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स्वर्ग एक ख्याल है-हिन्दी शायरी


स्वर्ग की परियां किसने देखी

स्वयं जाकर

बस एक पुराना ख्याल है।

धरती पर जो मिल सकते हैं,

तमाम तरह के सामान

ऊपर और चमकदार होंगे

यह भी एक पुराना ख्याल है।

मिल भी जायें तो

क्या सुगंध का मजा लेने के लिये

नाक भी होगी,

मधुर स्वर सुनने के लिये

क्या यह कान भी होंगे,

सोना, चांदी या हीरे को

छूने के लिये हाथ भी होंगे,

परियों को देखने के लिये

क्या यह आंख  भी होगी,

ये भी  जरूरी  सवाल है।

धरती से कोई चीज साथ नहीं जाती

यह भी सच है

फिर स्वर्ग के मजे लेने के लिये

कौनसा सामान साथ होगा

यह किसी ने नहीं बताया

इसलिये लगता है स्वर्ग और परियां

बस एक ख्याल है।


कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com

—————–

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इशारे-हिन्दी व्यंग्य कविता (ishare-hindi satire poem)


तैश में आकर तांडव नृत्य मत करना
चक्षु होते हुए भी दृष्टिहीन
जीभ होते हुए भी गूंगे
कान होते हुए भी बहरे
यह लोग
इशारे से तुम्हें उकसा रहे रहे हैं।
जब तुम खो बैठोगे अपने होश,
तब यह वातानुकूलित कमरों में बैठकर
तमाशाबीन बन जायेंगे
तुम्हें एक पुतले की तरह
अपने जाल में फंसा रहे हैं।

————————
कवि,लेखक और संपादक, दीपक भारतदीप,ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.com
—————————-

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फरिश्ते होने का अहसास जताते-व्यंग्य कविता


किताबों में लिखे शब्द
कभी दुनियां नहीं चलाते।
इंसानी आदतें चलती
अपने जज़्बातों के साथ
कभी रोना कभी हंसना
कभी उसमें बहना
कोई फरिश्ते आकर नहीं बताते।

ओ किताब हाथ में थमाकर
लोगों को बहलाने वालों!
शब्द दुनियां को सजाते हैं
पर खुद कुछ नहीं बनाते
कभी खुशी और कभी गम
कभी हंसी तो कभी गुस्सा आता
यह कोई करना नहीं सिखाता
मत फैलाओं अपनी किताबों में
लिखे शब्दों से जमाना सुधारने का वहम
किताबों की कीमत से मतलब हैं तुम्हें
उनके अर्थ जानते हो तुम भी कम
शब्द समर्थ हैं खुद
ढूंढ लेते हैं अपने पढ़ने वालों को
गूंगे, बहरे और लाचारा नहीं है
जो तुम उनका बोझा उठाकर
अपने फरिश्ते होने का अहसास जताते।।
————–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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ब्लाग पत्रिका का विमोचन (हास्य व्यंग्य) (blog ka lokarpan-hasya vyangya in hindi)


कविराज जल्दी जल्दी घर जा रहे थे और अपनी धुन में सामने आये आलोचक महाराज को देख नहीं सके और उनसे रास्ता काटकर आगे जाने लगे। आलोचक महाराज ने तुरंत हाथ पकड़ लिया और कहा-‘क्या बात है? कवितायें लिखना बंद कर दिया है! इधर आजकल न तो अखबार में छप रहे हो और न हमारे पास दिखाने के लिये कवितायें ला रहे हो। अच्छा है! कवितायें लिखना बंद कर दिया।’
कविराज बोले-‘महाराज कैसी बात करते हो? भला कोई कवि लिखने के बाद कवितायें लिखना बंद कर सकता है। आपने मेरी कविताओं पर कभी आलोचना नहीं लिखी। कितनी बार कहा कि आप मेरी कविता पर हस्ताक्षर कर दीजिये तो कहीं बड़ी जगह छपने का अवसर मिल जाये पर आपने नहीं किया। सोचा चलो कुछ स्वयं ही प्रयास कर लें।’
आलोचक महाराज ने अपनी बीड़ी नीचे फैंकी और उसे पांव से रगड़ा और गंभीरता से शुष्क आवाज में पूछा-‘क्या प्रयास कर रहे हो? और यह हाथ में क्या प्लास्टिक का चूहा पकड़ रखा है?’
कविराज झैंपे और बोले-‘कौनसा चूहा? महाराज यह तो माउस है। अरे, हमने कंप्यूटर खरीदा है। उसका माउस खराब था तो यह बदलवा कर ले जा रहे हैं। पंद्रह दिन पहले ही इंटरनेट कनेक्शन लगवाया है। अब सोचा है कि इंटरनेट पर ब्लाग लिखकर थोड़ी किस्मत आजमा लें।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम्हें रहे ढेर के ढेर। हमने चूहा क्या गलत कहा? तुम्हें मालुम है कि हमारे देश के एक अंग्रजीदां विद्वान को इस बात पर अफसोस था कि हिंदी में रैट और माउस के लिये अलग अलग शब्द नहीं है-बस एक ही है चूहा। हिंदी में इसे चूहा ही कहेंगे। दूसरी बात यह है कि तुम कौनसी फिल्म में काम कर चुके हो कि यह ब्लाग बना रहे हो। इसे पढ़ेगा कौन?’
कविराज ने कहा-‘अब यह तो हमें पता नहीं। हां, यह जरूर है कि न छपने के दुःख से तो बच जायेंगे। कितने रुपये का डाक टिकट हमने बरबाद कर दिया। अब जाकर इंटरनेट पर अपनी पत्रिका बनायेंगे और जमकर लिखेंगे। हम जैसे आत्ममुग्ध कवियों और स्वयंभू संपादकों के लिये अब यही एक चारा बचा है।’
‘हुं’-आलोचक महाराज ने कहा-‘अच्छा बताओ तुम्हारे उस ब्लाग या पत्रिका का लोकार्पण कौन करेगा? भई, कोई न मिले तो हमसे कहना तो विचार कर लेंगे। तुम्हारी कविता पर कभी आलोचना नहीं लिखी इस अपराध का प्रायश्चित इंटरनेट पर तुम्हारा ब्लाग या पत्रिका जो भी हो उसका लोकार्पण कर लेंगे। हां, पर पहली कविता में हमारे नाम का जिक्र अच्छी तरह कर देना। इससे तुम्हारी भी इज्जत बढ़ेगी।’
कविराज जल्दी में थे इसलिये बिना सोचे समझे बोल पड़े कि -‘ठीक है! आज शाम को आप पांच बजे मेरे घर आ जायें। पंडित जी ने यही मूहूर्त निकाला है। पांच से साढ़े पांच तक पूजा होगी और फिर पांच बजकर बत्तीस मिनट पर ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण होगा।’
‘ऊंह’-आलोचक महाराज ने आंखें बंद की और फिर कुछ सोचते हुए कहा-‘उस समय तो मुझे एक संपादक से मिलने जाना था पर उससे बाद में मिल लूंगा। तुम्हारी उपेक्षा का प्रायश्चित करना जरूरी है। वैसे इस चक्कर में क्यों पड़े हो? अरे, वहां तुम्हें कौन जानता है। खाली पीली मेहनत बेकार जायेगी।’
कविराज ने कहा-‘पर बुराई क्या है? क्या पता हिट हो जायें।’
कविराज वहां से चल दिये। रास्ते में उनके एक मित्र कवि मिल गये। उन्होंने पूरा वाक्या उनको सुनाया तो वह बोले-‘अरे, आलोचक महाराज के चक्कर में मत पड़ो। आज तक उन्होंने जितने भी लोगो की किताबों का विमोचन या लोकर्पण किया है सभी फ्लाप हो गये।’
कविराज ने अपने मित्र से आंखे नचाते हुए कहा-‘हमें पता है। तुम भी उनके एक शिकार हो। अपनी किताब के विमोचन के समय हमको नहीं बुलाया और आलोचक महाराज की खूब सेवा की। हाथ में कुछ नहीं आया तो अब उनको कोस रहे हो। वैसे हमारे ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण तो इस माउस के पहुंचते ही हो जायेगा। इन आलोचक महाराज ने भला कभी हमें मदद की जो हम इनसे अपने ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करायेंगे?’
मित्र ने पूछा-‘अगर वह आ गये तो क्या करोगे?’
कविराज ने कहा-‘उस समय हमारे घर की लाईट नहीं होती। कह देंगे महाराज अब कभी फिर आ जाना।’
कविराज यह कहकर आगे बढ़े पर फिर पीछे से उस मित्र को आवाज दी और बोले-‘तुम कहां जा रहे हो?’
मित्र ने कहा-‘आलोचक महाराज ने मेरी पत्रिका छपने से लेकर लोकार्पण तक का काम संभाला था। उस पर खर्च बहुत करवाया और फिर पांच हजार रुपये अपना मेहनताना यह कहकर लिया कि अगर मेरी किताब नहीं बिकी तो वापस कर देंगे। उन्होंने कहा था कि किताब जोरदार है जरूर बिक जायेगी। एक भी किताब नहीं बिकी। अपनी जमापूंजी खत्म कर दी। अब हालत यह है कि फटी चपलें पहनकर घूम रहा हूं। उनसे कई बार तगादा किया। बस आजकल करते रहते हैं। अभी उनके पास ही जा रहा हूं। उनके घर के चक्कर लगाते हुए कितनी चप्पलें घिस गयी हैं?’

