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बुढ़ापे में कुछ नहीं सीख सकते-हिन्दू अध्यात्मिक संदेश (In old age can not learn anything – Hindu spiritual message)


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेंिद्रयशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कुपखननं प्रत्युद्यम कीदृशः

हिंदी में भावार्थ- जब शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था परे है, इंद्रियां सही ढंग से काम कर रही हैं और आयु भी ढलान पर नहीं है विद्वान और ज्ञानी लोग तभी तक अपनी भलाई का काम प्रारंभ कर देते हैं। घर में आग लगने पर कुंआ खोदने का प्रयास करने से कोई लाभ नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज का यहां आशय यह है कि जब तक हम शारीरिक रूप से सक्षम हैं तभी तक ही अपने मोक्ष के लिये कार्य कर सकते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि प्रारंभ से ही मन, वचन, और शरीर से हम भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखें। कुछ लोग यह कहते हैं कि अभी तो हम सक्षम हैं इसलिये भगवान की भक्ति क्यों करें? जब रिटायर हो जायेंग्रे या बुढ़ापा आ जायेगा तभी भगवान की भक्ति करेंगे। सच बात तो यह है कि भगवान की भक्ति या साधना की आदत बचपन से ही न पड़े तो पचपन में भी नहीं पड़ सकती। कुछ लोग अपने बच्चों को इसलिये अध्यात्मिक चर्चाओंे में जाने के लिये प्रेरित नहीं करते कि कहीं वह इस संसार से विरक्त होकर उन्हें छोड़ न जाये जबकि यह उनका भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान किसी भी आदमी को जीवन से सन्यास होने के लिये नहीं बल्कि मन से सन्यासी होने की प्रेरित करता है। सांसरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उसके फल की कामना से परे रहना कोई दैहिक सन्यास नहीं होता।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यह कहता है कि आदमी अपने स्वभाव वश अपने नित्यप्रति के कर्तव्य तो वैसे ही करता है पर भगवान की भक्ति और साधना के लिये उसे स्वयं को प्रवृत्त करने के लिये प्रयास करना होता है। एक तो उसमें मन नहीं लगता फिर उससे मिलने वाली मन की शांति का पैमाना धन के रूप में दृश्यव्य नहीं होता इसलिये भगवान की भक्ति और साधना में मन लगाना कोई आसान काम नहीं रह जाता। बुढ़ापे आने पर जब इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब मोह और बढ़ जाता है ऐसे में भक्ति और साधना की आदत डालना संभव नहीं है। सच बात तो यह है कि योगसाधना, ध्यान, मंत्रजाप और भक्ति में अपना ध्यान युवावस्था में ही लगाया जाये तो फिर बुढ़ापे में भी बुढ़ापे जैसा भाव नहीं रहता। अगर युवावस्था में ही यह आदत नहीं डाली तो बुढ़ापे में तो नयी आदत डालना संभव ही नहीं है।
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1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

संत कबीर वाणी-डरपोक आदमी पीछे से वार करता है (sant kabir vani- Timid man is stabbed from behind)


तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।
कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।
असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।
हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।
कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।
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भर्तृहरि नीति शतक-बुढ़ापे में अच्छी आदतें डालना संभव नहीं (budhape men achchi adten)


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेंिद्रयशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कुपखननं प्रत्युद्यम कीदृशः

हिंदी में भावार्थ- जब शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था परे है, इंद्रियां सही ढंग से काम कर रही हैं और आयु भी ढलान पर नहीं है विद्वान और ज्ञानी लोग तभी तक अपनी भलाई का काम प्रारंभ कर देते हैं। घर में आग लगने पर कुंआ खोदने का प्रयास करने से कोई लाभ नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज का यहां आशय यह है कि जब तक हम शारीरिक रूप से सक्षम हैं तभी तक ही अपने मोक्ष के लिये कार्य कर सकते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि प्रारंभ से ही मन, वचन, और शरीर से हम भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखें। कुछ लोग यह कहते हैं कि अभी तो हम सक्षम हैं इसलिये भगवान की भक्ति क्यों करें? जब रिटायर हो जायेंग्रे या बुढ़ापा आ जायेगा तभी भगवान की भक्ति करेंगे। सच बात तो यह है कि भगवान की भक्ति या साधना की आदत बचपन से ही न पड़े तो पचपन में भी नहीं पड़ सकती। कुछ लोग अपने बच्चों को इसलिये अध्यात्मिक चर्चाओंे में जाने के लिये प्रेरित नहीं करते कि कहीं वह इस संसार से विरक्त होकर उन्हें छोड़ न जाये जबकि यह उनका भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान किसी भी आदमी को जीवन से सन्यास होने के लिये नहीं बल्कि मन से सन्यासी होने की प्रेरित करता है। सांसरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उसके फल की कामना से परे रहना कोई दैहिक सन्यास नहीं होता।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यह कहता है कि आदमी अपने स्वभाव वश अपने नित्यप्रति के कर्तव्य तो वैसे ही करता है पर भगवान की भक्ति और साधना के लिये उसे स्वयं को प्रवृत्त करने के लिये प्रयास करना होता है। एक तो उसमें मन नहीं लगता फिर उससे मिलने वाली मन की शांति का पैमाना धन के रूप में दृश्यव्य नहीं होता इसलिये भगवान की भक्ति और साधना में मन लगाना कोई आसान काम नहीं रह जाता। बुढ़ापे आने पर जब इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब मोह और बढ़ जाता है ऐसे में भक्ति और साधना की आदत डालना संभव नहीं है। सच बात तो यह है कि योगसाधना, ध्यान, मंत्रजाप और भक्ति में अपना ध्यान युवावस्था में ही लगाया जाये तो फिर बुढ़ापे में भी बुढ़ापे जैसा भाव नहीं रहता। अगर युवावस्था में ही यह आदत नहीं डाली तो बुढ़ापे में तो नयी आदत डालना संभव ही नहीं है।
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भर्तृहरि नीति शतक: बड़ी आयु में अच्छे कम की आदत नहीं पड़ती (age of men, hindu dharshan)


यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेंिद्रयशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कुपखननं प्रत्युद्यम कीदृशः

हिंदी में भावार्थ- जब शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था परे है, इंद्रियां सही ढंग से काम कर रही हैं और आयु भी ढलान पर नहीं है विद्वान और ज्ञानी लोग तभी तक अपनी भलाई का काम प्रारंभ कर देते हैं। घर में आग लगने पर कुंआ खोदने का प्रयास करने से कोई लाभ नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज का यहां आशय यह है कि जब तक हम शारीरिक रूप से सक्षम हैं तभी तक ही अपने मोक्ष के लिये कार्य कर सकते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि प्रारंभ से ही मन, वचन, और शरीर से हम भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखें। कुछ लोग यह कहते हैं कि अभी तो हम सक्षम हैं इसलिये भगवान की भक्ति क्यों करें? जब रिटायर हो जायेंग्रे या बुढ़ापा आ जायेगा तभी भगवान की भक्ति करेंगे। सच बात तो यह है कि भगवान की भक्ति या साधना की आदत बचपन से ही न पड़े तो पचपन में भी नहीं पड़ सकती। कुछ लोग अपने बच्चों को इसलिये अध्यात्मिक चर्चाओंे में जाने के लिये प्रेरित नहीं करते कि कहीं वह इस संसार से विरक्त होकर उन्हें छोड़ न जाये जबकि यह उनका भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान किसी भी आदमी को जीवन से सन्यास होने के लिये नहीं बल्कि मन से सन्यासी होने की प्रेरित करता है। सांसरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उसके फल की कामना से परे रहना कोई दैहिक सन्यास नहीं होता।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यह कहता है कि आदमी अपने स्वभाव वश अपने नित्यप्रति के कर्तव्य तो वैसे ही करता है पर भगवान की भक्ति और साधना के लिये उसे स्वयं को प्रवृत्त करने के लिये प्रयास करना होता है। एक तो उसमें मन नहीं लगता फिर उससे मिलने वाली मन की शांति का पैमाना धन के रूप में दृश्यव्य नहीं होता इसलिये भगवान की भक्ति और साधना में मन लगाना कोई आसान काम नहीं रह जाता। बुढ़ापे आने पर जब इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब मोह और बढ़ जाता है ऐसे में भक्ति और साधना की आदत डालना संभव नहीं है। सच बात तो यह है कि योगसाधना, ध्यान, मंत्रजाप और भक्ति में अपना ध्यान युवावस्था में ही लगाया जाये तो फिर बुढ़ापे में भी बुढ़ापे जैसा भाव नहीं रहता। अगर युवावस्था में ही यह आदत नहीं डाली तो बुढ़ापे में तो नयी आदत डालना संभव ही नहीं है।
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कौटिल्य दर्शन: शत्रु का विनाश करे वही कुशल राजा कहलाता है (economics of kautilya-arthshastra)


