न नृत्येन्नैव गायेन वादित्राणि वादयेत्।
नास्फीट च क्ष्वेडेन्न च रक्तो विरोधयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-मनुमहाराज कहते हैं कि नाचना गाना, वाद्य यंत्र बजाना ताल ठोंकना, दांत पीसकर बोलना ठीक नहीं और भावावेश में आकर गधे जैसा शब्द नहीं बोलना चाहिये।
न कुर्वीत वृथा चेष्टां न वार्य´्जलिना पिबेत्।
नौत्संगे भक्षयेद् भक्ष्यानां जातु स्यात्कुतूहली।।
हिंदी में भावार्थ-मनुमहाराज कहते हैं कि जिस कार्य को करने से अच्छा फल नहीं मिलता हो उसे करने का प्रयास व्यर्थ है। अंजली में भरकर पानी और गोद में रखकर भोजन करना ठीक नहीं नहीं है। बिना प्रयोजन का कौतूहल नहीं करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब आदमी तनाव रहित होता है तब वह कई ऐसे काम करता है जो उसकी देह और मन के लिये हितकर नहीं होते। लोग अपने उठने-बैठने, खाने-पीने, सोने-चलने और बोलने-हंसने पर ध्यान नहीं देते जबकि मनुमहाराज हमेशा सतर्क रहने का संदेश देते हैं। अक्सर लोग अपनी अंजली से पानी पीते हैं और बातचीत करते हुए खाना गोद में रख लेते हैं-यह गलत है।
जब से फिल्मों का अविष्कार हुआ है लोगों का न केवल काल्पनिक कुतूहल की तरफ रुझान बढ़ा है बल्कि वह उन पर चर्चा ऐसे करते हैं जैसे कि कोई सत्य घटना हो। फिल्मों की वजह से संगीत के नाम पर शोर के प्रति लोग आकर्षित होते हैं।
मनुमहाराज इनसे बचने का जो संदेश देते है उनके अनुसार नाचना, गाना, वाद्य यंत्र बजाना तथा गधे की आवाज जैसे शब्द बोलना अच्छा नहीं है। फिल्में देखना बुरा नहीं है पर उनकी कहानियों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों को देखकर कौतूहल का भाव पालन व्यर्थ है इससे आदमी का दिमाग जीवन की सच्चाईयों को सहने योग्य नहीं रह जाता।
नाचने गाने और वाद्य यंत्र बजाना या बजाते हुए सुनना अच्छा लगता है पर जब उनसे पृथक होते हैं तो उनका अभाव तनाव पैदा करता है। इसके अलावा अगर इस तरह का मनोरंजन जब व्यसन बन जाता है तब जीवन में अन्य आवश्यक कार्यों की तरफ आदमी का ध्यान नहीं जाता। लोग बातचीत में अक्सर अपना प्रभाव जमाने के लिये किसी अन्य का मजाक उड़ाते हुए बुरे स्वर में उसकी नकल करते हैं जो कि स्वयं उनकी छबि के लिये ठीक नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि उठने-बैठने और चलने फिरने के मामले में हमेशा स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिए। इस सन्देश के पीछे मनु महाराज का यह भी भाव रहा है कि नाचने गाने में व्यस्त होने से मनुष्य का मन उसके वश में नहीं रहता इसलिए उस पर कोई भी नियंत्रण कर सकता है। इधर हम भी देख रहे हैं कि मनोरंजन के नाम पर समाज की बुद्धि को एक तरह से अपहृत कर लिया गया है. तब इस सन्देश की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है।
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तानेके महायज्ञान्यज्ञशास्त्रविदो जनाः।
अनीहमानाः सततमिंिद्रयेघ्वेव जुह्नति।।
हिंदी में भावार्थ-शास्त्रों के ज्ञाता कुछ गृहस्थ उनमें वर्णित यज्ञों को नहीं करते पर अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हैं। उनके लिये नेत्र,नासिका,जीभ,त्वचा तथा कान पर संयम रखना ही पवित्र पंच यज्ञ है।
