सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-सत्य से धर्म, योग से विद्या, सफाई से सुंदरता और सदाचार से कुल की रक्षा होती है।
पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मन्त्रिबान्धवाः।।
पतयो बान्धवा स्त्रीणां ब्राह्मण वेदबान्धवा।।
हिन्दी में भावार्थ-पशुओं के सहायक बादल, राजाओं के सहायक मंत्री, स्त्रियों के सहायक पति के साथ बंधु और विद्वानों का सहायक ज्ञान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में ज्ञान का होना जरूरी है अन्यथा हम अपने पास मौजूद व्यक्तियों, वस्तुओं तथा उपलब्धियों का सही उपयोग नहीं कर सकते। एक बात याद रखना चाहिये कि हमारे साथ जो लोग होते हैं उनका महत्व होता है। अंधेरे में तीर चलाने से कुछ नहीं होता, इसलिये जीवन के सत्य को समझ लेना चाहिये। राजाओं के सहायक मंत्री होते हैं। इसका आशय साफ है कि अपने मित्र और सलाहकार के चयन में हर आदमी को सतर्कता बरतना चाहिये।
स्त्रियों की स्वतंत्रता बुरी नहीं है पर उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि उनकी रक्षा उसके परिवार के पुरुष सदस्य ही कर सकते हैं। उनको बाहर के व्यक्तियों से यह अपेक्षा नहीं करना चाहिये कि वह उनकी रक्षा करेंगे भले ही चाहे वह कितना भी दावा करें। हम अक्सर ऐसी वारदातें देखते हैं जिसमें स्त्रियों के साथ धोखा होता है और इनमें अधिकतर उनमें अपने ही लोग होते हैं। इनमें भी अधिक संख्या उनकी होती है जो परिवार के बाहर के होने के बावजूद उनसे निकटता प्राप्त करते हैं। स्त्रियों के मामले में यह भी दिखाई देता है कि उनके साथ विश्वासघात अपने ही करते हैं पर इनमें अधिकतर संख्या उन लोगों की होती है जो बाहर के होने के साथ अपने बनने का नाटक हुए उनको धर्म और चरित्र पथ से भ्रष्ट भी करते हैं।
हम लोगों का यह भ्रम होता है कि बादल हमारे लिये बरस रहे हैं। जब बादल नहीं बरसते तब तमाम तरह के धार्मिक कर्मकांड किये जाते हैं। बरसते हैं तो धर्म के ठेकेदार अनेक प्रकार के दावे करते हैं जबकि सच्चाई यह है कि बादल धरती पर स्थित पेड़ पौद्यों तथा पशुओं के रक्षक हैं और इसलिये उनका तो बरसना ही है।
आजकल भारतीय योग साधना का प्रचार हो रहा है। दरअसल यह योग साधना न केवल स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त है बल्कि उससे हमारी विद्या तथा ज्ञान की रक्षा भी होती है। इसलिये जो लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे प्रतिभाशाली हों उन्हें चाहिये कि वह इसके लिये उनको प्रेरित करें। आजकल कठिन प्रतियोगिता का समय है और ऐसे में योग साधना ही एक ऐसा उपाय दिखती है जिससे उनकी प्रतिभा को सोने जैसी चमक मिल सकती है। सच बात तो यह है कि इस संसार में खुश रहने के लिये योग साधना के अलावा कोई अन्य उपाय है इस पर विश्वास करना कठिन है।
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सवल्पस्नायुवशेषमलिनं निर्मासमप्यस्थिगोः श्वा लब्ध्वा परितोषमेति न तु तत्तस्य क्षुधाशान्तये।
सिंहो जम्बुकंकमागतमपि त्यकत्वा निहन्ति द्विपं सर्वः कृच्छ्रगतोऽप वांछति जनः सत्तवानुरूपं फलम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह कुत्ता थोड़े रस और चरबी वाली हड्डी पाकर प्रसन्न हो जाता है किन्तु सिंह समीप आये भेड़िए को छोड़कर भी हाथी के शिकार की मानता करता है। हाथी का शिकार करने पर ही उसे संतुष्ट प्राप्ति होती है।
यद चेतनोऽपिपादैः स्पृष्टः प्रज्वलित सवितुरिनकान्तः।
तत्तेजस्वी पुरुषः परकृत निकृतिं कथं सहते?।।
