Tag Archives: love

संत कबीर के दोहे:प्रेम के दावे करने वालों को पता ही नहीं होता कि उसका स्वरूप क्या है


गुणवेता और द्रव्य को, प्रीति करै सब कोय
कबीर प्रीति सो जानिये, इनसे न्यारी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुणवेताओ-चालाक और ढोंगी लोग- और धनपतियों से तो हर कोई प्रेम करता है पर सच्चा प्रेम तो वह है जो न्यारा-स्वार्थरहित-हो।

प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय
जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम करने की बात तो सभी करते हैं पर उसके वास्तविक रूप को कोई समझ नहीं पाता। प्रेम का सच्चा मार्ग तो वही है जहां परमात्मा की भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो सके।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-टीवी चैनलों और पत्र पत्रिकाओं में आजकल प्रेम पर बहुत कुछ दिखाया और लिखा जाता है। यह प्रेम केवल स्त्री पुरुष के निजी संबंध को ही प्रोत्सािहत करता है। हालत यह हो गयी है कि अप्रत्यक्ष रूप से विवाहेत्तर या विवाह पूर्व संबंधों का समर्थन किया जाने लगा है। यह क्षणिक प्रेम एक तरह से वासनामय है मगर आजकल के अंग्रेजी संस्कृति प्रेमी और नारी स्वतंत्रता के समर्थक विद्वान इसी प्रेम में शाश्वत जीवन की तलाश कर हास्यास्पद दृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक मजे की बात यह है कि एक तरफ सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम प्रदर्शन करने की प्रवृति को स्वतंत्रता के नाम पर प्रेमियों की रक्षा की बात की जाती है दूसरी तरफ प्रेम को निजी मामला बताया जाता है। कुछ लोग तो कहते हैं कि सब धर्मों से प्रीति का धर्म बड़ा है। अब अगर उनसे पूछा जाये कि इसका स्वरूप क्या है तो कोई बता नहीं पायेगा। इस नश्वर शरीर का आकर्षण धीमे धीमे कम होता जाता है और उसके साथ ही दैहिक प्रेम की आंच भी धीमी हो जाती है।

वैसे सच बात तो यह है कि प्रेम तो केवल परमात्मा से ही हो सकता है क्योंकि वह अनश्वर है। हमारी आत्मा भी अनश्वर है और उसका प्रेम उसी से ही संभव है। परमात्मा से प्रेम करने पर कभी भी निराशा हाथ नहीं आती जबकि दैहिक प्रेम का आकर्षण जल्दी घटने लगता है। जिस आदमी का मन भगवान की भक्ति में रम जाता है वह फिर कभी उससे विरक्त नहीं होता जबकि दैहिक प्रेम वालों में कभी न कभी विरक्ति हो जाती है और कहीं तो यह कथित प्रेम बहुत बड़ी घृणा में बदल जाता है।
……………………………..

1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

‘बिन फेरे हम तेरे’ से चिंतित घनेरे-हास्य व्यंग्य live in reletionship


‘बिन फेरे, बने बसेरे’ को जब राज्य की वैधानिकता का प्रमाण मिलना प्रस्तावित भर हुआ है तब देश में एक नयी बहस शुरु हो गयी है-वैसे तो यहां हर वक्त कोई बहस चलती है पर बाकी इस समय पृष्ठभूमि में चली गयी हैं। इसमें एक तरफ वह लोग हैं जो समाज, संस्कृति और धर्म का किला ध्वस्त होने की वजह से आशंकित हैं तो दूसरी तरफ वह लोग इसमें स्त्रियों के अधिकारों को लेकर प्रसन्न है।

सच तो यह है कि इस देश में ऐसी कई बहसें चलती हैं जिनका अपने आप में कोई निष्कर्ष निकलता ही नहीं हैं और खास तौर से स्त्री पुरुष के संबंधों का विषय तो ऐसा है जिस पर आज तक कोइ दावे से अपनी बात नहीं कह पाया। फिर आजकल के बुद्धिजीवी जिनको वाद और नारों पर चलते हुए वैसा ही करने की आदत हो गयी है।
स्थिति यह है कि बिना विवाह किये ही स्त्री पुरुष के साथ रहने को वैधानिक रूप देने का जो प्रस्ताव है उसका स्वरूप क्या है, यह जाने बिना ही तर्क दिये जा रहे हैं। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में ‘बिन फेरे हम तेरे’ शीर्षक लगाकर लोगों का ध्यान आकर्षित किया गया। मतलब फिल्म का टाईटल या गाने के आसरे ही अपनी बात कह रहे हैं कोई नया शीर्षक नहीं मिला। जैसे कि ‘बिने फेरे अब बनंेगे बसेरे’ या ‘बिन विवाह, इक घर होगा वाह!’

