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अयोध्या में राम मंदिर और राम-हिन्दी कविता (ayodhya mein ram mandir aur ram-hindi poem)


उन्होंने कहा कि
‘तुम अयोध्या के राम मंदिर पर लिखो
उस पर फैसला होने वाला है
जरूर इससे सनसनी फैल जायेगी
तुम्हारी प्रसिद्ध होने भूख भी तभी शांत हो पायेगी।’
मुझे तब अपने घर रखी राम की
तस्वीर दिखाई दी
जिसमें मेरे पूज्य मुस्करा रहे थे
बरबस मैं भी मुस्करा दिया
जैसे इष्ट ने आनंद के झूले में झुला दिया।
मुझे नहीं लगा कि
मेरी कलम इन क्षणो पर अभिव्यक्त हो पायेगी।
मेरे मन में जो हर पल विचरे हैं
उनके प्रति आस्था के बीज
रक्त के कण कण में बिखरे हैं,
अमूर्त रूप से बसे हैं जो आंखों में
तस्वीरों जितने चेहरे भी हैं लाखों में
उनके स्मरण से बढ़ती हुई ताकत
खड़ा कर देती है ज़िदगी के खुशनुमा पलों के सामने
शीतल होती जा रही देह की उंगलियां
ऐसे में कहां आग उगल पायेंगी।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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गणेश चतुर्थी-श्री गणेश जी का लेखक रूप स्मरण करने योग्य (ganesh chaturthi par vishesh hindi lekh)


        आज पूरे देश में गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जा रहा है। देश के लगभग सभी शहरों और गांवों में उनकी जगह जगह मूर्तियों की स्थापना की जा रही है। इस अवसर पर गणेशोत्सव मनाया जाता है जिस पर अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। गणेश उत्सव के दौरान होने वाले कार्यक्रमों में लोग बहुत उत्साह से शामिल होते हैं।
भगवान श्रीगणेश ही का हमारे जीवन में कितना धार्मिक महत्व यह इसी बात से समझा जा सकता है कि किसी भी शुभ कार्य के प्रारंभ में उनका स्मरण किया जाता है। इसका कारण उनको भगवान शिव तथा अन्य देवताओं द्वारा दिया गया है वह वरदान है जो उनको अपने बौद्धिक कौशल के कारण मिला था।
    एक समय देवताओं में अपनी श्रेष्ठता को लेकर होड़ लगी थी। श्रेष्ठ देवता के चयन के लिये यह तय किया गया कि जो इस प्रथ्वी का दौरा सबसे पहले कर लौटेगा वही उसका दावेदार होगा। सारे देवतागण उसके लिये दौड़ पड़े मगर श्री गणेश महाराज अपने माता पिता के पास बैठे अपनी लीला करते रहे। जब बाकी देवताओं के वापस लौटने की संभावना देखी तो तत्काल उठे और अपने माता पिता भगवान शिव और पार्वती की प्रदक्षिणा कर घोषणा की कि उन्होंने तो सारी सृष्टि का दौरा कर लिया क्योंकि भगवान शिव और माता पार्वती ही उनके लिये सृष्टि स्वरूप हैं। उनके इस तर्क को स्वीकार किया गया और यह आशीर्वाद दिया गया कि जो मनुष्य किसी भी शुभ कर्म के प्रारंभ में उनकी छबि की स्थापना करेगा उसे उसका अच्छा फल प्राप्त होगा। उसके बाद से उनको शुभफलदायक माना जाने लगा।
मगर उनका यह रूप सकाम भक्तों के लिये ही सर्वोपरि है जबकि निष्काम तथा ज्ञानी भक्त उनको महाभारत ग्रंथ के लेखक के रूप में भी उनकी याद करते हैं जिसमें सम्मिलित श्रीगीता संदेश बाद में भारतीय अध्यात्म का एक महान स्त्रोत बन गया और जिसा आज पूरा विश्व लोहा मानता है। वैसे महाभारत के रचनाकार तो ऋषि वेदव्यास जी है पर उसकी रचना श्री गणेश महाराज की कलम से ही हुई है।
        श्री गणेशजी का चेहरा हाथी का है और सवारी चूहे की है जो कि उनके भक्तों में विनोद का भाव भी पैदा करता है। उनको यह चेहरा उनके पिता भगवान शिव ने ही दिया जिन्होंने क्रोधवश उसे काट दिया था। एक बार माता पार्वती जी नहा रही थी और उन्होंने अपने पुत्र बालक गणेश को यह निर्देश दिया कि वह दरवाजे पर बैठकर पहरा दें और किसी को घर के अंदर न आने दें। आज्ञाकारी बालक गणेश जी वहीं जम गये। थोड़ी देर बात भगवान शिव आये तो श्री गणेश जी ने उनको अंदर जाने से रोका। पिता पुत्र में विवाद हुआ और भगवान शिव ने अपने ही बेटे का सिर अपने फरसे से काट दिया। बाद में उनको पछतावा हुआ और फिर उनको हाथी का सिर लगाकर पुनः जीवन प्रदान किया गया।
भगवान श्रीगणेश का चरित्र बहुत विशाल है। जब श्री वेदव्यास महाभारत की रचना कर रहे थे तब उन्होंने उसके लेखन के लिये श्रीगणेश जी का स्मरण किया। लिखने के लिये श्रीगणेश जी यह शर्त रखी कि जब तक वेदव्यास की वाणी चलती रहेगी वह लिखते रहेंगे और जब वह रुक जायेगी तो लिखना बंद कर देंगे।
           हमारे अध्यात्म में अनेक भगवान हैं मगर श्री गणेश जी की हस्तलिपि में लिखी गयी श्री मद्भागवत गीता को एक अनुपम ग्रंथ है जिसके कारण सकाम था निष्काम दोनों ही प्रकार के भक्तों में उनको श्रेष्ठ माना जाता है। सकाम भक्ति तथा राजस भाव वाले मनुष्य श्रीमद्भागवत गीता का पूज्यनीय तो मानते हैं पर उसके ज्ञान से यह सोचकर घबड़ाते हैं कि वह उनको सांसरिक कर्म से विरक्त कर देगी। यह उनका वहम है। जबकि इसके विपरीत श्रीमद्भागवत गीता तो निष्काम भक्ति तथा निष्प्रयोजन दया के साथ ही देह, मन और विचारों में शुद्धता लाने का मंत्र बताने वाला एक महान ग्रंथ है और हृदय में पवित्र भाव लाकर उसका अध्ययन करने से जीवन के ऐसे रहस्य हमारे सामने प्रकट हो जाते हैं जो हमारे ज्ञान चक्षु खोल देते हैं। इस संसार वह स्वरूप हमारे सामने आता है जो सामान्य रूप से नहीं दिखता। मूर्तिमान श्रीगणेश जी का वह अमूर्तिमान लेखकीय स्वरूप उन ज्ञानियों को बहुत लुभाता है जो श्री गीता संदेश का महत्व समझते हैं।
            गणेश चतुर्थी के अवसर पर हिन्दी ब्लाग जगत के साथी लेखकों और पाठकों को हार्दिक बधाई तथा शुभ कामनायें। ॐ  नमो गणेशायनमः।
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लेखक संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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क्रिकेट मैच में अब फिक्स नॉबोल-हिन्दी व्यंग्य (now nobol fix in cricket match-hindi vyangya)


