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चाणक्य नीति शास्त्र-कुसंस्कारी लोगों का साथ करने से यश नहीं मिलता


अर्थार्थीतांश्चय ये शूद्रन्नभोजिनः।
त द्विजः कि करिष्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः।।

हिंदी में भावार्थ- नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि अर्थोपासक विद्वान समाज के लिये किसी काम के नहीं है। वह विद्वान जो असंस्कारी लोगों के साथ भोजन करते हैं उनको यश नहीं मिल पता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- इस देश का अध्यात्मिक ज्ञान सदेशों के अनमोल खजाने से भरा पड़ा है। उसका कारण यह है कि प्राचीन विद्वान अर्थ के नहीं बल्कि ज्ञान के उपासक थे। उन्होंने अपनी तपस्या से सत्य के तत्व का पता लगाया और इस समाज में प्रचारित किया। आज भी विद्वानों की कमी नहीं है पर प्रचार में उन विद्वानों को ही नाम चमकता है जो कि अर्थोपासक हैं। यही कारण है कि हम कहीं भी जाते हैं तो सतही प्रवचन सुनने को मिलते हैं। कथित साधु संत सकाम भक्ति का प्रचार कर अपने भोले भक्तों को स्वर्ग का मार्ग दिखाते हैं। यह साधु लोग न केवल धन के लिये कार्य करते हैं बल्कि असंस्कारी लोगों से आर्थिक लेनदेने भी करते हैं। कई बार तो देखा गया है कि समाज के असंस्कारी लोग इनके स्वयं दर्शन करते हैं और उनके दर्शन करवाने का भक्तों से ठेका भी लेते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में अध्यात्मिक चर्चा तो बहुत होती है पर ज्ञान के मामले में हम सभी पैदल हैं।
समाज के लिये निष्काम भाव से कार्य करते हुए जो विद्वान सात्विक लोगों के उठते बैठते हैं वही ऐसी रचनायें कर पाते हैं जो समाज में बदलाव लाती हैं। असंस्कारी लोगों को ज्ञान दिया जाये तो उनमें अहंकार आ जाता है और वह अपने धन बल के सहारे भीड़ जुटाकर वहां अपनी शेखी बघारते हैं। इसलिये कहा जाता है कि अध्यात्म और ज्ञान चर्चा केवल ऐसे लोगों के बीच की जानी चाहिये जो सात्विक हों पर कथित साधु संत तो सार्वजनिक रूप से ज्ञान चर्चा कर व्यवसाय कर रहे हैं। वह अपने प्रवचनों में ही यह दावा करते नजर आते हैं कि हमने अमुक आदमी को ठीक कर दिया, अमुक को ज्ञानी बना दिया।
अतः हमेशा ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लये ऐसे लोगों को गुरु बनाना चाहिये जो एकांत साधना करते हों और अर्थोपासक न हों। उनका उद्देश्य निष्काम भाव से समाज में सामंजस्य स्थापित करना हो। वैसे भी जीवन में संस्कारों के बहुत महत्व है और संगत का प्रभाव आदमी पर पड़ता है। इसलिये न केवल संस्कारवान लोगों के साथ संपर्क रखना चाहिये बल्कि जो लोग कुसंस्कारी लोगों में उठते बैठते हैं उनसे भी अधिक संपर्क नहीं रखना चाहिये।
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चाणक्य नीति संदेश-गुणों की पहचान न हो तो लोग निंदा करते हैं (hindu dharm sandesh-gunon ki pahchan)