हिन्दी में भावार्थ-जैसे सूर्य की किरणों से जड़ सूर्यकांतमणि जल जाती वैसे ही चेतन और जागरुक पुरुष भी दूसरे लोगों के अपमान को सहन न कर उसका प्रतिकार करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति अपनी क्षमता और बुद्धि के अनुसार अपने लक्ष्य तय करता है। जिन लोगों की अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि नहीं होती वह केवल धन और माया के फेर में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं। दान, धर्म परोपकार तथा सभी जीवों के प्रति उदारता के भाव का उनमें अभाव होता है। उनका एक ही छोटा लक्ष्य होता है अधिक से अधिक धन कमाना। इसके विपरीत जो ज्ञानी और बुद्धिमान पुरुष होते हैं वह सांसरिक कार्य करते हुए न केवल अध्यात्मिक ज्ञान तथा सत्संग से अपने हृदय की शांति का प्रयास करते हैं तथा साथ ही दान और परोपकार के कार्य कर समाज को भी संतुष्ट करते हैं। उनका लक्ष्य न केवल धन कमाना बल्कि धर्म कमाना भी आता है। उनकी रुचि अपने नियमित व्यवसायिक कार्यों के अलावा ज्ञान अर्जित करना भी होती है। देखा जाये तो धन तो हरेक कोई कमा रहा है। हर कोई खर्च भी करता है पर फिर भी कुछ लोग अपने व्यवहार की वजह से समाज में लोकप्रिय होते हैं और कुछ अपने स्वार्थों के कारण बदनाम हो जाते हैं।
अक्सर वार्तालाप में लोग एक दूसरे को अपमानित करते हैं। यह अच्छी बात नहीं है। एक बात याद रखें कि कोई व्यक्ति अगर अपमानित होकर चुप हो गया तो यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वह डर गया। हो सकता है कि वह आंतरिक रूप से गुण धारण करता हो और समय आने पर अपना बदला ले। तेजस्वी पुरुष ज्ञानी होते हैं। अपमानित किये जाने पर समय और हालात देख चुप हो जाते हैं पर समय आने पर अपने विरोधी को चारों खाने चित्त करते हैं। यह बात भी याद रखने लायक है कि यह प्रक्रिया केवल तत्वज्ञानियों द्वारा ही अपनायी जा सकती है। अल्पज्ञानी तो थोड़ी थोड़ी बात पर उत्तेजित होकर अपने गुस्से को ही नष्ट करते हैं जबकि ज्ञानी समय आने पर अपने तेज को प्रकट करते हैं। इसलिये अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के गुण अवगुण देखकर व्यवहार करना चाहिए। इसके अलावा समय आने पर अपने अपमान का बदला अवश्य लेना चाहिए।
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स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहि
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छांहि।।
कविवर रहीम कहते हैं कि लोग अपने स्वार्थ के अनुसार दूसरे में गुण और अवगुण ढूंढते रहते हैं। जो कभी अपना स्वार्थ साधने के लिये रथ के हरसो की टेढ़ी मेढ़ी छाया को अशुभ कहते हैं वह लोग उसकी छाया में भी बैठ जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर आपको अपने जीवन में तरक्की करनी हैं तो फिर लोगों के कहने सुनने की परवाह छोड़ दो। लोग तो अपने स्वार्थ के अनुसार गुण और अवगुण देखते हैं। अगर आपका कार्य किसी के अनुकूल नहीं है तो वह कभी आपको उसे करने के लिये प्रेरित नहीं करेगा। यदि प्रतिकूल हुआ तो वह जमकर आलोचना करेगा। यह मनुष्य स्वभाव है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि एक आदमी दूसरे की तरक्की को रोकने के लिये उसके लक्ष्य से भटकाते हुए अनेक दोष गिनाता है। जब कोई मनुष्य वास्तव में समाज सेवा के लिये प्रेरित होता है तो लोग उसे पागल तक कहते हैं। लोगों के कहने की परवाह करने वाले कभी भी विकास नहीं कर पाते। इसलिये जब आपने कोई लक्ष्य तय कर लिया है तो उस पर बढ़ चलिये। जब उसमें आपको सफलता मिलेगी तो वही लोग प्रशंसा कर आपकी छाया में बैठने का प्रयास करेंगे जिन्होंने आपकी आलोचना की थी। यह इस संसार की प्रकृति है कि वह गरीब को देता नहीं है और अमीर को सहन नहीं करता। गुणवान की गाता नहीं वरन् अवगुणी का बखान कर अपनी प्रशंसा कराना चाहता है। इसलिये अपने पथ पर चलते रहो। किसी की परवाह न करो। लोग अपने स्वार्थ के अनुसार समय समय दृष्टिकोण बदलते रहते हैं और अगर उन पर विचार किया तो फिर कोई भी काम ही नहीं कर सकेंगे।