उस दिन तो हद ही हो गयी एक समाजशास्त्री इस विषय पर एक फिल्म का हवाला देकर अपनी बहस आगे बढ़ा रही थी‘ उस फिल्म में जैसा दिखाया गया है’ ‘अमुक फिल्म की नायिका के साथ यह हुआ’ और ‘अमुक फिल्म का नायक यह कह रहा था’ जैसे जुमले का उपयोग किया और फिर इस कानून का समर्थन किया। अब समझ मेें यह आ नहीं आ रहा था कि वह समाजशास्त्री थीं या फिल्मी कहानी विशेषज्ञ! हिंदी फिल्में कतई समाज का आईना नहीं होती क्योंकि साहित्य से उनका कोई सरोकार नहीं होता।

बुद्धिजीवियों की इस स्थिति को यह लगता है कि या तो फिल्म के दृष्टिकोण से समाज को देखा जायेगा या फिर विदेशी विचाराधारा के आईने इसका आंकलन होगा। सब तरफ बहसे देखें तो केवल सतही तर्कों पर हो रही है। कुछ धर्मशास्त्री तो अपने धर्म के विरुद्ध बता रहे हैं। समाज शास्त्री अपने अपने दृष्टिकोण से इस पर विचार व्यक्त कर रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि इस कानून का विस्तृत ब्यौरा किसी के पास उपलब्ध नहीं है।

एक स्त्री पुरुष का बिना विवाह किये साथ रहना कोई नयी बात नहीं है। बस अंतर यह है कि अधिकतर मामलों में पुरुष का एक विवाह हुआ होता है और वह समाज के डर के मारे दूसरा विवाह तो कर नहंी पाता और फिर उसका किसी अन्य स्त्री से संपर्क हो जाता है और अधिकतर मामलों में वह अविवाहित होती है। ऐसा कोई आज नहीं बल्कि सदियों से हो रहा है। राजा, महाराजों और जमीदारों के ऐसे एक नहंी हजार किस्से हैं जिनकी अपने क्षेत्रों में कहानियां बनी हुईं हैंं। कुछ लोगों ने गोली नाम का एक उपन्यास शायद पढ़ा हो उसमें एक राजा अपनी एक रखैल का विवाह अपने ही एक नौकर से करा देता है जबकि वह उसके पास एक दिन के लिये भी नहीं रहती। उसका पूरा जीवन ही अपने मालिक के सानिध्य में बीतता है। बताते हैं कि इस तरह की गोली प्रथा देश के कुछ हिस्सों में थी जिसमें राजा,महाराज और जमीदार इस तरह महिलाओं को गुलाम बनाकर रखते थे।

आधुनिक भारत में तो यह आम चलने में आ गया है। जिस तरह पहले राजा,महाराजा और जमीदारों की पहचान थी ऐसी विलासिता तो आज वह फैशन हो गयी है। जिन फिल्मों की कहानियों से इस समाज को देखने का प्रयास हो रहे हैं उनके अभिनेता और अभिनेत्रियों के निजी जीवन में तो ऐसी अनेक कहानियां हैं जो समाज में इतनी नहीं होतीं।

एक बात निश्चित है कि देश को पाश्चात्य सभ्यता के रोग ने जिस तरह ग्रस लिया है उससे तो फिलहाल मुक्ति संभव नहीं है। इससे एक तो पारिवारिक संस्कृति ध्वस्त हुई है दूसरे सुख सुविधा के साधनों के उपयोग से आदमी का घरेलू व्यय बढ़ा है और इसने एक ऐसे तनाव को जन्म दिया है जिसकी चर्चा कम ही लोग सार्वजनिक रूप से करते हैं। जिनके पास नहीं है वह अपने परिवार में ऐसी सुविधायें लाने के लिये प्रयत्नशील हैं और यह उनके लिये साधन नहंी बल्कि जीवन का लक्ष्य बनकर रह जाता है। एक आई तो दूसरी लानी है।

