मोदी जी सिंधीयों, बलूचों, व पख्तूनों को संबोधित करने वाले पहले भारतीय प्रमुख बने-हिन्दी संपादकीय


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी योग साधक हैं और मानना पड़ेगा कि उनकी बुद्धि तथा वाणी में सरस्वती विराजती है। कोझिकोड में आज उनके भाषण का सही अर्थ बहुत कम लोग समझ पायेंगे। खासतौर से राष्ट्रवादी विचारकों के लिये भाषण के पूरे मायने समझना कठिन होगा-वह अखंड भारत का सपना देखते हैं पर कोई सार्वजनिक रूप से हमारी तरह नहीं कह पायेगा कि यह भाषण ‘अखंड भारत’ के प्रधानमंत्री का भाषण था। मोदी जी देश के पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने सिंध, बलूचिस्तान और पख्तूनों की जनता को बता दिया कि पाकिस्तान का मतलब पंजाब तक ही सीमित है। नवाज शरीफ और राहिल शरीफ पंजाबी हैं-इसी कारण आज तक वहां सेना लोकतंत्र का बोझ ढो रही है। भारत तथा पाकिस्तान के टीवी चैनलों अनेक पाक सेना के पूर्व अधिकारी पंजाबी वक्त आते हैं जिन्हें लाहौर व इस्लामाबाद से आगे कुछ दिखता नहीं जहां से अब उनके लिये आफत आने वाली है।
नवाज शरीफ आज आराम से सो सकते हैं क्योंकि मोदी जी ने त्वरित रूप से सैन्य कार्यवाही का संकेत नहीं दिया पर अपनी वायुसेना को इधर से उधर उड़ाकर पाकिस्तान को युद्ध की तैयारी के लिये तत्परता दिखाने वाला राहिल शरीफ अगले अनेक कई दिनों तक सो नहीं पायेगा। कहते हैं कि जहां तलवार काम नहीं करती वहां कलम या शाब्दिक चातुर्य काम करता हैं। पाकिस्तान के कथित पंजाबी राष्ट्रभक्त आज अपने देश का नक्शा देख रहे होंगे जो पश्चिमी पंजाब तक सिमटा नज़र आयेगा। राष्ट्रवादी शायद ही इस बात को समझ पायेंगे कि आज प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त के बाद अपने दूसरे भाषण में प्रगतिशील और जनवादी विद्वानों का उद्वेलित कर दिया है।
इस भाषण को सिंध और पंजाब से आये हिन्दुओं की वह पीढ़ी पूरी तरह समझेगी जिसने अपने बुजुर्गों की आंखों में बंटवारे का दर्द देखा है। हमने अपनी माता पिता की आंखों में सिंध का नाम लेते ही जो दर्द देखा है उसे आज तक नहीं भूले। सिंधी हिन्दूओं की पूरी कौम एक तरह लुप्त करने का षड्यंत्र रचा गया-यही कारण है कि जब देशभक्ति जागती है तो ऐसे महापुरुषों के प्रति भी मन वितृष्णा से भर जाता है जिन्हें कथित स्वतंत्रता के बाद महापुरुष कहा जाता है।
याद रखें यह भारत के प्रधानमंत्री का भाषण था जिसे सरकारी घोषणा या नीति भी माना जाता है। आज तक किसी प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के सिंधी, बलूच तथा पख्तून जनमानस को इस तरह सीधे संबोधित नहीं किया। यह अनोखा दिन है-राहिल शरीफ की सारी अकड़ इतने में ही निकल जायेगी। वह सोचेगा कि आखिरी वह किस पाकिस्तान का सेनाध्यक्ष है। सिंध, बलूच और पख्तून जनता पर इसका जो प्रभाव होगा उसका अनुमान वही कर सकता है जो पाकिस्तान की मीडिया पर नज़र रखे हुए है-पाक टीवी चैनल पर एक पंजाबी पूर्व सैन्य अधिकारी पख्तूनों को नमकहराम तक करार दिया था। जातीय संघर्ष में फंसा पाकिस्तान अब धार्मिक परचम के नीचे एक नहीं रह पायेगा। तत्काल तो नहीं पर कालांतर में यह भाषण धीमा और मीठा परमाणु बम भी साबित हो सकता है।
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नोट-अगर कोई टीवी चैनल वाला हमें इस विषय पर हमें आमंत्रित करना चाहे तो हम कल दिल्ली आने वाले हैं।
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धर्म पर बहस करने वालों का ज्ञान प्रमाणिक नहीं-हिदी चिंत्तन लेख