न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष स तं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम्।
यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य विभति गुंजाः।।
हिंदी में भावार्थ- अगर कोई मनुष्य किसी वस्तु या अन्य मनुष्य के गुणों को नहीं पहचानता तो तो उसकी निंदा या उपेक्षा करता है। ठीक उसी तरह जैसे जंगल में रहने वाली कोई स्त्री हाथी के मस्तक से मिलने वाली मोतियों की माला मिलने पर भी उसे त्यागकर कौड़ियों की माला पहनती है।
अकृष्टफलमूलेन वनवासरतः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
वह विद्वान ऋषि कहलाता है जो जमीन को जोते बिना पैदा हृए फल एवं कंधमूल आदि खाकर हमेशा वन में जीवन व्यतीत करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य का कहना है कि अगर किसी व्यक्ति या वस्तु के गुणों का ज्ञान नहीं है तो उसकी उपेक्षा हो ही जाती है। यह स्थिति हम अपने भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के बारे में आज समाज द्वारा बरती जा रही उपेक्षा के बारे में समझ सकते हैं। हमारे देश के प्राचीन और आधुनिक ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने बड़े परिश्रम से हमें जीवन और सृष्टि के रहस्यों को जानकर उसका ज्ञान हमारे लिये प्रस्तुत किया पर हमारे देश के विद्वानों ने उसकी उपेक्षा कर दी। यही कारण है कि आज हमारे देश में विदेशी विद्वानों के ज्ञान की चर्चा खूब होती है। देश में पश्चिम खान पान ही सामान्य जीवन की दिनचर्या का भाग बनता तो ठीक था पर वहां से आयातित विचार और चिंतन ने हमारी बौद्धिक क्षमता को लगभग खोखला कर दिया है। यही कारण है कि सामान्य व्यक्ति को शिक्षित करने वाला वर्ग स्वयं भी दिग्भ्रमित है और भारतीय अध्यात्म उसके लिये एक फालतू का ज्ञान है जिससे वर्तमान सभ्यता का कोई लेना देना नहीं है।
जबकि इसके विपरीत पश्चिम में भारतीय अध्यात्म ज्ञान की पुस्तकों पर अब जाकर अनुसंधान और विचार हो रहा है। अनेक महापुरुषों के संदेश वहां दिये जा रहे हैं। हमारी स्थिति भी कुछ वैसी है जैसे किसी घर में हीरों से भरा पात्र हो पर उसे पत्थर समझकर खेत में चिड़ियों को भगाने के लिये कर रहा हो। हमें यह समझना चाहिए कि अज्ञान और मोह में मनुष्य के लिये हमेशा तनाव का कारण बनता है।
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संत कबीर के दोहे-मन तो मुनियों को भी ठग लेता है (man to thag hai-sant kabir das



अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार
मेरा चोर मुझको मिलै, सरबस डारूं वार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के सब तो अपने अपने चोर को मार डालते हैं, परंतु मेरा चोर तो मन है। वह अगर मुझे मिल जाये तो मैं उस पर सर्वस्व न्यौछावर कर दूंगा।
सुर नर मुनि सबको ठगै, मनहिं लिया औतार
जो कोई याते बचै, तीन लोक ते न्यार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह मन तो एक महान ठग है जो देवता, मनुष्य और मुनि सभी को ठग लेता है। यह मन जीव को बार बार अवतार लेने के लिये बाध्य करता है। जो कोई इसके प्रभाव से बच जाये वह तीनों लोकों में न्यारा हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पहचान तो मन है और वह उसे जैसा नचाता। आदमी उसके कारण स्थिर प्रज्ञ नहीं रह पाता। कभी वह किसी वस्तु का त्याग करने का निर्णय लेता है पर अगले पर ही वह उसे फिर ग्रहण करता है। अर्थात मन हमेशा ही व्यक्ति का अस्थिर किये रहता है। कई बार तो आदमी किसी विषय पर निर्णय एक लेता है पर करता दूसरा काम है। यह अस्थिरता मनुष्य को जीवन पर विचलित किये रहती है और वह इसे नहीं समझ सकता है। यह मन सामान्य मनुष्य क्या देवताओं और मुनियों तक को धोखा देता है। इस पर निंयत्रण जिसने कर लिया समझा लो तीनों को लोकों को जीत लिया। इस देह में जो मन रहता है हम उसे समझ नहीं पाते। वही हमें इधर उधर इस तरह दौड़ाता है कि हम सोचते हैं कि ही करतार हैं जबकि यह केवल एक भ्रम होता है। हम उसे समझा नहीं पाते क्योंकि उसकी अनुभूतियां इस तरह हमसे जुड़ी है कि पता ही नहीं चलता कि वह हमसे अलग है।
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चाणक्य नीति-भक्ति और दान में असंतुष्ट रहना ही अच्छा (chankya niti-bhakti aur dan)