‘बिन फेरे बने बसेरे’ की पद्धति को वैधानिक मान्यता मिलने या न मिलने से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला क्योंकि इसे सामाजिक मान्यता मिलने में सदियां लग जायेंगी। जैसे दहेज विरोधी कानून बन गया पर यह प्रथा एक अंश भी बाधित नहीं हुई। यही हाल ‘बिन फेरे बने बसेरे का भी होना है’। हां, यह एकदम आधुनिक किस्म के अविवाहित युवक युवतियों को तत्कालिक रूप से पसंद आयेगा पर बाद में इस पर चलने वाले पछतायेंगे भी। अभी इसका पूरा मसौदा किसी के सामने नहीं आया पर इसे अत्यंत सावधानी से बनाना होगा वरना दुरुपयोग कहीं दुरुपयोग तो तमाम ऐसी विसंगतियां समाज के सामने आयेंगी जिससे झेलना कठिन होगा।

यह बात याद रखने लायक है कि विवाह एक स्त्री और पुरुष के बीच जरूर होता है पर इससे दोनों के परिवार के अन्य लोग भी एक दूसरे के साथ जुड़ते हैं। अगर खुशी में दोनों के रिश्तेदार आते हैं तो दुःख में निभाते भी हैं। जीवन का कोई भरोसा नही है इसलिये विवाह नाम की यह संस्था बनी है। ‘बिना फेरे बने बसेरे‘की पद्धति अपनाने वालों को बाद में बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। किसी एक को दुःख पहुंचा तो दूसरा स्वयं ही उसे संभाल सकता है और बाकी रिश्तेदार तो कन्नी काट जायेंगे‘क्या हमें शादी पर बुलाया था जो अब तकलीफ में याद आ रही है?’ खासतौर से जिन लड़कियों के अधिकारों की बात कर रहे हैं उनके सामने ही सबसे अधिक संकट आ सकता है क्योंकि दुःख और तकलीफ में उसे किसी न किसी की सहायता आवश्यकता प्रतीत होती है। हां, यह बात केवल उन्हीं मामलोंे में लागू होती है जहां दोनों का पहला विवाह हो अगर किसी ने एक विवाह कर रखा है दूसरे के साथ ऐसे ही रिश्ता चला रहा है तो फिर उसके बारे में कहना तो व्यर्थ ही है। हालांकि सबसे बड़ा सवाल तो इसमें यह आने वाला है कि एक वैध विवाह करते हुए केाई दूसरे से ऐसा रिश्ता रख सकता है।

बहरहाल यह प्रथा बड़े शहरों में तो पहले ही चल रही है पर छोटे शहरों में इसका प्रचलन अभी नहीं है। वैसे जो इस कानून का विरोध कर रहे हैं उन्हें समाज का ज्ञान नहीं है। उन्हें लगता हैकि इससे तो समाज में तमाम तरह की विसंगतियां आयेंगी। उनके तर्क गलत हैं क्योंकि वह देश के युवक और युवतियों के मजबूत संस्कारों को अनदेखा कर रहे हैं। भारत में भले ही पाश्चात्य सभ्यता का बोलबाला है पर आज भी युवक युवतियों अगर किसी की तरफ आकर्षित होते हैं तो उनके मन में विवाह करने की इच्छा भी जाग उठती है। प्यार भले ही पाश्चात्य ढंग से हो पर मिलन हमेशा भारतीय तरीके से ही होता है। युवक युवतियों को एकदम बेवकूफ मानने वाले इन बुद्धिजीवियों पर तो तरस ही आता है। किसी प्रकार का तर्क वितर्क करते हुए इस बात को याद रखना चाहिये कि युवक युवतियों का खून गर्म होता है पर विषाक्त नहीं जो वह अपने अच्छे बुरे का निर्णय कर सकें। ‘बिन फेरे बने बसेरे की राह पर इतने लोग नहीं चलेंगे जितना सोचा जा रहा है और चल रहे हैं उनको रोका भी किसने था।
————————