कविराज ने कहा-‘किसी अच्छी कंपनी की चपलें पहना करो।’
मित्र ने कहा-‘डायलाग मार रहे हो। कोई किताब छपवा कर देखो। फिर पता लग जायेगा कि कैसे बड़ी कंपनी की चप्पल पहनी जाती है।’
कविराज ने कहा-‘ठीक है। अगर उनके घर जा रहे हो तो बोल देना कि हमारे एक ज्ञानी आदमी ने कहा कि उनकी राशि के आदमी से ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करवाना ठीक नहीं होगा!’
मित्र ने घूर कर पूछा-‘कौनसी राशि?’
कविराज ने कहा-‘कोई भी बोल देना या पहले पूछ लेना!’
मित्र ने कहा-‘एक बात सोच लो! झूठ बोलने में तुम दोनों ही उस्ताद हो। उनसे पूछा तो पहले कुछ और बतायेंगे और जब तुम्हारा संदेश दिया तो दूसरी बताकर चले आयेंगे। वह लोकार्पण किये बिना टलेंगे नहीं।’
कविराज बोले-‘ठीक है बोल देना कि लोकार्पण का कार्यक्रम आज नहीं कल है।’
मित्र ने फिर आंखों में आंखें डालकर पूछा-‘अगर वह कल आये तो?’
कविराज ने कहा-‘कल मैं घर पर मिलूंगा नहीं। कह दूंगा कि हमारे ज्ञानी ने स्थान बदलकर ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करने को कहा था आपको सूचना नहीं दे पाये।’
मित्र ने कहा-‘अगर तुम मुझसे लोकर्पण कराओ तो एक आइडिया देता हूं जिससे वह आने से इंकार कर देंगे। वैसे तुम उस ब्लाग पर क्या लिखने वाले हो? कविता या कुछ और?’
कविराज ने कहा-‘सच बात तो यह है कि आलोचक महाराज पर ही व्यंग्य लिखकर रखा था कि यह माउस खराब हो गया। मैंने इंजीनियर से फोन पर बात की। उसने ही ब्लाग बनवाया है। उसी के कहने से यह माउस बदलवाकर वापस जा रहा हूं।’
मित्र ने कहा-‘यही तो मैं कहने वाला था! आलोचक महाराज व्यंग्य से बहुत कतराते हैं। इसलिये जब वह सुनेंगे कि तुम पहले ही पहल व्यंग्य लिख रहे हो तो परास्त योद्धा की तरह हथियार डाल देंगे। खैर अब तुम मुझसे ही ब्लाग पत्रिका का विमोचन करवाने का आश्वासन दोे। मैं जाकर उनसे यही बात कह देता हूं।’
वह दोनों बातें कर रह रहे थे कि वह कंप्यूटर इंजीनियर उनके पास मोटर साइकिल पर सवार होकर आया और खड़ा हो गया और बोला-‘आपने इतनी देर लगा दी! मैं कितनी देर से आपके घर पर बैठा था। आप वहां कंप्यूटर खोलकर चले आये और उधर मैं आपके घर पहुंचा। बहुत देर इंतजार किया और फिर मैं अपने साथ जो माउस लाया था वह लगाकर प्रकाशित करने वाला बटन दबा दिया। बस हो गयी शुरुआत! अब चलिये मिठाई खिलाईये। इतनी देर आपने लगाई। गनीमत कि कंप्यूटर की दुकान इतने पास है कहीं दूर होती तो आपका पता नहीं कब पास लौटते।’

कविराज ने अपने मित्र से कहा कि-’अब तो तुम्हारा और आलोचक महाराज दोनों का दावा खत्म हो गया। बोल देना कि इंजीनियर ने बिना पूछे ही लोकार्पण कर डाला।’
मित्र चला गया तो इंजीनियर चैंकते हुए पूछा-‘यह लोकार्पण यानि क्या? जरा समझाईये तो। फिर तो मिठाई के पूरे डिब्बे का हक बनता है।’
कविराज ने कहा-‘तुम नहीं समझोगे। जाओ! कल घर आना और अपना माउस लेकर यह वापस लगा जाना। तब मिठाई खिला दूंगा।’
इंजीनियर ने कहा-‘वह तो ठीक है पर यह लोकार्पण यानि क्या?’
कविराज ने कुछ नहीं कहा और वहां से एकदम अपने ब्लाग देखने के लिये तेजी से निकल पड़े। इस अफसोस के साथ कि अपने ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण वह स्वयं नहीं कर सके।
…………………………..