संतोषस्त्रिशु कत्र्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कत्र्तव्योऽध्ययने तपदानयोः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को अपनी पत्नी, भोजन और धन से ही संतोष करना चाहिये पर ज्ञानार्जन, भक्ति और दान देने के मामले में हमेशा असंतोषी रहे यही उसके लिये अच्छा है।
संतोषाऽमृत-तुप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्।
न च तद् धनलूब्धानामितश्चयेतश्च धावताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य संतोष रूप अमृत से तुप्त है उसका ही हृदय शांत रह सकता है। इसके विपरीत जो मनुष्य असंतोष को प्राप्त होता है उसे जीवन भर भटकना ही पड़ता है उसे कभी भी शांति नहीं मिल सकती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-नीति विशारद चाणक्य के संदेशों के ठीक विपरीत हमारा देश चल रहा है। जिन लोगों के पास धन है उनके पास भी संतोष नहीं है और जिनके पास नहीं है उनसे तो आशा करना ही व्यर्थ है। अपनी पत्नी और घर के भोजन से धनी लोगों को संतोष नहीं है। जीभ का स्वाद बदलने के लिये ऐसी वस्तुओं का सेवन बढ़ता जा रहा है जो स्वास्थ्य के लिये हितकर नहीं है। कहा जाता है कि खाने पीने की वस्तुओं को स्वच्छता होना चाहिये पर होटलों और बाजार की वस्तुओं में कितनी स्वच्छता है यह हम देख सकते हैं। किसी रात एक साफ रुमाल घर में रख दीजिये और सुबह देखिये तो उस पर धूल जमा है तब बाजार में कई दिनों से रखी चीजों में स्वच्छता की अपेक्षा कैसे रखी जा सकती है। घर में गृहिणी सफाई से भोजन बनाती है पर क्या वैसी अपेक्षा होटलों के भोजन में की जा सकती है। ढेर सारे ट्रक, ट्रेक्टर,बसें, मोटर साइकिलें तथा अन्य वाहन सड़कों से गुजरते हुए तमाम तरह की धूल और धूंआ उड़ाते हुए जाते हैं उनसे सड़कों पर स्थित दुकानों,चायखानों और होटलों में रखी वस्तुओं के विषाक्त होने की आशंका हमेशा बनी रहती है। ऐसे में बाजारों में खाने वाले लोगों के साथ अस्पतालों में मरीजों की संख्या भी बढ़ रही है तो आश्चर्य की बात क्या है?
इसके विपरीत लोगों की आध्यात्मिक ज्ञान और भक्ति के भाव के प्रति कमी भी आ रही है। लोगों को ऐसा लगता है कि यह तो पुरातनपंथी विचार है। असंतोष को बाजार उकसा रहा है क्योंकि वहां उसे अपने उत्पाद बेचने हैं। प्रचार के द्वारा बैचेनी और असंतोष फैलाने वाले तत्वों की पहचान करना जरूरी है और यह तभी संभव है कि जब अपने पास आध्यात्मिक ज्ञान हो। आध्यामिक ज्ञान से ही जीवन का अर्थ समझकर इस संसार के सभी कार्य अच्छी तरह किये जा सकते हैं।
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संत कबीर के दोहे-हरि भजन से भी कई लोगों के दिल का कपट नहीं जाता (hari bhajan aur kakap-kabir sandesh)


पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ते और गुनते हुए आदमी का अभिमान बढ़ता गया। उसके अंतर्मन में जो तृष्णाओं और इच्छाओं की अग्नि जलती है उसके ताप से उसे मन में कभी शांति नहीं मिलती है।
हरि गुन गावे हरषि के, हिरदय कपट न जाय
आपन तो समुझै नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान के भजन और गुण तो नाचते हुए गाते तो बहुत लोग हैं पर उनके हृदय से कपट नहीं जाता। इसलिये उनमे भक्ति भाव और ज्ञान नहीं होता परंतु वह दूसरों के सामने अपना केवल शाब्दिक ज्ञान बघारते है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान काल में शिक्षा का प्रचार प्रसार तो बहुत हुआ है पर अध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण आदमी को मानसिक अशांति का शिकार हुआ है। वर्तमान काल में जो लोग भी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं उनका उद्देश्य उससे नौकरी पाना ही होता है-उसमें रोजी रोटी प्राप्त करने के साधन ढूंढने का ज्ञान तो दिया जाता है पर अध्यात्म का ज्ञान न होने के कारण भटकाव आता है। बहुत कम लोग हैं जो शिक्षा प्राप्त कर नौकरी की तलाश नहीं करते-इनमें वह भी उसका उपयोग अपने निजी व्यवसायों में करते हैं। कुल मिलाकर शिक्षा का संबंध किसी न किसी प्रकार से रोजी रोटी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में आदमी के पास सांसरिक ज्ञान तो बहुत हो जाता है पर अध्यात्मिक ज्ञान से वह शून्य रहता है। उस पर अगर किसी के पास धन है तो वह आजकल के कथित संतों की शरण में जाता है जो उस ज्ञान को बेचते हैं जिससे उनके आश्रमों और संस्थानों के अर्थतंत्र का संबल मिले। जिसे अध्यात्मिक ज्ञान से मनुष्य के मन को शांति मिल सकती है वह उसे इसलिये नहीं प्राप्त कर पाता क्योंकि वह अपनी इच्छाओं और आशाओं की अग्नि में जलता रहता है। कुछ पल इधर उधर गुजारने के बाद फिर वह उसी आग में आ जाता है।
जिन लोगों को वास्तव में शांति चाहिए उन्हें अपने प्राचीन ग्रंथों में आज भी प्रासंगिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। यह अध्ययन स्वयं ही श्रद्धा पूर्वक करना चाहिए ताकि ज्ञान प्राप्त हो। हां, अगर उन्हें कोई योग्य गुरू इसके लिये मिल जाता है तो उससे ज्ञाना भी प्राप्त करना चाहिए। यह जरूरी नहीं है कि गुरु कोई गेहुंए वस्त्र पहने हुए संत हो। कई लोग ऐसे भी भक्त होते हैं और उनसे चर्चा करने से भी बहुत प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिये सत्संग में जाते रहना चाहिये। आधनिक शिक्षा के साथ अगर अपना अध्यात्मिक ज्ञान भी रहे तो जीवन में अधिक आनंद आता है।
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मनु स्मृति-मन पर काबू करने से लक्ष्य प्राप्ति संभव (hindi adhyatm sandesh-manu smriti)


नीति विशारद मनु कहते हैं कि
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वशे कृत्वेन्दिियग्रामं संयम्य च मनस्तथा।
सर्वान्संसाधयेर्थानिक्षण्वन् योगतस्तनुम्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य के लिये यही श्रेयस्कर है कि वह अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखे जिससे धर्म,अर्थ,काम तथा मोक्ष चारों प्रकार का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके।
न तथैंतानि शक्यन्ते सन्नियंतुमसेवया।
विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः

हिन्दी में भावार्थ-जब तक इंद्रियों और विषयों के बारे में जानकारी नहीं है तब तब उन पर निंयत्रण नहीं किया जा सका। इंद्रियों पर नियंत्रण करना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिये यह आवश्यक है कि विषयों की हानियों और दोषों पर विचार किया जाये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इंद्रियों पर नियंत्रण और विषयों से परे रहने का संदेश देना आसान है पर स्वयं उस पर नियंत्रण करना कोई आसान काम नहीं है। आप चाहें तो पूरे देश में ऐसे धार्मिक मठाधीशों को देख सकते हैं जो श्रीगीता का ज्ञान देते हुए निष्काम भाव से कर्म करने का संदेश देते हैं पर वही अपने प्रवचन कार्यक्रमों के लिये धार्मिक लोगों से सौदेबाजी करते हैं। लोगों को सादगी का उपदेश देने वाले ऐसे धर्म विशेषज्ञ अपने फाइव स्टार आश्रमों से बाहर निकलते हैं तो वहां भी ऐसी ही सुविधायें मांगते हैं। देह को नष्ट और आत्मा को अमर बताने वाले ऐसे लोग स्वयं ही नहीं जानते कि इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए विषयों से परे कैसे रहा जाता है। उनके लिये धार्मिक संदेश नारों की तरह होते हैं जिसे वह लगाये जाते हैं।
दरअसल ऐसे लोगों से शास्त्रों से अपने स्वार्थ के अनुसार संदेश रट लिये हैं पर वह इंद्रियों और विषयों के मूलतत्वों को नहीं जानते। इंद्रियों पर नियंत्रण तभी किया जा सकता है जब विषयों से परे रहा जाये। यह तभी संभव है जब उसके दोषों को समझा जाये। वरना तो दूसरा कहता जाये और हम सुनते जायें। ढाक के तीन पात। सत्संग सुनने के बाद घूम फिरकर इस साँससिक दुनियां में आकर फिर अज्ञानी होकर जीवन व्यतीत करें तो उससे क्या लाभ? कहने  का तात्पर्य यह है कि ज्ञान का श्रवण या अध्ययन करने के साथ उस पर चिंतन और मनन भी करना चाहिए। किसी किताब में पढा या किसी के मुख से सूना शब्द तभी ज्ञान बनता है जब उस पर अपनी बुद्धि चलायी जाए।
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भर्तृहरि नीति शतक-भक्ति कभी व्यापार की तरह न करें (bhakti aur vyapar-bhartrihari shatak in hindi)


