरह का हमारा संकल्प होगा उसी तरह का संसार हमारे सामने होगा पर हम उसमें नहीं समा सकते।  हमारी समस्या यह है कि  परमात्मा के इस संसार का भाग अपने ही अपने ही संकल्प के कारण सामने आता है हम उसमें समाना चाहते हैं या सोचते हैं कि वह हमारे अंदर समा जाये।  मकान मिला तो उसमें हम समाना चाहते हैं या चाहते हैं कि वह हमारे अंदर समाज जाये। इसी तरह का दृष्टिकोण संतान, धन, वाहन तथा अन्य भौतिक उपलब्धियों के बारे में रहता है। ऐसा हो नहीं सकता पर हमारा पूरा जीवन इसी प्रयास में नष्ट हो जाता है। देखा जाये तो हर इंसान योग करता ही है।  अज्ञानी लोग  भौतिकता से जुड़ने का प्रयास करते हैं। इसे हम असहज योग भी कह सकते हैं क्योंकि अंतत इससे तनाव ही पैदा होता है। उनका मन उन्हें अपना बंधुआ बना लेता है। सहज योगी स्वयं से जुड़कर संसार के विषयों से अपनी आवश्यकतानुसार संबंध रखते हैं।  वह कभी मन से कभी किसी भी विषय से संयोग करने के लिये बाध्य नहीं किये जाते।

            विश्व में योग दिवस मनाये जाने के प्रस्ताव पर भी अनेक लोग विश्व का अध्यात्मिक गुरु बनने का सपना देखकर प्रसन्न हो रहे हैं। हमारा मानना है कि भारत की यह पहले से बनी बनायी छवि है जिसके लिये प्रथक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। पतंजलि योग साहित्य के अलावा हमारी श्रीमद्भावगत गीता भी एक ऐसा स्वर्णिम ज्ञान ग्रंथ है जिससे पूरा विश्व परिचित है।

            हम तो यह चाहते हैं कि विश्व समुदाय से पहले हमारे ही देश का अपना रुग्ण मानसिकता से बाहर आये। योग की बातें बहुत होती हैं पर साधना करने वालों की संख्या अभी भी नगण्य है। विश्व में क्रांति आने की हमारी कल्पना तभी सफल होगी जब हम पहले अपने देश में योग साधना को दिन चर्या का एक अभिन्न भाग बनायेंगे।  हम जैसे अप्रचारित योग साधकों के पास ऐसे साधन नहीं होते कि अपने इस प्राचीन विज्ञान पर जनसामान्य में अपनी बात कह सकें, इसलिये प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी जैसे प्रतिष्ठित लोग जब योग विषय का प्रचार करते हैं तो मन प्रसन्न कर लेते हैं। इसके लिये हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आभारी भी है कि उन्होंने योग प्रचार के लिये वह भूमिका निभाई जिसकी हम प्रतिष्ठित लोगों से अपेक्षा करते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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राष्ट्रभाषा से ही विश्व में पहचान बनती है-हिन्दी चिंत्तन लेख


            14 सितम्बर 2014 रविवार को हिन्दी दिवस सरकारी तौर से मनाया जायेगा। इसमें अनेक ऐसे बुद्धिजीवी अपने प्रवचन करते मिल जायेंगे जो न केवल हिन्दी भाषा के प्रति हार्दिक भक्ति दिखायेंगे वरन् उसका महत्व भी प्रतिपादित करेंगे पर सच यह है कि उनके शब्द केवल औपचारिक मात्र होंगे।  अगर हम हिन्दी भाषी समुदाय की बात करें तो शायद ही वह आमजन कहीं इस दिवस में कोई दिलचस्पी दिखाये जो कि वास्तव में इसका आधार है। अनेक लोग इस लेखक के ब्लॉग पर यह टिप्पणी करते हैं कि आप हिन्दी के महत्व के बारे में बतायें।  यह ऐसे पाठों पर लिखी गयी हैं जो चार से छह वर्ष पूर्व लिखे गये हैैं।  तब हैरानी होती है यह सोचकर कि क्या वाकई उन लोगों को हिन्दी का महत्व बताने की आवश्यकता है जो पढ़े लिखे हैं।  क्या अंतर्जाल पर सक्रिय हिन्दी भाषी चिंत्तन क्षमता से इतना कमजोर हैं कि वह स्वयं इसके महत्व पर विचार नहीं करते।

