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विदुर नीति-हर समय सहज रहने वाला ही सुखी (sahaj manushya sukhi rahta hai-hindu dharma sandesh)


  1. बोलने से न बोलना अच्छा बताया गया है, किन्तु सत्य बोलना भी एक गुण है। चुप या मौन रहने से सत्य बोलना दो गुना लाभप्रद है। सत्य मीठी वाणी में बोलना तीसरा गुण है और धर्म के अनुसार बोला जाये यह उसका चौथा गुण है।
  2. मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है और जिन लोगों की सेवा में रहता है और जैसी उसकी कामनाएं होतीं है वैसा ही वह हो भी जाता है।
  3. मनुष्य जिन विषयों से मन हटाता है उससे उसकी मुक्ति हो जाती है। इस प्रकार यदि सब और से निवृत हो जाये तो उसे कभी भी दुख प्राप्त नहीं होगा।
  4. जो न तो स्वयं किसी से जीता जाता है न दूसरों को जीतने के इच्छा करता है न किसी से बैर करता और न दूसरे को हानि पहुंचाता है और अपनी निंदा और प्रशंसा में भी सहज रहता है वह दुख और सुख के भाव से परे हो जाता है।
    असूयको दन्दशूको निष्ठुरो वरकृच्छठः। सं कृच्छ्रम् महदाप्नोति न चिरात् पापमाचरन्।।
    हिंदी में भावार्थ-दूसरे व्यक्ति के गुणों में भी दोष देखने वाला, दूसरे के मर्म को आघात पहुंचाने वाला, निर्दयता और शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाले शठ मनुष्य अपने आचरण करे कारण शीघ्र नष्ट हो जाता है। अनूसूयुः कृतयज्ञः शोभनान्याचरन् सदा। न कृष्छ्रम महादाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।। हिंदी में भावार्थ-जिसकी दृष्टि दोष रहित है ऐसा व्यक्ति हमेशा ही शुभ कर्म करता हुआ महान सुख प्राप्त करने के सर्वत्र ही प्रशंसा का पात्र बनता है। वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- कहा जाता है कि जैसा दूसरे से व्यवहार करोगे वैसा स्वयं को भी मिलेगा। उसी तरह जिस दृष्टि से यह संसार देखोगे वैसे ही सामने दृश्य भी प्रस्तुत होंगे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनमें ज्ञान और अनुभव तो नाममात्र का होता है पर आत्मप्रचार की इच्छा उनको कुंठित कर देती है। किसी दूसरे की प्रशंसा देखकर वह उसके प्रतिकुल टिप्पणी करते हैं। भले ही दूसरे में गुण हो पर उसमें वह दोष निकालते हैं। जैसे मान लो कोई अच्छा लिखता है तो वह उसके विषय में दोष निकालेंगे या उसे गौण प्रमाणित करेंगे। कोई अच्छा खाना बनाता है तो वह उसके लिये मसालों को श्रेय देंगे। कहने का तात्पय यह है कि उनकी दृष्टि दोष देखने की आदी होती है। ऐसे लोग न हमेशा कष्ट उठाते हैं बल्कि उनकी जीवन भी जल्दी नष्ट होता है। इसके विपरीत दूसरे के गुण देखकर उनसे सीखने वाले विकास पथ पर चलते हैं। वह अपने कार्य से न केवल उपलब्धियां प्राप्त करते हैं बल्कि समाज में उनको सम्मान भी प्राप्त होता है। इसलिये अपना रवैया हमेशा सकारात्मक रखते हुए जीवन पथ पर बढ़ना चाहिये। वैसे आजकल अपने आपको तर्कशास्त्री कहने वाले लोग भारतीय धर्म ग्रंथों में ढेर सारे दोष ढूंढते हैं पर वह उन जीवन रहस्यों को नहीं जानते जिसके आधार वह सांस ले रहे हैं। वैसे हमारे समाज को आधुनिक शिक्षा ने अध्यात्मिक ज्ञान से विमुख कर दिया है इसलिये लोग दूसरों के दोषों का प्रचार अपने श्रेष्ठ होने का प्रचार करते हैं यही कारण है कि समाज में सामाजिक समरसता और प्रेम का अभाव हो गया है।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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रहीम दर्शन-ज्ञानी की पहचान उसके गुणों से हो जाती है (gyani ki pahachan-rahim ke dohe)


