आजादी के बाद से हमारे यहां लोकतंत्र की आड़ में एक अनवरत बौद्धिक संघर्ष रहा है-अब यह पता नहीं कि वह स्वप्रेरित है या प्रायोजित। आजकल आजादी का नारा फिर लग रहा है। राष्ट्रवादियों के शिखर पर आने के बाद उलटपंथियों का बरसों पुराना चला आ रहा बौद्धिक प्रभाव समाप्ति की तरफ जा रहा है तो वह स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हुए शहीदों के व्यक्तित्व का नवीनीकरण करने का प्रयास कर रहे हैं। 1947 से पूर्व जो स्वतंत्रता आंदोलन चला था वह केवल नारों पर आधारित था। उसके बाद देश में एक कुशल राज्य प्रबंध की आवश्यकता था पर लोकतंत्र में जनमानस में प्रभाव बनाये रखने के लिये पहले की तरह ही नारों का उपयोग किया गया। श्रीअन्नाहजारे ने कुछ वर्ष पूर्व भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाया था उसे भी कुछ विद्वानों ने दूसरा स्वतंत्रता आंदोलन कहा था-अगर हम उनकी बात मान लें तो इसका अर्थ तो यह है कि देश अभी स्वतंत्र हुआ ही नहीं।
अब हमें बौद्धिक रूप से व्यवहारिक होना चाहिये। देश को स्वतंत्र रूप से चलते हुए 70 वर्ष हो गये। देश के स्वतंत्रता में योगदान देने वाले महापुरुषों के नाम इतिहास में दर्ज हैं और जिज्ञासु लोग उन्हें पढ़ सकते हैं। उनके नाम पर बार बार लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचने की आवश्यकता नहीं है। पुराने महान व्यक्त्तिवों के पीछे नये बुद्धिजीवी अपनी खाली सोच छिपाने का ऐसा प्रयास कर रहे हैं जिस पर हंसा ही जा सकता है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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