            हैरानी तो इस बात पर भी होती है कि व्यवसायिक विद्वान आज भी हिन्दी के प्रचार प्रसार की बात करते हुए उसके पिछड़ेपन के लिये बाज़ार को बता देते हैं जो हिन्दी भाषियों का दोहन तो करता है पर उसके विकास पर जोर नहीं देता।  इतना ही नहीं बाज़ार पर अपने हिसाब से हिन्दी अंग्रेजी की मिश्रित हिंग्लिश का प्रचलन बढ़ाने का आरोप भी लगता है।  सबसे बड़ी बात तो यह कि हिन्दी की निराशाजनक स्थिति पर हमेशा बोलने वाले यह विद्वान बरसों से रटी रटी बतायें दोहराते हैं।  उनके पास हिन्दी को लेकर अपनी कोई योजना नहीं है और न ही हिन्दी  भाषी जनमानस में प्रवाहित धारा को समझने का कोई प्रयास किया जाता है।  वह अपने पूर्वाग्रहों के साथ हिन्दी भाषा पर नियंत्रण करना चाहते हैं। मुख्य बात यह कि ऐसे विद्वान हिन्दी को रोजी रोटी की भाषा बनाने का प्रयास करने की बात करते हुए उसमें अन्य भाषाओं से शब्द शामिल करने के प्रेरणा देते हैं।  उन्हें आज भी हिन्दी साठ साल पहले वाली दिखाई देती है जबकि उसने अनेक रूप बदले हैं और वह अब निर्णायक संघर्ष करती दिख रही है।

            हिन्दी आगे बढ़ी है।  एक खेल टीवी चैनल तो अब हिन्दी में सीधा प्रसारण कर रहा है और हम ऐसे अनेक पुराने क्रिकेट खिलाड़ियों को हिन्दी बोलते देखते हैं जिनके मुंह से अभी तक अंग्रेजी ही सुनते आये थे।  कपिल देव और  नवजोत सिद्धू के मुख से हिन्दी शब्द सुनना तो ठीक है जब सौरभ गांगुली, सुनील गावस्कर, अरुणलाल तथा संजय मांजरेकर जैसे लोगों से हिन्दी वाक्य सुनते हैं तो लगता है कि बाज़ार भी एक सीमा तक भाषा नियंत्रित करता है तो होता भी है।  रोजी रोटी से भाषा के जुड़ने का सिद्धांत इस तरह के परिवर्तनों से जोड़ा जा सकता है पर हमेशा ऐसा नहीं होता क्योंकि भाषा की जड़ों को इससे मजबूती नहीं मिलती क्योंकि बाज़ार को भाषा के विकास से नहीं वरन् उसक दोहन से मतलब होता है।

            अंतर्जाल पर हिन्दी भाषा को  कम समर्थन मिलता है इससे यहां लिखने वालों के लिये रोजी रोटी या सम्मान मिलने जैसी  कोई सुविधाजनक प्रेरणा नहीं है पर परंपरागत क्षेत्रों में भी तो यही हाल है।  फिर भी वहां स्वांत सुखाय लिखने वाले ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो  हिन्दी की अध्यात्मिक धारा में प्रवाहित होने का आंनद लेते हैं। उन्हें व्यवसायिक धारा से जुड़कर शब्द और शैली पर समझौता करना पसंद नहीं है।  न ही दूसरे के निर्देश पर रचना की विषय सामग्री रचने  की उनमें इच्छा पैदा है। उनके लिये भाषा सांसरिक विषयों से अधिक अध्यात्मिक महत्व की है। उनका बेहतर चिंत्तन हिन्दी में होता है जिसकी अभिव्यक्ति हिन्दी में होने पर ही उनको संतोष होता है। हिन्दी में सोचकर अंग्रेजी में बोलने के लिये व्यावसायिक बाध्यता नहीं होती।  वैसे हमारा मानना है कि हिन्दी की ताकत ग्रामीण और मध्यम क्षेत्र के शहरी लोग हैं जिनका अंग्रेजी से कोई संबंध नहीं है।  वह हिन्दी से इतर कही बात को अनसुना कर देते हैं।  आज के लोकतांत्रिक तथा भौतिक युग की यह बाध्यता बन गयी है कि भारत क आम जनमानस को प्रभावित करने के लिये हिन्दी की सहायता ले। यही कारण है कि व्यवसायिक समूह हिन्दी से जुड़ रहे हैं जो कि हिन्दी के भविष्य के लिये अच्छे संकेत हैं।