पाकिस्तान के सात खिलाड़ी मैच फिक्सिंग के आरोपों में फंस गये हैं। फंसे भी क्रिकेट के जनक इंग्लैंड में हैं जहां पाकिस्तानी पहले से बदनाम हैं। यह खबरें तो उन्हीं प्रचार माध्यमों से ही मिल रही हैं जो उस बाज़ार के ही भौंपू हैं जिसके अनेक शिखर सौदागरों पर भूमिगत माफिया से संबंध रखने का आरोप है। कभी कभी ऐसी खबरें देखकर हैरानी होती है कि आखिर यह क्रिकेट जो इन प्रचार समाचार माध्यमों के रोजगार का आधार है क्योंकि इससे उनको प्रतिदिन आधे घंटे की सामग्री मिलती है तो कैसे उसे बदनाम करने पर तुल जाते हैं।
पहली बार पता चला कि नोबॉल भी फिक्स होती है। पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों ने गेंद फैंकते समय अपना पांव लाईन से इतना बाहर रखा था कि अंपायर के लिये यह संभव नहीं था कि वह उसकी अनदेखी करे। जब खिलाड़ी फिक्स हैं तो अंपायर भी फिक्स हो सकता है पर पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने इतना पांव निकाला कि नोबॉल न देने के लिये फिक्स करने वाला अंपायर भी कैमरें की वजह से उसे संदेह का लाभ नहीं दे सकता था।
आरोप लगे हैं कि पाकिस्तानी खिलाड़ी औरतों, पैसे तथा मस्ती करने के शौकीन हैं। पाकिस्तानी खिलाड़ियों का चरित्र तो वहीं के लोग बयान करते हैं। कुछ पर तो मादक द्रव्य पदार्थों की तस्करी का भी आरोप है। जब पाकिस्तानी खिलाड़ी पकड़े जाते हैं तो उनकी एकाध प्रेमिका भी सामने आती है जो उनकी काली करतूतों का बयान करती है। एक चैनल के मुताबिक पाकिस्तान का एक गेंदबाज की प्रेमिका के अनुसार वह तो बिल्कुल अपराध प्रवृत्ति का और यह भी उसी ने बताया था कि ‘2010 में पाकिस्तानी कोई मैच जीतने वाला नहीं है, ऐसा तय कर लिया गया है। पिछले 82 मैचों से फिक्सिंग चल रही है। वगैरह वगैरह।
जिस बात पर हमारी नज़र अटकी वह थी कि ‘पाकिस्तान खिलाड़ियों ने 2010 में मैच न जीतने की कसम खा रखी है। संभवत आजकल उनको हारने के पैसे मिल रहे हैं। हां, यह क्रिकेट में होता है। श्रीलंका में हुए एक मैच में आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान दोनों की टीमें मैच हारना चाहती थीं क्योंकि पर्दे के पीछे उनको अधिक पैसा मिलने वाला था। यानि जो जीतता वह कम पैसे पाता तोे बताईये पैसे के लिऐ खेलने वाले खिलाड़ी क्यों जीतना चाहेंगे। ऐसे आरोप टीवी चैनलों ने लगाये थे। बहरहाल पाकिस्तान टीम के खिलाड़ी अपनी आक्रामक छबि भुनाते हैं। उनके हाव भाव ऐसे हैं जैसे कि तूफान हो और इसलिये उनकी जीत पर अधिक पैसा लग जाता है। सट्टेबाज उसके हारने पर ही कमाते होंगे इसलिये ही शायद वह उनको हारने के लिये पैसा देते होंगे।
इधर अपने देश की बीसीसीआई की टीम भी लगातर जीतने में विश्वास नहंीं रखती। यकीनन इस टीम के कर्णधारों को पाकिस्तानी खिलाड़ियों की इस कसम का पता लगा होगा कि वह 2010 में जीतेंगे नहीं इसलिये उसके साथ न खेलने का फैसला किया होगा ।
बात अगर पाकिस्तान की हो तो अपने देश के सामाजिक, आर्थिक, खेल तथा कला जगत के शिखर पुरुषों के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। अगर संबंध अच्छे रखने हों तो कहना पड़ता है कि ‘इंसान सब कर सकता है पर पड़ौसी नहीं बदल सकता‘ या फिर ‘आम आदमी के आदमी से संपर्क करना चाहिऐ।’
अगर संबंध खराब करने हों तो आतंकवाद का मुद्दा एक पहले से ही तय हथियार है कहा जाता है कि ‘पहले पाकिस्तान अपने यहां आतंकवादी का खत्मा करे।
पिछली बार आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ियों को नहीं खरीदा गया था तो देश के तमाम लोगों ने भारी विलाप किया था। यहां तक कि इस विलाप में वह लोग भी शामिल थे जो प्रत्यक्षः इन टीमों के मालिक माने जाते हैं-इसका सीधा मतलब यही था कि यह मालिक तो मुखौटे हैं जबकि उनके पीछे अदृश्य आर्थिक शक्तियां हैं जो इस खेल का अपनी तरीके से संचालन करती हैं।
बाद में आईपीएल में फिक्सिंग के आरोप लगे थे। उसमें पाकिस्तान के खिलाड़ियों का न होना इस बात का प्रमाण था कि अकेले पाकिस्तानी ही ऐसा खेल नहीं खेलते बल्कि हर देश के कुछ खिलाड़ी शक के दायरे में हैं। यह अलग बात है कि पाकिस्तान बदनाम हैं तो उसके खिलाड़ियों को चाहे जब पकड़ कर यह दिखाया जाता है कि देखो बाकी जगह साफ काम चल रहा है। किसी अन्य देश का नाम नहीं आने दिया जाता क्योंकि उसकी बदनामी से मामला बिगड़ सकता है। पाकिस्तान के बारे में तो कोई भी कह देगा कि ‘वह तो देश ही ऐसा है।’ इससे प्रचार में मामला हल्का हो जाता है और प्रचार माध्यमों के लिये भी सनसनीखेज सामग्री बन जाती है।
पाकिस्तानी या तो चालाक नहीं है या लापरवाह हैं जो पकड़े जाते हैं। संभव है वह कमाई के लिये हल्के सूत्रों का इस्तेमाल करते हों। भारतीय प्रचार माध्यमों को तो सभी जानते हैं। निष्पक्ष दिखने के नाम पर तब इन खिलाड़ियों के कारनामों की चर्चा से बचते हैं जब यह भारत आते हैं। अभी पाकिस्तानी के एक खिलाड़ी ने एक भारतीय महिला खिलाड़ी से शादी की। वह भारत आया तो उसके लोगों ने ही उस पर आरोप लगाया था कि ‘वह तो फिक्सर है।’ मगर भारत की एक अन्य महिला ने जब उसी पाकिस्तानी खिलाड़ी से विवाह होने की बात कही और बिना तलाक दिये दूसरी शादी का विरोध किया तो यह प्रचार माध्यम एक बूढ़े अभिनेता को पाकिस्तानी खिलाड़ी के समर्थन में लाये। मामला सुलट गया और भारतीय खिलाड़िन से उस खिलाड़ी का विवाह हुआ। वह बूढ़े अभिनेता भी उस शादी में गया। आज तक एक बात समझ में नहीं आयी कि इन फिल्म वालों से क्रिकेट वालों रिश्ते बनते कैसे हैं। संभवत कहीं न कहीं धन के स्त्रोत एक जैसे ही होंगे।
इस देश में क्रिकेट खेल का आकर्षण अब उतना नहीं रहा जितना टीवी चैनल और अखबार दिखा रहे हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उनके पास मज़बूरी है क्योंकि इसके अलावा वह कुछ नया कर ही नहीं सकते।
एक दो नहीं पूरे सात पाकिस्तनी खिलाड़ी ब्रिटेन से मैच हारना चाहते थे। हारे भी! इससे उनके धार्मिक लोग नाराज़ हो गये हैं। इसलिये नहीं कि पैसा खाकर हारे बल्कि धर्म का नाम नीचा किया। कट्टर लोग धमकियां दे रहे हैं। कोरी धमकियां ही हैं क्योंकि इन कट्टर धार्मिक लोगों को पैसा भी उन लोगों से मिलता है जो क्रिकेट में मैदान के बाहर से इशारों में खिलाड़ियों को नचाते हैं और फिर उनको रैम्प पर भी नाचने का अवसर प्रदान करते हैं।
बहरहाल पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने 2010 में हारने की कसम खाई है। यह आरोपी सात खिलाड़ी हटे तो दूसरे नये लोग आकर भी उस कसम को निभायेंगे। इधर बीसीसीआई की टीम भी तब तक नहीं उनके साथ खेलेगी जब तक उनकी कसम खत्म की अवधि नहीं होती। आखिर बीसीसीआई के खिलाड़ी जीत कर थक जायेंगे तो उनको तो हराकर कर विश्राम कौन देगा। पाकिस्तानी खिलाड़ी यह अवसर देने को तैयार नहीं लगते। यही कारण है कि आतंक का मुद्दे की वजह से दोनों नहीं खेल रहे अब यह बात बड़े लोग कहते हैं तो माननी पड़ती है। 2011 में फिर मित्रता का नारा लगेगा क्योंकि तब पाकिस्तानी खिलाड़ियों की कसम की अवधि खत्म हो जायेगी। इधर आईपीएल की तैयारी भी चल रही है। लगता नहीं है कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों को इस बार भी मौका मिलेगा। कहीं किसी क्लब को जीतने का आदेश हो और उसमें अपनी कसम से बंधे एक दो पाकिस्तानी खिलाड़ी हारने के लिए खेले तो…….अब तो उनके लिये 2011 में ही दरवाजे खुल सकते हैं।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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हिन्दू धर्म संदेश-योग साधना से मन मजबूत होता है