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

कहीं ढूढें भाभी, ढूंढे साली, पसंद न आये घरवाली-हास्य व्यंग्य कविता (bhabhi, sali aur gharwali par vyangya kavita


साली और भाभी पर जो
कोई ख्याली शेर लिखा
पढ़ते हुए उसे लोगों का ढेर दिखा।
जो बयान किये दर्द जमाने के
उसे पढ़ने से कतराये सभी
कैसा यह फेर दिखा।
……………………….

जिनके दिल में दर्द है
भला वह उससे सजे शब्द पढ़कर
क्या पायेंगे
जिनके दिमाग और घर हैं
खुशी और दुःख से खाली
वह ढूंढ रहे हैं किताबों और कंप्यूटर पर
कल्पित साली और भाभी
मनोरंजन घर की है उनके लिये यही चाभी
बढ़ गयी है पूरी दुनियां
देश के जवान अभी पीछे हैं
सीख ली अंग्रेजी
पहुंच गये ऊपर पर
नजरें अभी भी नीचे हैं
अपनी कभी रास न आये घरवाली
कहीं ढूंढे भाभी तो कहीं साली
बरसों पहले भी यही था
अब भी यही चला रहा है
जमाने में कभी नहीं फेर दिखा
………………………………

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सविता भाभी और कविता भाभी का झगड़ा-हास्य व्यंग्य (savita bhabhi aur kavita bhabhi ka jhagda)


कविता सजधज तैयार हो गयी। उसका पति कवि बाहर स्कूटर पर खड़ा उसका इंतजार कर रहा था। उसे तैयार होता देख सविता अंदर ही अंदर सुलग रही थी। उसके समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपना गुस्सा कहां प्रकट करे। उसका पति तो ब्लागर था जिसे अपने छोटे भाई की तरह कवि सम्मेलन में आना जाने से मतलब नहीं था। बस कंप्यूटर पर वह लिखता था।
इधर कविता सजधजकर कवि सम्मेलन में जा रही थी। वहां उसका कवि-यानि ब्लागर का छोटा भाई-कवितायें सुनाने वाला था। यह कवितायें उसे कंप्यूटर पर बैठकर भाई के ब्लाग से ही निकाली थी। इस बात ने सविता को और अधिक चिढ़ा दिया था।
इधर कविता ने एक पर्स उठाया जिस पर सविता का लेबल लगा हुआ था। बस सविता को अवसर मिल गया।
उसने कड़ककर देवरानी से पूछा‘-यह पर्स पर मेरे नाम का लेबल क्यों लगा रखा है।’
कविता ने कहा-सविता भाभी, यह तो बाजार से खरीदा है। इस पर ऐसे ही लेबल लगा हुआ है। लेबल तो किसी भी नाम का भी हो सकता है।’
सविता चिल्ला पड़ी-‘समझती हूं सब! इंटरनेट पर मेरा नाम ‘सविता भाभी’ बहुत मशहूर है। तुम कवि सम्मेलन में जाकर लोगों को यह बताओगी कि मेरी जिठानी का नाम भी सविता भाभी है। इधर यह तुम्हारा पति मेरे ही पति की कवितायें ही चुराकर सभी जगह सुनाता है और तुम मजे से उसके साथ घूमती है हो और जिसके सहारे यह सब चल रहा उस ब्लागर की पत्नी होने के बावजूद मुझे घर पर सड़ना पड़ता है।’
कविता भी चिल्ला पड़ी-‘क्या हिंदुस्थान में आप ही एक सविता भाभी हो जो इस तरह चिल्ला रही हो। जब से अखबार में आपके नाम वाली वेबसाईट बैन होने की खबर क्या आयी है अपने पति के ब्लागर होने का रौब गालिब करती हैं भले ही अकेले में उनको कोसती हैं मगर सभी के सामने कमर मटकाते हुए कहती हैं कि ‘मेरे पति ब्लागर हैं’। उंह, जैसे जानती ही नहीं कि भाई साहब कितने फ्लाप लेखक हैं।
कविता ने आखिरी वाक्य कमर वास्तव में मटकाते हुए कहा था। इससे सविता चिढ़ गयी। उसने चिल्लाकर कहा-‘तुम अपने आपको समझती क्या हो? तुम्हारे पति का नाम कवि और तुम्हारा कविता है तो चाहे जो कर लो। अरे, मेरे पति का नाम ब्लागर और मेरा सविता है। मेरे नाम इंटरनेट पर खूब चल रहा है। इसलिये ही तुम यह पर्स लायी हो ताकि लोग तुम्हें देखें और तुम उनको बताओ कि मेरी जिठानी का नाम ‘सविता भाभी’ है और मेरे जेठ भी इंटरनेट पर लिखते हैं पर फ्लाप हैं। जबकि तुम्हारा पति मेरे पति की कवितायें चुराकर सुनाता है।’
कविता का पारा भी चढ़ गया-‘अब क्यों इतरा रही हो। आपके नाम वाली वेबसाईट पर बैन लग गया है। भाई साहब ने भी अपने ब्लाग पर लिखा है। आपके नाम वाली वेबसाईट बहुत खराब थी। ‘सविता भाभी’ का चरित्र प्रसिद्ध है उससे अपनी तुलना इसलिये मत करो कि आपके पति देव ब्लाग पर घटिया किस्म की हास्य कवितायें और व्यंग्य लिखते हैं।
इधरा कविता को न आता देख कवि वापस अंदर आया तो उधर ब्लागर भी ऊंची आवाजें सुनकर अपने कंप्यूटर से उठकर उस कमरे मेें पहुंचा जहां यह द्वैरथ चल रहा था।
कवि ने अपनी पत्नी कविता से कहा-‘क्या बात कविता इतनी देर क्यों लगा दी?’
कविता ने कहा-‘इन सविता भाभी ने मूड खराब कर दिया।’
ब्लागर एकदम उछल पड़ा और अपने भाई सो बोला-अच्छा याद दिलाया। आज मुझे सविता भाभी पर कविता लिखनी है।’
कवि एकदम च ौंककर बोला-’अच्छा भईया! लिखो! सामयिक विषय है। आप लिखदो तो मैं उसे कवि सम्मेलन में सुनाऊंगा।’
हां! अभी लिखता हूं!’वह जाते हुए फिर मुड़ा ओर बोला-‘कविता और सविता तुम यह बताओ कि तुम्हारा झगड़ा किस बात पर चल रहा था?’
कवि ने कहा-‘क्या बात है भईया! क्या तुकबंदी मिलाई। कविता और सविता। वाह! अब तो जाकर आप लिख दो ब्लाग पर ‘सविता और कविता का झगड़ा।’
कविता और सविता दोनों ही चिल्ला पड़ी-‘नहीं! हम दोनों का नाम एक साथ नहीं लिखें।’
मगर ब्लागर कहां मानने वाला था। अलबत्ता वह कविता की जगह व्यंग्य लिख गया।
……………………..
नोट-यह एक काल्पनिक रचना है तथा किसी व्यक्ति या घटना से कोई लेना देना नहीं है। इसमें लिखा हुआ किसी से संयोग भी हो सकता है। वैसे यह पाठ प्रयोग के लिये भी जारी किया गया है।