कविवर रहीम कहते हैं कि
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उत्तम जाती ब्राह्मनी, देखत चित्त लुभाय
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय

ज्ञानी मनुष्य की पहचान तो स्वतः ही उसके गुणों और लक्षणों से हो जाती है। ब्रह्मज्ञानी का चेहरा मात्र देखते ही आदमी का चित्त आनन्द विभोर हो उठता है। ऐसे ब्रह्मज्ञानी के दर्शन मात्र से पाप परे हो जाते हैं और उसके चरणों कें शीश झुकाने का मन करता है।
वर्तमान संदभ में संपादकीय व्याख्या-यह बिल्कुल सत्य बात है कि आदमी के चेहरे पर वही भाव स्वतः रहते हैं जो उसके मन में विद्यमान हैं। किसी प्रकार के ज्ञान और विज्ञान में श्रेष्ठता का भाव प्रदर्शन करना व्यर्थ है। आदमी के गुण स्वतः ही दूसरों के सामने प्रकट होते हैं। दूसरे के अंदर अगर झांकना हो तो उसके चेहरे को पढ़ें। कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने में आकर किसी को श्रेष्ठ समझ बैठते हैं यह देखने का प्रयास ही नहीं करते कि उस व्यक्ति का आचरण कैसा है या उसमें वह गुण है भी कि नहीं जिसका बखान किया जा रहा है।

अनेक गुरु ऐसे हैं जो रटारटाया ज्ञान तो बताते हैं पर उनके चेहरे देखकर नहीं लगता कि वह कोई ब्रह्मज्ञानी हैं। योग साधना,ध्यान और धार्मिक ग्रंथों से चिंतन और मनन से ज्ञान प्राप्त होता है और जिसने वह धारण कर लिया उसका चेहरा स्वतः खिल उठता है और अगर नहीं खिला तो इसका आशय यह है कि मन में भी तेज नहीं है। इसलिये किसी के कहने में आकर कोई गुरु नहीं बनाना चाहिये। जिन लोगों में ज्ञान है तो उनका चेहरा ही बता देता है और उनका आचरण और व्यवहार उसे पुष्ट भी करता है। अतः ऐसे लोगों को ही अपना गुरु बनाना चाहिये।
याद रखें योग्य गुरू जहाँ जीवन की नैया पार लगाता हैं अयोग्य दोबो भी देता है।
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विदुर नीति-भले आदमी की याचना पर बेकार आदमी फूल जाता है