प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।
हिन्दी में भावार्थ-
प्राणवायु को बाहर निकालने और अंदर रोकने के निरंतर अभ्यास चित्त निर्मल होता है।
विषयवती वा प्रवृत्तिरुपन्न मनसः स्थितिनिबन्धनी।।
हिन्दी में भावार्थ-
विषयवाली प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर भी मन पर नियंत्रण रहता है।
विशोका वा ज्योतिवस्ती।
हिन्दी में भावार्थ-
इसके अलावा शोकरहित प्रवृत्ति से मन नियंत्रण में रहता है।
वीतरागविषयं वा चित्तम्।
हिन्दी में भावार्थ-
वीतराग विषय आने पर भी मन नियंत्रण में रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय योग दर्शन में प्राणायाम का बहुत महत्व है। योगासनों से जहां देह के विकार निकलते हैं वहीं प्राणायाम से मन तथा विचारों में शुद्धता आती है। जैसा कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते आ रहे हैं कि इस विश्व में मनोरोगियों का इतना अधिक प्रतिशत है कि उसका सही आंकलन करना संभव नहीं है। अनेक लोगों को तो यह भी पता नहीं कि वह मनोविकारों का शिकार है। इसका कारण यह है कि आधुनिक विकास में भौतिक सुविधाओं की अधिकता उपलब्धि और उपयेाग के कारण सामान्य मनुष्य का शरीर विकारों का शिकार हो रहा है वहीं मनोरंजन के नाम पर उसके सामने जो दृश्य प्रस्तुत किये जा रहे है वह मनोविकार पैदा करने वाले हैं।
ऐसी अनेक घटनायें आती हैं जिसमें किसी फिल्म या टीवी चैनल को देखकर उनके पात्रों जैसा अभिनय कुछ लोग अपनी जिंदगी में करना चाहते हैं। कई लोग तो अपनी जान गंवा देते हैं। यह तो वह उदाहरण सामने आते हैं पर इसके अलावा जिनकी मनस्थिति खराब होती है और उसका दुष्प्रभाव मनुष्य के सामान्य व्यवहार पर पड़ता है उसकी अनुभूति सहजता से नहीं हो जाता।
प्राणायाम से मन और विचारों में जो दृढ़ता आती है उसकी कल्पना ही की जा सकती है मगर जो लोग प्राणायाम करते और कराते हैं वह जानते हैं कि आज के समय में प्राणायाम ऐसा ब्रह्मास्त्र है जिससे समाजको बहुत लाभ हो सकता है।

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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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ज्योतिष, नववर्ष और सितारे- नये वर्ष पर विशेष लेख (hindi satire on new year 2010)


