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गुरु पूर्णिमा पर विशेष लेख-शिष्य को जीवन का तत्वज्ञान देने वाले गुरु ही सम्मान के अधिकारी (guru shishya aur tatvgyan-guru purnima par vishesh hindi lekh)


        गुरू पूर्णिमा का दिन भारत में धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में गुरु की सेवा का महत्व प्रतिपादित किया है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के ज्ञान का व्यवसायिक रूप से प्रवचन करने वाले अनेक गुरु इस संदेश का महत्व अपने अपने ढंग से बयान करते हुए अपनी छवि गुरु जैसी बना लेते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में गुरू के स्वरूप की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है इसलिये इसका उपयोग चाहे जैसे किया जा सकता है पर जो लोग श्रीमद्भागवत के अक्षरक्षः पालन करने के समर्थक हैं वह गुरू के अधिक व्यापक स्वरूप की बजाय उसके सूक्ष्म अर्थ पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। उनका स्पष्टतः मानना है कि असली गुरु वही है जो अपने शिष्य को तत्वज्ञान से अवगत कराने के साथ ही उसमें धारित या स्थापित करने का सामर्थ्य रखता हो।
          श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान केवल उसके अध्ययन से सभी को नहीं हो सकता और उनको इसके लिये किसी न किसी गुरु की आवश्यकता होगी यह बात श्रीकृष्ण अच्छी तरह से जानते थे। देश में जो आज की शैक्षणिक स्थिति है उससे अधिक बदतर तो महाभारत काल में थी। सभी लोग अक्षर ज्ञान से अवगत नहीं थे और उनको धार्मिक और अध्यात्मिक ज्ञान में वर्णित सामग्री के लिये भाषा ज्ञान रखने वाले लोगों पर निर्भर रहना पड़ता था तब दैहिक गुरु की आवश्यकता बताई गयी। इसी कारण से श्रीमद्भागवत गीता में गुरु के स्वरूप के महत्व बताया गया। महभारत युद्ध में श्रीमद्भागवत गीता का संदेश देते भगवान श्रीकृष्ण के उस समय श्री अर्जुन के सखा न होकर गुरु बन गये थे।
       श्रीमद्भागवत गीता एक अनमोल ग्रंथ है। ऐसा कोई भी पेशेवर या गैर पेशेवर अध्यात्मवेता नहीं है जो उसके स्वर्णिम भंडार रूपी तत्वज्ञान से अपना मोह दूर रख सके। यह अलग बात है कि पेशेवर संत गुरु का अर्थ अत्ंयत व्यापक कर जाते हैं। वह उसमें माता पिता, दादा दादी और नाना नानी भी जोड़ देते हैं ताकि वह अपने शिष्यों के साथ उनके परिवार में भी पैठ बना सकें। जबकि श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों से ऐसा आभास नहीं होता। वहां गुरु से आशय केवल तत्वज्ञान देने वाले परिवार से बाहर के गुरु से ही है। उसकी सेवा की बात करना स्वाभाविक भी हैै। वह भी उस समय जब उससे शिक्षा प्राप्त की जा रही हो। उस समय गुरुकुलोंु में शिक्षा होती थी और सेवा एक आवश्यकता थी। न कि गुरुजी के दिये ज्ञान को धारण किये बिना हर वर्ष उसके यहां मत्था टेककर अपना जीवन धन्य समझना।