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

हास्य व्यंग्य कविता-जैसे अपनी जिंदगी से आती हो उबासी


लंबा तगड़ा और आकर्षक चेहरे वाला
वह लड़का शहर की फुटपाथ
पर चला जा रहा था
सामने एक सुंदर गौरवर्ण लडकी
चली आ रही थी
यह सड़क बायें थी वह दायें था
पास आते ही दोनों के कंधे टकराये
पहली नजर में दोनों एक दूसरे को भाये
दृश्य फिल्म का हो गया
दोनों को ही इसका इल्म हो गया
लड़की चल पड़ी उसके साथ
अब वह बायें से दायें चलने लगी

चलते चलते बरसात भारी हो गयी
सड़क अब नहर जैसी नजर आने लगी
लड़की ने कहा-
‘यह क्या हुआ
यह कैसी मेरी और तुम्हारी इश्क की डील हुई
जिस सड़क से निकली थी
वह डल झील हो गयी
पर मैं तो चल रही थी बायें ओर
दायें कैसे चलने लगी
तुम अब पलट कर मेरे साथ बायें चलो’
ऐसा कहकर वह पलटने लगी

लड़के ने कहा
‘मेरे घर में अंधेरा है
एक ही बल्ब था फुक गया है
खरीद कर जा रहा हूं
मां बीमार है उसके लिये
दवायें भी ले जानी है
यह तो पहली नजर का प्यार था
जो शिकार हो गया
वरना तो दुनियां भर की
मुसीबतें मेरे ही पीछे लगी
तुम जाओ बायें रास्ते
मैं तो दाएं ही जाऊंगा
अब नहीं करूंगा दिल्लगी’

लड़की ने कहा
‘तो तुम भी मेरी तरह फुक्कड़ हो
तुम्हारे कपड़े देखकर
मुझे गलतफहमी हो गयी थी
जो पहली नजर के प्यार का
सजाया था सपना
दूसरी नजर में तुम्हारी सामने आयी असलियत
वह न रहा अपना
इसलिये यह पहले नजर के प्यार की डील
करती हूं कैंसिल’
ऐसा कहकर वह फिर बायें चलने लगी।

———————-
एक विचारक पहुंचा दूसरे के पास
और बोला
‘यार आजकल कोई
अपने पास नहीं आता है
हमसे पूछे बिना यह समाज
अपनी राह पर चला जाता है
हम अपनी विचारधाराओं को
लेकर करें जंग
लोगों के दिमाग को करें तंग
ताकि वह हमारी तरफ आकर्षित हौं
और विद्वान की तरह सम्मान करें
नहीं तो हमारी विचारधाराओं का
हो जायेगा अस्तित्व ही खत्म
उसे बचने का यही रास्ता नजर आता है’

दूसरा बोला
‘यार, पर हमारी विचारधारा क्या है
यह मैं आज तक नहीं समझ पाया
लोग तो मानते हैं विद्वान पर
मैं अपने को नही मान पाया
अगर ज्यादा सक्रियता दिखाई
तो पोल खुल जायेगी
नाम बना रहे लोगों में
इसलिये कभी-कभी
बयानबाजी कर देता हूँ
इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं आता है’

विचारक बोला
‘कहाँ तुम चक्कर में पड़ गये
विचारधाराओं में द्वंद में भला
सोचना कहाँ आता है
लड़कर अपनी इमेज पब्लिक में
बनानी है
बस यही होता है लक्ष्य
किसी को मैं कहूं मोर
तो तुम बोलना चोर
मैं कहूं किसी से बुद्धिमान
तुम बोलना उसे बैईमान
मैं बजाऊँ किसी के लिए ताली
तुम उसके लिए बोलना गाली
बस इतने में ही लोगों का ध्यान
अपने तरफ आकर्षित हो जाता है’

दूसरा खुश होकर उनके पाँव चूने लगा
और बोला
‘धन्य जो आपने दिया ज्ञान
अब मुझे अपना भविष्य अच्छा नजर आता है’