                  जब धर्म के विषय पर बहस हो और कोई संत वेशधारी उत्तेजित होकर बोलने लगे तो समझ लेना चाहिये कि वह घनघोर अज्ञान के अंधेरे में जीवन व्यतीत कर रहा है। शनिशिंगणापुर विषय पर प्रचार माध्यमों में जमकर बहस चलायी जा रही है। तय बात है कि यह  टीव चैनलों में विज्ञापनों का समय पास करने के लिये हो रहा है। इस बहस में अनेक कथित संत अपनी बात कहने आ रहे है। कथित संत शब्द हमने इसलिये लिखा है क्योंकि वह सन्यासी की वेशभूषा में होते हैं और उसकी गीता में जो ज्ञानी  व्याख्या है वह उसके ठीक विपरीत उनका आचरण होता है। अनेक बार उनकी वाणी से क्रोध से भरे शब्द निकलते हैं जैसे कि किसी के तर्क से उनका सब कुछ छिना जा रहा है। इनमें अनेक अधिक से अधिक कैमरा अपनी तर1फ केंद्रिता होता देखने की ऐसी लालच होती है जिससे उनकी वाणी दिग्भ्रमित हो जाती है।
धर्म की रक्षा में जीवन दाव पर लगाने वाले  यह कथित सन्त सन्यासी कभी अपनी वाणी से स्थिरप्रज्ञ नहीं दिखते जो कि श्रीमद्भागवतगीता के अनुसार ज्ञानी होने का प्रमाण है। भारतीय धर्म की पहचान उसके अध्यात्मिक ज्ञान से है जबकि कथित संत सन्यास कर्मकांडों के प्रचार को ही धार्मिकता का आधार मानते हैं।  श्रीगीता के अनुसार द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ बताया गया है जबकि धर्म के कथित पेशेवर प्रचारक कर्मकांडों से स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताते हैं कि उनको दान दक्षिणा मिल सके। श्रीमद्भागवत गीता में भक्त तथा भक्ति के तीन प्रकार बताये गये हैं इसलिये ज्ञान साधक समाज में भिन्नता को उसी दृष्टि से देखते हैं।  किसी भक्त की भक्ति के प्रकार पर प्रतिकूल टिप्पणी करना ज्ञानसाधक वर्जित समझते हैं।  महत्वपूर्ण बात यह कि श्रीगीता में यह स्पष्ट किया गया है कि जो भी मनुष्य साधना करेगा वह सुखी रहेगा। जातिए भाषा अथवा लिंग के आधार पर  भिन्नता देखना भक्ति के विषय में अस्वीकार कर दिया गया है।  ऐसे में कर्मकांड से जुड़ी किसी परंपरा में मनुष्य में किसी आधार पर भिन्नता देखी जाती है तो तय बात है कि वह श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है। ऐसे में अगर कोई सन्यासी या संत शनि शिंगणापुर में नारी प्रवेश का विरोध करता है तो उसके ज्ञान पर प्रश्न जरूर उठेंगे। वैसे संत वेदों व शास्त्रों की बात कर रहे हैं पर उन्हें यह ध्यान रखना चाहिये कि मथुरा मेें जन्मेए वृंदावन में पले फिर द्वारका में जाकर बसे महामना भगवान श्रीकृष्ण ने सारा ज्ञान समेटकर श्रीमद्भागवत गीता में रख दिया था। अगर संत भेदरहित दृष्टि से बोलकर अपना महत्व प्रमाणित करना चाहते हैं तो उन्हें यह याद रखना चाहिये कि इस देश में कर्मयोगियों की संख्या उनसे ज्यादा है जो उनकी बात को काट सकते हैं।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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पतंजलि के नाम से दवा बिके तो धन्वंतरि का नाम याद नहीं रहता-हिन्दी व्यंग्य


