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श्रीमद्भागवत गीता का संदेश आज भी प्रासंगिक-श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष हिन्दी लेख


    आज पूरे भारत में भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाई जा रही है।  आज के दिन धार्मिक रुचि वाले लोग मंदिरों में जाकर अपने इष्ट की पूजा अर्चना करते हैं।  कई जगह गोवर्धन मंदिर भी होते हैं जहां  अनेक श्रद्धालु परिक्रमा करते हैं।  भगवान श्रीकृष्ण का रूप ऐसा ही है कि उनकी चारों प्रकार के भक्त-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी-आराधना करते हैं।  सामान्य जीवन व्यतीत करने वाला हो या योग साधक भगवान श्रीकृष्ण से प्रेरणा ग्रहण करता है।

जहां सकाम धार्मिक भक्त मंदिरों में जाकर अपने हृदय की भावनाओं में प्रकाश की अनुभूति करते हैं वही योग साधक तथा गीता पाठक भगवान श्रीकृष्ण के महाभारतकाल में दिये गये संदेश पर चिंत्तन करने का लीन होने का प्रयास करते हैं।  सच बात तो यह है कि भगवान श्रीकृष्ण का योगेश्वर का रूप अत्यंत रहस्यमय रहा हैं।  यह अलग बात है कि अगर तत्वज्ञान का श्रद्धा के साथ अध्ययन किया जाये तो उसे सामान्य बुद्धि में सहजता के साथ उसकी अनुभूति की जा सकती है। श्रीमद्भागवत गीता में उनका संदेश इस संसार की अनमोल विरासत है।  उसमें ज्ञान और विज्ञान के ऐसे सू.त्र हैं जिनको समझा जाये तो संसार में सार्थक और निरर्थक विषयों का अंतर स्पष्ट रूप से सामने आ जाता है। अगर श्रद्धा के साथ उसका अध्ययन किया जाये तो राजनीति, अर्थ, काम, समाज तथा स्वास्थ्य से संबंधित उसमें जो ज्ञान है उसका विस्तार अपने बुद्धि से ही किया जा सकता।  फिर बड़े शास्त्र पढ़ने से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।

वैसे तो भगवान श्रीकृष्ण के अनेक प्रसंग बताये जाते हैं पर महाभारत युद्ध के समय श्री अर्जुन को दिया गया उनका ज्ञान अत्यंत प्रसिद्ध है।  इससे यह पता चलता है कि उन्होंने अपने जीवन काल में केवल बाललीलाऐं या क्रीड़ायें ही नहीं की वरन् तत्वज्ञान की ऐसी स्थापना की जिसे आज भी प्रासांगिक माना जाता है।

हैरानी तो भारतीय समाज को देखकर होती है।  आज के भौतिक जाल में फंसा भारतीय समाज भक्ति के संक्षिप्त मार्ग ढूंढने लगा है।  ज्ञान के लिये अध्ययन से अधिक श्रवण पर निर्भर हो गया है।  उससे अधिक बुरी बात तो यह है कि ज्ञान संदेश नारों की तरह दिया जाता है। मोह मत पालो, लोभ मत करो, काम और क्रोध से बचो आदि आदि।  इनसे कैसे बचें? इसका कोई मार्ग नहीं बताता।  सब मानते हैं कि योगासन, ध्यान, प्राणायाम तथा संयम जीवन में श्रेष्ठ मार्ग की तरफ ले जाते हैं मगर जीवन में उस पर चलते हैं कितने लोग हैं? उंगलियों पर गिनती करने लायक संख्या उन ज्ञानियों की होती है और उन्हें समाज से प्रथक मानकर उपेक्षित कर दिया जाता है।  जीवन मे आनंद का अर्थ आध्यात्मिक शांति नहीं वरन् दूसरे को अपनी भौतिक उपलब्धि से प्रभावित करना मान लिया गया है।  जहां भौतिक साधनों की प्राप्ति का शोर होता है वहां पहुंचकर आदमी इस बात का प्रयास करता है कि उसकी आवाज सबसे अधिक बुलंद हो और न होने पर क्रोध के साथ निराशा का शिकार हो जाता है।  जहां आदमी को शंाति से बैठने की सुविधा मिलती है वहां यह सोचता है कि वह कैसे अपनी आवाज को दूसरे की अपेक्षा अधिक शोर करने वाली बनाये।  इसके विपरीत योग साधकों और गीता पाठकों के लिये सांसरिक विषय त्याज्य नहीं होते वरन् वह उनके साथ अपनी शर्तो पर जुड़ते हैं।  इसलिये सामान्य मनुष्यों की बजाय वह शांति और आनंद से जीते हैं।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर समस्त ब्लॉग लेखक मित्रों तथा पाठकों को बधाई। यह दिन उनको सांसरिक विषयों में सफलता के साथ  आध्यामिक ज्ञान में रूचि प्रदान करें।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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हमें पता है कि सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण सामान्य प्राकृतिक घटना है-हिन्दी लेख (chadra grahan and sooryagrahan-hindi lekh)