धरती के सितारों को अपने सितारों की फिक्र नहीं जितनी कि उनके चेहरे, अदायें और मुद्रायें बेचने वालों को है। धरती के बाकी हिस्से का नहीं पता पर भारतीय धरती के सितारे तो दो ही बस्तियों में बसते हैं-एक है क्रिकेट और दूसरी है फिल्म। यही कारण है कि टीवी चैनल ज्योतिषियों को लाकर उनका भविष्य अपने कार्यक्रमों में दिखा रहे हैं। समाचार चैनलों को कुछ ज्यादा ही फिक्र है क्योंकि वह नव वर्ष के उपलक्ष्य में कोई प्रत्यक्ष कार्यक्रम नहीं बनाते बल्कि मनोरंजन चैनलों से उधार लेते हैं। इसलिये अगर इस साल का आखिरी दिन का समय काटना कहें या टालना या ठेलना उनके लिये दुरुह कार्य साबित होता दिख रहा है।
उनको इंतजार है कि कब रात के 12 बजें तो नेपथ्य-पर्दे के पीछे-कुछ संगीत को शोर तो कुछ फटाखों के स्वर से सजी पहले से ही तैयार धुनें बजायें और उसमें प्रयोक्ताओं को आकर्षित अधिक से अधिक संख्या में कर अपने विज्ञापनदाताओं को अनुग्रहीत करें-अनुग्रहीत इसलिये लिखा क्योंकि विज्ञापनदाताओं को तो हर हाल में विज्ञापन देना है क्योंकि उनके स्वामियों को भी इन समाचार चैनलों में अपने जिम्मेदार व्यक्तित्व और चेहरे प्रचार कराना है। इस ठेला ठेली में एक दिन की बात क्या कहें पिछले एक सप्ताह से सारे चैनल जूझ रहे हैं-नया वर्ष, नया वर्ष। ऐसे में समय काटना जरूरी है तो फिर क्रिकेट और फिल्म के सितारों का ही आसरा बचता है क्योंकि उनके विज्ञापनों में अधिकतर वही छाये रहते हैं।
अगर किसी सितारे की फिल्म पिट जाये तो भी उनके विज्ञापन पर गाज गिरनी है और किसी क्रिकेट खिलाड़ी का फार्म बिगड़ जाये तो भी उनको ही भुगतना है-याद करें जब 2007 में पचास ओवरीय क्रिकेट मैचों की विश्व कप प्रतियोगिता में भारत हारा तो लोगों के गुस्से के भय से सभी ने उनके अभिनीत विज्ञापनों कोे हटा लिया था और यह तब तक चला जब भारत को बीस ओवरीय क्रिकेट प्रतियोगिता जीतने का मौका नहीं दिया गया! उस समय बड़े बड़े नाम गड्ढे में गिर गये लगते थे पर फिर अब वही सामने आ गये हैं। जिनके भविष्य पूछे जा रहे हैं यह वही हैं जिनका 2007 में दस महीने तक लोग चेहरा तक नहीं देखना चाहते थे।
हैरानी होती है यह सब देखकर! कला, खेल, साहित्य, पत्रकारिता तथा अन्य आदर्श क्षेत्रों पर बाजार अपने हिसाब से दृष्टि डालता है और उस पर आश्रित प्रचार माध्यम वैसे ही व्यवहार करते हैं।
उद्घोषक पूछ रहा है कि ‘अमुक खिलाड़ी का नया वर्ष कैसा रहेगा?’ज्योतिषी बता रहा है‘ ग्रहों की दशा ठीक है। इसलिये उनका नया साल बहुत अच्छा रहेगा।’
नेपथ्य में बैठा प्रचार प्रबंधक चैन की सांस ले रहा होगा-‘चलो, यार इसके विज्ञापन तो बहुत सारे हैं। इसलिये अपने ग्रह अच्छे हैं।’
फिर ज्योतिषी दूसरे खिलाड़ी के बारे में बोल रहा है-‘उसके ग्रह भारी हैं। अमुक ग्रह की वजह से उनके चोटिल रहने की संभावनायें हैं, हालांकि इसके बावजूद उनका प्रदर्शन अच्छा रहेगा।’
प्रचार प्रबंधक ने सोचा होगा-‘अरे यार, ठीक है चोटिल रहेगा तो भी खेलेगा तो सही! अपने विज्ञापन तो चलते रहेंगे। हमें क्या!
तीसरे खिलाड़ी के बारे में ज्योतिषी जब बोलने लगा तो उसके अधरों पर एक मुस्काल खेल गयी-शायद वह सोच रहे थे कि सारी दुनियां इस खिलाड़ी के भविष्यवाणी का इंतजार कर रही है और वह अपने मेहमान चैनल के सभी लोगों का खुश करने जा रहे हैं। वह बोले-‘यह खिलाड़ी तो स्वयं ही बड़ा सितारा है। इसके पास अभी साढ़े तीन साल खेलेने के लिये हैं। यह भी बढ़िया रहेंगे!’
उदुघोषक भी खुश हो गया क्योंकि उसे लगा होगा कि नेपथ्य में बैठा प्रचार प्रबंधक इससे बहुत उत्साहित हुआ होगा। वह बीच में बोला-‘वह सितार क्या अगले वर्ष भी ऐसे ही कीर्तिमान बनाता रहेगा, जैसे इस साल बना रहा है।’
ज्योतिषी ने कहा-‘हां!’
वहां मौजूद सभी लोगों के चेहरे पर खुशी भरी मुस्कान की लहरें खेलती दिख रही थीं।
हमें भी याद आया कि हम पुराने ईसवी संवत् से नये की तरफ जा रहे हैं इसलिये बाजार और प्रचार के इस खेल में बोर होने से अच्छा है कि अपना कुछ लिखें। हमारी परवाह किसे है? हम ठहरे आम प्रयोक्ता! आम आदमी! विदेशों का तो पता नहीं पर यहां बाजार अपनी बात थोपता है। ऐसे ज्योतिष कार्यक्रम तीन महीने बाद फिर दिखेंगे जब अपना ठेठ देशी नया वर्ष शुरु होगा पर उस समय इतना शोर नहीं होगा। बाजार ने धीरे धीरे यहां अपना ऐजेंडा थोपा है। अरे, जिसे वह कीर्तिमान बनाने वाला सितारा कह रहे हैं उसके खाते में ढेर सारी निजी उपलब्धियां हैं पर देश के नाम पर एक विश्व कप नहीं है।
सोचा क्या करें! इधर सर्दी ज्यादा है! बाहर निकल कर कहां जायें! ऐसे में अपना एक पाठ ठेल दें। अपना भविष्य जानने में दिलचस्पी नहीं है क्योंकि डर लगता है कि कोई ऐसा वैसा बता दे तो खालीपीली का तनाव हो जायेगा। जो खुशी आयेगी वह स्वीकार है और जो गम आयेगा उससे लड़ने के लिये तैयार हैं। फिर यह समय का चक्र है। न यहां दुःख स्थिर है न सुख। अगर हम भारतीय दर्शन को माने तो आत्मा अमर है इसका मतलब है कि जीवन ही स्थिर नहीं है मृत्यु तो एक विश्राम है। ऐसे में उस सर्वशक्तिमान को ही नमन करें जो सभी की रक्षा करता है और समय पड़ने पर दुष्टों का संहार करने के लिये स्वयं प्रवृत्त भी होता है।
बहरहाल याद तो नहीं आ रहा है पर उस दिन कहीं सुनने, पढ़ने या देखने को मिला कि कुंभ राशि में बृहस्पति महाराज का प्रवेश हो रहा है। बृहस्पति सबसे अधिक शक्ति शाली ग्रह देवता हैं और वाकई उसके बाद हमने महसूस किया जीवन के कमजोर चल रहे पक्ष में मजबूती आयी। वैसे नाम से हमारी राशि मीन पर जन्म से कुंभ है। इन दोनों का राशिफल करीब करीब एक जैसा रहता है। हमारे सितारों की फिक्र हम नहीं करते पर दूसरा भी क्यों करेगा क्योंकि हम सितारे थोड़े ही हैं। यह अलग बात है कि सितारे अपने सितारों की फिक्र नहीं भी करते हों-इसकी उनको जरूरत भी क्या है-पर उनके सहारे धन की दौलत के शिखर पर खड़ा बाजार और उसके सहारे टिका प्रचार ढांचे से जुड़े लोगों को जरूर फिक्र है वह भी इसलिये क्योंकि वह बिकती जो है।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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शरीर और मन से विकार निकालने का सबसे अच्छा उपाय है योग साधना (yogsadhna-hindi lekh)