                                आज भगवान धन्वंतरि का प्रकट दिवस ही धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। धन्वंतरि के नाम का संक्षिप्तीकरण इस तरह किया गया है कि सारे अर्थ ही उलट गये हैं। भगवान धन्वंतरि को आरोग्य का देवता माना गया है जिसका सीधा संबंध आयुर्वेद से है। हमारे यहां अनेक ऋषि अपने कृतित्व से भगवत् प्रतिष्ठ हुए। अगर उनकी सूची बनायें तो बहुत लंबी हो जायेगी।  हमने देखा है कि अनेक आयुर्वेद औषधि की छाप पर भगवान धन्वंतरि की तस्वीर रहती है।  यह सहज स्वीकार्य है पर जब आजकल हम पंतजलि के नाम बिस्कुट, चाकलेट और सौदर्य प्रसाधन बिकते देखते हैं तो आश्चर्य होता है।  मजे की बात यह कि अनेक धर्म के ठेकेदार मौन होकर सब देख रहे हैं। आजकल स्वदेशी और देशभक्ति के नाम पर कोई भी ऐसा काम किया जाता है जिसे सामान्य जनमानस की संवदेनाओं से खेला जा सके।

                  एक योग शिक्षक अब महान पूंजीपतियों की श्रेणी में जा बैठे हैं।  समाज सुधार, स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की प्रेरणा और समाज में सद्भावना का ठेका लेते हुए वह देश के प्रचार माध्यमों में विज्ञापन नायक भी बन गये हैं। जब वह योग का प्रचार करते हुए विरोधियों के निशाने पर थे अपने उनके समर्थन में हमने अनेक पाठ अंतर्जाल पर लिखे थे।  उन पाठों पर अनेक पाठकों ने हमारे से न वरन् असहमति जताई वरन् हमें उनका पेशवेर प्रचारक तक कह दिया था।  हमने 19 वर्ष पूर्व योग साधना प्रारंभ की थी तब उस योग शिक्षक का नाम तक कोई नहीं जानता था।  दस वर्ष पूर्व उनके प्रादुर्भाव प्रचार जगत में हुआ तो हमें प्रसन्नता हुई। हम सोचते थे चलो कोई तो ऐसा व्यक्ति योग के प्रचार में आया जिससे समाज में जागरुकता आयी है। इसी कारण हमने उनके आलोचकों पर हमने भी प्रहार किये।

            अनेक बार तो अपने परिचितों के साथ भी बहस की जो यह कहते थे कि यह केवल पैसा कमाने आये। एक परिचित ने बताया कि उसने मथुरा तथा वृंदावन में उनको पैदल दवायें बेचते हुंए उन्हें देखा है तो हमने उससे कहा कि ‘‘तो क्या हुआ इससे उसके महान कृतित्व को हल्का तो नहीं माना जा सकता।’

                पांच वर्ष पूर्व योग साधना का सही ज्ञान लेने के लिये हमने पतंजलि योग की किताब खरीदी। उसे पढ़ने पर यह ज्ञात हुआ कि वह बाहरी क्रियाओं से अधिक आंतरिक चिंत्तन पर अधिक आधारित है।  इसमें कोई संशय नहीं है कि उसमें आसन की क्रिया का अधिक विस्तार नहीं है पर शेष सभी अंगों का व्यापक वर्णन है। आज के सुविधाभोगी युग में आसन विषय का विस्तार व्यायाम की दृष्टि से किया गया है और बाह्य सक्रियता के कारण अनेक व्यायाम शिक्षक भी योग के ज्ञाता होने का दावा करते हैं। चलिये यह भी हम ठीक मान लेेते हैं।

                हैरानी होती है यह देखकर भगवान धन्वंतरि के जगह महर्षि पतंजलि का नाम चतुराई से आयुर्वेद की दवाओं में घसीटा जा रहा है।  अगर महर्षि पतंजलि के बताये योग पर चला जाये तो व्यक्ति को कभी बुखार तक नहीं आ सकता तब उनके नाम पर दवाई, बिस्कुट, सौंदर्य प्रसाधन और साबुन बेचा जाये तो एक योग साधक के नाम पर हमें हैरानी होती है।  अगर भगवान धन्वंतरि का नाम जोड़ा जाता तो चल जाता पर महर्षि पतंजलि का इस तरह सम्मान करना ऐसी व्यवसायिक चतुराई का साधन गया है जिसे देशभक्ति और स्वदेशी के नारे की आड़ में जनमानस की संवेदनओं का दोहन करने के लिये उपयोग किया जा रहा है।

