जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग
कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।
आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।
जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है। जब तक समाज का धनी तबका गरीब पर दया नहीं करेगा तब तक आपसी वैमनस्य कभी ख़त्म नहीं हो सकता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कविवर रहीम कहते हैं कि
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उत्तम जाती ब्राह्मनी, देखत चित्त लुभाय
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय
ज्ञानी मनुष्य की पहचान तो स्वतः ही उसके गुणों और लक्षणों से हो जाती है। ब्रह्मज्ञानी का चेहरा मात्र देखते ही आदमी का चित्त आनन्द विभोर हो उठता है। ऐसे ब्रह्मज्ञानी के दर्शन मात्र से पाप परे हो जाते हैं और उसके चरणों कें शीश झुकाने का मन करता है।
वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या-यह बिल्कुल सत्य बात है कि आदमी के चेहरे पर वही भाव स्वतः रहते हैं जो उसके मन में विद्यमान हैं। किसी प्रकार के ज्ञान और विज्ञान में श्रेष्ठता का भाव प्रदर्शन करना व्यर्थ है। आदमी के गुण स्वतः ही दूसरों के सामने प्रकट होते हैं। दूसरे के अंदर अगर झांकना हो तो उसके चेहरे को पढ़ें। कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने में आकर किसी को श्रेष्ठ समझ बैठते हैं यह देखने का प्रयास ही नहीं करते कि उस व्यक्ति का आचरण कैसा है या उसमें वह गुण है भी कि नहीं जिसका बखान किया जा रहा है।
अनेक गुरु ऐसे हैं जो रटारटाया ज्ञान तो बताते हैं पर उनके चेहरे देखकर नहीं लगता कि वह कोई ब्रह्मज्ञानी हैं। योग साधना,ध्यान और धार्मिक ग्रंथों से चिंतन और मनन से ज्ञान प्राप्त होता है और जिसने वह धारण कर लिया उसका चेहरा स्वतः खिल उठता है और अगर नहीं खिला तो इसका आशय यह है कि मन में भी तेज नहीं है। इसलिये किसी के कहने में आकर कोई गुरु नहीं बनाना चाहिये। जिन लोगों में ज्ञान है तो उनका चेहरा ही बता देता है और उनका आचरण और व्यवहार उसे पुष्ट भी करता है। अतः ऐसे लोगों को ही अपना गुरु बनाना चाहिये।
याद रखें योग्य गुरू जहाँ जीवन की नैया पार लगाता हैं अयोग्य दोबो भी देता है।
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जसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह
धरती पर ही परत है, शीत घाम और मेह
कविवर रहीम कहते हैं कि इस मानव काया पर जैसी परिस्थिति आती है वैसा ही वह सहन भी करती है। इस धरती पर ही सर्दी, गर्मी और वर्षा ऋतु आती है और वह सहन करती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-पश्चिमी चिकित्सा विशेषज्ञों तमाम तरह के शोधों के बाद यह कह पाये कि हमारी देह बहुत लोचदार है उसमें हालतों से निपटने की बहुत क्षमता है। इसके लिये पता नहीं कितने मेंढकों और चूहों को काटा होगा-फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचे । हमारे मनीषियों ने अपनी योग साधना और भक्ति से अर्जित ज्ञान से बहुत पहले यह जान लिया कि इस देह में बहुत शक्ति है और वह परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेती है। ज्ञान या तो योग साधना से प्राप्त होता है या भक्ति से। रहीम तो भक्ति के शिखर पुरुष थे और अपनी देह पर कतई ध्यान नहीं देते थे पर फिर भी उनको इस मनुष्य देह के बारे में यह ज्ञान हो गया पर आजकल अगर आप किसी सत्संग में जाकर बैठें तो लोग अपनी दैहिक तकलीफों की चर्चा करते हैं, और वहां ज्ञान कम आत्मप्रवंचना अधिक करते हैं। कोई कहेगा ‘मुझे मधुमेह हो गया है’ तो कोई कहेगा कि मुझे ‘उच्च रक्तचाप’ है। जिन संत लोगों का काम केवल अध्यात्मिक प्रवचन करना है वह उनकी चिकित्सा का ठेका भी लेते हैं। यह अज्ञान और भ्रम की चरम परकाष्ठा है।
मैने अपने संक्षिप्त योग साधना के अनुभव से यह सीखा है कि देह में भारी शक्ति होती है। मुझे योगसाधना का अधिक ज्ञान नहीं है पर उसमें मुझे अपने शरीर के सारे विकार दिखाई देते हैं तब जो लोग बहुत अधिक करते हैं उनको तो कितना अधिक ज्ञान होगा। पहले तो मैं दो घंटे योगसाधना करता था पर थोड़ा स्वस्थ होने और ब्लाग लिखने के बाद कुछ कम करता हूं (वह भी एक घंटे की होती है)तो भी सप्ताह में कम से कम दो बार तो पूरा करता हीं हूं। पहले मुझे अपना शरीर ऐसा लगता था कि मैं उसे ढो रहा हूं पर अब ऐसा लगता है कि हम दोनों साथ चलते हैं। मेरे जीवन का आत्मविश्वास इसी देह के लड़खड़ाने के कारण टूटा था आज मुझे आत्मविश्वास लगता है। आखिर ऐसा क्या हो गया?