    दुनियां में सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण आते रहते हैं। बरसों से हम देख रहे हैं पर इतनी चर्चा कभी नहीं होती थी। बचपन में बुजुर्गों के पहले ही पता चल जाता था कि अमुक तारीख को सूर्य ग्रहण या चंद्रग्रहण है। उस दिन कुछ सावधानी बरतने की बात कही जाती पर वह आज के टीवी चैनलों की तरह महाबहस का विषय नहीं होती थी। सच कहें तो सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण को सामान्य घटना ही माना जाता था। कहीं आतंक या डर का माहौल नहीं देखा। आजकल   टीवी चैनलों ने दोनों ग्रहणों का बाज़ारीकरण कर दिया है।
         कह रहे हैं कि डरो नहीं, खूब देखो। कुछ परेशानी नहीं है। इन चैनलों पर बहस के लिये आने वाले वही लोग होते हैं जो पहले भी आते रहे हैं। खगोलशास्त्र से जुड़ी इन घटनाओं पर चर्चा करने के लिये ज्योतिषी बुलाये जाते हैं। फिर उनका मुकाबला करने के लिये कुछ आधुनिक विज्ञान समर्थक भी होते हैं। प्रचार इस तरह किया जाता है कि जैसे हिन्दू समाज में ही अंधविश्वास हो और पश्चिमी विज्ञान एकदम प्रमाणिक है। यह सब देखकर हम तो यह सोचते हैं कि भारतीय हिन्दू समाज इतना अविकसित ओर पिछड़ा नहीं है जितना आधुनिक ज्ञानी समझते हैं। देखा जाये तो हमारी श्रीमद्भागवत गीता के प्रचलन में आने के बाद भारतीय समाज शायद दुनियां का इकलौता समाज है जो समय के साथ आगे बढ़ता जाता है। यह अलग बात है कि प्रगतिशील और जनवाद से जुड़े विद्वानों का सभी जगह बाहुल्य है जिनकी यह मनोवृत्ति है कि संपूर्ण भारतीय अध्यात्म दर्शन को अवैज्ञानिक तथा समाज को जड़ साबित कर अपनी चेतना की व्यवसायिक धारा प्रवाहित की जाये। फिर उनके साथ बहस करने वाले भारतीय अध्यात्म के ज्ञानी भी कुछ इस तरह पेश आते हैं जैसे कि अंधविश्वास का समर्थन कर रहे हों। पेशेवर ज्योतिषी अपने प्रचार क्रे लिये आते हैं तो उनका मुकाबला करने पेशेवर बहसकर्ता आते हैं। चर्चा कराने वाले उद्घोषक का तो कहना भी क्या? निरपेक्ष दिखने की कोशिश इस तरह करते हैं जैसे कि लग रहा हो कि किसी विषय पर सहमति या असहमति न देना ही उनकी योग्यता का प्रमाण हो।
       भारत के हिन्दी टीवी चैनलों में कार्यरत उद्घोषकों का यह भाग्य है कि भारतीय अध्यात्म की व्यापकता ही उनको इस तरह के कार्यक्रम प्रदान करती है। जिसमें ढेर सारे ग्रंथ हैं और उसमें जीवन के हर पक्ष के साथ -जिसमें मनुष्य तथा अन्य जीव भी शािमल हैं-प्रकृति के रहस्यों पर भी प्रकाश डाला गया है। जबकि अन्य दर्शनों में अन्य जीवों की उपेक्षा कर केवल मानव जीवन पर ही अधिक लिखा और बोला जाता हैं। कुछ बातें मनुष्य समाज के संचालन से संबंधित होती हैं।
        प्रकृति के रहस्यों पर पश्चिम तो अब दृष्टिपात कर रहा है जबकि भारतीय अध्यात्म दर्शन में बहुत पहले ही इस पर लिखा गया है। हमने पंचांगों में सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण की तारीखें देखी हैं जो कि यकीनन पश्चिमी विज्ञान से नहीं ली गयीं। पहले लोग अखबार पढ़े बिना बताते थे कि अमुक दिन चंद्रग्रहण या सूर्यग्रहण है।
बहरहाल भारत के टीवी चैनल अपने व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति अपने अध्यात्मिक दर्शन के आधार पर कर लेते हैं यह अलग बात है कि अपने चश्में से समाज को अधंविश्वासी समझने वाले उद्घोषक अपने को भले ही चालाक समझें पर हम सब जानते हैं कि उनकी अदायें ऐसी न हों तो शायद उनका काम भी न चले।
       पिछली बार के पूर्ण सूर्यग्रहण की याद आती है जब कहा गया है कि उसे देखना ठीक नहीं है और देखना है तो विशेष प्रकार के चश्में से देखें। सामान्य रंगीन चश्में से काम नहीं चलेगा। हम आज भी सामान्य काले चश्में से दोपहर मेें तपते हुए सूर्य को आसानी से देख पाते हैं। तब यह सवाल आता है कि ग्रहण के समय जब सूर्य का प्रकाश कम हो जाता है तो वह सामान्य से अधिक खतरनाक कैसे हो सकता है। उस समय खूब सूर्यगं्रहण देखने वालेचश्में बिके थे उसमें कुछ तो नकली भी बताये गये थे। तय बात है कि बाज़ार ने ही ऐसा प्रचार करवाया होगा ताकि वह अपने उत्पाद बेच सके। वैसे तो इष्ट दिवस, मित्र दिवस, पितृदिवस, मातृदिवस तथा प्रेम दिवस जैसे पश्चिमी दिवसों को भारतीय प्रचार माध्यम अपने प्रायोजक बाज़ार के लिये विज्ञापन प्रसारित कर उसके लिये ग्राहक जुटाते हैं। वैसे ही भारतीय त्यौहारों के साथ सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण भी उनके लिये विज्ञापन प्रसारण के बीच में कार्यक्रम की सामग्री बन जाते हैं।
      वैसे चर्चाओं में शामिल लोग भारतीय समाज को फालतु समझते हैं पर लोगों को लगते स्वयं फालतू हैं-हम नहंी मानते क्योंकि पता है कि यह सब कमाई करने और प्रचार पाने के लिये बहस करने आते हैं।
हम यह खग्रास चंद्रग्रहण देख पायेंगे कि पता नहीं। यह लेख लिखने के तत्काल बाद ही सोने का प्रयास करेंगे। अगर बीच में नींद टूटी तो छत पर देखने जायेंगे कि कैसा है खग्रास चंद्रग्रहण। जहां हानि लाभ, दुःख सुख, और जीवन मरण का सवाल है तो वह इस संसार का हिस्सा हैं। जब तक देह हैं तो विकार आयेंगें। भूख लगेगी, प्यास लगेगी। कभी जीभ किसी नये स्वाद के लिये चीत्कार करेगी। जिस तरह सत्य अनंत है वैसे ही माया भी अनंत है। सत्य सूक्ष्म है और उसे ध्यान आदि के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है तो माया इतनी व्यापक है कि उसके चक्र में फंसे तो सभी हैं पर समझ नहीं पाते। खेलती माया है और आदमी सोचता है कि मैं खेल रहा हूं।
      जहां तक चर्चाओं का सवाल है तो भारतीय अध्यात्म इतना विशाल है कि जिस विषय पर चाहो बहस कर लो। जहां चार बुजुर्ग मिलते हैं किसी न किसी धर्मग्रंथ पर बहस करने लगते हैं। सभी अपना ज्ञान सुनाते हैं पर सुनता कौन है पता नहीं। सभी बोलते हैं। यही हाल टीवी चैनलों का है पर वहां के उद्घोषक तमाम तरह के तामझाम और आकर्षण मे घिरे होते हैं इसलिये उनको विद्वान माना जाता है। यह अलग बात है कि उनकी महाबहस-यह शब्द आज तक हमारे समझ में नहीं आया-अध्यात्मिक में वास्तविक रुचि रखने वालों के लिये हास्य का विषय होती है।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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मनु स्मृति-प्रमाद और अहंकार मनुष्य को नष्ट कर देता है (entertainment and proud danger for man-manu smriti)