            सबसे बड़ी बात यह कि  हमारी राय हिन्दी के विषय में अलग है।  वह ब्लॉग मित्र पता नहीं कहां लापता है जिसका यह सिद्धांत हमारे मन को भाया था कि हिन्दी एक नवीन भाषा है इसलिये वह बढ़ेगी क्योंकि यह संसार का सिद्धांत है कि नवीनता आगे बढ़ती है। उनका यह भी मानना था कि अंग्रेजी पुरानी भाषा इसलिये उसका पतन होगा।  हमारे यहां अंग्रेजी के प्रति मोह विदेशों में नौकरी की वजह से है।  सामाजिक विशेषज्ञ भले ही प्रत्यक्ष न कहें पर सच यह है कि श्रम निर्यातक देश के रूप में भारत में अंग्रेजी का महत्व इस कारण ही बना हुआ है क्योंकि यहां शिक्षित बेरोजगारों की संख्या ज्यादा है और उन्हें बाहर जाकर रोजगार ढूंढने या करने के लिये उसका ज्ञान आवश्यक माना जाता है। यह शर्त निजी व्यवसाय पर लागू नहीं होती क्योंकि पंजाब के अनेक लोग बिना अंग्रेजी के ही बाहर जाकर व्यवसायिक करते हुए फलेफूले हैं। बहरहाल विश्व में डूबती उतरती अर्थव्यवस्था अब नौकरियों की कमी का कारण बनती जा रही है।  इधर जापान से भारत में निवेश की संभावना से निजी छोटे उद्योग पनपने की संभावना है। ऐसे में लगता तो यही है कि नवीन भाषा होने के कारण हिन्दी वैश्विक भाषा बन ही जायेगी।  जिन्हें समय के साथ चलना है उन्हें हिन्दी का ज्ञान रखना जरूरी है क्योंकि इसके अभाव में अनेक लोग देश में ही अपनी वाणी के लिये परायापन अनुभव करने लगेंगे।

            इस हिन्दी दिवस पर सभी ब्लॉग लेखकों और पाठकों को बधाई।  हमारा यही संदेश तो यही है कि हिन्दी अध्यात्मिक भाषा है। इसमें चिंतन, मनन, अध्ययन और वाचन करने से ही हमारे विचार, व्यवहार और व्यक्तित्व की मौलिकता बचा सकते हैं।

लिखना और बोलना प्रभावी बनाने के लिये अध्ययन जरूरी-विशिष्ट हिन्दी रविवारीय लेख


                     अनेक लोगों का मन करता है कि वह कुछ लिखें।  कुछ लोग शेरो शायरी कर दूसरे को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। कुछ लोग अंग्रेजी कहावतों को सुनाकर यह कोशिश करते हैं कि सामने वाला आदमी उनकी बुद्धि का लोहा माने।  वैसे अपनी बात कहने में तुलसीकृत रामचरित मानस  का अध्ययन करने वालों का जवाब नहीं है।  खास अवसरों पर वह उसके दोहे सुनाकर अपने गहन अध्ययन को प्रमाणित कर देते हैं पर उसमें उनका स्वरचित कुछ नहीं होता।  समाज पर प्रभाव तो वही डाल सकता है जो स्वयं रचनाकार हो।  वैसे आजकल शेरो शायरी कर अपनी बात का प्रभावपूर्ण ढंग से कहने का रिवाज चल पड़ा है पर यह हमारे पारंपरिक वार्तालाप का कोई स्थाई भांग नहीं है। कई विषयों पर कबीर, रहीम और तुलसी की रचनायें इतना प्रभाव रखती हैं कि उनके उद्धरण उर्दू की शायरी से बेहतर प्रभावी रहते हैं।  इन सबके बावजूद यह सच्चाई है कि आदमी का मन स्वरचना की अभिव्यक्ति के लिये तड़पता है।  लिखना और बोलना  सहज लगता है   पर वह उनके दूसरे को मस्तिष्क और हªदय को अंदर तक प्रभावित कर दे ऐसी बात लिखना  या बोलना आसान नहीं है। प्रभावी लेखन और वार्तालाप के लिये आवचश्यक है कि हम दूसरे का लिखा धीरज से पढ़ें और कही गयी बात सुने।