इस देह को लेकर हम बहुत चिंतित रहते हैं। गर्मी, सर्दी और वर्षा से इसके त्रस्त होने की हम व्यर्थ ही आशंका करते हैं। सच तो यह है कि यह आशंकाएं ही फिर वैसी ही बीमारियां लातीं हैं। हम अपनी इस देह के बारे में यह मानकर चलें यह हम नहीं है बल्कि आत्मा है तो ही इसे समझ पायेंगे। इसलिये दैहिक तकलीफों की न तो चिंता करें और न ही लोगों से चर्चा करें। ऐसा नहीं है कि योगसाधना करने से आदमी कभी बीमार नहीं होता पर वह अपने आसनों से या घरेलू चिकित्सा से उसका हल कर लेता है। यह बात मैने अपने अनुभव से सीखी है और वही बता रहा हूं। योगसाधना कोई किसी कंपनी का प्राडक्ट नहीं है जो मैं बेच रहा हूं बल्कि अपना सत्य रहीम के दोहे के बहाने आपको बता रहा हूं।
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कविवर रहीम कहते हैं कि
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जसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह
धरती पर ही परत है, शीत घाम और मेह
कविवर रहीम कहते हैं कि इस मानव काया पर जैसी परिस्थिति आती है वैसा ही वह सहन भी करती है। इस धरती पर ही सर्दी, गर्मी और वर्षा ऋतु आती है और वह सहन करती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-पश्चिमी चिकित्सा विशेषज्ञों तमाम तरह के शोधों के बाद यह कह पाये कि हमारी देह बहुत लोचदार है उसमें हालतों से निपटने की बहुत क्षमता है। इसके लिये पता नहीं कितने मेंढकों और चूहों को काटा होगा-फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचे । हमारे मनीषियों ने अपनी योग साधना और भक्ति से अर्जित ज्ञान से बहुत पहले यह जान लिया कि इस देह में बहुत शक्ति है और वह परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेती है। ज्ञान या तो योग साधना से प्राप्त होता है या भक्ति से। रहीम तो भक्ति के शिखर पुरुष थे और अपनी देह पर कतई ध्यान नहीं देते थे पर फिर भी उनको इस मनुष्य देह के बारे में यह ज्ञान हो गया पर आजकल अगर आप किसी सत्संग में जाकर बैठें तो लोग अपनी दैहिक तकलीफों की चर्चा करते हैं, और वहां ज्ञान कम आत्मप्रवंचना अधिक करते हैं। कोई कहेगा ‘मुझे मधुमेह हो गया है’ तो कोई कहेगा कि मुझे ‘उच्च रक्तचाप’ है। जिन संत लोगों का काम केवल अध्यात्मिक प्रवचन करना है वह उनकी चिकित्सा का ठेका भी लेते हैं। यह अज्ञान और भ्रम की चरम परकाष्ठा है।
मैने अपने संक्षिप्त योग साधना के अनुभव से यह सीखा है कि देह में भारी शक्ति होती है। मुझे योगसाधना का अधिक ज्ञान नहीं है पर उसमें मुझे अपने शरीर के सारे विकार दिखाई देते हैं तब जो लोग बहुत अधिक करते हैं उनको तो कितना अधिक ज्ञान होगा। पहले तो मैं दो घंटे योगसाधना करता था पर थोड़ा स्वस्थ होने और ब्लाग लिखने के बाद कुछ कम करता हूं (वह भी एक घंटे की होती है)तो भी सप्ताह में कम से कम दो बार तो पूरा करता हीं हूं। पहले मुझे अपना शरीर ऐसा लगता था कि मैं उसे ढो रहा हूं पर अब ऐसा लगता है कि हम दोनों साथ चलते हैं। मेरे जीवन का आत्मविश्वास इसी देह के लड़खड़ाने के कारण टूटा था आज मुझे आत्मविश्वास लगता है। आखिर ऐसा क्या हो गया?
इस देह को लेकर हम बहुत चिंतित रहते हैं। गर्मी, सर्दी और वर्षा से इसके त्रस्त होने की हम व्यर्थ ही आशंका करते हैं। सच तो यह है कि यह आशंकाएं ही फिर वैसी ही बीमारियां लातीं हैं। हम अपनी इस देह के बारे में यह मानकर चलें यह हम नहीं है बल्कि आत्मा है तो ही इसे समझ पायेंगे। इसलिये दैहिक तकलीफों की न तो चिंता करें और न ही लोगों से चर्चा करें। ऐसा नहीं है कि योगसाधना करने से आदमी कभी बीमार नहीं होता पर वह अपने आसनों से या घरेलू चिकित्सा से उसका हल कर लेता है। यह बात मैने अपने अनुभव से सीखी है और वही बता रहा हूं। योगसाधना कोई किसी कंपनी का प्राडक्ट नहीं है जो मैं बेच रहा हूं बल्कि अपना सत्य रहीम के दोहे के बहाने आपको बता रहा हूं।
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