अक्सर लोग योग साधना को केवल योगासन तक ही सीमित मानकर उसका विचार करते हैं। जबकि इसके आठ अंग हैं।
योगांगानुष्ठानादशुद्धिये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।।
हिंदी में भावार्थ-
योग के आठ अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
इसका आशय यही है कि योगसाधना एक व्यापक प्रक्रिया है न कि केवल सुबह किया जाने वाला व्यायाम भर। अनेक लोग योग पर लिखे गये पाठों पर यह अनुरोध करते हैं कि योगासन की प्रक्रिया विस्तार से लिखें। इस संबंध में यही सुझाव है कि इस संबंध में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं और उनसे पढ़कर सीखें। इन पुस्तकों में योगासन और प्राणायम की विधियां दी गयी हैं। योगासन और प्राणायम योगसाधना की बाह्य प्रक्रिया है इसलिये उनको लिखना कोई कठिन काम है पर जो आंतरिक क्रियायें धारणा, ध्यान, और समाधि वह केवल अभ्यास से ही आती हैं।
इस संबंध में भारतीय योग संस्थान की योग मंजरी पुस्तक बहुत सहायक होती है। इस लेखक ने उनके शिविर में ही योगसाधना का प्रशिक्षण लिया। अगर इसके अलावा भी कोई पुस्तक अच्छी लगे तो वह भी पढ़ सकते हैं। कुछ संत लोगों ने भी योगासन और प्राणायाम की पुस्तकें प्रकाशित की हैं जिनको खरीद कर पढ़ें तो कोई बुराई नहीं है।
चूंकि प्राणयाम और योगासन बाह्य प्रक्रियायें इसलिये उनका प्रचार बहुत सहजता से हो जाता है। मूलतः मनुष्य बाह्यमुखी रहता है इसलिये उसे योगासन और प्राणायाम की अन्य लोगों द्वारा हाथ पांव हिलाकर की जाने वाली क्रियायें बहुत प्रभावित करती हैं पर धारणा, ध्यान, तथा समाधि आंतरिक क्रियायें हैं इसलिये उसे समझना कठिन है। अंतर्मुखी लोग ही इसका महत्व जानते हैं। धारणा, ध्यान और समाधि शांत स्थान पर बैठकर की जाने वाली कियायें हैं जिनमें अपने चित की वृत्तियों पर नियंत्रण करने के लिये अपनी देह के साथ मस्तिष्क को भी ढीला छोड़ना जरूरी है।
इसके अलावा कुछ लोग तो केवल योगासन करते हैं या प्राणायम ही करके रह जाते हैं। इन दोनों ही स्थितियों में भी लाभ कम होता है। अगर कुछ आसन कर प्राणायम करें तो बहुत अच्छा रहेगा। प्राणायम से पहले अगर अपने शरीर को खोलने के लिये सूक्ष्म व्यायाम कर लें तो भी बहुत अच्छा है-जैसे अपने पांव की एड़ियां मिलाकर घड़ी की तरह घुमायें, अपने हाथ मिलाकर ऐसे आगे झुककर घुमायें जैसे चक्की चलाई जाती है। अपनी गर्दन को घड़ी की तरह दायें बायें आराम से घुमायें। अपने दोनों हाथों को कंधे पर दायें बायें ऊपर और नीचे घुमायें। अपने दायें पांव को बायें पांव के गुदा मूल पर रखकर ऊपर नीचे करने के बाद उसे अपने दोनों हाथ से पकड़ दायें बायें करें। उसके बाद यही क्रिया दूसरे पांव से करें। इन क्रियायों को आराम से करें। शरीर में कोई खिंचाव न देते सहज भाव से करें। सामान्य व्यायाम और योगासन में यही अंतर है। योगासनों में कभी भी उतावली में आकर शरीर को खींचना नहीं चाहिये। कुछ आसन पूर्ण नहीं हो पाते तो कोई बात नहीं, जितना हो सके उतना ही अच्छा। दूसरे शब्दों में कहें तो सहजता से शरीर और मन से विकार निकालने का सबसे अच्छा उपाय है योग साधना। शेष फिर कभी
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भूख और बन्दूक-हिंदी लेख (Hunger and gun – Hindi article)


भूखे पेट भजन नहीं होते-यह सच है पर साथ ही यह भी एक तथ्य है कि भूखे पेट गोलियां या तलवार नहीं चलती। देश में कुछ स्थानों-खासतौर से पूर्व क्षेत्र-में व्याप्त हिंसा में अपनी वैचारिक जमीन तलाश रहे कुछ विकासवादी देश के बुद्धिजीवियों को ललकार रहे हैं कि ‘तुम उस इलाके की हकीकत नहीं जानते।’
यह कहना कठिन है कि वह स्वयं उन इलाकों को कितना जानते हैं पर उनके पाठ हिंसा का समर्थन करने वाले बदलाव की जमीन पर लिखे जाते हैं। अपने ढोंग और पाखंड को वह इस तरह पेश करते हैं गोया कि जैसे कि सत्य केवल उनके आसपास ही घूमता हो। दूसरी समस्या यह है कि उनके सामने खड़े परंपरावादी लेखक कोई ठोस तर्क प्रस्तुत कर उनका प्रतिवाद नहीं करते। बस, सभी हिंसा और अहिंसा के नारे लगाते हुए द्वैरथ करने में व्यस्त है।
इन हिंसा समर्थकों से सवाल करने से पहले हम यह स्वीकार करते हैं कि गरीब, आदिवासी तथा मजदूरों को शोषण सभी जगह होता है। इसे रुकना चाहिये पर इसका उपाय केवल राजकीय प्रयासों के साथ इसके लिये अमीर और गरीब वर्ग में चेतना लाने का काम भी होना चाहिये। हमारे अध्यात्मिक ग्रंथ यही संदेश देते हैं कि अमीर आदमी हमेशा ही गरीब की मदद करे। किसी भी काम या उसे करने वाले को छोटा न समझे। सभी को समदर्शिता के भाव से देखें। इस प्रचार के लिये किसी प्रकार की लाल या पीली किताब की आवश्यकता नहीं है। कम से कम विदेशी विचार की तो सोचना भी बेकार है।
अब आते हैं असली बात पर। वह लोग भूखे हैं, उनका शोषण हो रहा है, और बरसों से उनके साथ न्याय नहीं हुआ इसलिये उन्होंने हथियार उठा लिये। यह तर्क विकासवादी बड़ी शान से देते हैं। जरा यह भी बतायें कि जंगलों में अनाज या फलों की खेती होती है न कि बंदूक और गोलियों की। वन्य और धन संपदा का हिस्सा अगर उसके मजदूरों को नहीं मिला तो उन्होंने हथियार कैसे उठा लिये? क्या वह भी पेड़ पर उगते हैं?
अब तर्क देंगे कि-‘सभी नहीं हथियार खरीदते कोई एकाध या कुछ जागरुक आदमी उनको न्याय दिलाने के लिये खरीद ही लेते हैं।’
वह कितनों को न्याय दिलाने के लिये हथियार खरीद कर चलाते हैं। एक, दो, दस, सौ या हजार लोगों के लिये? एक बंदूक कोई पांच या दस रुपये में नहीं आती। उतनी रकम से तो वह कई भूखे लोगों को खाना खिला सकते हैं। फिर जंगल में उनको बंदूक इतनी सहज सुलभ कैसे हो जाती है। इन कथित योद्धाओं के पास केवल बंदूक ही नहीं आधुनिक सुख सुविधा के भी ढेर सारे साधन भी होते हैं। कम से कम व गरीब, मजदूर या शोषित नहीं होते बल्कि उनके आर्थिक स्त्रोत ही संदिग्ध होते हैं।
विकासवादियों का तर्क है कि पूर्वी इलाके में खनिज और वन्य संपदा के लिये देश का पूंजीपति वर्ग राज्य की मदद से लूट मचा रहा है उसके खिलाफ स्थानीय लोगों का असंतोष ही हिंसा का कारण है। अगर विकास वादियों का यह तर्क मान लिया जाये तो उनसे यह भी पूछा जाना चाहिये कि क्या हिंसक तत्व वाकई इसलिये संघर्षरत हैं? वह तमाम तरह के वाद सुनायेंगे पर सिवाय झूठ या भ्रम के अलावा उनके पास कुछ नहीं है। अखबार में एक खबर छपी है जिसे पता नहीं विकासवादियों ने पढ़ा कि नहीं । एक खास और मशहूर आदमी के विरुद्ध आयकर विभाग आय से अधिक संपत्ति के मामले की जांच कर रहा है। उसमें यह बात सामने आयी है कि उन्होंने पद पर रहते हुए ऐसी कंपनियों में भी निवेश किया जिनका संचालन कथित रूप से इन्हीं पूर्वी क्षेत्र के हिंसक तत्वों के हाथ में प्रत्यक्ष रूप से था। यानि यह हिंसक संगठन स्वयं भी वहां की संपत्तियों के दोहन में रत हैं। अब इसका यह तर्क भी दिया जा सकता है क्योंकि भूख और गरीबी से लड़ने के लिये पैसा चाहिये इसलिये यह सब करते हैं। यह एक महाढोंग जताने वाला तर्क होगा क्योंकि आपने इसके लिये उसी प्रकार के बड़े लोगों से साथ लिया जिन पर आप शोषण का आरोप लगाते हैं। हम यहां किसी का न नाम लेना चाहते हैं न सुनना क्योंकि हमारा लिखने का मुख्य उद्देश्य केवल बहस में अपनी बात रखना हैं।
इन पंक्तियों के लेखक के इस पाठ का आधार समाचार पत्र, टीवी और अंतर्जाल पर इस संबंध में उपलब्ध जानकारी ही है। एक सामान्य आदमी के पास यही साधन होते हैं जिनसे वह कुछ जान और समझ पाता है। इनसे इतर की गतिविधियों के बारे में तो कोई जानकारी ही समझ सकता है।
इन हिंसक संगठनों ने अनेक जगह बम विस्फोट कर यह सबित करने का प्रयास किया कि वह क्रांतिकारी हैं। उनमें मारे गये पुलिस और सुरक्षा बलों के सामान्य कर्मचारी और अधिकारी। एक बार में तीस से पचास तक लोगों की इन्होंने जान ली। इनसे पूछिये कि अपनी रोजी रोटी की तलाश में आये सामान्य जनों की जान लेने पर उनके परिवारों का क्या हश्र होता है वह जानते हैं? सच तो यह है कि यह हिंसक संगठन कहीं न कहीं उन्हीं लोगों के शोषक भी हो सकते हैं जिनके भले का यह दावा करते हैं। जब तक गोलियों और बारुद प्राप्त करने के आर्थिक स्त्रोतों का यह प्रमाणिक रूप से उजागर नहीं करते तब उनकी विचारधारा के आधार पर बहस बेकार है। इन पर तब यही आरोप भी लगता है कि हिंसक तत्व ही इनको प्रायोजित कर रहे हैं।
भारत में शोषण और अनाचार कहां नहीं है। यह संगठन केवल उन्हीं जगहों पर एकत्रित होते हैं जहां पर जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रीय आधार पर लोगों को एकजुट करना आसान होता है। यह आसानी वहीं अधिक होती है जहां बाहर से अन्य लोग नहीं पहुंच पाते। जहां लोग बंटे हुए हैं वहां यह संगठन काम नहीं कर पाते अलबत्ता वहां चर्चाएं कर यह अपने वैचारिक आधार का प्रचार अवश्य करते हैं। बहरहाल चाहे कोई भी कितना दावा कर ले। हिंसा से कोई मार्ग नहीं निकलता। वर्तमान सभ्यता में अपने विरुद्ध अन्याय, शोषण तथा दगा के खिलाफ गांधी का अहिंसक आंदोलन ही प्रभावी है। हिंसा करते हुए बंदूक उठाने का मतलब है कि आप उन्हीं पश्चिम देशों का साथ दे रहे हैं जो इनके निर्यातक हैं और जिनके आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सम्राज्य के खिलाफ युद्ध का दावा करते हैं। यह वैचारिक बहस केवल दिखावे की और प्रायोजित लगती है। जब तक हथियारों के खरीदने के लिये जुटाये धन के स्त्रोत नहीं बताये जाते। जहां तक पूर्वी इलाकों को जानने या न जानने की बात है तो शोषण, अन्याय और धोखे की प्रवृत्ति सभी जगह है और उसे कहीं बैठकर समझा जा सकता है। आईये
इस पर इस लेखक की कुछ पंक्तियां
यह सत्य है कि
भूखे पेट भजन नहीं होता।
मगर याद रहे
जिसे दाना अन्न का न मिले
उसमें बंदूक चलाने का भी माद्दा भी नहीं होता।
अरे, हिंसा में वैचारिक आधार ढूंढने वालों!
अगर गोली से
रुक जाता अन्याय, शोषण और गरीबी तो
पहरेदारों का
अमीरों के घर पहरा न होता।
तुम शोर कर रहे हो जिस तरह
सोच रहे सारा जमाना बहरा होता।
कौन करेगा तुम्हारे इस झूठ पर यकीन कि
अन्न और धन नहीं मिलता गरीबों और भूखों को
पर उनको बंदूक और गोली देने के लिये
कोई न कोई मेहरबान जरूर होता।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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सामूहिक ठगी का मतलब-व्यंग्य चिंत्तन (samuhik thagi ka matlab-vyangya lekh)