ब्लॉग लेखन के प्रारंभिक दौर में अनेक पाठकों ने हमसे पूछा कि आप इतना लिख कैसे लेते हैं? इसका सीधा जवाब तो यह था कि हम पढ़ते बहुत हैं पर किसी को दिया नहीं!  सोचते कि अपने हर राज को बांटना जरूरी नहीं है।  सच्चाई यह है कि   जितना ज्यादा पढ़ोगे उतना ही ज्यादा लिखोगे।  जितना अच्छा सुनोगे उतना अच्छा बोलोगे।  तय बात है कि अपनी प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिये पुस्तक प्रेम और बेहतर संगत का होना जरूरी है।  मूर्खों में बैठकर गल्तियां न करना सीखा जा सकता है पर बुद्धिमानों की संगत में बिना गल्तियां किये काम करने की  मिलने वाली प्रेरणा ही असली ही शक्ति होती है।

इधर जब फेसबुक पर अपने निजी तथा सार्वजनिक संपर्क वाले लोगों को देखते हैं तो उनके अंदर अपनी अभिव्यक्ति की कभी शांत न होने वाली भूख साफ दिखाई देती है।  उनके पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा है। उन्होंने फेसबुक पर खाते खोल लिये हैं।  मोबाइल से फोटो खींचकर उसमें डाल देते हैं।  दूसरे की पठनीय और दर्शनीय सामग्री अपने फेसबुक पर लाने के लिये उन्हें शेयर करना पड़ता है।  कई लोग तो ऐसे हैं जो शेयर करते समय एक शब्द भी नहीं लिखते। लिखते भी है तो रोमन में हिन्दी लिखकर अपनी भूख शांत करते हैं।  ऐसे में उनकी अभिव्यक्ति की भूख साफ दिखती है। भूख और प्यास की व्याकुलता हमने स्वयं भी झेली है पर खुशी होती है यह देखकर अभिव्यक्ति के लिये कभी तड़पना नहीं पड़ता।  हिन्दी और अंग्रेजी टाईप का शैक्षणिक काल में ज्ञान प्राप्त किया और तीस वर्ष पहले कंप्यूटर से ही अपनी जिंदगी शुरु की थी।  इसलिये वर्तमान समय में बिना हिचक इंटरनेट पर लिख लेते हैं।  लिखने के विषय का टोटा नहीं रहा पर अध्यात्मिक विषयों की पुस्तकें पढ़कर चिंत्तन लिखते हुए जीवन का ज्ञान स्वतः ही आता रहा।  हमारे अध्यात्मिक विषयों पर लिखे गये पाठों को देखकर पाठक सोचते हैं कि यह कोई पुराना ज्ञानी है पर सच्चाई यह है कि लिखते लिखते ही बहुत सारा ज्ञान आ गया है।