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बदलाव-हास्य व्यंग्य


वहां महफिल जमी हुई थी। अनेक विद्वान समाज की समस्याओं पर विचार करने के लिये एकत्रित हो गये थे। एक विद्वान ने कहा-हम चलते तो रिवाजों की राह है पर बदलाव की बात करते हैं। यह दोहरा चरित्र छोड़ना पड़ेगा।’
दूसरे ने पूछा-‘क्या हमें शादी की प्रथा छोड़ देना चाहिए। यह भी एक रिवाज है जिसे छोड़ना होगा।
तीसरे विद्वान ने कहा-‘नहीं यह जरूरी रिवाज है। इसे नहीं छोड़ा जा सकता है।’
दूसरे ने कहा-‘तो हमें किसी के मरने पर तेरहवीं का प्रथा तो छोड़नी होगी। इस पर अमीर आदमी तो खर्च कर लेता है पर गरीब आदमी नहीं कर पाता। फलस्वरूप गरीब आदमी के मन में विद्रोह पनपता है।’

पहले ने कहा-‘नहीं! इसे नहीं छोड़ा जा सकता है क्योंकि यह हमारे समाज की पहचान है।’
दूसरे ने कहा-‘पर फिर हम समाज में बदलाव किस तरह लाना चाहते हैं। आखिर हम रीतिरिवाजों की राह पर चलते हुए बदलाव की बात क्यों करते हैं। केवल बहसों में समय खराब करने से क्या फायदा?’
वहां दूसरे विद्वान भी मौजूद थे पर बहस केवल इन तीनों में हो रही था और सभी यही सोच रहे थे कि यह चुप हों तो वह कुछ बोलें। उनके मौन का कारण उन तीनों की विद्वता नहीं बल्कि उनके पद, धन और बाहूबल थे। यह बैठक भी पहले विद्वान के घर में हो रही थी।
पहले ने कहा-‘हमें अब अपने समाज के गरीब लोगों का सम्मान करना शुरु करना चाहिये। समाज के उद्योगपति अपने यहां कार्यरत कर्मचारियों और श्रमिकों, सेठ हैं तो नौकरों और मकान मालिक हैं तो अपने किरायेदारों का शोषण की प्रवृत्ति छोड़कर सम्मान करना चाहिये। घर में नौकर हों तो उनको छोटी मोटी गल्तियों पर डांटना नहीं चाहिये।’

पहले विद्वान के घर पर बैठक हो रही थी वहां पर उनका एक घरेलू नौकर सभी को पानी और चाय पिला रहा था। वह ट्रे में रखकर अपने मालिक के पास पानी ले जा रहा था तो उसका पांव वहां कुर्सी से टकरा गया और उसके ग्लास से पानी उछलता हुआ एक अन्य विद्वान के कपड़ों पर गिर गया। उसकी इस गलती पर वह पहला विद्वान चिल्ला पड़ा-अंधा है! देखकर नहीं चलता। कितनी बार समझाया है कि ढंग से काम किया कर। मगर कभी कोई ढंग का काम नहीं करता।
नौकर झैंप गया। वहां एक ऐसा विद्वान भी बैठा था जो स्वभाव से अक्खड़ किस्म का था। उसने उस विद्वान से कहा-‘आखिर कौनसे रिवाजों की राह से पहले उतरे कौन?’
पहला विद्वान बोला-‘इसका मतलब यह तो बिल्कुल नहीं है कि अपने से किसी छोटे आदमी को डांटे नहीं।’
चौथे विद्वान ने कहा-‘सभी के सामने इसकी जरूरत नहीं थी। वैसे मेरा सवाल तो यह है कि आपने यह बैठक बुलाई थी समाज में बदलाव लाने के विषय पर। बिना रिवाजों की राह से उतर वह संभव नहीं है।’
पहले विद्वान ने कहा-‘हां यह तो तय है कि पुराने रिवाजों के रास्ते से हटे बिना यह संभव नहीं है पर ऐसे रिवाजों को नहीं छोड़ा जा सकता है जिनसे हमारी पहचान है।’
चौथे ने कहा-‘पर कौनसे रिवाज है। उनके रास्ते से पहले हटेगा कौन?
पहले ने कहा-‘भई? पूरो समाज के लोगों को उतरना होगा।
दूसरे ने कहा-‘पहले उतरेगा कौन?’
वहां मौन छा गया। कुछ देर बाद बैठक विसर्जित हो गयी। वह नौकर अभी भी वहां रखे कप प्लेट और ग्लास समेट रहा था। बाकी सभी विद्वान चले गये पर पहला और चैथा वहीं बैठे थे। चौथे विद्वान ने उस लड़के हाथ में पचास रुपये रखे और कहा-‘यह रख लो। खर्च करना!’
पहला विद्वान उखड़ गया और बोला-‘मेरे घर में मेरे ही नौकर को ट्रिप देता है। अरे, मैं इतने बड़े पद पर हूं कि वहां तेरे जैसे ढेर सारे क्लर्क काम करते हैं। वह तो तुझे यहां इसलिये बुला लिया कि तू अखबार में लिखता है। मगर तू अपनी औकात भूल गया। निकल यहां से!’
उसने नौकर से कहा-‘इसका पचास का नोट वापस कर। इसकी औकात क्या है?’
उस नौकर ने वह नोट उस चैथे विद्वान की तरफ बढ़ा दिया। चैथे विद्वान ने उससे वह नोट हाथ में ले लिया और जोर जोर से हंस पड़ा। पहला बोला-‘देख, ज्यादा मत बन! तु मुझे जानता नहीं है। तेरा जीना हराम कर दूंगा।’
चैथे ने हंसते हुए कहा-‘कल यह खबर अखबार में पढ़ना चाहोगे। यकीनन नहीं! तुम्हें पता है न कि अखबार में मेरी यह खबर छप सकती है।’
पहला विद्वान ढीला पड़ गया-‘अब तुम जाओ! मुझे तुम्हारे में कोई दिलचस्पी नहीं है।’
चौथे ने कहा-‘मेरी भी तुम में दिलचस्पी नहीं है। मैं तो यह सोचकर आया कि चलो बड़े आदमी होने के साथ तुम विद्वान भी है, पर तुम तो बिल्कुूल खोखले निकले। जब तुम रिवाजों की राह से पहले नहीं उतर सकते तो दूसरों से अपेक्षा भी मत करो।’
चौथा विद्वान चला गया और पहला विद्वान उसे देखता रहा। उसका घरेलू नौकर केवल मौन रहा। वह कुछ कहना चाहता था पर कह नहीं सका। उसका मौन ही उसके साथ रहा।
……………………………..