रिपोः शत्रुपरिच्छेदः सहृद्वप्पुविभेनम्।
दुर्गकोषबलयानं कृत्यपक्षेपसंग्रहः।।

राज्य प्रमुख को चाहिये कि वह अपने शत्रु को उसके शत्रु से विनाश की प्रक्रिया को जानने के साथ उसके सहृदयों का भेद,दुर्ग,कोष और शक्ति का ज्ञान प्राप्त करते हुए अपने साथ कर्तव्य पूर्ण करने वाले सहयोगियों का संगह करे।
दूतेनैव नरेंद्रस्तु फुर्वीतारविकर्षणम्।
स्वपक्षे च विजानीयात्तपरदूतविचेष्टितम्
हिंदी में भावार्थ-राजा को चाहिये कि वह अपने दूत के द्वारा ही दूसरे राजा को आकर्षित करे और अपने शत्रु के दूत की चेष्टाओं से उसका मंतव्य समझे।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल पूरी दुनियां के सभी देश आधुनिक और तीव्रगामी हथियारों से सुज्जित हो गये हैं। ऐसे में सीधे युद्ध के बहुत सारे खतरे है। सभी देशों के पास दूर तक मार करने वाली मिसाइलें और राकेट हैं। ऐसे बम हैं कि अगर एक गिर जायें तो पूरा शहर नष्ट हो जाये। 1942 में अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा और नागासकी पर गिराये गये बमों की याद आते ही लोग सिहर उठते हैं जबकि उससे कई गुना शक्तिशाली बम अब बन चुके हैं। ऐसे में अब कूटनीति से काम लेने में ही बुद्धिमान लोग ठीक समझते हैं। इसलिये अब वह समय है कि जब अपने शत्रु को उसके शत्रु से नष्ट कराया जाये या उसे अपने ही देश में उलझाया जाये कि वह अपने राज्य पर वक्रदृष्टि न डाल सके। सच बात तो यह है कि कुशल राजा वही है जो अपनी प्रजा पर युद्ध लादने की बजाय अपने शत्रु को उसके राज्य में स्थित शत्रु से नष्ट करने की कूटनीतिक चाल चले। हालांकि सीधे युद्ध में जीतने पर राज्य प्रमुख का सम्मान होता है पर उसके खतरे भी बहुत हैं। कूटनीतिक चाल से शत्रु को पराजित करने में जहां अपनी प्रजा सुरक्षित होती है पर आजकल उसका प्रचार करना संभव नहीं है। अगर कूटनीति से विजय मिल भी जाये तो उसका दावा कोई सार्वजनिक रूप से नहीं कर सकता। इसके बावजूद यह एक सच्चाई है कि बुद्धिमान राज्य प्रमुख वही है जो कूटनीतिक चाल चलते हुए शत्रु राज्य को उसके शत्रुओं के हाथ से पराजित करे।
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भर्तृहरि नीति शतक: भले काम आयु ढलने से पहले ही प्रारंभ कर दें


यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेंिद्रयशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कुपखननं प्रत्युद्यम कीदृशः

हिंदी में भावार्थ- जब शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था परे है, इंद्रियां सही ढंग से काम कर रही हैं और आयु भी ढलान पर नहीं है विद्वान और ज्ञानी लोग तभी तक अपनी भलाई का काम प्रारंभ कर देते हैं। घर में आग लगने पर कुंआ खोदने का प्रयास करने से कोई लाभ नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज का यहां आशय यह है कि जब तक हम शारीरिक रूप से सक्षम हैं तभी तक ही अपने मोक्ष के लिये कार्य कर सकते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि प्रारंभ से ही मन, वचन, और शरीर से हम भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखें। कुछ लोग यह कहते हैं कि अभी तो हम सक्षम हैं इसलिये भगवान की भक्ति क्यों करें? जब रिटायर हो जायेंग्रे या बुढ़ापा आ जायेगा तभी भगवान की भक्ति करेंगे। सच बात तो यह है कि भगवान की भक्ति या साधना की आदत बचपन से ही न पड़े तो पचपन में भी नहीं पड़ सकती। कुछ लोग अपने बच्चों को इसलिये अध्यात्मिक चर्चाओंे में जाने के लिये प्रेरित नहीं करते कि कहीं वह इस संसार से विरक्त होकर उन्हें छोड़ न जाये जबकि यह उनका भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान किसी भी आदमी को जीवन से सन्यास होने के लिये नहीं बल्कि मन से सन्यासी होने की प्रेरित करता है। सांसरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उसके फल की कामना से परे रहना कोई दैहिक सन्यास नहीं होता।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यह कहता है कि आदमी अपने स्वभाव वश अपने नित्यप्रति के कर्तव्य तो वैसे ही करता है पर भगवान की भक्ति और साधना के लिये उसे स्वयं को प्रवृत्त करने के लिये प्रयास करना होता है। एक तो उसमें मन नहीं लगता फिर उससे मिलने वाली मन की शांति का पैमाना धन के रूप में दृश्यव्य नहीं होता इसलिये भगवान की भक्ति और साधना में मन लगाना कोई आसान काम नहीं रह जाता। बुढ़ापे आने पर जब इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब मोह और बढ़ जाता है ऐसे में भक्ति और साधना की आदत डालना संभव नहीं है। सच बात तो यह है कि योगसाधना, ध्यान, मंत्रजाप और भक्ति में अपना ध्यान युवावस्था में ही लगाया जाये तो फिर बुढ़ापे में भी बुढ़ापे जैसा भाव नहीं रहता। अगर युवावस्था में ही यह आदत नहीं डाली तो बुढ़ापे में तो नयी आदत डालना संभव ही नहीं है।
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