इस ज्ञान साधना ने जीवन के प्रति विश्वास दिया पर व्यंग्य विद्या कोे छीन लिया।  अनेक बार व्यंग्य लिखने का मन करता है पर कहीं न कहीं ज्ञान उसमें बाधा बन जाता है।  व्यंग्य विषय गंभीरता के रंग में डूब जाता है।  अपने ही बचपन गुजारने के बाद जवानी में परे हुए लोगों के फेसबुक देखते हैं।  उनको हम ढूंढते हैं पर वह भुलाये बैठे है।  हम उनके पास अपने मित्र बनने का कोई प्रस्ताव नहीं भेजते।  इसका कारण यह है कि अनेक बार वह हमारे व्यंग्यों और चिंत्तनों का हिस्सा बने हैं।  दूसरी बात यह कि हमारे लेखकीय और पाठकीय संस्कारों से न उनका कोई वास्ता है और न ही हमारी इच्छा है कि वह हमसे बिना हृदय के फेसबुक से  जुड़ें।

हम अपने उन बिछड़े लोगों का एबीसी समूह बनाकर बात करते हैं। इनमें हम बी नाम से हैं।   हम अपने ही शहर में रहे पर ए और सी बाहर जाकर बसे हैं।  इंटरनेट पर फुरसत के समय बहुत दिन तक  ए नाम के व्यक्ति का फेसबुक ढूंढा पर मिला नहीं।  अब दो महीने उन्होंने बनाया तो हमारे दृष्टिपथ में आ गया। सी की स्थिति यह थी कि उनकी पत्नी का फेसबुक  मिला। उन पर सी का फोटो क्या  नाम तक नहीं था।  चेहरे से पहचाना कि यह जान पहचान वाली भद्र महिला है।  परसों  उस पर  सी का फोटो देखने को मिला।  अपनी बेटी और दामाद के साथ सी और उसकी पत्नी ने फोटो खिंचवाया और फेसबुक  पर डाला।  ए और उसके  बेटे और बहु का फेसबुक रोज देखते हैं।

उस दिन ए का फोन बहुत दिन बाद आया।  उसे किसी दूसरे आदमी का फोन नंबर चाहिये था।  उस समय उसके बेटे के फेसबुक को ही देख रहे थे जो अधिक सक्रिय है।  हमने उसे नहीं बताया कि क्या कर रहे हैं।  संभावना यह  भी है कि सी से भी अगले सप्ताह उसके शहर आने पर मुलाकात होगी पर उससे फेसबुक की चर्चा बिल्कुल नहीं करेंगे।  दरअसल इसका कारण यह है कि हमारा लिखा देखकर लोग पूछते हैं कि इसका तुम्हें मिलता क्या है?

यहां हम स्वयं को ही प्रभाहीन अनुभव करते हैं।  यह कहते हुए शर्म आती है कि हम फोकटिया हैं। लिखने का अभ्यास इतना है कि एक हजार शब्दों का लेख हम बीस मिनट में सोचते हुए लिख देते हैं।  यह सहज इसलिये होता है कि हमारी दृष्टि हमेशा समय मिलते ही पठनीय सामग्री पर चली जाती है।  यह आवश्यक है कि उसे देखकर ही हम कुछ लिखें पर कहीं न लिखने की प्रेरणा उससे ही मिलती है।  ए और सी के साथ  उनके परिवार  के सदस्यों के फेसबुक देखकर लगता है कि हम भाग्यशाली हैं कि लिखने की शक्ति मिली है।  हालांकि इसमें अच्छा पढ़ने और सुनने का भी योगदान है।

लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
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हमें पता है कि सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण सामान्य प्राकृतिक घटना है-हिन्दी लेख (chadra grahan and sooryagrahan-hindi lekh)