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जो यद्वस्तु विजानाति तं तत्र विनियोजयेत्।
अशेषविषयप्राप्तविन्द्रियार्थ इवेन्द्रियम्।।
हिन्दी में भावार्थ-राज्य प्रमुख को चाहिये कि जो व्यक्ति संबंधित विषय का ज्ञाता हो उससे संबंधित विभाग और कार्य में ही उसे नियुक्त करे। जिस तरह समस्त इंद्रियां अपने गुणों में ही बरतती हैं वैसे ही किसी विषय में अनुभवी व्यक्ति ही अपने कार्य का निर्वाह सहजता से कर सकता है।
अभ्यस्तकम्र्मणस्तज्ज्ञान् शुचीन् सुझानम्मतान्।
कुय्र्यादुद्योगसम्पन्नानध्याक्षान् सर्वकम्र्मसु।।
हिन्दी में भावार्थ-राज्य प्रमुख को चाहिये कि वह राजकीय कार्य के अभ्यास करने वाले, संबंधित कार्य विशेष का ज्ञान रखने वाले पवित्र तथा ऐसे लोगों को अपने विभागों का प्रमुख नियुक्त करे जिन पर किसी का कर्जा न हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-हमारे देश के विश्व में पिछड़े होने का कारण कुप्रबंध है। यह आश्चर्य की बात है कि हम आधुनिक अर्थशास्त्र के नाम पर पश्चिम का ही अर्थशास्त्र पढ़ते हैं जबकि हमारा कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी वही बातें कह रहा है जिनको पश्चिमी अर्थशास्त्र अब बता पा रहे हैं। वैसे आधुनिक अर्थशास्त्री कहते हैं कि आर्थिक विशेषज्ञ को सभी विषयों को पढ़ना चाहिये सिवाय धर्मग्रंथों को। हमारे कौटिल्य महाराज को भी हमारे अध्यात्मिक ज्ञान का भाग माना जाता है। चूंकि अध्यात्म को धर्म का हिस्सा मान लिया गया है इसलिये कौटिल्य का अर्थशास्त्र का अध्ययन अधिक लोग नहीं करते।
आज देश में बड़ी बड़ी प्रबंधकीय, औद्योगिक तथा व्यवसायिक संस्थाओं को देखें तो वह अनेक ज्ञानी उच्चाधिकारी लोग काम रहे हैं। शिक्षा विज्ञान में मिली पर लेखा का काम रहे हैं। अनेक लोगों ने विज्ञान में शिक्षा प्राप्त की पर वह प्रबंध के उच्च पदों पर पहुंच गये हैं। अब प्रश्न यह है कि जिनको प्रबंध और लेखा का ज्ञान कभी नहीं रहा वह अपना दायित्व उचित ढंग से कैसे निभा सकते हैं। यही कारण है कि देश की प्रबंधकीय तथा औद्योगिक संस्थाओं में बड़े पदों पर लोग तो पहुंच गये हैं और काम करते भी दिखते हैं पर फिर भी इस देश कह प्रबंधकीय कौशल को लेकर कोई अच्छी छबि विश्व पटल पर नहीं दिखाई देती। सच बात तो यह है कि कार्य और पद योग्यता के आधार पर देना चाहिये पर यहां ऐसी शिक्षा के आधार पर यह सब किया जाता है जिसका फिर कभी जीवन में उपयोग नहीं होता न वह कार्यालयीन और व्यवसायिक निर्देशन के योग्य रहती है। ऐसे में सभी जगह कामकाज के स्तर में गिरावट के साथ ही असहिष्णुता का वातावरण बन गया है। बड़े पद पर बैठा व्यक्ति काम के ज्ञान के अभाव में कुंठा का शिकार हो जाता है और वह अपने मातहत के साथ आक्रामक व्यवहार कर अपने अज्ञान का दोष स्वयं से छिपाता है। वह अपने को ही यह विश्वास दिलाता है कि ‘आखिर वह एक उच्चाधिकारी है, जिसे काम करना नहीं बल्कि करवाना है।’ एक मजे की बात यह है कि कौटिल्य महाराज कहते हैं कि राजकाज में उसी व्यक्ति को नियुक्त करें जिस पर कर्जा न हो पर हम देख रहे हैं कि कम से कम इस व्यवस्था को अब तो कोई नहीं मान रहा। बाकी देश की जो हालात हैं उसे सभी जानते हैं।