         कुछ पेशेवर संत माता पिता की सेवा का उपदेश देकर भीड़ की वाहवाही लूटते हैं क्योंकि उनके भक्तों में अनेक माता पिता भी होते हैं। ऐसे में कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि क्या श्रीमद्भागवत गीता में माता पिता के सेवा के लिये कोई स्पष्टतः उल्लेख नहीं हैं तो उन्हें बता दें कि भगवान श्रीकृष्ण ने तो गृहस्थ जीवन का त्याग करने की बजाय उसे निभाने की बात कही है। हमारे माता पिता हमारी गृहस्थी का ही भाग होते हैं न कि उनसे अलग हमारा और हमसे अलग उनका कोई अस्तित्व होता है। हम उनकी गृहस्थी का विस्तार हैं तो वह हमारी गृहस्थी के शीर्ष होते हैं। जो व्यक्ति गृहस्थ धर्म का पालन करता है वह अपनी गृहस्थी में शामिल हर सदस्य के प्रति अपना कर्तव्य निभाता है। इस दैहिक संसार में कोई भी आदमी अपने गृहस्थ कर्म से विमुख नहीं हो सकता इसलिये गुरु के स्वरूप का विस्तार करने की आवश्यकता नहीं है।
          माता पिता तो अपनी संतान के संसार का ही ज्ञान देते हैं जबकि गुरु इस प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित करने वाला ज्ञान देकर अपने शिष्य को इस जीवन को जीने का तरीका सिखाता है जिसके आगे सांसरिक ज्ञान तुच्छ साबित होता है। इसके विपरीत हम देख रहे है कि धर्म से जुड़े पेशेवर और गैरपेशेवर प्रवचन कर्ता अपने श्रोताओं और शिष्यों को सांसरिकता का पाठ ही अवश्य पढ़ाते हैं। उनका लक्ष्य समाज में चेतना लाने की बजाय उसे बौद्धिक विलासी बनाकर उसका दोहन करना होता है। स्थिति यह है कि इनमें से कई शिखर पर पहुंच कर अपने शिष्य और श्रोता समुदाय की संख्या का प्रभाव दिखाने की कोशिश सार्वजनिक रूप से करते हैं। ऐसे लोग श्रीमद्भागवत गीता जिसमें जिसमें निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन दया का पाठ पढ़ाया है उसका वाचन कर लोगों में विषयों के प्रति आसक्ति को तीव्रतर करने के लिये करते हैं।
        इसका छोटा उदाहरण यह है कि श्रीमद्भागवत गीता के पहले अध्याय में अर्जुन ने युद्ध से विरक्त होकर जब हथियार डाले और श्रीकृष्ण को भविष्य के दुष्परिणामों के बारे में बताया तो उसमें उसने यह भी कहा था कि जब दोनों तरफ के योद्धा अपने परिवार के समस्य पुरुष सदस्यों के साथ मारे जायेंगे तो फिर उनका श्राद्ध और तर्पण कौन करेगा? उन्होंने अन्य आसन्न संकटों की भी चर्चा की। भगवान श्री कृष्ण ने दूसरे अध्याय में उसके इस तरह के सारे संकटों को वहम बताया। वहां भगवान श्रीकृष्ण ने उसे बताया कि यह सारे ढकोसले हैं। श्रीमद्भागवत गीता में किसी भी कर्मकांड का समर्थन नहीं किया गया। इसी श्रीगीता के आधार पर बोलने वाले गुरु अपने शिष्यों को श्राद्ध तथा पितृपक्ष का महत्व बताते हुए उसे निभाने की बात करते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण और भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र की यह विशेषता है कि दोनेां ही गुरु महिमा का बखान करते हैं पर एक बार वह अपने कर्मक्षेत्र में उतरे तो पलट कर अपने गुरु के पास नहीं गये। स्पष्टतः उनका आशय केवल शिक्षा के दौरान ही गुरु की सेवा से रहा है। उनके गुरुओं ने भी कभी उनका संपूर्ण जीवन तक दोहन नहीं किया। तत्वज्ञान देने वाला गुरु पूर्ण रूप से शिष्य को शिक्षित कर फिर उससे भी विरक्त हो जाता है। न वह शिष्य में मोह रखता है न वह उससे ऐसी अपेक्षा करता है। यही त्याग गुरु की सबसे बड़ी शक्ति है और आज हम अपने अध्यात्मिक ज्ञान के विश्व में सबसे अधिक संपन्न देखते हैं तो वह केवल इन्हीं गुरुओं की तपस्या का परिणाम है।