    दुनियां में सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण आते रहते हैं। बरसों से हम देख रहे हैं पर इतनी चर्चा कभी नहीं होती थी। बचपन में बुजुर्गों के पहले ही पता चल जाता था कि अमुक तारीख को सूर्य ग्रहण या चंद्रग्रहण है। उस दिन कुछ सावधानी बरतने की बात कही जाती पर वह आज के टीवी चैनलों की तरह महाबहस का विषय नहीं होती थी। सच कहें तो सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण को सामान्य घटना ही माना जाता था। कहीं आतंक या डर का माहौल नहीं देखा। आजकल   टीवी चैनलों ने दोनों ग्रहणों का बाज़ारीकरण कर दिया है।
         कह रहे हैं कि डरो नहीं, खूब देखो। कुछ परेशानी नहीं है। इन चैनलों पर बहस के लिये आने वाले वही लोग होते हैं जो पहले भी आते रहे हैं। खगोलशास्त्र से जुड़ी इन घटनाओं पर चर्चा करने के लिये ज्योतिषी बुलाये जाते हैं। फिर उनका मुकाबला करने के लिये कुछ आधुनिक विज्ञान समर्थक भी होते हैं। प्रचार इस तरह किया जाता है कि जैसे हिन्दू समाज में ही अंधविश्वास हो और पश्चिमी विज्ञान एकदम प्रमाणिक है। यह सब देखकर हम तो यह सोचते हैं कि भारतीय हिन्दू समाज इतना अविकसित ओर पिछड़ा नहीं है जितना आधुनिक ज्ञानी समझते हैं। देखा जाये तो हमारी श्रीमद्भागवत गीता के प्रचलन में आने के बाद भारतीय समाज शायद दुनियां का इकलौता समाज है जो समय के साथ आगे बढ़ता जाता है। यह अलग बात है कि प्रगतिशील और जनवाद से जुड़े विद्वानों का सभी जगह बाहुल्य है जिनकी यह मनोवृत्ति है कि संपूर्ण भारतीय अध्यात्म दर्शन को अवैज्ञानिक तथा समाज को जड़ साबित कर अपनी चेतना की व्यवसायिक धारा प्रवाहित की जाये। फिर उनके साथ बहस करने वाले भारतीय अध्यात्म के ज्ञानी भी कुछ इस तरह पेश आते हैं जैसे कि अंधविश्वास का समर्थन कर रहे हों। पेशेवर ज्योतिषी अपने प्रचार क्रे लिये आते हैं तो उनका मुकाबला करने पेशेवर बहसकर्ता आते हैं। चर्चा कराने वाले उद्घोषक का तो कहना भी क्या? निरपेक्ष दिखने की कोशिश इस तरह करते हैं जैसे कि लग रहा हो कि किसी विषय पर सहमति या असहमति न देना ही उनकी योग्यता का प्रमाण हो।
       भारत के हिन्दी टीवी चैनलों में कार्यरत उद्घोषकों का यह भाग्य है कि भारतीय अध्यात्म की व्यापकता ही उनको इस तरह के कार्यक्रम प्रदान करती है। जिसमें ढेर सारे ग्रंथ हैं और उसमें जीवन के हर पक्ष के साथ -जिसमें मनुष्य तथा अन्य जीव भी शािमल हैं-प्रकृति के रहस्यों पर भी प्रकाश डाला गया है। जबकि अन्य दर्शनों में अन्य जीवों की उपेक्षा कर केवल मानव जीवन पर ही अधिक लिखा और बोला जाता हैं। कुछ बातें मनुष्य समाज के संचालन से संबंधित होती हैं।
        प्रकृति के रहस्यों पर पश्चिम तो अब दृष्टिपात कर रहा है जबकि भारतीय अध्यात्म दर्शन में बहुत पहले ही इस पर लिखा गया है। हमने पंचांगों में सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण की तारीखें देखी हैं जो कि यकीनन पश्चिमी विज्ञान से नहीं ली गयीं। पहले लोग अखबार पढ़े बिना बताते थे कि अमुक दिन चंद्रग्रहण या सूर्यग्रहण है।
बहरहाल भारत के टीवी चैनल अपने व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति अपने अध्यात्मिक दर्शन के आधार पर कर लेते हैं यह अलग बात है कि अपने चश्में से समाज को अधंविश्वासी समझने वाले उद्घोषक अपने को भले ही चालाक समझें पर हम सब जानते हैं कि उनकी अदायें ऐसी न हों तो शायद उनका काम भी न चले।