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- बोलने से न बोलना अच्छा बताया गया है, किन्तु सत्य बोलना भी एक गुण है। चुप या मौन रहने से सत्य बोलना दो गुना लाभप्रद है। सत्य मीठी वाणी में बोलना तीसरा गुण है और धर्म के अनुसार बोला जाये यह उसका चौथा गुण है।
- मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है और जिन लोगों की सेवा में रहता है और जैसी उसकी कामनाएं होतीं है वैसा ही वह हो भी जाता है।
- मनुष्य जिन विषयों से मन हटाता है उससे उसकी मुक्ति हो जाती है। इस प्रकार यदि सब और से निवृत हो जाये तो उसे कभी भी दुख प्राप्त नहीं होगा।
- जो न तो स्वयं किसी से जीता जाता है न दूसरों को जीतने के इच्छा करता है न किसी से बैर करता और न दूसरे को हानि पहुंचाता है और अपनी निंदा और प्रशंसा में भी सहज रहता है वह दुख और सुख के भाव से परे हो जाता है।
असूयको दन्दशूको निष्ठुरो वरकृच्छठः। सं कृच्छ्रम् महदाप्नोति न चिरात् पापमाचरन्।।
हिंदी में भावार्थ-दूसरे व्यक्ति के गुणों में भी दोष देखने वाला, दूसरे के मर्म को आघात पहुंचाने वाला, निर्दयता और शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाले शठ मनुष्य अपने आचरण करे कारण शीघ्र नष्ट हो जाता है। अनूसूयुः कृतयज्ञः शोभनान्याचरन् सदा। न कृष्छ्रम महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।। हिंदी में भावार्थ-जिसकी दृष्टि दोष रहित है ऐसा व्यक्ति हमेशा ही शुभ कर्म करता हुआ महान सुख प्राप्त करने के सर्वत्र ही प्रशंसा का पात्र बनता है। वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- कहा जाता है कि जैसा दूसरे से व्यवहार करोगे वैसा स्वयं को भी मिलेगा। उसी तरह जिस दृष्टि से यह संसार देखोगे वैसे ही सामने दृश्य भी प्रस्तुत होंगे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनमें ज्ञान और अनुभव तो नाममात्र का होता है पर आत्मप्रचार की इच्छा उनको कुंठित कर देती है। किसी दूसरे की प्रशंसा देखकर वह उसके प्रतिकुल टिप्पणी करते हैं। भले ही दूसरे में गुण हो पर उसमें वह दोष निकालते हैं। जैसे मान लो कोई अच्छा लिखता है तो वह उसके विषय में दोष निकालेंगे या उसे गौण प्रमाणित करेंगे। कोई अच्छा खाना बनाता है तो वह उसके लिये मसालों को श्रेय देंगे। कहने का तात्पय यह है कि उनकी दृष्टि दोष देखने की आदी होती है। ऐसे लोग न हमेशा कष्ट उठाते हैं बल्कि उनकी जीवन भी जल्दी नष्ट होता है। इसके विपरीत दूसरे के गुण देखकर उनसे सीखने वाले विकास पथ पर चलते हैं। वह अपने कार्य से न केवल उपलब्धियां प्राप्त करते हैं बल्कि समाज में उनको सम्मान भी प्राप्त होता है। इसलिये अपना रवैया हमेशा सकारात्मक रखते हुए जीवन पथ पर बढ़ना चाहिये। वैसे आजकल अपने आपको तर्कशास्त्री कहने वाले लोग भारतीय धर्म ग्रंथों में ढेर सारे दोष ढूंढते हैं पर वह उन जीवन रहस्यों को नहीं जानते जिसके आधार वह सांस ले रहे हैं। वैसे हमारे समाज को आधुनिक शिक्षा ने अध्यात्मिक ज्ञान से विमुख कर दिया है इसलिये लोग दूसरों के दोषों का प्रचार अपने श्रेष्ठ होने का प्रचार करते हैं यही कारण है कि समाज में सामाजिक समरसता और प्रेम का अभाव हो गया है।
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पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्ज च यच्छाति।
अपूजितं च तद्भुक्तमूभयं नाशयेदिदम्।।