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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कि वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तजैः स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।
मुक्त्वैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानलं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणिगवृत्तयं:।।

हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मुतियों और पुराणों का पढ़ने और किसी स्वर्ग नाम के गांव में निवास पाने के लिए  कर्मकांडों को निर्वाह करने से भ्रम पैदा होता है। जो परमात्मा संसार के दुःख और तनाव से मुक्ति दिला सकता है उसका स्मरण और भजन करना ही एकमात्र उपाय है शेष तो मनुष्य की व्यापारी बुद्धि का परिचायक है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने जीवन यापन के लिये व्यापार करते हुए इतना व्यापारिक बुद्धि वाला हो जाता है कि वह भक्ति और भजन में भी सौदेबाजी करने लगता है और इसी कारण ही कर्मकांडों के मायाजाल में फंसता जाता है। कहा जाता है कि श्रीगीता चारों वेदों का सार संग्रह है और उसमें स्वर्ग में प्रीति उत्पन्न करने वाले वेद वाक्यों से दूर रहने का संदेश इसलिये ही दिया गया है कि लोग कर्मकांडों से लौकिक और परलौकिक सुख पाने के मोह में निष्काम भक्ति न भूल जायें।

वेद, पुराण और उपनिषद में विशाल ज्ञान संग्रह है और उनके अध्ययन करने से मतिभ्रम हो जाता है। यही कारण है कि सामान्य लोग अपने सांसरिक और परलौकिक हित के लिये एक नहीं अनेक उपाय करने लगते हंै। कथित ज्ञानी लोग उसकी कमजोर मानसिकता का लाभ उठाते हुए उससे अनेक प्रकार के यज्ञ और हवन कराने के साथ ही अपने लिये दान दक्षिणा वसूल करते हैं। दान के नाम किसी अन्य सुपात्र को देने की बजाय अपन ही हाथ उनके आगे बढ़ाते हैं। भक्त भी बौद्धिक भंवरजाल में फंसकर उनकी बात मानता चला जाता है। ऐसे कर्मकांडों का निर्वाह कर भक्त यह भ्रम पाल लेता है कि उसने अपना स्वर्ग के लिये टिकट आरक्षित करवा लिया।

यही कारण है कि कि सच्चे संत मनुष्य को निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया करने के लिये प्रेरित करते हैं। भ्रमजाल में फंसकर की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। इसके विपरीत तनाव बढ़ता है। जब किसी यज्ञ या हवन से सांसरिक काम नहीं बनता तो मन में निराशा और क्रोध का भाव पैदा होता है जो कि शरीर के लिये हानिकारक होता है। जिस तरह किसी व्यापारी को हानि होने पर गुस्सा आता है वैसे ही भक्त को कर्मकांडों से लाभ नहीं होता तो उसका मन भक्ति और भजन से विरक्त हो जाता है। इसलिये भक्ति, भजन और साधना में वणिक बुद्धि का त्याग कर देना चाहिये। भक्त  करते समय इस बात का विचार नहीं करना चाहिए कि कोई स्वर्ग का टिकट आरक्षित करवा रहे है।
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बुढ़ापे में कुछ नहीं सीख सकते-हिन्दू अध्यात्मिक संदेश (In old age can not learn anything – Hindu spiritual message)


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेंिद्रयशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् संदीप्ते भवने तु कुपखननं प्रत्युद्यम कीदृशः