विचारक ने अपने पाँव
हटा लिए और कहा
‘यह तो विचारों के धंधे का मामला है
सबके सामने पाँव मत छुओ
वरना लोग हमारी वैचारिक जंग पर
यकीन नहीं करेंगे
मुझे तो लोगों को भरमाने में ही
अपना हित नजर आता है।

——————-
कुछ लोग होते हैं पर
कुछ दिखाने के लिये बन जाते लाचार
अपनी वेदना का प्रदर्शन करते हैं सरेआम
लुटते हैं लोगों की संवेदना और र
छद्म आंसू बहाते
कभी कभी दर्द से दिखते मुस्कराते
डाल दे झोली में कोई तोहफा
तो पलट कर फिर नहीं देखते
उनके लिये जज्बात ही होते व्यापार

घर हो या बाहर
अपनी ताकत और पराक्रम पर
इस जहां में जीने से कतराते
सजा लेते हैं आंखों में आंसू
और चेहरे पर झूठी उदासी
जैसे अपनी जिंदगी से आती हो उबासी
खाली झोला लेकर आते हैं बाजार
लौटते लेकर घर दानों भरा अनार

गम तो यहां सभी को होते हैं
पर बाजार में बेचकर खुशी खरीद लें
इस फन में होता नहीं हर कोई माहिर
कामयाबी आती है उनके चेहरे पर
जो दिल में गम न हो फिर भी कर लेते हैं
सबके सामने खुद को गमगीन जाहिर
कदम पर झेलते हैं लोग वेदना
पर बाहर कहने की सोच नहीं पाते
जिनको चाहिए लोगों से संवेदना
वह नाम की ही वेदना पैदा कर जाते
कोई वास्ता नहीं किसी के दर्द से जिनका
वही बाजार में करते वेदना बेचने और
संवेदना खरीदने का व्यापार
……………………

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका 2.दीपक भारतदीप का चिंतन 3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

कोई प्यार की भाषा नहीं समझता-हास्य व्यंग्य कविता


अपने साथ भतीजे को भी
फंदेबाज घर लाया और बोला
‘दीपक बापू, इसकी सगाई हुई है
मंगेतर से रोज होती मोबाइल पर बात
पर अब बात लगी है बिगड़ने
उसने कहा है इससे कि एक ‘प्रेमपत्र लिख कर भेजो
तो जानूं कि तुम पढ़े लिखे
नहीं भेजा तो समझूंगी गंवार हो
तो पर सकता है रिश्ते में खटास’
अब आप ही से हम लोगों को आस
इसे लिखवा दो कोई प्रेम पत्र
जिसमें हिंदी के साथ उर्दू के भी शब्द हों
यह बिचारा सो नहीं पाया पूरी रात
मैं खूब घूमा इधर उधर
किसी हिट लेखक के पास फुरसत नहीं है
फिर मुझे ध्यान आया तुम्हारा
सोचा जरूर बन जायेगी बात’

सुनकर बोले दीपक बापू
‘कमबख्त यह कौनसी शर्त लगा दी
कि उर्दू में भी शब्द हों जरूरी
हमारे समझ में नहीं आयी बात
वैसे ही हम भाषा के झगड़े में
फंसा देते हैं अपनी टांग ऐसी कि
निकालना मुश्किल हो जाता
चाहे कितना भी जज्बात हो अंदर
नुक्ता लगाना भूल जाता
या कंप्यूटर घात कर जाता
फिर हम हैं तो आजाद ख्याल के
तय कर लिया है कि नुक्ता लगे या न लगे
लिखते जायेंगे
हिंदी वालों को क्या मतलब वह तो पढ़ते जायेंगे
उर्दू वाले चिल्लाते रहें
हम जो शब्द बोले उसे
हिंदी की संपत्ति बतायेंगे
पर देख लो भईया
कहीं नुक्ते के चक्कर में कहीं यह
फंस न जाये
इसके मंगेतर के पास कोई
उर्दू वाला न पहूंच जाये
हो सकता है गड़बड़
हिंदी वाले सहजता से नहीं लिखें
इसलिये जिन्हें फारसी लिपि नहीं आती
वह उर्दू वाले ही करते हैं
नुक्ताचीनी और बड़बड़
प्रेम से आजकल कोई प्यार की भाषा नहीं समझता
इश्क पर लिखते हैं
पब्लिक में हिट दिखते हैं
इसलिये मुश्क कसते हैं शायर
फारसी का देवनागरी लिपि से जोड़ते हैं वायर
इसलिये हमें माफ करो
कोई और ढूंढ लो
नहीं बनेगी हम से तुम्हारी बात
……………………………………………………………….