असन्तोऽभ्यार्थितताः सद्भिः क्वचित्कायें कदाचन।
मन्यन्ते स्न्तमात्मानमसन्तमपि विश्रुतम्।
हिंदी में भावार्थ-
किसी विशेष कार्य के लिये जब कोई सज्जन पुरुष किसी दुष्ट से मदद की याचना करता है तो अपने को प्रसिद्ध दुष्ट जानते हुए वह अपने को सज्जन समझने लगते हैं।
विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः।
मदा एतेऽवलिपतनामेत एवं सतां दमः।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्या, धन, और ऊंचे कुल का मद अहंकार पुरुष के लिए तो व्यसन के समान है पर सज्जन पुरुषों के लिये वह शक्ति होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-विश्व में असत्य (माया) के विस्तार के साथ धनाढ्य लोगों की संख्या के साथ आधुनिक शिक्षा से संपन्न बुद्धिमानों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ रही है पर उसी अनुपात में अन्याय और हिंसा की वारदातों की संख्या भी बढ़ी है। वजह साफ है कि विद्या और धन वह शक्ति है जो किसी को भी भ्रमित कर सकती है। धन की प्रचुरता जिनके पास है वह उसकी शक्ति दिखाने के लिये ऐसे अनैतिक काम करते हैं जो एक सामान्य आदमी नहीं करता। उसी तरह जिन्होंने तकनीकी ज्ञान-जिसे विद्या भी कहा जाता है-प्राप्त कर लिया है उनमें बहुत कम ऐसे हैं जो उसका रचनात्मक उपयोग करते हैं। अधिकतर तो ऐसे हैं जो उसके सहारे दूसरे को हानि पहुंचाकर अपनी शक्ति दिखाना चाहते हैं। इंटरनेट पर बढ़ते अपराध और ठगी इसी का प्रमाण है कि शिक्षा या विद्या का अहंकार आदमी की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है।
यही स्थिति दुष्ट लोगों की है। सज्जन लोगों का समूह नहीं बन पाता पर दुष्ट लोग जल्दी ही समूह बनाकर समाज में वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं। वह ऐसी जगहों पर अपना दबदबा बना लेते हैं जहां सज्जन लोगों को अपने काम से जाना ही पड़ता है। ऐसे में दुष्ट लोगों से अपने काम के लिये वह सहायता की याचना करते हैं पर अपनी प्रसिद्धि के अहंकार में दुष्ट लोग उनको कीड़ा मकौड़ा मान लेते हैं। आप अगर प्रचार माध्यमों को देखें तो वह भी सज्जनों की सक्रियता पर कम दुष्ट लोगों की दुष्टता का प्रचार इस तरह करते हैं जैसे कि वह नायक हों। यही कारण है कि विश्व में अपराध और हिंसा का पैमाना दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। अधिकार भ्रष्ट और नाकारा लोग श्रेष्ट स्थानों पर पहुँच गए हैं और किसी सामान्य व्यक्ति की याचना पर यह सोच कर फूल जाते हैं कि देखों वह कितने योग्य हैं कि सज्जन लोग भी उनके हाथ फैला रहे हैं।

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संत कबीर वाणी-विवेक नष्ट होने पर अच्छे बुरे की पहचान नहीं रहती (sant kabir vani-achche bure ki pahachan)


फूटी आँख विवेक की, लखें न संत असतं
जिसके संग दस बीच हैं, ताको नाम महंत

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जिन लोगों की ज्ञान और विवेक नष्ट हो गये है वह सज्जन और दुर्जन का अन्तर नहीं बता सकता है और सांसरिक मनुष्य जिसके साथ दस-बीस चेले देख लेता है वह उसको ही महंत समझा करता है.
बाहर राम क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम
कहा काज संसार से, तुझे घनी से काम

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दिखावटी रूप से राम का भजन करने से कोई लाभ नहीं होता. राम का स्मरण हृदय से करो. इस संसार में तुम्हारा क्या काम है तुम्हें तो भगवान का स्मरण मन में करना चाहिऐ.

वर्तमान सन्दर्भ में व्याख्या-लोगों की बुद्धि जब कुंद हो जाती है तब उनको सज्जन और दुर्जन व्यक्ति की पहचान नहीं रहती है। सच बात यही की इसी कारण अज्ञानी व्यक्ति संकटों में फंस जाते हैं। झूठी प्रशंसा करने वाले, चिकनी चुपड़ी बातें कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले, पहले दूसरों की निंदा करने के लिए प्रेरित कर फ़िर झगडा कराने वाले लोग इस दुनिया में बहुत हैं। ऐसे दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिए। इसके अलावा ऊंची आवाज़ में भक्ति कर लोगों में अपनी छबि बनाने से भी कोई लाभ नहीं है। इससे इंसान अपने आपको धोखा देता है। जिनके मन में भगवान् के प्रति भक्ति का भाव है वह दिखावा नहीं करते। मौन रहते हुए ध्यान करना ही ईश्वर सबसे सच्ची भक्ति है।

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संत कबीर वाणी-मूर्ख की मित्रता से खीर मिले तो भी बुरी (sant kabir vani-khir aur dosti)