एक के बाद एक सामूहिक ठगी की तीन वारदातें टीवी चैनलों और समाचार पत्रों की सुर्खियां बन गयी हैं। आप यह कहेंगे कि ठगी की हजारों वारदातें इस देश में ं होती हैं इसमें खास क्या है? याद रखिये यह सामूहिक ठगी की वारदातें हैं और कोई एक व्यक्ति को ठग कर भागने का मामला नहीं है। उन ठगों की आम ठग से तुलना करना उनका अपमान करना है। आम ठग अपनी ठगी के लिये बहुत बुद्धिमानी के साथ दूसरे के पास पहुंचकर ठगी करता है जबकि इन ठगों ने केवल दूसरों की मजबूरियों का फायदा उठाने के इरादे से विज्ञापन का जाल बिछाया बल्कि बाकायदा अपना एजेंट नियुक्त किये। शिकार खुद वह खुद उनके जाल में आया और वह भी उनके वातानुकूलित दफ्तरों में अपने पांव या वाहन पर चलकर।
यह एकल ठगी का मामला नहीं है। हर विषय पर अपना बौद्धिक ज्ञान बघारने वाले बुद्धिमान लोगों के लिये इसमें कुछ नहीं है जिस पर हायतौबा कर अपनी चर्चाओं को रंगीन बना सकें। इनमें समाजों का आपस द्वंद्व नहीं है बल्कि समाजों की छत्र छाया तले रहने वाले परिवारों और व्यक्तियों के अंतद्वंद्वों का वह दुष्परिणाम है जो कभी भी बुद्धिमान लोगों की दृष्टि के केंद्र बिंदु में नहीं आते। जो बुद्धिमान लोग इस पर ध्यान भी दे रहे हैं तो उनका ध्यान केवल घटना के कानूनी और व्यक्तिगत पक्ष पर केंद्रित है। आप सवाल पूछेंगे कि आखिर इसमें ऐसा क्या है जो कोई नहीं देख रहा?