हिंदी में भावार्थ- जब शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था परे है, इंद्रियां सही ढंग से काम कर रही हैं और आयु भी ढलान पर नहीं है विद्वान और ज्ञानी लोग तभी तक अपनी भलाई का काम प्रारंभ कर देते हैं। घर में आग लगने पर कुंआ खोदने का प्रयास करने से कोई लाभ नहीं होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज का यहां आशय यह है कि जब तक हम शारीरिक रूप से सक्षम हैं तभी तक ही अपने मोक्ष के लिये कार्य कर सकते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि प्रारंभ से ही मन, वचन, और शरीर से हम भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखें। कुछ लोग यह कहते हैं कि अभी तो हम सक्षम हैं इसलिये भगवान की भक्ति क्यों करें? जब रिटायर हो जायेंग्रे या बुढ़ापा आ जायेगा तभी भगवान की भक्ति करेंगे। सच बात तो यह है कि भगवान की भक्ति या साधना की आदत बचपन से ही न पड़े तो पचपन में भी नहीं पड़ सकती। कुछ लोग अपने बच्चों को इसलिये अध्यात्मिक चर्चाओंे में जाने के लिये प्रेरित नहीं करते कि कहीं वह इस संसार से विरक्त होकर उन्हें छोड़ न जाये जबकि यह उनका भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान किसी भी आदमी को जीवन से सन्यास होने के लिये नहीं बल्कि मन से सन्यासी होने की प्रेरित करता है। सांसरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उसके फल की कामना से परे रहना कोई दैहिक सन्यास नहीं होता।

हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तो यह कहता है कि आदमी अपने स्वभाव वश अपने नित्यप्रति के कर्तव्य तो वैसे ही करता है पर भगवान की भक्ति और साधना के लिये उसे स्वयं को प्रवृत्त करने के लिये प्रयास करना होता है। एक तो उसमें मन नहीं लगता फिर उससे मिलने वाली मन की शांति का पैमाना धन के रूप में दृश्यव्य नहीं होता इसलिये भगवान की भक्ति और साधना में मन लगाना कोई आसान काम नहीं रह जाता। बुढ़ापे आने पर जब इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं तब मोह और बढ़ जाता है ऐसे में भक्ति और साधना की आदत डालना संभव नहीं है। सच बात तो यह है कि योगसाधना, ध्यान, मंत्रजाप और भक्ति में अपना ध्यान युवावस्था में ही लगाया जाये तो फिर बुढ़ापे में भी बुढ़ापे जैसा भाव नहीं रहता। अगर युवावस्था में ही यह आदत नहीं डाली तो बुढ़ापे में तो नयी आदत डालना संभव ही नहीं है।
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संत कबीर वाणी-पढ़लिखकर आदमी अहंकारी हो गया (men and proud-kabir ke dohe)


पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान

पढ़ते और गुनते हुए आदमी का अभिमान बढ़ता गया। उसके अंतर्मन में जो तृष्णाओं और इच्छाओं की अग्नि जलती है उसके ताप से उसे मन में कभी शांति नहीं मिलती है।
हरि गुन गावे हरषि के, हिरदय कपट न जाय
आपन तो समुझै नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान के भजन और गुण तो नाचते हुए गाते तो बहुत लोग हैं पर उनके हृदय से कपट नहीं जाता। इसलिये उनमे भक्ति भाव और ज्ञान नहीं होता परंतु वह दूसरों के सामने अपना केवल शाब्दिक ज्ञान बघारते है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान काल में शिक्षा का प्रचार प्रसार तो बहुत हुआ है पर अध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण आदमी को मानसिक अशांति का शिकार हुआ है। वर्तमान काल में जो लोग भी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं उनका उद्देश्य उससे नौकरी पाना ही होता है-उसमें रोजी रोटी प्राप्त करने के साधन ढूंढने का ज्ञान तो दिया जाता है पर अध्यात्म का ज्ञान न होने के कारण भटकाव आता है। बहुत कम लोग हैं जो शिक्षा प्राप्त कर नौकरी की तलाश नहीं करते-इनमें वह भी उसका उपयोग अपने निजी व्यवसायों में करते हैं। कुल मिलाकर शिक्षा का संबंध किसी न किसी प्रकार से रोजी रोटी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में आदमी के पास सांसरिक ज्ञान तो बहुत हो जाता है पर अध्यात्मिक ज्ञान से वह शून्य रहता है। उस पर अगर किसी के पास धन है तो वह आजकल के कथित संतों की शरण में जाता है जो उस ज्ञान को बेचते हैं जिससे उनके आश्रमों और संस्थानों के अर्थतंत्र का संबल मिले। जिसे अध्यात्मिक ज्ञान से मनुष्य के मन को शांति मिल सकती है वह उसे इसलिये नहीं प्राप्त कर पाता क्योंकि वह अपनी इच्छाओं और आशाओं की अग्नि में जलता रहता है। कुछ पल इधर उधर गुजारने के बाद फिर वह उसी आग में आ जाता है।
जिन लोगों को वास्तव में शांति चाहिए उन्हें अपने प्राचीन ग्रंथों में आज भी प्रासंगिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। यह अध्ययन स्वयं ही श्रद्धा पूर्वक करना चाहिए ताकि ज्ञान प्राप्त हो। हां, अगर उन्हें कोई योग्य गुरू इसके लिये मिल जाता है तो उससे ज्ञाना भी प्राप्त करना चाहिए। यह जरूरी नहीं है कि गुरु कोई गेहुंए वस्त्र पहने हुए संत हो। कई लोग ऐसे भी भक्त होते हैं और उनसे चर्चा करने से भी बहुत प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिये सत्संग में जाते रहना चाहिये।
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भर्तृहरि नीति शतक-धन की गर्मी ख़त्म होते ही पुरुष क्या रह जाता है (purush aur dhan-adhyamik sandesh)