हिंदी में भावार्थ-सदाशयता से ग्रहण किया भोजन बल और वीर्य में वृद्धि करता है जब निंदा करते हुए उदरस्थ करने से उसके तत्व नष्ट होते हैं।
पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चेतकुत्सयन्
दृष्टवा हृध्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः।।
हिंदी में भावार्थ-मनुष्य को जैसा भोजन मिले उसे देखकर प्रसन्नता हासिल करना चाहिए। उसे ईश्वर प्रदत्त मानकर गुण दोष न निकालते हुए उदरस्थ करें। भोजन करते हुए अपनी झूठन न छोड़ें। यह कामना करें कि ऐसा अन्न हमेशा ही मिलता रहे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिनको भोजन आराम से मिलता है उनको उसका महत्व नहीं पता इसलिये वह उसे ऐसे करते हैं जैसे कि उसकी उनको परवाह ही नहीं है। भोजन करते समय उनको यह अहंकार आता है कि यह तो हमारा अधिकार ही है और हमारे लिये बना है। सच तो यह है कि भोजन का महत्व वही लोग जानते हैं जिनको यह नसीब में पर्याप्त मात्रा में नहीं होता। स्वादिष्ट भोजन की चाह आदमी को अंधा बना देती है। अनेक बार ऐसा समय आता है जब वह सब्जी के कारण भोजन नहीं करता या उसे त्याग देता है। भोजन करते समय उसकी निंदा करेंगे। शादी विवाह में तो अब यह भी होने लगा है कि लोग भोजन थाली में भरकर लेते हैं पर उसमें से ढेर सारा झूठन में छोड़े देते हैं। सार्वजनिक अवसरों पर ऐसे भोजन की बरबादी देखी जा सकती है।
यह समझ लेना चाहिये कि भोजन तो ईश्वरीय कृपा से मिलता है। यह सही है कि दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, पर यह भी नहीं भूलना कि अपने कर्म और भाव से भी भाग्य का निर्माण होता है। अगर हम भोजन करते हुए अहंकार पालेंगे तो संभव है कि दानों पर लिखा हमारा नाम मिट भी जाये। अपनी गृहिणी को कभी भी सब्जी आदि को लेकर ताना नहीं देना चाहिये। यह भगवान की कृपा समझें कि एक ऐसी गृहिणी आपके साथ है जो अपने हाथ से खाना बनाकर देती है वरना तो अनेक लोग घर के खाने के लिये तरस जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि खाते हुए अपना भाव सौम्य और सरल रखना चाहिए तभी भोजन के तत्व संपूर्ण रूप से काम करते हैं अगर मन में क्लेश या अप्रसन्नता है तो फिर खाना न खाना बराबर है। एक बात निश्चित है कि अगर तनाव में खाना खाया तो समझ लीजिये केवल पेट भरा पर उससे मिलने वाली ऊर्जा निरर्थक हो जाती है। आपने अक्सर सुना होगा कि जिनको दिमागी तनाव रहता है उन्हीं को उच्च रक्तचाप और मधुमेह की शिकायत होती है।
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पश्यदिभ्र्दूरतोऽप्रायान्सूपायप्रतिपत्तिभिः।
भवन्ति हि फलायव विद्वादभ्श्वन्तिताः क्रिया।।
हिन्दी में भावार्थ-विद्वान तो दूर से विपत्तियों को आता देखकर पहले ही से उसकी प्रतिक्रिया का अनुमान कर लेता है और इसी कारण अपनी क्रिया से उसका सामना करता है।
अशिक्षितनयः सिंहो हन्तीम केवलं बलात्।
तच्च धीरो नरस्तेषां शतानि जतिमांजयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-सिंह किसी नीति की शिक्षा लिये बना सीधे अपने दैहिक बल से ही आक्रमण करता है जबकि शिक्षित एवं धीर पुरुष अपनी नीति से सैंकड़ों को मारता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सिंह बुद्धि बल का आश्रय लिये बिना अपने बल पर एक शिकार करता है पर जो मनुष्य ज्ञानी और धीरज वाला है वह एक साथ सैंकड़ों शिकार करता है। महाराज कौटिल्य का यह संदेश आज के संदर्भ में देखें तो पता लगता है कि हमारे देश में लोगों की समझ इसलिये कम है क्योंकि वह अपने अध्यात्मिक साहित्य आधुनिक शिक्षा में पढ़ाया नहीं जाता। अंग्रेज हिंसा से इस देश में राज्य नहीं कर पा रहे थे तब उन्होंने अपने विद्वान मैकाले का यह जिम्मेदारी दी कि वह कोई मार्ग निकालें। उन्होंने ऐसी शिक्षा पद्धति निकाली कि अब तो अंग्रेज ब्रिटेन में हैं पर अंग्रेजियत आज भी राज्य कर रही है। अब तलवारों से लड़कर जीतने का समय गया। अब तो फिल्म, शिक्षा, धारावाहिक, समाचार पत्र, किताबें तथा रेडियो से प्रचार कर भी सैंकड़ों लोगों को गुलाम बनाया जा सकता है। इनमें फिल्म और टीवी तो एक बड़ा हथियार बन गया है। आप फिल्में और टीवी की विषय सामग्रंी देखकर उसका मनन करें तो पता लग जायेगा कि जाति, धर्म, और भाषा के गुप्त ऐजेडे वहीं से लागू किये जा रहे हैं। फिल्म और टीवी वाले तो कहते हैं कि समाज में जो चल रहा है वही दिखा रहे हैं पर सच तो यह है कि उन्होंने अपनी कहानियों में ईमानदार लोगों का परिवार समेत तो हश्र दिखाया वह कहीं नहीं हुआ पर उनकी वजह से समाज डरपोक होता चला गया और आज इसलिये अपराधियों में सार्वजनिक प्रतिरोध का भय नहीं रहा। वजह यह थी कि इन फिल्मों में अपराधियों का पैसा लगता रहा था। फिल्मों के अपराधी पात्र गोलियों से दूसरों को निशाना बनाते थे पर उनको नायक के हाथ से पिटते हुए दिखाया गया। स्पष्टतः संदेश था कि आप अगर नायक नहीं हो तो आतंक या बेईमानी से लड़ना भूल जाओ। इस तरह समाज को डरपोक बना दिया गया और अब तो पूरी तरह से अपराधियों को महिमा मंडन होने लगा है।
अगर आप कभी फिल्म या टीवी धारवाहिकों की पटकथा तथा अन्य सामग्री देखें और उस पर चिंतन करें तो हाल पता लग जायेगा कि उसके पीछे किस तरह के प्रायोजक हैं? यह एक चालाकी है जो धनवान और शिक्षित लोग करते हैं। अंग्रेज लोग हमारे धार्मिक ग्रंथों को खूब पढ़ते रहे होंगे इसलिये उन्होंने एसी शिक्षा पद्धति थोपी कि उनसे यह देश अपनी प्राचीन विरासत से दूर हो जाये। अब क्या हालत है कि जो अंग्रेज जो कहें वही ठीक है। वह अपनी परंपराओं तथा भाषा के कारण आज भी यहां राज्य कर रहे हैं। उनकी दी हुई शिक्षा पद्धति यहां गुलाम पैदा करती है जो अंग्रेजों की सेवा के लिये वहां जाकर उनकी सेवा के लिये तत्पर रहते हैं। सच यह बात है कि अंग्रेजी की यह शिक्षा केवल गुलाम ही बना सकती है जबकि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान मनुष्य को एक ऐसा विद्वान बना सकता है जो हर जगह शासन कर सकता है।
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अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार
मेरा चोर मुझको मिलै, सरबस डारूं वार
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के सब तो अपने अपने चोर को मार डालते हैं, परंतु मेरा चोर तो मन है। वह अगर मुझे मिल जाये तो मैं उस पर सर्वस्व न्यौछावर कर दूंगा।
सुर नर मुनि सबको ठगै, मनहिं लिया औतार
जो कोई याते बचै, तीन लोक ते न्यार
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह मन तो एक महान ठग है जो देवता, मनुष्य और मुनि सभी को ठग लेता है। यह मन जीव को बार बार अवतार लेने के लिये बाध्य करता है। जो कोई इसके प्रभाव से बच जाये वह तीनों लोकों में न्यारा हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पहचान तो मन है और वह उसे जैसा नचाता। आदमी उसके कारण स्थिर प्रज्ञ नहीं रह पाता। कभी वह किसी वस्तु का त्याग करने का निर्णय लेता है पर अगले पर ही वह उसे फिर ग्रहण करता है। अर्थात मन हमेशा ही व्यक्ति का अस्थिर किये रहता है। कई बार तो आदमी किसी विषय पर निर्णय एक लेता है पर करता दूसरा काम है। यह अस्थिरता