ज्ञानेनैवापरे विप्राः यजन्ते तैर्मखैःसदा।
ज्ञानमुलां क्रियामेषां पश्चन्तो ज्ञानचक्षुक्षा।।
हिंदी में भावार्थ-कुछ विद्वान लाग अपनी सभी क्रियाओं को अपने ज्ञान चक्षुओं से हुए एक तरह से ज्ञान यज्ञ करते हैं। वह अपने ज्ञान द्वारा ही यज्ञानुष्ठान करते हैं। उनकी दृष्टि में ज्ञान यज्ञ ही महत्वपूर्ण होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने देश में तमाम तरह के भौतिक पदार्थों से यज्ञा हवन करने की परंपरा हैं। इसकी आड़ में अनेक प्रकार के अंधविश्वास भी पनपे हैं। यह यही है कि यज्ञ हवन से वातावरण में व्याप्त विषाक्त कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे उसमें सुधार आता है। पदार्थों की सुगंध से नासिका का कई बार अच्छा भी लगता है पर यह भौतिक या द्रव्य यज्ञ ही सभी कुछ नहीं है। सबसे बड़ा यज्ञ तो ज्ञान यज्ञ है। श्रीगीता में भी ज्ञान यज्ञ को सबसे अधिक महत्वपूर्ण बताया गया है। ज्ञान यज्ञ का आशय यह है कि अपने अंदर मौजूद परमात्मा क अंश आत्मा को पहचानना तथा जीवन के यथार्थ को पहचानते हुए अपने कर्म करते रहना। निष्काम भाव से उनमें रत रहते हुए निष्प्रयोजन दया करना।
हमारे देश में अनेक धर्म गुरु अपने प्रवचनों में भौतिक पदार्थ से होने वाले द्रव्य यज्ञों का प्रचार करते हैं क्योकि वह स्वयं ही जीवन में मूलतत्व को नहीें जानते। इस प्रकार के भौतिक तथा द्रव्य यज्ञ केवल उन्हीं लोगों को शोभा देते हैं जो सांसरिक कर्म से परे रहते हैं। गृहस्थ को तो ज्ञान यज्ञ करना ही चाहिये। यह यज्ञ इस प्रकार है
1. आखों से बेहतर वस्तुओं को देखने का प्रयास करें। बुरे, दिल को दुःखाने या डराने वाले दृश्यों से आंखें फेर लें। आजकल टीवी पर आदमी को रुलाने और भावुक करने वाले दृश्य दिखाये जाते हैं उससे परहेज करेंं तो ही अच्छा।
2.नासिका से अच्छी गंध ग्रहण करने का प्रयास करें। आजकल सौंदर्य प्रसाधनों की कुछ गंधें हमे अच्छी लगती है पर कई बार वह सिर को चकराने लगती हैं। यह देखना चाहिये कि जो गंधे तैयार की गयी हैं वह प्राकृतिक पदार्थों से तैयार की गयी है कि रसायनों से।
3.जीभ को स्वादिष्ट लगने वाले अनेक पदार्थ पेट के लिये हानिकारक होते हैं इसलिये यह देखना चाहिये कि कहीं हम उनको उदरस्थ तो नहीं कर रहे। दूसरा यह भी अपनी जीभ से हम जो शब्द बाहर निकालते हैं उससे दूसरे को दुःख न पहुंचे।
4.अपनी त्वचा को ऐसे पदार्थ न लगायें जो उसे जला देते हैं।
5.अपने कानों से अच्छी चर्चा सुनने का प्रयास करें। टीवी पर चीखने चिल्लाने की आवाजों से हमारे दिमाग पर कोई अच्छा असर नहीं पड़ता। तेज संगीत सुनने से भी हृदय पर कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। वही वाणी और ंसगीत सुनना चाहिये जो मद्धिम हो और उससे हृदय में प्रसन्नता का भाव पैदा होता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी पंचेंद्रियों पर नियंत्रण कर ज्ञानी गृहस्थ पंच यज्ञ करते हैं। आत्म
नियंत्रण के रूप में किया गया यज्ञ भी द्रव्य यज्ञ से काम नहीं होता।
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