यह आलेख ‘दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

चुंबन का स्वाद न मीठा होता है न नमकीन-हास्य व्यंग्य


सिनेमा या टीवी के पर्दे पर चुंबन का दृश्य देखकर लोगों के मन में हलचल पैदा होती है। अगर ऐसे में कहीं किसी प्रसिद्ध हस्ती ने किसी दूसरी हस्ती का सार्वजनिक रूप से चंुबन लिया और उसकी खबर उड़ी तो हाहाकार भी मच जाता है। कुछ लोग मनमसोस कर रह जाते हैं कि उनको ऐसा अवसर नहीं मिला पर कुछ लोग समाज और संस्कार विरोधी बताते हुए सड़क पर कूद पड़ते हैं। चुंबन विरोधी चीखते हैं कि‘यह समाज और संस्कार विरोधी कृत्य है और इसके लिये चुंबन लेने और देने वाले को माफी मांगनी चाहिये।’

अब यह समझ में नहीं आता कि सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना समाज और संस्कारों के खिलाफ है या अकेले में भी। अगर ऐसा है तो फिर यह कहना कठिन है कि कौन ऐसा व्यक्ति है जो कभी किसी का चुंबन नहीं लेता। अरे, मां बाप बच्चे का माथा चूमते हैं कि नहीं। फिर अकेले में कौन किसका कैसे चुंबन लेता है यह कौन देखता है और कौन बताता है?

सार्वजनिक रूप से चुंबन लेने पर लोग ऐसे ही हाहाकार मचा देते हैं भले ही लेने और देने वाले आपस में सहमत हों। अगर किसी विदेशी होंठ ने किसी देशी गाल को चुम लिया तो बस राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए खतरा और समाज और संस्कार विरोधी और भी न जाने कितनी नकारात्मक संज्ञाओं से उसे नवाजा जाता है। कहीं कहीं तो जाति,धर्म और भाषा का लफड़ा भी खड़ा हो जाता है। पश्चिमी देशों में सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना शिष्टाचार माना जाता है जबकि भारत में इसे अभी तक अशिष्टता की परिधि में रखा जाता है। यह किसने रखा पता नहीं पर जो रखते हैं उनसे बहस करने का साहस किसी में नहीं होता क्योंकि वह सारे फैसले ताकत से करते हैं और फिर समूह में होते हैं।

इतना तय है कि विरोध करने वाले भी केवल चुंबन का विरोध इसलिये करते हैं कि वह जिस सुंदर चेहरे का चुंबन लेता हुआ देखते हैं वह उनके ख्वाबों में ही बसा होता है और उनका मन आहत होता है कि हमें इसका अवसर क्यों नहीं मिला? वरना एक चुंबन से समाज,संस्कृति और संस्कार खतरे में पड़ने का नारा क्यों लगाया जाता है।
दूसरे संदर्भ में इन विरोधियों को यह यकीन है कि समाज में कच्चे दिमाग के लोग रहते हैं और अगर इस तरह सार्वजनिक रूप से चुंबन लिया जाता रहा तो सभी यही करने लगेंगे। ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस आता है जो पूरे समाज को कच्ची बुद्धि का समझते हैं।

फिल्मों में भी नायिका के आधे अधूरे चुंबन दृश्य दिखाये जाते हैं। नायक अपना होंठ नायिका के गाल के पास लेकर जाता है और लगता कि अब उसने चुंबन लिया पर अचानक दोनों में से कोई एक या दोनों ही पीछे हट जाते हैं। इसके साथ ही सिनेमाहाल में बैठे लड़के -जो इस आस में हो हो मचा रहे होते हैं कि अब नायक ने नायिका का चुंबन लिया-हताश होकर बैठ जाते हैं। चुम्मा चुम्मा ले ले और देदे के गाने जरूर बनते हैं नायक और नायिक एक दूसरे के पास मूंह भी ले जाते हैं पर चुंबन का दृश्य फिर भी नहीं दिखाई देता।