प्रकृतिव्यसननि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात्। प्रकृतिव्यवसनान्युपेक्षते यो चिरातं रिपवःपराभवन्ति।।

                   विभूति की कामना से उत्पन्न प्रमाद और अहंकार की प्रकृति से उत्पन्न व्यसन की उपेक्षा न करें। प्रकृत्ति की व्यसनों की उपेक्षा करने वाला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।

                        प्रकृति के पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है। जिनके पास भौतिक उपलब्धि है वह उसके आकर्षण में बंधकर मतमस्त हो जाते हैं। दूसरे को गरीब या अल्पधनी मानकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। मज़ाक न उड़ाये तो भी शाब्दिक दया दिखाकर अपने मन को शांति देने का प्रयास करते हैं। दरअसल यह सब दूसरों से ही नहीं बल्कि अपने साथ भी प्रमाद करना ही है। इस संसार में भगवान की तरह माया का खेल भी निराला है। किसी के पास कम है तो किसी के पास ज्यादा है, इसमें मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है। यह अलग बात है कि अज्ञानवश वह अपने को कर्ता मान लेता है। इसी कारण वह कभी प्रमाद तो कभी अहंकार के भाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है।
                        आज हम देश के हालात देखें तो यह बात समझ में आ जायेगी कि जिन लोगों के पास धन, प्रतिष्ठा और पद की उपलब्धि है वह दूसरे को अपने से हेय समझते हैं। नतीजा यह है कि आम इंसानों में उनके प्रति विद्रोह के बीज पड़ गये हैं। शिखर पुरुषों को यह भ्रम है कि आम आदमी उनसे जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्र के बंटवारे के कारण उनसे जुड़े हैं जो कि उनके किराये के बुद्धिजीवी बनाकर रखते हैं। मगर सच तो यह है कि शिखर पुरुषों से अब किसी की सहानुभूति नहीं है। भले ही प्रचार माध्यम कितने भी दावा करें कि जनता प्रसिद्धि लोगों को देखना और सुनना चाहती है। अब तो हर आदमी यह जान गया है कि शिखर पर अब बिना ढोंग, पाखंड या बेईमानी के कोई नहीं पहुंच सकता। अगर ऐसा न होता तो देश के अनेक शिखर पुरुष अपने घरों के बाहर सुरक्षा उपाय नहीं करते। इतना ही नहीं अनेक तो राह चलते हुए भी सुरक्षा लेकर चलते हैं। इसका मतलब सीधा है कि अपने ही कारनामों को उनके अंदर भय व्याप्त है। गरीबों से भरे देश में सुरक्षा एक मुद्दा बन गयी है।
फिर अब शिखर पर भी झगड़े होने लगे हैं। एक जाता है तो दूसरा आ जाता है। यह अस्थिरता इसलिये हैं क्योंकि प्रमाद और अहंकार में लगे शिखर पुरुष जल्दी जल्दी अपना आकर्षण खो देते हैं। शिखर बैठकर वह अपने वैभव का प्रदर्शन कर वह एक दूसरे को प्रभावित तो कर सकते हैं पर आम आदमी को नहीं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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