                    महत्वपूर्ण बात यह कि कथित योग शिक्षकों ने आज उन भगवान धन्वंतरि का नाम भी नहीं लिया जिनके आयुर्वेद ने उन्हें धन का स्वामी बना दिया।  वह तो हर पल पतंजलि पतंजलि करते रहते हैं क्योंकि उनके लिये वही धन्वंतरि हो गये हैं। महर्षि पतंजलि के नाम पर पर धन मिले तो भगवान धन्वंतरि का वह लोग स्मरण क्यों करना चाहेंगे? वह आरोग्य के देवता हैं जिनकी धन की नहीं वरन् स्वास्थ्य की याचना की जाती है। अंत में हमने 19 वर्ष देश के गिरते स्वास्थ्य के मानक अत्यंत नीचे देखे थे और उन योग शिक्षक के प्रचार के बाद हमने सोचा कि उनमें सुधार होगा पर अब भी आंकड़े जस की तस है तब कहना पड़ता है कि बजाय उन्होंने स्वास्थ्य का स्तर ऊपर उठाने के उसका उपयोग अपने धन कमाने पर ही अधिक किया।

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जयश्रीराम का राजनीतिकरण कौन कर रहा है-हिन्दी संपादकीय


                                               जब देश में रामजन्मभूमि आंदोलन चल रहा था तब ‘जयश्रीराम’ नारे का जिस तरह चुनावी राजनीतिकरण हुआ उसकी अनेक मिसालें हैं।  स्थिति यह थी कि कहीं अगर कहीं ‘जयश्रीराम’ का नारा मन में आ गया तो उसे जुबान पर लाने का विचार यह सोचकर छोड़ना पड़ता था कि कोई किसी राजनीति दल या सामाजिक संगठन  का न समझ ले। सही समय तो याद नहीं पर इसके राजनीतिककरण का अहसास हमें अपने ही कार्यालय में 25 से 28 वर्ष पूर्व अपने ही कार्यालय में हुआ था।  तब राजन्मभूमिआंदोलन ने राष्ट्रवादी समूह को एक तरफ तो दूसरी तरफ उनका सामना प्रगतिशील और जनवादी विचाकर निरपेक्ष समूह बनाकर संयुक्त कर रहे थे।  मजदूर तथा श्रमिक सघों में भी ऐसी ही वैचारिक विभाजन की  स्थिति थी।  अध्यात्मिकवादी होने के कारण हमारी निकटता राष्ट्रवादियों से ज्यादा रही है। समय पर काम भी यही आते रहे  सो उनसे लगाव रहा है जो अब भी है।  उसी समय  चुनाव भी चल रहे थे तब निरपेक्ष समूह ने एक दल के बड़े नेता को अपने यहां सभा करने बुलाया था।  उन नेता के आने से पहले ही हमारे एक राष्ट्रवादी मित्र ने वहां ‘जयश्रीराम’ का नारा लगा दिया।  वह राष्ट्रवादी मित्र वैसे सम्मानीय थे पर वहां निरपेक्ष समूह के ही उनके स्वाजातीय साथी ने सभी में खलल डालने का आरोप लगाकर उन पर हमला कर दिया।

                             नेताजी की सभा तो हो गयी पर उसके बाद कार्यालय में इस विवाद की चर्चा खूब रही।  तब हमें पता लगा कि ‘जयश्रीराम’ का नारा अब केवल राष्ट्रवादियों  के लिये पंजीकृत हो गया है।  इसलिये कहीं अगर किसी का अभिवादन करते समय ‘जय राम जी’ की या ‘जयसियाराम’ कहते थे। हमारे अनेक मित्र सेवानिवृत हो गये हैं। उनके से अनेक फेसबुक पर हमारे साथी बने हैं।  इनमें से अधिकतर राष्ट्रवादी विचाराधारा के हैं इसलिये उन्हें तब अपने साथी से सहानुभूति हुई थी।  अगर वह इस पाठ को पढ़ें तो अनुभव करें कि कल लखनऊ की रामलीला में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘जयश्रीराम’ का नारा लगाया तब निरपेक्ष समूह के हृदय पर छुरियां जैसी चल रही होंगी।  वैसे ही जैसे हमारे कार्यालय में आज से उस समय चली थी जब विवाद हुआ था।