आखिर ऐसा क्यों? क्या वाकई ऐसा समाज और संस्कार के ढहने की वजह से है। नहीं! अगर ऐसा होता तो फिल्म वाले कई ऐसे दृश्य दिखाते हैं जो तब तक समाज में नहीं हुए होते पर जब फिल्म में आ जाते हैं तो फिर लोग भी वैसा ही करने लगते हैं। फिल्म से सीख कर अनेक अपराध हुए हैं ऐसे मेंं अपराध के नये तरीके दिखाने में फिल्म वाले गुरेज नहीं करते पर चुंबन के दृश्य दिखाने में उनके हाथ पांव फूल जाते हैंं। सच तो यह है कि चूंबन जब तक लिया न जाये तभी तक ही आकर्षण है उसके बाद तो फिर सभी खत्म है। यही कारण है कि काल्पनिक प्यार बाजार में बिकता रहे इसलिये होंठ और गाल पास तो लाये जाते हैं पर चुंबन का दृश्य अधिकतर दूर ही रखा जाता है।

यह बाजार का खेल है। अगर एक बार फिल्मों से लोगों ने चुंबन लेना शुरू किया तो फिर सभी जगह सौंदर्य सामग्री की पोल खुलना शुरू हो जायेगी। महिला हो या पुरुष सभी सुंदर चेहरे सौंदर्य सामग्री से पुते होते हैं और जब चुंबन लेंगे तो उसका स्पर्श होठों से होगा। तब आदमी चुंबन लेकर खुश क्या होगा अपने होंठ ही साफ करता फिरेगा। सौंदर्य प्रसाधनों में केाई ऐसी चीज नहीं होती जिससे जीभ को स्वाद मिले। कुछ लोगों को तो सौदर्य सामग्री से एलर्जी होती और उसकी खुशबू से चक्कर आने लगते हैं। अगर युवा वर्ग चुंबन लेने और देने के लिये तत्पर होगा तो उसे इस सौंदर्य सामग्री से विरक्त होना होगा ऐसे में बाजार में सौंदर्य सामग्री के प्रति पागलपन भी कम हो जायेगा। कहने का मतलब है कि गाल का मेकअप उतरा तो समझ लो कि बाजार का कचड़ा हुआ। याद रखने वाली बात यह है कि सौदर्य की सामग्री बनाने वाले ही ऐसी फिल्में के पीछे भी होते हैं और उनका पता है कि उसमें ऐसी कोई चीज नहीं है जो जीभ तक पहुंचकर उसे स्वाद दे सके।

कई बार तो सौंदर्य सामग्री से किसी खाने की वस्तु का धोखे से स्पर्श हो जाये तो जीभ पर उसके कसैले स्वाद की अनुभूति भी करनी पड़ती है। यही कारण है कि चुंबन को केवल होंठ और गाल के पास आने तक ही सीमित रखा जाता है। संभवतः इसलिये गाहे बगाहे प्रसिद्ध हस्तियों के चुंबन पर बवाल भी मचाया जाता है कि लोग इसे गलत समझें और दूर रहें। समाज और संस्कार तो केवल एक बहाना है।

एक आशिक और माशुका पार्क में बैठकर बातें कर रहे थे। आसपास के अनेक लोग उन पर दृष्टि लगाये बैठै थे। उस जोड़े को भला कब इसकी परवाह थी? अचानक आशिक अपने होंठ माशुका के गाल पर ले गया और चुंबन लिया। माशुका खुश हो गयी पर आशिक के होंठों से क्रीम या पाउडर का स्पर्श हो गया और उसे कसैलापन लगा। उसने माशुका से कहा‘यह कौनसी गंदी क्रीम लगायी है कि मूंह कसैला हो गया।’