संत कबीर दास जी कहते हैं कि
कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय
खीर खीड भोजन मिलै, साकट संग न जाय

साधु की संगत में अगर भूसी भी मिलै तो वह भी श्रेयस्कर है। खीर तथा तमाम तरह के व्यंजन मिलने की संभावना हो तब भी दुष्ट व्यक्ति की संगत न करें।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
कबीर संगत साधु की, कभी न निष्फल जाय
जो पै बोवै भूनिके, फूलै फलै अघाय
साधुओं की संगति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती और उसका समय पर अवश्य लाभ मिलता है। जैसे बीज भूनकर भी बौऐं तो खेती लहलहाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कई बार हम अपने कमजोर दिल और रिश्तों की बाध्यता के चलते मूर्खों और अज्ञानियों की संगत नहीं छोड़ते यह सोचकर कि इससे हमारी क्या हानि होगी? यह भ्रम है क्योंकि मूर्ख और अज्ञानी कभी भी हमें संकट में डाल सकते हैं। कुछ लोग अपनी मूर्खतावश दूसरे को हानि पहुंचाने के हमेशा तत्पर रहते हैं उनको इस बात का ज्ञान नहीं होता कि उसका बाद में क्या परिणाम होगा? अगर ऐसे लोगों के साथ हम रहेंगे तो उनके किसी कुकृत्य के छींटे हमारे ऊपर भी आ सकते है। कई बार आपने देखा होगा कि कोई आदमी अपराध करता है तो उसके संगी साथियों की तलाश होती हैं। आजकल तो आपने देखा होगा कि किसी अपराध के होने पर मोबाइल के विवरण भी निकाले जाते हैं। अगर किसी ने अपराध किया जाता है तो उससे बात करने वाले सभी लोगों की छानबीन भी होती है।

आधुनिक संवाद साधनों ने लोगों के संपर्क बहुत सहज बना लिये हैं ऐसे में अपना व्यवहार करने वालों के प्रति अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है। खासतौर से युवक युवतियों को इस तरफ ध्यान देना चाहिये। हो सकता है कि उनको कुछ मित्र पंच सितारा होटलों में भोजन करने के लिये निमंत्रण देते हों पर उनका आचरण ठीक न हो। इसलिये मित्रता और व्यवहार में ऐसे मूर्खों और अज्ञानियों से दूर ही रहें जिनका लक्ष्य अपवित्र या अज्ञात है। उससे अच्छा तो साधु स्वभाव और अच्छे आचरण के लोगों से अपनी संगत करें जो भले ही न तो पंचसितारा होटल में भोजन करायें और न लच्छेदार बातें करें।
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संत कबीर के दोहे-स्वार्थी को सेवक मानना ठीक नहीं (Couplets of Sant Kabir – the selfish servant not believe )


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम
कहैं कबीर सेवक नहीं, कहैं चौगुना दाम

जो मनुष्य अपने मन में इच्छा को रखकर निज स्वार्थ से सेवा करता है वह सेवक नही क्योंकि सेवा के बदले वह कीमत चाहता है। यह कीमत भी चौगुना होती है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हमने देखा होगा कई लोग समाज की सेवा का दावा करते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य केवल आत्मप्रचार करना होता है। कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होने अपने नाम से सेवा संस्थान बना लिए है और दानी लोगों से चन्दा लेकर तथाकथित रूप से समाज सेवा करते हैं और मीडिया में अपनी ‘समाजसेवी’की छबि का प्रचार करते हैं ऐसे लोगों को समाज सेवक तो माना ही नहीं जा सकता। इसके अलावा कई धनी लोगों ने अपने नाम से दान संस्थाए बना रखी हैं और वह उसमें पैसा भी देते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य करों से बचना होता है या अपना प्रचार करना-उन्हें भी इसी श्रेणी में रखा जाता है क्योंकि वह अपनी समाज सेवा का विज्ञापन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
कुल मिलाकर समाजसेवा आजकल एक व्यापार की तरह हो गयी है। सच्चा सेव तो उसे माना जाता है जो बिना प्रचार के निष्काम भाव से सच्ची सेवा करते हैं। अपने भले काम का प्रचार करने का आशय यही है कि कोई आदमी उसका प्रचार कर फायदा उठाना चाहता है। कई बार ऐसा भी होता है कि हम जब कोई भला काम कर रहे होते हैं तो यह भावना मन में आती है कि कोई ऐसा करते हुए हमें देखें तो इसका आशय यह है कि हम निष्काम नहीं हैं-यह बात हमें समझ लेना चाहिये। जब हम कोई भला काम करें तो यह ‘हमारा कर्तव्य है’ ऐसा विचार करते हुए करना चाहिये। उसके लिये प्रशंसा मिले यह कभी नहीं सोचें तो अच्छा है। इससे एक तो प्रशंसा न मिलने पर निराशा नहीं होगी और काम भी अच्छा होगा।
संत कबीर संदेशः फल की चाहा में मन से काम नहीं होता
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संत कबीर वाणी-दो मूंह से काम करने पर पड़ता है थप्पड़ (sant kabir vani in hindi)


जो यह एक न जानिया, बहु जाने क्या होय
एकै ते से सब होत है, सब ते एक न होय

संत श्री कबीर जी के मतानुसार जो एक विषय का ज्ञाता नहीं हो पाता वह अनेक के बारे में क्या जानेगा। जो ज्ञानीजन अपने अभ्यास करते रहने से एक विषय के बारे में जान जाते हैं तो अन्य विषयों का भी उनको ज्ञान हो जाता है।
जौ मन लागै एक सों, तो निरुवारा जाय
तूरा दो मुख बाजता, घना तमाचा खाय

संत श्री कबीरदास जी कहते हैं अगर एक ही स्थान या काम में मन लगाया तो शीघ्र ही परिणाम प्राप्त हो जाता है पर अगर जो ढोल की तरह दो मुखों से काम करता है तो उसे थप्पड़ ही झेलने पड़ते हैं अर्थात उसे असफलता हाथ लगती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-चाहे भगवान की भक्ति हो या अन्य कोई विषय आदमी को एकाग्रता से काम करना चाहिए। एक साथ अनेक विषयों का अध्ययन कर पारंगत होने की बजाय पहले एक विषय के विशेषज्ञता प्राप्त कर लेने से अन्य विषयों की जानकारी भी स्वतः हो जाती है। मूल रूप से कोई एक विषय होता है पर उससे अन्य विषयों की जानकारी भी किसी न किसी रूप से जुड़ी होती है। बस अंतर यह रहता है कि कहीं किसी विषय की प्रधानता होती है तो कहीं किसी अन्य की। अगर एकाग्रता से अपने एक ही विषय में अभ्यास किया जाये तो अन्य ज्ञान भी स्वतः आता है पर अगर भटकाव आया तो कोई जीवन में सफलता प्राप्त नहीं हो पायेगी।

यही स्थिति भक्ति के विषय में भी है। एक ही इष्ट का स्मरण करना चाहिये और उसके स्वरूप में कभी बदलाव नहीं करना चाहिये। अगर हम किसी इष्ट को बचपन से पूजते आये हैं तो उसमें बदलाव नहीं करना चाहिये। ऐसा बदलाव जीवन में भ्रम और तनाव पैदा करता है। जो लोग बचपन से भक्ति नहीं करते वह तो बाद में किसी की भी भक्ति कर सकते हैं पर जिन्होंने बचपन से ही अपने इष्ट का मानते हैं उनको इस तरह बदलाव करना कष्ट का कारण बनता है।
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भर्तृहरि नीति शतक-चमचागिरी से कोई लाभ नहीं होता (chamchagiri se koyi labh nahin hota-hindi sandesh)


दुरारध्याश्चामी तुरचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं
तु स्थूलेच्छाः सुमहति बद्धमनसः
जरा देहं मृत्युरति दयितं जीवितमिदं
सखे नानयच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः

हिंदी में भावार्थ- जिन राजाओं का मन घोड़े की तरह दौड़ता है उनको कोई कब तक प्रसन्न रख सकता है। हमारी अभिलाषायें और आकांक्षायें की तो कोई सीमा ही नहीं है। सभी के मन में बड़ा पद पाने की लालसा है। इधर शरीर बुढ़ापे की तरह बढ़ रहा होता है। मृत्यु पीछे पड़ी हुई है। इन सभी को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि भक्ति और तप के अलावा को अन्य मार्ग ऐसा नहीं है जो हमारा कल्याण कर सके।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों के मन में धन पाने की लालसा बहुत होती है और इसलिये वह धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और ताकते रहते हैं और उनकी चमचागिरी करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। चाटुकार लोगांें को यह आशा रहती है कि कथित ऊंचा आदमी उन पर रहम कर उनका कल्याण करेगा। यह केवल भ्रम है। जिनके पास वैभव है उनका मन भी हमारी तरह चंचल है और वह अपना काम निकालकर भूल जाते हैं या अगर कुछ देेते हैं तो केवल चाटुकारित के कारण नहीं बल्कि कोई सेवा करा कर। वह भी जो प्रतिफल देते हैं तो वह भी न के बराबर।

सच तो यह है कि आदमी का जीवन इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो धनी है वह अहंकार में है और जो गरीब है वह केवल बड़े लोगों की ओर ताकता हुआ जीवन गुंजारता है। जिन लोगों का इस बात का ज्ञान है वह भक्ति और तप के पथ पर चलते हैं क्योंकि वही कल्याण का मार्ग है।
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कबीर के दोहे: सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है (sant kabir ke dohe-sabhi ka dard eik jaisa)


पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है।
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भर्तृहरि नीति शतक-अनैतिकता से ऐश्वर्य नष्ट होता है (anetikta se eshvarya nasht hota hai-adhyatmik sandesh)


भर्तृहरि महाराज कहते है कि
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दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनष्यति यतिः सङगात्सुतालालनात् विप्रोऽन्ध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्
ह्यीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्मैत्री चाप्रणयात्सृद्धिरनयात् त्यागपमादाद्धनम्

हिंदी में भावार्थ-कुमित्रता से राजा, विषयासक्ति और कामना योगी, अधिक स्नेह से पुत्र, स्वाध्याय के अभाव से विद्वान, दुष्टों की संगत से सदाचार, मद्यपान से लज्जा, रक्षा के अभाव से कृषि, परदेस में मित्रता, अनैतिक आचरण से ऐश्वर्य, कुपात्र को दान देने वह प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ संक्षिप्त व्याख्या-आशय यह है कि जीवन में मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उसका अच्छा और बुरा परिणाम यथानुसार प्राप्त होता है। कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जो हमेशा बुरा काम करे या कोई हमेशा अच्छा काम करे। कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्म से अर्थ और सम्मान की प्राप्ति होती है। ऐसे में अपनी उपलब्ध्यिों से जब आदमी में अहंकार या लापरवाही का भाव पैदा होता है तब अपनी छबि गंवाने लगता है। अतः सदैव अपने कर्म संलिप्त रहते हुए अहंकार रहित जीवन बिताना चाहिये।
अगर हमें अपने कुल, कर्म या कांति से धन और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तो उसका उपयोग परमार्थ में करना चाहिये न कि अनैतिक आचरण कर उसकी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए लोगों का प्रभावित करने का प्रयास करें। इससे वह जल्दी नष्ट हो जाता है।
यह मानकर चलना चहिये कि हमें मान, सम्मान तथा लोगों का विश्वास प्राप्त हो रहा है वह अच्छे कर्मों की देन है और उनमें निरंतरता बनी रहे उसके लिये कार्य करना चाहिये। अगर अपनी उपलब्धियों से बौखला कर जीवन पथ से हट गये तो फिर वह मान सम्मान और लोगों का विश्वास दूर होने लगता है।
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