       पिछली बार के पूर्ण सूर्यग्रहण की याद आती है जब कहा गया है कि उसे देखना ठीक नहीं है और देखना है तो विशेष प्रकार के चश्में से देखें। सामान्य रंगीन चश्में से काम नहीं चलेगा। हम आज भी सामान्य काले चश्में से दोपहर मेें तपते हुए सूर्य को आसानी से देख पाते हैं। तब यह सवाल आता है कि ग्रहण के समय जब सूर्य का प्रकाश कम हो जाता है तो वह सामान्य से अधिक खतरनाक कैसे हो सकता है। उस समय खूब सूर्यगं्रहण देखने वालेचश्में बिके थे उसमें कुछ तो नकली भी बताये गये थे। तय बात है कि बाज़ार ने ही ऐसा प्रचार करवाया होगा ताकि वह अपने उत्पाद बेच सके। वैसे तो इष्ट दिवस, मित्र दिवस, पितृदिवस, मातृदिवस तथा प्रेम दिवस जैसे पश्चिमी दिवसों को भारतीय प्रचार माध्यम अपने प्रायोजक बाज़ार के लिये विज्ञापन प्रसारित कर उसके लिये ग्राहक जुटाते हैं। वैसे ही भारतीय त्यौहारों के साथ सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण भी उनके लिये विज्ञापन प्रसारण के बीच में कार्यक्रम की सामग्री बन जाते हैं।
      वैसे चर्चाओं में शामिल लोग भारतीय समाज को फालतु समझते हैं पर लोगों को लगते स्वयं फालतू हैं-हम नहंी मानते क्योंकि पता है कि यह सब कमाई करने और प्रचार पाने के लिये बहस करने आते हैं।
हम यह खग्रास चंद्रग्रहण देख पायेंगे कि पता नहीं। यह लेख लिखने के तत्काल बाद ही सोने का प्रयास करेंगे। अगर बीच में नींद टूटी तो छत पर देखने जायेंगे कि कैसा है खग्रास चंद्रग्रहण। जहां हानि लाभ, दुःख सुख, और जीवन मरण का सवाल है तो वह इस संसार का हिस्सा हैं। जब तक देह हैं तो विकार आयेंगें। भूख लगेगी, प्यास लगेगी। कभी जीभ किसी नये स्वाद के लिये चीत्कार करेगी। जिस तरह सत्य अनंत है वैसे ही माया भी अनंत है। सत्य सूक्ष्म है और उसे ध्यान आदि के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है तो माया इतनी व्यापक है कि उसके चक्र में फंसे तो सभी हैं पर समझ नहीं पाते। खेलती माया है और आदमी सोचता है कि मैं खेल रहा हूं।
      जहां तक चर्चाओं का सवाल है तो भारतीय अध्यात्म इतना विशाल है कि जिस विषय पर चाहो बहस कर लो। जहां चार बुजुर्ग मिलते हैं किसी न किसी धर्मग्रंथ पर बहस करने लगते हैं। सभी अपना ज्ञान सुनाते हैं पर सुनता कौन है पता नहीं। सभी बोलते हैं। यही हाल टीवी चैनलों का है पर वहां के उद्घोषक तमाम तरह के तामझाम और आकर्षण मे घिरे होते हैं इसलिये उनको विद्वान माना जाता है। यह अलग बात है कि उनकी महाबहस-यह शब्द आज तक हमारे समझ में नहीं आया-अध्यात्मिक में वास्तविक रुचि रखने वालों के लिये हास्य का विषय होती है।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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मान बड़ाई ऊरमी, ये जग का व्यवहार।
दीन गरीबी बन्दगी, सतगुरु का उपकार।।
मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि जिस तरह दुनियां का व्यवहार है उससे देखकर तो यही आभास होता है कि मान और बड़ाई दुःख का कारण है। सतगुरु की शरण लेकर उनकी कृपा से जो गरीब असहाय की सहायता करता है, वही सुखी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे अनेक लोग हैं जो अपनी धार्मिक छबि बनाये रखने के लिये भक्ति का दिखावा करते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो गुरु बनकर अपने लिये शिष्य समुदाय का निर्माण कर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं। ऐसे दिखावे की भक्ति करने वाले अनेक लोग हैं। इसके विपरीत जो भगवान की वास्तव में भक्ति करते हैं वह उसका प्रयार नहीं करते न ही अपना ज्ञान बघारते हैं।