मनुष्य को जीवन पर विचलित किये रहती है और वह इसे नहीं समझ सकता है। यह मन सामान्य मनुष्य क्या देवताओं और मुनियों तक को धोखा देता है। इस पर निंयत्रण जिसने कर लिया समझा लो तीनों को लोकों को जीत लिया। वरना तो यह मन ऐसा है कि आदमी उसका गुलाम हो जाता है और जिसने उसके मन को गुलाम बन लिया उसकी गुलामी करने लगता है। आजकल आदमी पर हिंसा के द्वारा दैहिक रूप से जीतने की बजाय उसके मन को ललचा कर उसको बौद्धिक रूप से गुलाम बनाया जाता है। जिन लोगों को इसका ज्ञान है वही जीवन में स्वतंत्र रूप से तनावमुक्त जीवन बिता सकते हैं।
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अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।
हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो। वैसे भी जीवन में संस्कारों के बहुत महत्व है और संगत का प्रभाव आदमी पर पड़ता है। इसलिये न केवल संस्कारवान लोगों के साथ संपर्क रखना चाहिये बल्कि जो लोग कुसंस्कारी लोगों में उठते बैठते हैं उनसे भी अधिक संपर्क नहीं रखना चाहिये।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष स तं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम्।
यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य विभति गुंजाः।।
हिंदी में भावार्थ- अगर कोई मनुष्य किसी वस्तु या अन्य मनुष्य के गुणों को नहीं पहचानता तो तो उसकी निंदा या उपेक्षा करता है। ठीक उसी तरह जैसे जंगल में रहने वाली कोई स्त्री हाथी के मस्तक से मिलने वाली मोतियों की माला मिलने पर भी उसे त्यागकर कौड़ियों की माला पहनती है।
अकृष्टफलमूलेन वनवासरतः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-वह विद्वान ऋषि कहलाता है जो जमीन को जोते बिना पैदा हृए फल एवं कंधमूल आदि खाकर हमेशा वन में जीवन व्यतीत करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य का कहना है कि अगर किसी व्यक्ति या वस्तु के गुणों का ज्ञान नहीं है तो उसकी उपेक्षा हो ही जाती है। यह स्थिति हम अपने भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के बारे में आज समाज द्वारा बरती जा रही उपेक्षा के बारे में समझ सकते हैं। हमारे देश के प्राचीन और आधुनिक ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने बड़े परिश्रम से हमें जीवन और सृष्टि के रहस्यों को जानकर उसका ज्ञान हमारे लिये प्रस्तुत किया पर हमारे देश के विद्वानों ने उसकी उपेक्षा कर दी। यही कारण है कि आज हमारे देश में विदेशी विद्वानों के ज्ञान की चर्चा खूब होती है। देश में पश्चिम खान पान ही सामान्य जीवन की दिनचर्या का भाग बनता तो ठीक था पर वहां से आयातित विचार और चिंतन ने हमारी बौद्धिक क्षमता को लगभग खोखला कर दिया है। यही कारण है कि सामान्य व्यक्ति को शिक्षित करने वाला वर्ग स्वयं भी दिग्भ्रमित है और भारतीय अध्यात्म उसके लिये एक फालतू का ज्ञान है जिससे वर्तमान सभ्यता का कोई लेना देना नहीं है।
जबकि इसके विपरीत पश्चिम में भारतीय अध्यात्म ज्ञान की पुस्तकों पर अब जाकर अनुसंधान और विचार हो रहा है। अनेक महापुरुषों के संदेश वहां दिये जा रहे हैं। हमारी स्थिति भी कुछ वैसी है जैसे किसी घर में हीरों से भरा पात्र हो पर उसे पत्थर समझकर खेत में चिड़ियों को भगाने के लिये कर रहा हो। हमें यह समझना चाहिए कि अज्ञान और मोह में मनुष्य के लिये हमेशा तनाव का कारण बनता है।
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दीपक भारतदीप द्धारा
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