      लोग अक्सर कहते हैं कि सच्चे गुरु मिलते ही कहां है़? दरअसल वह इस बात को नहीं समझते कि पुराने समय में शिक्षा के अभाव में गुरुओं की आवकश्यता थी पर आजकल तो अक्षर ज्ञान तो करीब करीब सभी के पास है। जीवन में गुरु होना चाहिए पर न हो तो फिर श्रीमद्भागवत गीता को ही गुरू मानकर शिष्य भाव से उसका अध्ययन करना चाहिये जो अब सभी भाषाओं में उपलबध है। भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन किया जाये तो ज्ञान चक्षु स्वतः खुल जायेंगे। फिर कहीं सत्संग और चर्चा करें तो अपने ज्ञान को प्रमाणिक भी बना सकते हैं। मुख्य बात संकल्प की है। हमारा स्वय का संसार हमारे सामने अपने ही संकल्प से वैसे ही स्थित होता है जैसे परमात्मा के संकल्प से स्थित है। अगर द्रोणाचार्य जैसे गुरु नहीं मिलते तो एकलव्य जैसा शिष्य तो बना ही जा सकता है।

इस अवसर पर अपने ब्लाग लेख्कों और पाठकों को बधाई।
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लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

श्री मदभागवत गीता से बड़ा गुरु आधुनिक युग में कोई हो नहीं सकता-हिन्दी लेख (shri madbhagawat gita a top teacher in life-hindi lekh)


                    भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार हर जीव में आत्मा होता है पर मनुष्य के मन की चंचलता अधिक है तो उसमें बुद्धि की प्रबलता है। बुद्धि की प्रेरणा से मन जहां भटकाता है वहीं उस पर विवेक से नियंत्रण भी पाया जा सकता है। इसके लिये यह जरूरी है कि ध्यान और भक्ति के द्वारा अपने आत्म तत्व को पहचाना जाये। इस प्रक्रिया को ही अध्यात्मिक ज्ञान कहा जाता है। अध्यात्म का सीधा अर्थ आत्मा ही है पर जब वह हमारे काम काज को प्रत्यक्ष प्रभावित करता है तब उसे अध्यात्म भी कहा जा सकता है। अपने कर्मयज्ञ का स्वामी अध्यात्म को बनाने के लिये यह जरूरी है कि उसके स्वरूप का समझा जाये। यह द्रव्य यज्ञ से नहीं वरन् ज्ञान यज्ञ से ही संभव है।
                मन और बुद्धि के वश होकर किये गये द्रव्य यज्ञ सांसरिक फल देने वाले तो हैं पर उसे अध्यात्म संतुष्ट नहीं होता। ज्ञान यज्ञ की बात कहना बहुत सरल है पर करना बहुत कठिन काम है क्योंकि उसमें मनुष्य की प्रत्यक्ष सक्रियता न उसे स्वयं न दूसरे को दिखाई देती है। कहीं से तत्काल प्रशंसा या परिणाम प्रकट होता नहीं दिखता बल्कि उसे केवल आत्म अनुभूति से ही देखा जा सकता है। अपनी सक्रियता की प्रतिकिया तत्काल देखने के इच्छुक तथा तत्वज्ञान से परे मनुष्य के लिये संभव नहीं है। वैसे तत्वज्ञान के प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण भी श्रीमद्भागवतगीता में यह स्वीकार कर चुके हैं कि कोई हजार ज्ञानियों में कोई मुझे भजेगा और ऐसे भजने वालों में हजारों में कोई एक मुझे पायेगा।
                     अब यहां प्रश्न आता है कि भगवान को भजने का सर्वश्रेष्ठ तरीका क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने किसी भी प्रकार के भक्ति की नकारात्मक व्याख्या नहीं की पर भक्तों के चार रूप बताये हैंे-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। भक्ति के भी तीन रूप माने हैं सात्विक, राजस तथा तामस। उन्होंने किसी की आलोचना नहीं की बल्कि तामसी प्रवृत्ति की भक्ति को भी भक्ति माना है। दूसरे शब्दों में कहें तो उनका मानना है कि मनुष्य का मन चंचल है और वह कभी कभी उसे भक्ति में भी लगायेगा चाहे भले ही वह तामस प्रवृत्ति की भक्ति करे।
            श्रीमद्भागवत गीता का भक्ति के साथ ही जिज्ञासापूर्वक अध्ययन करने वाले मनुष्य पूर्ण ज्ञानी भले न बनें पर उनकी प्रवृत्ति इस तरह की हो जाती है कि वह उसके ज्ञान के चश्में में दुनियां तथा आईने में अपने को देखने के आदी हो जाते हैं। ऐसे में जब श्रीमद्भागवत गीता में हजारों में भी एक भक्त और उनमें भी हजारों भक्तों में एक के परमात्मा को पाने की बात सामने आती है तो लगता है कि संसार में ऐसे ज्ञानियों की बहुतायत होना संभव नहीं है जो निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया, समदर्शिता का भाव धारी तथा मान अपमान में स्थिरप्रज्ञ होने के साथ ही योग करते हुए आत्मज्ञान प्राप्त करने में तत्पर रहने वाले हों। अधिकतर लोग द्रव्य यज्ञ करते हैं जो कि तत्काल प्रतिक्रिय पाने वाले होते हैं। उनका मन जब संसार के कर्म से विरक्त हो जाता है तब भक्ति की तरफ दौड़ता है। घर परिवार की परेशानियों का हल करना मनुष्य का लक्ष्य होता है तब वह वह चमत्कारों की तरफ भागता है। ऐसे में ज्ञान देने वाले गुरुओं की बजाय चमत्कार से उनकी परेशानियों  का हल करने वाले जादूगरों उनको बहुत भाते हैं। वैसे हाथ की सफाई दिखाने वाले जादूगर इस संसार में बहुत हैं पर वह संत होने का दावा नहीं  करते पर जिनको संत कहलाने की ललक है वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के ग्रंथ पढ़कर संदेश रट लेते हैं और हाथ की सफाई के साथ चमत्कार करते हुए उनका प्रवचन भी करते हैं। ऐसे ही लोग प्रसिद्ध संत भी हो जाते हैं।
              यहां तक सब ठीक है पर ऐसे संतों को भारतीय अध्यात्मिक दर्शन नकार देता है। भारत में बहुत सारे महापुरुष हुए हैं जिनके कारण भारतीय अध्यात्म की धारा अविरल बहती रही है। प्राचीन काल में भगवान के अवतारों में राम और कृष्ण तो हमारे जीवन का आधार है पर मध्य काल में महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर जी ने भी भारतीय अध्यातम ज्ञान की धारा प्रवाहित की। महान नीति विशारद चाणक्य का भी नाम हमारे देश में सम्मान से लिया जाता है। आधुनिक काल में भगवत्रूप श्री गुरुनानक जी भारतीय अध्यात्मिक धारा को नयी दिशा देने वाले माने जाते हैं तो संतप्रवन कबीर, कविवर रहीम, महात्मा तुलसीदास तथा भक्तवत्सला मीरा की अलौकिक रचनायें तथा कर्म भारतीय आध्यात्मिक की धारा को वर्तमान कलं तक बहाकर लायी है। जिससे हमारा देश में विश्व में अध्यात्मिक गुरु कहा जाता है।
                 सवाल यह है कि जब हम देश में सक्रिय ढेर सारे साधु संत, ज्ञानी, बाबा, साईं और योग शिक्षक देखते हैं और फिर नैतिक पतन की गर्त में गिरे समाज पर दृष्टि जाती है तो यकायक यह प्रश्न हमारे दिमाग में आता है कि आखिर यह विरोधाभास क्यों है?
              दरअसल मनुष्य की अध्यात्मिक भूख शांत करने के लिये व्यवसायिक लोग ही सक्रिय रह गये है और स्वप्रेरणा से निष्काम भाव से समाज का उद्धार करने वाले लोग अब दिखते ही नहीं है। पहले समाज को समझाने का यह काम गैर पेशेवर लोग किया करते थे अब बकायदा पेशेवर संगठन बनाकर यह काम किया जा रहा है। श्रद्धा और निष्काम भाव से अध्यात्मिक दर्शन की सेवा करने वाले लोग अंततः महापुरुष बन गये पर अब पेशेवर लोगों की छवि वैसी नहीं बन पायी भले ही आज के प्रचार माध्यम उनकी तारीफों के पुल बांधता हैं। उनका यह प्रयास भी अपने विज्ञापन चलाने के कार्यक्रमों के तहत किया जाता है।
आखिरी बात यह कि हमारे देश जनमानस पेशेवर संतों की असलियत जानता है। अक्सर कुछ विद्वान अपने देश के लोगों पर झल्लाते हैं कि वह ढोंगी संतों और प्रवचनकर्ताओं के पास जाते ही क्येां हैं? उनको यह पता होना चाहिए कि हर आदमी में अध्यात्मिक भूख होती है। सभी ज्ञानी हो नहीं सकते इसलिये लोगों को तात्कालिक रूप से मनोरंजन के माध्यम से शांति प्रदान करने वाले व्यवसायी प्रकृति के लिये यहां ढेर सारे अवसरे हैं। उनके लिये भारतीय अध्यात्म एक स्वर्णिम खदान है। जिसमें से मोती चुनकर लोगों को चमत्कार की तरह प्रस्तुत करते रहो और अपने लिये माया का शिखर रचते रहो।
            मनुष्य में विपरीत लिंग और स्थिति का आकर्षण स्वाभाविक रूप से रहता है। लिंग के आकर्षण के बारे में तो सब जानते हैं पर मन को विपरीत स्थितियों का आकर्षण भी मन को बांधता है। महल में रहने वाला झौंपड़ियों के रहवासियों को सुखी देखता है तो गरीब अमीर का वैभव देखकर चकित रहता है। संपन्नता में पले आदमी को अभाव की कहानियां कौतुक प्रदान करती हैं तो विपन्न आदमी को संपन्न और चमत्कारी कहानियां रोमांच प्रदान करती है। मूल बात यह है कि आदमी अपने नियमित काम से इतर मनोंरजन चाहता है चाहे वह अध्यात्म के नाम पर रचे प्रपंच से मिले यह मनोरंजन के बहाने फूहड़ता प्रस्तुत करने से मिले। यही कारण है कि हमारे देश में संत, सांई, सत्य साईं, बाबा, बापू, योगीराज तथा भगवान के अवतारी नाम से अनेक कथित महापुरुष विचरते मिल जाते हैं। अध्यात्म की खदान से निकले उनके शब्दों से उनको हमारे बौद्धिक रूप से गरीब समाज में सम्मान तो मिलना ही है जब मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता प्रदर्शित करने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों को ही देवता का दर्जा मिल जाता है।
             आखिरी बात श्रीमद्भागवत गीता के महत्व की है। विश्व की यह अकेली पुस्तक है जिसमें ज्ञान और विज्ञान है। ज्ञान का अभौतिक विस्तार शब्द स्वरूप है तो तो उसका भौतिक विस्तार विज्ञान है। शब्द स्वरूप अदृश्य है इसलिये उसकी सक्रियता नहीं देखी जाती पर उसकी शक्ति अद्भुत है। जबकि विज्ञान दृश्यव्य है इसलिये उसकी सक्रियता प्रभावित करती है जबकि उसका प्रभाव क्षणिक है। सच बात तो यह है कि हमारे समाज का बौद्धिक नेतृत्व श्रीगीता से दूर भागता है क्योंकि उसके प्रचार से उसकी अहंकार प्रकृति शांत नहीं होती जो मनुष्य में दूसरों से सम्मान पाने की भूख पैदा करती है। जिनको श्रीगीता के अध्ययन से तत्वज्ञान मिलता है वह प्रचार करने नहीं निकलते। इसलिये उसका अध्ययन करना ही श्रेष्ठ है। कम से कम आज जब संसार में अधिकतर देहधारी मनुष्य माया के भक्त हो गये। ऐसे में श्रीमद्भागवत गीता के अलावा कोई दूसरा गुरु दृष्टिगोचर नहीं होता।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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