जो लोग ठगे गये हैं वह केवल यही कह रहे हैं कि उन्होंने अपने पैसे अपनी बच्चियों की शादी के लिये रखे थे। यह सोचकर कि पैसा दुगुना या तिगुना हो जायेगा तो वह उनकी शादी अच्छी तरह कर सकेंगे। समाज पर चलती तमाम बहसों में दहेज प्रथा की चर्चा होती है पर उसकी वजह से समाज किस तरह टूट रहे हैं इस पर कोई दृष्टि नहीं डालता। पूरा भारतीय समाज अब अपना ध्यान केवल धनर्जान पर केंद्रित कर रहा है और अध्यात्मिक ज्ञान या सत्संग उसके लिये वैसे ही जैसे मनोरंजन प्राप्त करना। पैसा दूना या चैगुना होना चाहिए। किसलिये चाहिये? बेटे की उच्च शिक्षा और बेटी की अच्छी शादी करने के लिये। सारा समाज इसी पर केंद्रित हो गया है। आखिर आदमी ऐसा क्यों चाहता है? केवल इसलिये कि समाज में वह सीना तानकर वह सके कि उसने अपने सांसरिक कर्तव्यों को पूरा कर लिया और वह एक जिम्मेदारी आदमी है।
कुछ लोगों के बच्चे संस्कार, भाग्य, परिश्रम या किसी दूसरे की सहायता उच्च स्थान पर पहुंच जाते हैं तो उनके विवाह कार्यक्रम भी बहुत आकर्षक ढंग से संपन्न होते हैं जो किसी भी भारतीय नर नारी का बरसों से संजोया एक सपना होता है’-इसी सपने को पूरा करने के लिये वह जिंदगी गुजारते हैं।
जिनके बच्चे शैक्षिक और बौद्धिक क्षमता की दृष्टि से औसत स्तर के हैं उनके लिये यह समस्या गंभीर हो जाती है कि वह किस तरह उनके लिये भविष्य बनायें ताकि वह स्वयं को समाज में एक ‘जिम्मेदार व्यक्ति’ साबित कर सकें। इसके लिये चाहिए धन। आम मध्यम वर्गीय परिवार के लिये यह एक बहुत बड़ी समस्या है। अगर हम उसके जीवन का आर्थिक चक्र देखें तो वह हमेशा ही बाजार के दामों में पिछड़ता है। जब प्लाट की कीमत डेढ़ सौ रुपया फुट थी तब वह पचास खर्च कर सकता था। जब वह डेढ़ सौ खर्च करने लायक हुआ तो प्लाट की कीमत तीन सौ रुपया प्रति फुट हो गयी। जब वह तीन सौ रुपये लायक हुआ तो वह पांच सौ रुपया हो गयी। जब वह पांच सौ रुपया लायक हुआ तो पता लगा कि डेढ़ हजार रुपये प्रतिफुट हो गयी।
इस चक्र में पिछड़ता आम मध्यम और निम्न वर्ग दोगुना और चैगुना धन की लालच में भटक ही जाता है। आज के आधुनिक ठग ऐसे तो हैं नहीं कि बाजार या घर में मिलते हों जो उन पर विश्वास न किया जाये। उनके तो बकायदा वातानुकूलित दफ्तर हैं। उनके ऐजेंट हैं। एकाध बार वह धन दोगुना भी कर देते हैं ताकि लोगों का विश्वास बना रहे। ऐसे में उनका शिकार बने लोग दो तरफ से संकट बुलाते हैं। पहला तो उनकी पूरी पूंजी चली जाती है दूसरा परिवार के सभी सदस्यों का मनोबल गिर जाता है जिससे संकट अधिक बढ़ता है। बहरहाल नारी स्वातंत्र्य समर्थकों के लिये इस घटना में भले ही अधिक कुछ नहीं है पर जो लोग वाकई छोटे शहरों में बैठकर समाज को पास से देखते हैं उन्हें इन घटनाओं के समाज पर दूरगामी परिणाम दिखाई देते हैं जो अंततः नारियों को सर्वाधिक कष्ट में डालते हैं।

कन्या भ्रुण की हत्या रोकने के लिये कितने समय से प्रयास चल रहा है पर समाज विशेषज्ञ लगातार बता रहे हैं कि यह दौर अभी बंद नहीं हुआ। हालांकि अनेक लोग उन माताओं की ममता को भी दोष देते हैं जो कन्या भ्रुण हत्या के लिये तैयार हो जाती हैं पर कोई इसको नहीं मानते। शायद वह मातायें यह अनुभव करती हैं कि अगर वह लड़की पैदा हो गयी तो उसके प्रति ममता जाग्रत हो जायेगी फिर पता नहीं उसके जन्म के बाद उसके विवाह तक का दायित्व उसका पति और वह स्वयं निभा पायेंगी कि नहीं। इसमें हम समाज का दोष नहीं देखते। इतने सारे सामाजिक आंदोलन होते हैं पर बुद्धिजीवी इस दहेज प्रथा को रोकने और शादी को सादगी से करने का कोई आंदोलन नहीं चला सके। उल्टे शादी समारोहों के आकर्षण को अपनी रचनाओं में प्रकाशित करते हैं।
समस्या केवल ठगी के शिकार लोगों की नहीं है बल्कि इन ठगों की भी है। इन ठगों के अनुसार उन्होंने अपना पैसा शेयर बाजार और सट्टे में-पक्का तो पता नहीं है पर जरूर सट्टा क्रिकेट से जुड़ा हो सकता है क्योंकि आजकल के आधुनिक लोग उसी पर ही दांव खेलते हैं-लगाया होगा। अधिकतर टीवी चैनलों और अखबारों में सट्टे से बर्बाद होने वाले लोगों की खबरें आती है पर उसका स्त्रोत छिपाया जाता है ताकि लोग कहीं उसे शक से न देखने लगें। वैसे हमने यह देखा है कि सट्टा खेलने वाले-खिलाने वाले नहीं- ठगने में उस्ताद होते हैं। सच तो यह है कि वह दया के पात्र ही हैं क्योंकि वह मनुष्य होते हुए भी कीड़े मकौड़े जैसे जीवन गुजारते हैं। वह तो बस पैसा देखते हैं। किसी से लूटकर या ठगकर अपने पास रखें तो भी उन पर क्रोध करें मगर वह तो उनको कोई अन्य व्यक्ति ठगकर ले जाता है। ऐसे लोग गैरों को क्या अपनों को ही नहीं छोड़ते। बाकी की तो छोड़िये अपनी बीवी को बख्श दें तो भी उसे थोड़ा बुद्धिमान ठग मानकर उस पर क्रोध किया जा सकता है।

कई तो ऐसे सट्टा लगाने वाले हैं जो लाखों की बात करते हैं पर जेब में कौड़ी नहीं होती। अगर आ जाये तो पहुंच जाते हैं दांव लगाने।
मुख्य बात यही है कि क्रिकेट के सट्टे का समाज पर बहुत विपरीत प्रभाव है पर कितने बुद्धिमान इसे देख पा रहे हैं? इससे देश की अर्थव्यवस्था पर कोई प्रभाव भले ही नहीं पड़ता हो पर इतने व्यक्तियों और परिवारों ने तबाही को गले लगाया है कि उनकी अनदेखी करना अपने आप में मूर्खता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ठगी की इन घटनाओं के कानूनी पक्ष के अलावा कुछ ऐसे भी विषय हैं जो समाज पर बुरा प्रभाव डाल रहे हैं पर कितने बुद्धिजीवी इस पर लिख या सोच पाते हैं इस आलेख को पढ़ने वाले इस पर दृष्टिपात अवश्य करें। हालांकि यह भी बुरा होगा क्योंकि तब उनको जो इस देश मेें बौद्धिक खोखलापन दिखाई देगा वह भी कम डरावना नहीं होगा। यह बौद्धिक खोखलापन ठग के साथ उनके शिकार पर ही बल्कि इन घटनाओं पर विचार करने वालों में साफ दिखाई देगा।
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बुढ़ापे में कुछ नहीं सीख सकते-हिन्दू अध्यात्मिक संदेश (In old age can not learn anything – Hindu spiritual message)


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेंिद्रयशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कुपखननं प्रत्युद्यम कीदृशः