माशुका क्रोध में आ गयी और उसने एक जोरदार थप्पड़ आशिक के गाल पर रसीद कर दिया। आशिक के गाल और माशुका के हाथ की बीचों बीच टक्कर हुई थी इसलिये आवाज भी जोरदार हुई। उधर दर्शक तो जैसे तैयार बैठे ही थे। वह आशिक पर पिल पड़े। अब माशुका उसे बचाते हुए लोगों से कह रही थी कि‘अरे, छोड़ो यह हमारा आपसी मामला है।’

एक दर्शक बोला-‘अरे, छोड़ें कैसे? समाज और संस्कृति को खतरा पैदा करता है। चुंबन लेता है। वैसे तुम्हारा चुंबन लिया और तुमने इसको थप्पड़ मारा। इसलिये तो हम भी इसको पीट रहे हैं।’

माशुका बोली‘-मैंने चुंबन लेने पर थप्पड़ थोड़े ही मारा। इसने चुंबन लेने पर जब मेरी क्रीम को खराब बताया। कहता है कि क्रीम से मेरा मूंह कसैला हो गया। इसको नहीं मालुम कि चुंबन कोई नमकीन या मीठा तो होता नहीं है। तभी इसको मारा। अरे, वह क्रीम मेरी प्यारी क्रीम है।’

तब एक दर्शक फिर आशिक पर अपने हाथ साफ करने लगा और बोला-‘मैं भी उस क्रीम कंपनी का ‘समाज और संस्कार’रक्षक विभाग का हूं। मुझे इसलिये ही रखा गया है कि ताकि सार्वजनिक स्थानों पर कोई किसी का चुंबन न ले भले ही लगाने वाला केाई भी क्रीम लगाता हो। अगर इस तरह का सिस्टम शुरु हो जायेगा तो फिर हमारी क्रीम बदनाम हो जायेगी।’

बहरहाल माशुका ने जैसे तैसे अपने आशिक को बचा लिया। आशिक ने फिर कभी सार्वजनिक रूप से ऐसा न करने की कसम खाइ्र्र।

हमारा देश ही नहीं बल्कि हमारे पड़ौसी देशों में भी कई चुंबन दृश्य हाहाकर मचा चुके हैं। पहले टीवी चैनल वाले प्रसिद्ध लोगों के चुंबन दृश्य दिखाते हैं फिर उन पर उनके विरोधियों की प्रतिक्रियायें बताना नहीं भूलते। कहीं से समाज और संस्कारों की रक्षा के ठेकेदार उनको मिल ही जाते हैं।

वैसे पश्चिम के स्वास्थ्य वैज्ञानिक चुंबन को सेहत के लिये अच्छा नहीं मानते। यह अलग बात है कि वहां चुंबन खुलेआम लेने का शिष्टाचार है। भारतीय उपमहाद्वीप में इसे बुरा समझा जाता है। चुंबन लेना स्वास्थ्य के लिये बुरा है-यह जानकर समाज और संस्कारों के रक्षकों का सीना फूल सकता है पर उनको यह जानकर निराशा होगी कि अमेरिकन आज भी आम भारतीयों से अधिक आयु जीते हैं और उनका स्वास्थ हम भारतीयों के मुकाबले कई गुना अच्छा है।

वैसे सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना अशिष्टता या अश्लीलता कैसे होती है इसका वर्णन पुराने ग्रंथों में कही नहीं है। यह सब अंग्रेजों के समय में गढ़ा गया है। जिसे कुछ सामाजिक संगठन अश्लीलता कहकर रोकने की मांग करते हैं,कुछ लोग कहते हैं कि वह सब अंग्रेजों ने भारतीयों को दबाने के लिये रचा था। अपना दर्शन तो साफ कहता है कि जैसी तुम्हारी अंतदृष्टि है वैसे ही तुम्हारी दुनियां होती है। अपना मन साफ करो, पर भारतीय संस्कृति के रक्षकों देखिये वह कहते हैं कि नहीं दृश्य साफ रखो ताकि हमारे मन साफ रहें। अपना अपना ज्ञान है और अलग अलग बखान है।
जहां तक चुंबन के स्वाद का सवाल है तो वह नमकीन या मीठा तभी हो सकता है जब सौंदर्य सामग्री में नमक या शक्कर पड़ी हो-जाहिर है या दोनों वस्तुऐं उसमें नहीं होती।
———————————–

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप