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प्यार ने खलनायक बनाया-हास्य व्यंग्य कवितायें


हमने पूछा था अपने दिल को
बहलाने के लिए किसी जगह का पता
उन्होने बाजार का रास्ता बता दिया
जहां बिकती है दिल की खुशी
दौलत के सिक्कों से
जहाँ पहुंचे तो सौदगरों ने
मोलभाव में उलझा दिया
अगर बाजार में मिलती दिल की खुशी
और दिमाग का चैन
तो इस दुनिया में रहता
हर आदमी क्यों इतना बैचैन
हम घर पहुंचे और सांस ली
आँखें बंद की और सिर तकिये पर रखा
जिस चैन को ढूंढते थक गए थे
आखिर उसने ही उसका पता दिया
——————-
दोस्ती निभाने के वादे
किये नही जाते
निभाए जाते हैं।
जुबान से कहने के
मौक़े आते हैं हर दिन
निभाने के कभी कभी आते हैं।
देखा रोज यह कहने वालों की
भीड़ लगी रहती है कि कोइ
मुसीबत में हमें याद कर लेना
घिरता हूँ जब चारों और से
वही दोस्त सबसे पहले छोड़ जाते हैं
जो हर पल निभाने की कसमें
सबसे ज्यादा खाते हैंदोस्ती निभाने के वा दे
किये नही जाते
निभाए जाते हैं।
जुबान से कहने के
मौक़े आते हैं हर दिन
निभाने के कभी कभी आते हैं।
देखा रोज यह कहने वालों की
भीड़ लगी रहती है कि कोइ
मुसीबत में हमें याद कर लेना
घिरता हूँ जब चारों और से
वही दोस्त सबसे पहले छोड़ जाते हैं
जो हर पल निभाने की कसमें
सबसे ज्यादा खाते हैं
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कोई भी जब मेरे पास
वादों का पुलिंदा लेकर आता है
मैं समझ जाता हूँ
आज लुटने का दिन है
पहले सलाम करते हैं
फिर पूछते हैं हालचाल
फिर याद दिलाते हैं
पुरानी दोस्ती का इतिहास
मैं इन्तजार करता हूँ
उनकी फरमाइश सुनने का
वह सुनाते हैं शब्द चुन चुन कर
दावा यह कि केवल तुम अपने हो
इसीलिये कह रहा हूँ
मैं समझ जाता हूँ
आज एक दोस्त अपने से
सबंध ख़त्म होने का दिन है
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उदास होकर फंदेबाज घर आया
और बोला
‘दीपक बापू, बहुत मुश्किल हो गयी है
तुम्हारे भतीजे ने मेरे भानजे को
दी गालियां और घूंसा जमाया
वह बिचारा तुम्हारी और मेरी दोस्ती का
लिहाज कर पिटकर घर आया
दुःखी था बहुत तब एक लड़की ने
उसे अपनी कार से बिठाकर अपने घर पहुंचाया
तुम अपने भतीजे को कभी समझा देना
आइंदा ऐसा नहीं करे
फिर मुझे यह न कहना कि
पहले कुछ न बताया’

सुनकर क्रोध में उठ खड़े हुए
और कंप्यूटर बंद कर
अपनी टोपी को पहनने के लिये लहराया
फिर बोले महाकवि दीपक बापू
‘कभी क्या अभी जाते हैं
अपने भाई के घर
सुनाते हैं भतीजे को दस बीस गालियां
भले ही लोग बजायें मुफ्त में तालियां
उसने बिना लिये दिये कैसे तुम्हारे भानजे को दी
गालियां और घूंसा बरसाया
बदल में उसने क्या पाया
वह तो रोज देखता है रीयल्टी शो
कैसे गालियां और घूंसे खाने और
लगाने के लिये लेते हैं रकम
पब्लिक की मिल जाती है गालियां और
घूसे खाने से सिम्पथी
इसलिये पिटने को तैयार होते हैं
छोटे पर्दे के कई महारथी
तुम्हारा भानजा भी भला क्या कम चालाक है
बरसों पढ़ाया है उसे
सीदा क्या वह खाक है
लड़की उसे अपनी कार में बैठाकर लाई
जरूर उसने सलीके से शुरू की होगी लड़ाई
सीदा तो मेरा भतीजा है
जो मुफ्त में लड़की की नजरों में
अपनी इमेज विलेन की बनाई
तुम्हारे भानजे के प्यार की राह
एकदम करीने से सजाई
उस आवारा का हिला तो लग गया
हमारे भतीजा तो अब शहर भर की
लड़कियों के लिये विलेन हो गया
दे रहे हो ताना जबकि
लानी थी साथ मिठाई
जमाना बदल गया है सारा
पीटने वाले की नहीं पिटने वाले पर मरता है
गालियां और घूंसा खाने के लिये आदमी
दोस्त को ही दुश्मन बनने के लिये राजी करता है
यह तो तुम्हारे खानदान ने
हमारे खानदान पर एक तरह से विजय पाई
हमारे भतीजे ने मुफ्त में स्वयं को खलनायक बनाया

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जिन पर है दौलत मेहरबान-हास्य व्यंग्य कवितायें



धन, पद और प्रतिष्ठा की शक्ति
हो जाती है जिन पर मेहरबान
क्यों न करे वह उस पर अभिमान
इस जहां में सभी यही चाहते हैं
जिनसे दूर है यह सब
वह रहते हैं परेशान
गर्दन ऊपर उठाएँ देखते हैं
होकर हैरान

उनके लड़के मोटर साइकिलों
और कारों में चलते गरियाते हैं
अभावों से है वास्ता जिनका
वह उन्हें देखकर सहम जाते हैं
अपने वाहन को चलाते है ऐसे
जैसे करते हौं फिल्मी स्टंट
कोई नहीं कर पाता उनको शंट
जो रोकने की कोशिश करे
उस पर टूट पड़ें बनकर हैवान

गरीब अगर अमीर की चौखट पर
जाना बंद कर दे
जाये तो तैयार रहे
झेलने के लिए अपमान
सड़क पर चले तो
किसी से डरे या नहीं
नव-धनाढ्यों की सवारी से
बचकर चले
न हार्न दें
चाहे जहां और जब रूक जाएँ
मन में आये वहीं रूक जाएँ
यही उनकी पहचान

कहैं दीपक बापू
तेज गति से मति होती वैसे ही मन्द
फिर बाप के पैसे, पद और प्रतिष्ठा का
नशा हो जिनको
वह क्यों होंगे किसी नियम के पाबन्द
वह पडा है उनकी तिजोरी में बंद
अपने जीवन की सुरक्षा
अपने ही हाथ में रखो
बाकी करेंगे अपने भगवान
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वाह रे बाज़ार तेरा खेल
मैदान में पिटे हीरो को
कागज और फिल्म पर
चमकाकर और सजाकर
जनता के बीच देता है ठेल

क्रिकेट में कोई विश्वकप नही
जीत सके जो तथाकथित महान
ऐसे प्रचार का जाल बिछाते हैं
कि लोग फिर
उनके दीवाने बन जाते हैं
अपने पुराने विज्ञापन इस
तरह सबके बीच लाते हैं कि
लोग हीरो की नाकामी से
हो जाते हैं अनजान
और बिक जाता है बाजार में
उनका रखा और सडा-गडा तेल

न ताज कभी चला न चल सकता है
उस पर हुए करोड़ों के वारे-न्यारे
और वह चला भी ख़ूब
प्रचार ऐसा हुआ कि
पैसेंजर में नही लदा
खुद ही बन गया मेल

कहै दीपक बापू
शिक्षा तो लोगों में बहुत बढ़ी है
पर घट गया है ज्ञान
शब्दों का भण्डार बढ़ गया है
आदमी की अक्ल में
पर अर्थ की कम हो गयी पहचान
बाजार में वह नहीं चलता
चलाता है बाजार उसे
सामान खरीदने नहीं जाता
बल्कि घर लूटकर आता
और कभी सामान तो दूर
हवा में पैसे गँवा आता
विज्ञापन और बाजार का या खेल
जिसने कमाया वही सिकंदर
जिसने गँवाया वह बंदर
इससे कोई मतलब नही कि
कौन है पास कौन है फेल
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आँखें देखतीं हैं
कान सुनते हैं
और जीभ का काम है बोलना
पर जो पहचान करे
सुनकर जो गुने
और जो श्रीमुख से
शब्द व्यक्त करे
वह कौन है
हाथ करते हैं अपना काम
टांगों का काम है चलना
और कंधे उठाएं बोझ
पर जो पहुँचाता है लक्ष्य तक
जो देता है दान
और जो दर्द को सहलाता है
वह कौन है

कहैं दीपक बापू
कहाँ उसे बाहर ढूंढते हो
क्यों व्यर्थ में त्रस्त होते हो
बैठा तुम्हारे मन में
तुम उससे बात नहीं करते
इसलिये वह मौन है
जब तक तुम हो
तब तक वह भी है
तुम्हारा अस्तित्व है उससे
उसका जीवन है तुमसे
तुम सीमा में बंधे रहते हो
उसकी शक्ति अनंत है
तुम पहचानने की कोशिश करके देखो
वह तुम्हारा अंतर्मन नहीं तो और कौन है

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है। ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’
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