हिंदी में भावार्थ- जब शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था परे है, इंद्रियां सही ढंग से काम कर रही हैं और आयु भी ढलान पर नहीं है विद्वान और ज्ञानी लोग तभी तक अपनी भलाई का काम प्रारंभ कर देते हैं। घर में आग लगने पर कुंआ खोदने का प्रयास करने से कोई लाभ नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज का यहां आशय यह है कि जब तक हम शारीरिक रूप से सक्षम हैं तभी तक ही अपने मोक्ष के लिये कार्य कर सकते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि प्रारंभ से ही मन, वचन, और शरीर से हम भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखें। कुछ लोग यह कहते हैं कि अभी तो हम सक्षम हैं इसलिये भगवान की भक्ति क्यों करें? जब रिटायर हो जायेंग्रे या बुढ़ापा आ जायेगा तभी भगवान की भक्ति करेंगे। सच बात तो यह है कि भगवान की भक्ति या साधना की आदत बचपन से ही न पड़े तो पचपन में भी नहीं पड़ सकती। कुछ लोग अपने बच्चों को इसलिये अध्यात्मिक चर्चाओंे में जाने के लिये प्रेरित नहीं करते कि कहीं वह इस संसार से विरक्त होकर उन्हें छोड़ न जाये जबकि यह उनका भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान किसी भी आदमी को जीवन से सन्यास होने के लिये नहीं बल्कि मन से सन्यासी होने की प्रेरित करता है। सांसरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उसके फल की कामना से परे रहना कोई दैहिक सन्यास नहीं होता।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यह कहता है कि आदमी अपने स्वभाव वश अपने नित्यप्रति के कर्तव्य तो वैसे ही करता है पर भगवान की भक्ति और साधना के लिये उसे स्वयं को प्रवृत्त करने के लिये प्रयास करना होता है। एक तो उसमें मन नहीं लगता फिर उससे मिलने वाली मन की शांति का पैमाना धन के रूप में दृश्यव्य नहीं होता इसलिये भगवान की भक्ति और साधना में मन लगाना कोई आसान काम नहीं रह जाता। बुढ़ापे आने पर जब इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब मोह और बढ़ जाता है ऐसे में भक्ति और साधना की आदत डालना संभव नहीं है। सच बात तो यह है कि योगसाधना, ध्यान, मंत्रजाप और भक्ति में अपना ध्यान युवावस्था में ही लगाया जाये तो फिर बुढ़ापे में भी बुढ़ापे जैसा भाव नहीं रहता। अगर युवावस्था में ही यह आदत नहीं डाली तो बुढ़ापे में तो नयी आदत डालना संभव ही नहीं है।
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दक्षिण भारत की भावुकता अस्वाभाविक नहीं-आलेख (bhakti in south india-hindi lekh)


फिल्मी अभिनेताओं और नेताओं के प्रति दक्षिण भारतीय लोगों की भावुकता देखकर अनेक लोग हतप्रभ रह जाते हैं। दक्षिण भारतीय जहां अपने नेताओं और अभिनेताओं के जन्म दिन पर अत्यंत खुशी जाहिर करते हैं वहीं उनके साथ हादसा होने पर गमगीन हो जाते हैं। इतना ही नहीं उनके निधन पर कुछ लोगों को इतना धक्का पहुंचता है कि उनकी मौत हो जाती है या कुछ आत्महत्या कर लेते हैं। इस पर भारत के अन्य दिशाओं तथा शेष विश्व के लोगों को बहुत हैरानी होती है मगर बहुत कम लोग इस बात को जानेंगे और समझेंगे कि उनकी यह भावुकता एकदम स्वाभाविक है। जिन लोगों को भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान की समझ है वह दक्षिण भारतीयों के इस तरह के भक्ति भाव पर बिल्कुल आश्चर्य नहीं करते।
कई बातें तर्क से परे होती हैं और जहां मनोविज्ञान हो तो तर्क ढूंढना कोई आसान नहीं होता। इससे पहले कि हम दक्षिण भारतीयों की स्वाभाविक भावुकता पर दृष्टिपात करें उससे पहले श्रीगीता का यह संदेश समझे लें कि यह पूरा विश्व त्रिगुणमयी माया के वशीभूत हो रहा है और गुण ही गुणों को बरतते हैं। स्पष्तः हमारी देह में तीन गुणों में से-सात्विक, राजस और तामस- कोई एक मौजूद रहता है और उनका निर्माण हमारे अंदर खानपान, जलवायु और संगत से ही होता है उसी के वशीभूत होकर काम करते है। । ऐसा लगता है कि दक्षिण की जलवायु में ही कुछ ऐसा है जो वहां के लोगों में भक्ति का भाव एकदम शुद्ध रूप से मौजूद होता है और सच कहें तो वह एकदम पवित्र होता है। वजह यह है कि भक्ति का जन्म ही द्रविण प्रदेश में होता है। वहां वह एकदम बाल्यकाल में होती है और हम सभी जानते हैं कि यह काल ही भगवत्स्वरूप होता है।
श्रीमद्भागवत में प्रारंभ में ही एक कथा आती है जिसमें वृंदावन में पहुंची भक्ति की मुलाकात श्री नारद जी से होती है। वह वहां सुंदर युवती के रूप में थी पर उसके साथ दो बूढ़े थे जो कि उसके पुत्र वैराग्य और ज्ञान थे। वह करूणावस्था में थी और नारद जी को अपनी कथा सुनाते हुए कहती है कि ‘मेरा जन्म द्रविण प्रदेश में हुआ। कर्नाटक प्रदेश में पली बढ़ी और महाराष्ट्र में कुछ जगह सम्मानित हुई पर गुजरात में मुझे बुढ़ापा आ गया। इधर वृंदावन में आई तो मुझे तो तरुणावस्था प्राप्त हो गयी।’
हम यहां कथा का संदर्भ केवल दक्षिण तक ही सीमित रखें तो समझ सकते हैं कि वहां की जलवायु, अन्न जल तथा मिट्टी में ही कुछ ऐसा होता है कि लोगों की भक्ति एकदम शिशु मन की तरह पवित्र तथा कोमल होती है। भक्ति तो वह अदृश्य देवी है जो हर मनुष्य के मन में विचरती है और चाहे इंसान जैसा भी हो उसको इसका सानिध्य मिलता है क्योंकि कोई भी इंसान ऐसा नहीं हो सकता हो जो किसी व्यक्ति से प्रेम न करता हो। बुरा से बुरा आदमी भी किसी न किसी से प्रेम करता है। भक्ति हमारे अंदर सारे भावों की स्वामिनी है। पंचतत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार तमाम तरह के भावों के साथ चलते हैं और कहीं न किसी से प्रेम या भक्ति अवश्य होती है-यह अलग बात है कि कहीं सजीव तो कहीं निर्जीव वस्तु से लगाव होता है पर देन इसी भक्ति भाव की है। कुछ लोग कह सकते हैं कि अगर यह बात है तो वहां के सभी लोगों में एक जैसी भक्ति नहीं है क्योंकि नेताओ के साथ हादसे में कुछ ही लोग आघात नहीं झेल पाते और उनकी इहलीला समाप्त हो जाती है पर बाकी तो बचे हुए रहते हैं। दरअसल भक्ति का मतलब यह नहीं है कि सभी भक्त अपने प्रिय के साथ हादसा होते ही एक जैसा कदम उठायें। जो लोग बचे रहते हैं वह भी मानसिक आघात कम नहीं झेल रहे होते हैं। याद रखिये भगवान ने पांचों उंगलियां एक जैसी नहीं! दूसरा यह भी कि भक्ति के दो पुत्र भी हैं जिन्होंने भगवत्काल में तरुणावस्था प्राप्त कर ली थी और उनका भी अब महत्व कम नहीं है और संचार साधनों के विस्तार के साथ उनकी पहुंच भी सब जगह है।
हमारे अध्यात्मिक में ज्ञान के साथ मनोविज्ञान और विज्ञान भी है और वह गुण विभाग का कर्म के साथ परिणाम भी बताता है पर उनमें दुनियावी चीजों पर शोध नहीं हुआ कि ऐसा क्यों होता है? या कौनसा जींस दक्षिण में अधिक सक्रिय है? यह काम तो पश्चिमी वैज्ञानिक करते हैं और हो सकता है कि किसी दिन वह इस तरह भी खोज करें कि आखिर दक्षिण में ऐसी भावुकता के पीछे कौनसा जींस या चीज काम कर रही है पर हमारे अध्यात्मिक दर्शन को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारे दक्षिणवासियों की यह भावुकता कोई अस्वाभाविक नहीं है।
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