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परीक्षा परिणाम-हास्य व्यंग्य कविता


उतरा मूंह लेकर फंदेबाज
घर आया और बोला-
‘दीपक बापू,
बड़ा बुरा दिन आया
हाईस्कूल के इम्तहान में
मोहल्ले के बच्चों ने डुबाया नाम
होकर बुरी तरह फेल
आदर्श मोहल्ला बनाने का हमारा इरादा था
पर बिगड़ गया सारा खेल।‘
उसकी बात सुनकर
आंखों और नाक पर लटके चश्में के बीच से
झांकते हुए बोले दीपक बापू
‘’तुम कभी अच्छी खबर भी कहां लाते हो
दर्द उभार कर कविता लिखवाते हो
मगर खैरियत है तुम यहां आये
इम्तहान के परिणाम से दुःखी मोहल्ले वालों ने
नहीं की होगी पाश्च् समीक्षा
इसलिये ही यहाँ पहुंच पाये
वरना तुम भी क्या कम हो
मोहल्ले का पीछा नहीं छोड़ते
हमारी नज़र में तुम वह गम हो
बीस ओवरीय प्रतियोगिता में
देश क्या जीता
बाजार के साथ तुम्हारे हाथ लग गया
जैसे जनता को बहलाने वाला एक पपीता
बच्चों को क्रिकेटर बनने का सपने दिखाने लगे
स्कूल में पढ़ते क्या बच्चे
उनके नाम क्रिकेट कोच के पास लिखाने लगे
एक दिन की बात होती तो समझ में आती
डूबते क्रिकेट में एक छोटे कप की जीत से
फट गयी पूरे देश की छाती
किकेट मैच होता था कभी सर्दियों में
अब तो होने लगा गर्मियों में
कुछ बच्चे खेलते हैं
तो कुछ अपने पैसे का दांव भी पेलते हैं
फिर भारतीय आदर्श प्रतियोगता का
प्रचार माध्यमों में प्रचार
इधर रीयल्टी शो की भरमार
लाफ्टर शो में बेकार की मजाक
समझ कोई नहीं रहा पर सब रहें हैं ताक
तुम भी तो अपने बच्चों को
आदर्श मोहल्ला बनाने के नाम पर
क्रिकेट, संगीत, और नृत्य सीखने के लिये
संदेश दिया करते थे
कहीं जाकर इनाम जीतें
इसलिये रोज उनका प्रगति प्रतिवेदन लिया करते थे
जब बच्चों के पढ़ने की उम्र है
तब उन पर टिका रहे हो
उनके माता पिता और पड़ौसी होने के प्रचार का
कभी पूरा न हो सकने वाला खेल
बिचारे, कैसे न होते फेल।
गनीमत है जिन छोटे शहरों को
अभी बेकार के खेलों की हवा नहीं लगी है
वहीं शिक्षा की उम्मीद बची है
वहीं परिणामों का प्रतिशत अच्छा रहा है
क्योंकि वहां के बच्चों ने आधुनिकता से
परे रहने की कमी को सहा है
पास होकर निकल पड़े तो
ऐसे खेल और खिलाड़ी उनके पीछे आयेंगे
समय के साथ वह भी मजे उठायेंगे
हमारा संदेश तो यही है कि
हर काम और कामयाबी का अपना समय होता है
जिंदगी में बिना सोचे समझे
चल पड़ने से आती है हाथ नाकामी
सेवा करते हुए ही बनता कोई स्वामी
समय से पहले मजे उठाने के लिये
जो खेलते हैं खेल
वही होते हैं हर इम्तहान में फेल।’’

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‘कोई नहीं’ की चाहत मत करना (हास्य व्यंग्य)


आप सुबह किसी दुकान पर जाकर ऐसे ही खड़े होकर वहां रखी चीजें देखिये तो दुकानदार आपसे पूछेगा‘ आपको कौनसी चीज चाहिये?’
आप कहेंगे-‘कोई नहीं’।
दुकानदार आपसे कहेगा-‘साहब, आप कोई चीज पसंद करिये तो आपको उचित दाम लगा दूंगा। हमारी बोहनी का टाईम है।‘
मतलब यह कि बाजार में आप निकलें तो किसी दुकान पर ऐसे नहीं खड़े रहिऐगा क्योंकि यह ‘कोई नहीं’ का नारा वहां लगाना वर्जित है। वैसे आपको यह शब्द कहते हुए भी संकोच होगा क्योंकि उस समय आपको नकारापन की अनुभूति होती है। वैसे आजकल बाजार और उसका प्रचारतंत्र बहुत सशक्त हो गया है। वह टीवी चैनलों के जरिये आपके घर तक पहुंच गया है और आप ‘कोई नहीं’ मन ही मन कहते रहियेगा पर उसके लिये तो इतने सारे घर हैं जहां से उसे ग्राहक मिल जाते हैं।
टीवी चैनल वैसे तो बहुत जनहितकारी होने का दावा करते हैं पर उसी हद तक जहां तक उनको एस.एम.एस. और टेलीफोन के जरिये सवालों के जवाब न मांगने हों। रोज टीवी चैनल कोई न कोई सवाल कर जवाब मांगते हैं।
आप बताईये भारत का सबसे बड़ा हीरो कौन है।
चार नाम देंगे। चाकलेटी, बिस्कुटी, चिकना, या सांवला! किसी का एक नाम लीजिये। ए, बी, सी, डी। उसमें कोई नहीं का विकल्प कभी नहीं देंगे।
आप बताईये इस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ हीरोईन कौनसी हैं?
उसमें भी चार नाम बता देंगे। लंबी, नाटी, भूरी आंखों वाली या नीली आंखों वाली।
मतलब आपको चारों तरफ से घेर लिया जाता है। उस घेरे में बैठकर कुड़ते रहो और मन ही मन कहते रहो ‘कोई नहीं’। वहां उनके पास एस.एम.एस. पहुंचते जाते हैं।
क्रिकेट मैच पर तीन विकल्प दिये जायेंगे
‘अपना देश जीतेगा, ‘दूसरा देश जीतेगा’ या ड्रा होगा। चाहें तो यहां भी एक विकल्प दे सकते हैं कि ‘बारिश के कारण बाधित होगा’। हां, इसकी गुंजायश है भी। मौसम विशेषज्ञों के पूर्वानुमान से कभी कभी यह अनुमान लग जाता है कि बारिश के कारण वह मैच शायद ही पूरा हो सके। मगर नहीं! बाजार के प्रचारक कभी आम इंसान को आजादी नहीं दे सकते। कहने को तो वह यही कहते हैं कि ‘हम भला किसी को जवाब भेजने की जबरदस्ती थोड़े ही करते हैं।’
मगर इस देश में खाली समय अनेक लोगों के पास बहुत है भले ही अधिकतर लोग यह दावा करते हैं कि ‘वह व्यस्त हैं’। अनेक लोग गुस्सा करते हैं पर उनकी सुनता कौन है ‘कोई नहीं’।
देश में पांच से दस चैहरे ऐसे हैं जिनको इन टीवी चैनलों पर हमेशा ही देखा जा सकता है। मनोरंजक चैनलों पर उनके गाने या फिल्म चल रही होगी। समाचार चैनलों में क्रिकेट का मैचा हो या आतंकवादी घटना के बाद पीड़ितों से हमदर्दी दिखाने का दृश्य उनकी उपस्थिति प्रदर्शित करने वाली खबर महत्वपूर्ण बनती है। सच बात तो यह है कि जो लोग क्रिकेट को एक खेल मानते हैं उनकी बुद्धि पर तरस ही आता है। यह एक व्यापार बन गया है। किसी समय क्रिकेट खिलाड़ी की फिल्मी हीरो से अधिक इज्जत समाज में थी पर अब दोनों का घालमेल हो गया है। जब हीरो फिल्म के सैट पर नहीं होता तो रैंप पर नृत्य करता है। उसी तरह क्रिकेट खिलाड़ी जब मैदान पर नहीं होता कहीं नृत्य या विज्ञापन की शुटिंग करता है। समाचार चैनलों पर उनके लिये पचास मिनट सुरक्षित हैं। हालत यह हो गयी है कि देश के सामाजिक कल्याण कार्यक्रम भी क्रिकेट और फिल्मी सितारों के मोहताज हो गये हैं।
टीवी चैनल जिनको समाचारों का सृजन करना चाहिये वह कुछ चैहरों का मोहताज हो गये हैं। लोग इस बात से नाराज हैं और अगर वह अपने प्रश्नों में ‘कोई नहीं‘ का विकल्प देंगे तो उनको इन चैहरों की औकात पता चल जायेगा और यकीनन तब हर क्षेत्र के समाचार में उनको जोड़ने की प्रवृत्ति से बचना जायेंगे। ऐसे में अन्य समाचार सृजन के लिये मेहनत करनी पड़ेगी और इससे हर कोई बचना चाहेगा।
एक कविराज अपनी चार रचनायें लेकर बड़ी उम्मीद के साथ अपने आलोचक मित्र के पास इस इरादे से गये कि वह अगर उनको ओ. के. कर दें तो किसी पत्रिका में भेज सकें। आलोचक ने उनकी रचनायें हाथ में ली और एक वापस करते हुए कहा-‘भई, तुम्हारा नाम कविराज है इसलिये इस निबंध पर हम दृष्टिपात नहीं करेंगे।’

कविराज यह सोचकर खुश हुए कि चलो आलोचक मित्र ने उनकी रचनाओं पर अपनी आलोचनात्मक दृष्टि डालना स्वीकार तो किया। आलोचक ने तीनों कवितायें देखी और फिर कविराज की तरफ लौटाते हुए कहा-‘इनमें से ‘कोई नहीं’।
कविराज का मूंह खुला रह गया। आलोचक ने कहा-‘तुम कवितायें ही बैठकर लिखते हो या टीवी और अखबार भी देखते हो? किसी भी सवाल के विकल्प में चार उत्तर होते हैैं पर उनमें से ‘कोई नहीं’ दिखाना वर्जित होता है। यहां तुम अपनी तीना कवितायें ले आये एक निबंध। निबंध तो प्रतियोगिता से बाहर हो गया इसलिये मुझे ‘कोई नहीं’ स्वतः उपलब्ध हुआ जिसका मैंने उपयोग कर लिया।’
कविराज का मूंह उतर गया। वह कागज समेट कर जाने लगे तो आलोचक महाराज ने कहा-‘बुरा मत मानना यार, अगली बार चार कवितायें ले आना। यह टीवी का गुस्सा है जो ‘कोई नहीं’ का विकल्प मिलते ही तुम पर उतर गया।’
यही कविराज बाद में एक पत्रिका में बच्चों के कालम के संपादक बने। उन्होंने बच्चो से पूछने के लिये एक प्रश्न बनाया जो कि उनका पहला था।
बताओ इनमें से कौनसा पक्षी है जो केवल स्वाति नक्षत्र का जल पीता है?
1. चिड़िया
2.कौआ
3.चकोर
4.कबूतर
अपना यह प्रश्न लेकर वह प्रधान संपादक से स्वीकृति लेने गये तो उसने कहा-‘कविराज इसमें कबूतर की जगह कोई नहीं का विकल्प क्यों नहीं देते? इससे प्रश्न थोड़ा रुचिकर हो जायेगा।’
कविराज ने कहा-‘क्या बात करते हो। आजकल के प्रचारतंत्र में यह संभव ही नहीं है। आम पाठक या दर्शक को ‘कोई नहीं’ का विकल्प देने का मतलब है कि उसे आजाद करना। आपने भी तो उस दिन एक प्रश्न बनाया था कि कौनसी फिल्म अभिनेत्री अधिक सुंदर है उसमें आपने ‘कोई नहीं’ का विकल्प नहीं दिया था।’
प्रधान संपादक ने कहा-‘यार, तुम भी अजीब आदमी हो। वह तो मैंने इसलिये नहीं दिया कि अगर ‘कोई नहीं’ के जवाब अधिक आये तो हम उसे छाप नहीं पायेंगे। होना यही था। अब लोग अधिक जानकार और उग्र हो गये हैं। अगर उनको नहीं छापता तो पत्रिका के दूसरे लोग बाहर जाकर हमारी पोल खोलते और छापता तो फिल्मों के जो विज्ञापन मिलते हैं वह बंद हो जाते। पत्रिका प्रबंधन नाराज हो जाता। तुम्हारे इस सवाल पर कौन कबूतर, चिड़िया, कौवा या चकोर आयेगा विरोध करने!
कविराज ने कहा-‘आदत! आदत बनी रहना चाहिये। लोगों को ‘कोई नहीं’ का विकल्प कभी भूल से भी न दें यह आदत बनाये रखना है। कल को आपकी अनुपस्थिति में फिल्म पर ही कोई सवाल बनाया तो उस समय भी यह आदत बनी रहेगी। अगर किसी टीवी चैनल में चला गया तो भी यह आदत बनी रहेगी।’

प्रचार प्रबंधकों को इस ‘कोई नहीं’ का विकल्प के पीछ्रे एक विद्रोह की संभावना छिपी दिखती है और बाजार के सहारे टिका ‘प्रचार तंत्र’ उसे कभी सामने नहीं आने देना चाहता। याद रहे बजार हमेशा विद्रोह से घबडाता है। अभी चार विकल्पों में इतने एस. एम. एस. नहीं आते होंगे जितने ‘कोई नहीं’ के विकल्प पर आयेंगे पर उससे प्रचारतंत्र के नायक नाराज हो जायेंगे जो हर घटना, दुर्घटना और त्यौहार पर प्रचारतंत्र को अपनी उपस्थिति देकर कृतार्थ करते हैं। होली, दिवाली और अन्य त्यौहार भी हमारा प्रचारतंत्र उनके सहारे ही मनाता है। ऐसे पांच से दस चैहरों के इर्दगिर्द गुलामों की तरह घूम रहा प्रचारतंत्र भला कैसे अपने ग्राहकों को-जो उनकी विज्ञापनदाता कंपनियों का उपभोक्ता भी है-कभी भी ‘कोई नहीं’ का विकल्प कैसे दे सकता है जो उनको बाजार के प्रचारतंत्र की थोपी गयी गुलाम सोच से आजाद कर देगा।
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अंतर्जाल पर लिखते समय भाषा मर्यादित होना चाहिये-आलेख


अंतर्जाल पर जैसे जैसे आप लिखते जायेंगे वैसे वैसे नित नये अनुभव होंगे। एक बात लगने लगी है कि यहां पर हिंदी साहित्य तो लिखा जायेगा पर शायद वैसे नहीं जैसे प्रकाशन माध्यमों में लिखा जाता है। कहानियां केवल कल्पना और सत्य का मिश्रण नहीं बल्कि अनुभूति से घटी घटनायें भी कहानी की शक्ल में प्रस्तुत होंगी। हिंदी ब्लाग अभी शैशवास्था में हैं पर इसके विकास की पूरी संभावना है। अभी तक जो ब्लाग लेखक हैं वह सामान्य लोग हैं और उनका प्रयास यही है कि किसी भी तरह वह न केवल अपने लिये पाठक जुटायें बल्कि दूसरे के पास अपने पाठक भेज सकें तो भी अच्छी बात है। ऐसी कोशिश इस ब्लाग लेखक ने कई बार की है पर अभी हाल ही में एक दिलचस्प अनुभव सामने आया।

हुआ यूं कि एक अध्यात्मिक ब्लाग पर एक ज्योतिष विद् महिला ने अपनी टिप्पणी लिखी। उनके अनुसार वह ज्योतिष की जानकार हैं और जिस तरह उसके नाम पर भले लोगों का ठगा जा रहा है उसके खिलाफ वह जागरुकता लाने का प्रयास कर रही हैं। इस मामले में वह ब्लाग/पत्रिका लेखक से सहायता की आशा भी उन्होंने की।
अगर कोई इस तरह का प्रयास कर रहा है तो उसमें कोई बुराई नहीं। तब उसे लेखक ने अपने उत्तर में बताया कि हिंदी ब्लाग जगत में भी एक महिला लेखिका हैं जो इस विषय पर लिखती हैं। उन महिला टिप्पणीकार को यह भी बताया वह ब्लाग लेखिका न केवल ज्योतिष की जानकारी हैं बल्कि अन्य विषयों पर भी लिखती है। साथ में उनके ‘जागरुकता अभियान’ को पूरा समर्थन देने का वादा भी किया।
उन्होंने फिर आभार जताते हुए ईमेल से जवाब दिया। तभी हिंदी फोरमों पर लेखक की नजर में आया कि हिंदी ब्लाग जगत की उन प्रसिद्ध महिला ब्लाग लेखिका का एक पाठ इसी विषय पर लिखा गया है जिसमें ज्योतिष के नाम पर अंधविश्वास फैलाने का विरोध किया गया है। तक इस लेखक ने उस महिला को उस पाठ का लिंक भेजते हुए लिखा कि वह इसे पढ़ें।
उस समय लेखक यह आशा कर रहा था कि ज्योतिष की जानकार दो प्रतिष्ठत लेखिकाओं-उन टिप्पणीकार महिला ने एक किताब भी लिखी है- के आपसी संपर्क होंगे और यह देखना दिलचस्प होगा कि वह आगे किस तरह अपने अभियान को बढ़ाती हैं। यह लेखक ज्योतिष के मामले में कोरा है पर उसमें दिलचस्पी अवश्य है और इसी की वजह से दोनों महिलाओं के आपसी संपर्क हों इस उम्मीद में यह सब किया।

बाद में उस टिप्पणीकार का जवाब आया कि वह उस महिला ब्लाग लेखक की ज्योतिष संबंधी विषयों पर लिखे गये विचारों ं से सहमत नहीं है। अब आगे करने क्या किया जाये? उनकी बात से यह नहीं लगा कि वह उन महिला ब्लाग लेखिका से आगे संपर्क रखने के मूड में हैं। फिलहाल यह मामला विचाराधीन रख दिया। आप किसी से सहमत हों इसलिये ही संपर्क करना इस लेखक को जरूरी नहीं लगता। अगर आप असहमत हैं तब भी अपने हमख्याल व्यक्ति से संपर्क करना चाहिये ताकि उस विषय पर अपना ज्ञान बढ़ सके और हम जान सकें कि हमारे विचारों से भी कोई असहमत हो सकता है? मगर हरेक का अलग अलग विचार है। किसी पर कोई आक्षेप करना ठीक नहीं।

मन में आया कि उन महिला टिप्पणीकार से कहें कि आप भी अपना ब्लाग लिखें पर लगा कि वह तो किताब लिख चुकी हैं और यहां ब्लाग लेखक अपनी किताबें प्रकाशित होने के आमंत्रण की प्रतीक्षा कर रहे हैं ऐसे में उनको यह सुझाव देना अपनी अज्ञानता प्रदर्शित करना होगा। इसके अलावा उनकी बातों से लगा कि वह अपने जागरुकता अभियान के प्रति गंभीर है। वह हमारे अध्यात्मिक ब्लाग/पत्रिकाओं में दिलचस्पी संभवतः इसलिये लेती लगती हैं क्योंकि उनके लगता है कि उसमें लिखे गये पाठ उनके ही विचारों का प्रतिबिंब हैं। आगे जब संपर्क बढ़ेगा तो यह आग्रह अवश्य करेंगे कि वह भी अपना ब्लाग बनायें। अध्ययनशील, मननशील और कर्मशील स्वतंत्र लोग जब आगे आकर हिंदी में ब्लाग लिखेंगे तभी चेतना का संचार देश में होगा। जिस तरह लोग हिंदी ब्लाग जगत में रुचि ले रहे हैं उससे यही आभास मिलता है।

बहरहाल ज्योतिष का विषय हमेशा ही इस देश में विवादास्पद रहा है। कुछ लोग सहमत होते हैं तो कुछ नहीं। यह लेखक इस विषय पर विश्वास और अविश्वास दोनों से परे रहा है। एक प्रश्न जो हमेशा दिमाग में आता रहा है कि क्या खगोल शास्त्र और ज्योतिष में क्या कोई अंतर नहीं है। हमारे पंचागों में सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण का समय और दिन कैसे निकाला जाता है? यह हमें भी पता नहीं पर इतना तय है कि इसके पीछे कोई न कोई विद्या है और उसे जानने वाले विद्वान हमारे देश में हैं जिनको उसके लिये पश्चिम से किसी प्रकार का ज्ञान उधार लेने की जरूरत नहीं पड़ती। फिर उसमें तमाम राशियों के लिये भविष्यफल भी होता है। हमने यह भी देखा कि कुछ भविष्यवाणियां सत्य भी निकलती हैं तो कुछ नहीं भी। सबसे बड़ी चीज है कि हमारे यहां गर्मी, सदी और बरसात के लिये जो माह निर्धारित हैं उन्हीं महीनों में होती है। इस विद्या को किससे जोड़ा जाना चाहिये-खगोल शास्त्र से ज्योतिष शास्त्र से।
इधर कोई ब्लाग लेखकों का महासम्मेलन हो रहा है। उसमें इस लेखक को भी आमंत्रण भेजा गया। वहां जाना नहीं हो पायेगा पर वहां शामिल होने वाले लोगों के लिये शुभकामनायें। हां, एक महिला ब्लाग लेखिका ने अपने ब्लाग पर लिखे पाठ में शिकायत की उसने उस ब्लाग पर अपनी सहमति जताते हुए टिप्पणी लिखी थी जिसमें उस महासम्मेलन के लिये सभी को आमंत्रित किया गया पर उसकी टिप्पणी को उड़ा कर ईमेल भेजा गया और कहा गया कि ‘आपको तथा आपकी सहेलियों को आमंत्रण नहीं है।’
दोनों प्रसंग एक ही दिन सामने थे। हमने सोचा कि ज्योतिषविर्द ब्लाग लेखिका और टिप्पणीकार के बीच संपर्क कायम हो जाये फिर इन ब्लाग लेखकों और लेखिकाओं के बीच समझौते के लिये आग्रह करते हैं। आज जब ज्योतिषविद् महिला टिप्पणीकार से यह उत्साहहीन जवाब मिला तो फिर हमने दूसरा कार्यक्रम भी स्थगित कर दिया।
यह सब अजीब लगता है। ब्लाग लेखकों और टिप्पणीकारों के बीच एक ऐसा रिश्ता है जिसकी अनुभूति बाहर नहीं की जा सकती। मैं उन ज्योतिषविद् महिला टिप्पणीकार और प्रसिद्ध ब्लाग लेखिका के बीच संपर्क होते देखना चाहता था पर नहीं हुआ। सभी यहीं खत्म नहीं होने वाला है। जैसे जैसे हिंदी ब्लाग जगत आगे बढ़ता जायेगा वैसे वैसे ही इस तरह की छोटी छोटी घटनायें भी जब पाठों में आयेंगी तो लोग रुचि से पढ़ेंगे और शायद कुछ लोगों को मजा नहीं आये। हां, वैसे इनका मजा तभी तक है जब तक मर्यादा के साथ उन पर पाठा लिखा जाये। अश्लीलता या अपमान से भरे शब्द न केवल पाठ का मूलस्वरूप नष्ट करते हैं बल्कि पाठक पर भी बुरा प्रभाव डालते हैं।
इधर ब्लाग पर नियंत्रण को लेकर अनेक तरह के भय व्यक्त किये जा रहे हैं पर यह भ्रम है। दरअसल उन्ही ब्लाग लेखकों पर परेशानी आ रही है जो दूसरों के लिये अपशब्द लिखते हैं। सच बात तो यह है कि आप किसी की वैचारिक, रणनीतिक, या कार्यप्रणाली को लेकर आलोचना कर सकते हैं पर अपशब्द के प्रयोग की आलोचना कानून नहीं देता भले ही ब्लाग के लिये अलग से कानून नहीं बना हो। भंडास निकलने के लिये क्या साहित्यक भाषा नहीं है जो अपशब्दों का प्रयोग किया जाये। इसलिये अंतर्जाल पर लिखने वाले लेखकों इस बात से विचलित नहीं होना चाहिये। इसकी बजाय किसी की आलोचना या विरोधी के लिये शालीन भाषा के शब्दों का प्रयोग करना चाहिये।
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