भक्त और ज्ञानी की पहचान यह है कि वह कभी अपनी भक्ति और ज्ञान शक्ति का बखान नहीं करते बल्कि निर्लिप्त भाव से समाज सेवा करते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। अपनी सच्ची भक्ति और ज्ञान के कारण कुछ लोग महापुरुषों की श्रेणी में आ जाते हैं उनको देखकर अन्य लोग भी यही प्रयास करते हैं कि उनकी पूजा हो। यह केवल अज्ञान का प्रमाण है अलबत्ता अपने देश में धार्मिक प्रवचन एक व्यवसाय के रूप में चलता रहा है। इस कारण तोते की तरह किताबों को रटकर लोगों को सुनाते हुए खूब कमाते हैं। उनको देखकर कुछ लोग यह सोचते हुए भक्ति का दिखावा करते हैं कि शायद उनको भी ऐसा ही स्वरूप प्राप्त हो। अनेक लोग संतों की सेवा में इसलिये जाते हैं कि हो सकता है कि इससे उनको किसी दिन उनकी गद्दी प्राप्त हो जाये। ऐसे में भक्ति और ज्ञान तो एक अलग विषय हो जाता है और वह मठाधीशी के चक्कर में राजनीति करने लगते हैं। किताबों को रटने की वजह से उनको शब्द ज्ञान याद तो रहता है ऐसे में वह थोड़ा बहुत प्रवचन भी कर लेते हैं पर उनकी भक्ति और ज्ञान प्रमाणिक नहीं है। वैसे भी अपने पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन हर आदमी इतना तो कर ही लेता है कि उसे सारी कथायें याद रहती हैं। नहीं भी अध्ययन करे तो इधर उधर सुनकर उसे बहुत सारी कथायें याद आ ही जाती हैं। । किसी आदमी ने वह भी नहीं किया हो तो अपने अध्यात्मिक दर्शन के कुछ सूक्ष्म सत्य-निष्काम कर्म करो, परोपकार करो, दया करो और माता पिता की सेवा करे जैसे जुमले- सुनाते हुए श्रोताओं और दर्शकों की कल्पित कहानियों से मनोरंजन करता है। उनको सम्मानित होते देख अन्य लोग भक्ति में जुट जाते हैं यह अलग बात है कि कामना सहित यह भक्ति किसी को भौतिक फल दिलाती है किसी को नहीं।
फिर भक्ति हो या ज्ञानार्जन अगर कामना सहित किया जाये और सफलता न मिले तो आदमी संसार में दोष ढूंढने लगता है। यह केवल भक्ति या ज्ञान के विषय में नहीं है बल्कि साहित्य और कला के विषयों में भी यही होता है। आदमी आत्ममुग्ध होकर अपना काम शुरु करता है पर जब उसे सफलता नहीं मिलती तो वह निराश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि सम्मान पाने का मोह आदमी के लिये दुःख का कारण बनता है। एक बात याद रखें सम्मान पाने की चाह पूरी नहीं हुई तो दुःख तो होगा और अगर पूरी भी हो गयी तो अपमान भी हो सकता है। जहां सुख है वहां दुःख भी है। जहां आशा है वहां निराशा भी है। जहां सम्मान है वहां अपमान भी है। अगर सम्मान मिल गया तो चार लोग आपके दोष निकालकर अपमान भी कर सकते हैं।
इसलिये अच्छा यही है कि अपने कर्म निष्काम भाव से करें। इस संसार में निर्विवाद सम्मान पाने का बस एक ही तरीका है कि आप गरीब को धन और अशिक्षित को शिक्षा प्रदान करें। प्रयोजन रहित दया करें। ऐसे काम बहुत कम लोग करते हैं। जो सभी कर रहे हैं उसे आप भी करें तो कैसा सम्मान होगा? सम्मान तो उसी में ही संभव है जो दूसरे लोग न करते हों।  वैसे भी अपने काम में निष्काम भाव से लगे रहने से उसमें सफलता मिलती है तो समाज स्वयं ही सम्मान करता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwalior
editor-Deepak raj kukreja ‘Bharatdeep’
http://deepkraj.blogspot.com

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