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि 
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तानींद्रियाण्यविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः क्षपोन सोऽष्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य की इंद्रिया नाम,बुद्धि तथा अन्य सभी गुण वही होते हैं पर धन की उष्मा से रहित हो जाने पर पुरुष क्षणमात्र में क्या रह जाता है? धन की महिमा विचित्र है।
वर्तमान सन्दर्भ  में संपादकीय व्याख्या- इस सृष्टि को परमात्मा ने बनाया है पर माया की भी अपनी लीला है जिस पर शायद किसी का भी बस नहीं है। माया या धन के पीछे सामान्य मनुष्य हमेशा पड़ा रहता है। चाहे कितना भी किसी के पास आध्यत्मिक ज्ञान या कोई दूसरा कौशल हो पर पंच तत्वों से बनी इस देह को पालने के लिये रोटी कपड़ा और मकान की आवश्यकता होती है। अब तो वैसे ही वस्तु विनिमय का समय नहीं रहा। सारा लेनदेन धन के रूप में ही होता है इसलिये साधु हो या गृहस्थ दोनों को ही धन तो चाहिये वरना किसी का काम नहीं चल सकता। हालांकि आदमी का गुणों की वजह से सम्मान होता है पर तब तक ही जब तक वह किसी से उसकी कीमत नहीं मांगता। वह सम्मान भी उसको तब तक ही मिलता है जब तक उसके पास अपनी रोजी रोटी होती है वरना अगर वह किसी से अपना पेट भरने के लिये धन भिक्षा या उधार के रूप में मांगे तो फिर वह समाप्त हो जाता है।
वैसे भी सामान्य लोग धनी आदमी का ही सम्मान करते है। कुछ धनी लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि वह अपने गुणों की वजह से पुज रहे हैं। इसी चक्कर में कुछ लोग दान और धर्म का दिखावा भी करते हैं। अगर धनी आदमी हो तो उसकी कला,लेखन तथा आध्यात्मिक ज्ञान-भले ही वह केवल सुनाने के लिये हो-की प्रशंसा सभी करते हैं। मगर जैसे ही उनके पास से धन चला जाये उनका सम्मान खत्म होते होते क्षीण हो जाता है।

इसके बावजूद यह नहीं समझना चाहिये कि धन ही सभी कुछ है। अगर अपने पास धन अल्प मात्रा में है तो अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहिये। बस मन में शांति होना चाहिये। दूसरे लोगों का समाज में सम्मान देखकर अपने अंदर कोई कुंठा नहीं पालना चाहिये। यह स्वीकार करना चाहिये कि यह धन की महिमा है कि दूसरे को सम्मान मिल रहा है उसके गुणों के कारण नहीं। इसलिये अपने गुणों का संरक्षण करना चाहिये। वैसे यह सच है कि धन का कोई महत्व नहीं है पर वह इंसान में आत्मविश्वास बनाये रखने वाला एक बहुत बड़ा स्त्रोत है। सच
 तो यह है कि खेलती माया है हम सोचते हैं कि हम खेल रहे हैं।
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