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                प्रधानमंत्री ने पहले भाषण में टेबल ठोकते हुए कहा था कि ‘हमारे देश के जवानों की कुर्बानी बेकार नहीं जायेगी।’

             उन्होंने उसी भाषण में कहा था कि पाकिस्तान मुकाबला करना चाहता है तो गरीबी और बेकारी हटाने मेें करे।

              दूसरी बात का सभी ने मजाक उड़ाया पर पहली पर कोई नहीं बोला। दो दिन बाद ही जब पहली बात का नतीजा सामने आया तो सारा विश्व स्तब्ध रह गया।

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बौद्धिक रूप से व्यवहारिक होना चाहिये.हिन्दी चिंत्तन लेख


                     आजादी के बाद से हमारे यहां लोकतंत्र की आड़ में एक अनवरत बौद्धिक संघर्ष रहा है-अब यह पता नहीं कि वह स्वप्रेरित है या प्रायोजित। आजकल आजादी का नारा फिर लग रहा है।  राष्ट्रवादियों के शिखर पर आने के बाद उलटपंथियों का बरसों पुराना चला आ रहा बौद्धिक प्रभाव समाप्ति की तरफ जा रहा है तो वह स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हुए शहीदों के व्यक्तित्व का नवीनीकरण करने का प्रयास कर रहे हैं।  1947 से पूर्व जो स्वतंत्रता आंदोलन चला था वह केवल नारों पर आधारित था।  उसके बाद देश में एक कुशल राज्य प्रबंध की आवश्यकता था पर लोकतंत्र में जनमानस में प्रभाव बनाये रखने के लिये पहले की तरह ही नारों का उपयोग किया गया। श्रीअन्नाहजारे ने कुछ वर्ष पूर्व भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाया था उसे भी कुछ विद्वानों ने दूसरा स्वतंत्रता आंदोलन कहा था-अगर हम उनकी बात मान लें तो इसका अर्थ तो यह है कि देश अभी स्वतंत्र हुआ ही नहीं।

                    अब हमें बौद्धिक रूप से व्यवहारिक होना चाहिये।  देश को स्वतंत्र रूप से चलते हुए 70 वर्ष हो गये। देश के स्वतंत्रता में योगदान देने वाले महापुरुषों के नाम इतिहास में दर्ज हैं और जिज्ञासु लोग उन्हें पढ़ सकते हैं। उनके नाम पर बार बार लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचने की आवश्यकता नहीं है। पुराने महान व्यक्त्तिवों के पीछे नये बुद्धिजीवी अपनी खाली सोच छिपाने का ऐसा प्रयास कर रहे हैं जिस पर हंसा ही जा सकता है।

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 दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

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कुश्ती लड़नेवाले योग पर टिप्पणी न करें-योग साधना पर विशेष लेख


                   हमारे देश के अध्यात्मिक दर्शन का मूल तत्व योग साधना है। इसके आठभाग है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं पर इसके बावजूद अनेक अल्पज्ञानी इस पर गाहबगाहे टिप्पणियां करने लग जाते हैं। लोकतंत्र में वाणी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है। यह ठीक भी है पर इसमें अब समस्या यह हो गयी है कि चाहे जो कुछ बोलने लगता है।  अनेक लोग प्रतिष्ठा के मद में इतने लिप्त हो जाते हैं कि अपने सर्वज्ञानी होने का भ्रम उनको हो जाता है। वह ऐसे विषयों पर भी बोल जाते हैं जिनके शास्त्र का अध्ययन उन्होंने नहीं किया होता वरन् इधर उधर से सुनकर अपनी राय बनाकर शब्द फैक देते हैं।  एक पेशेवर नकली पहलवान ने कह दिया कि ‘आलसी व बीमार लोग योग साधना करते हैं। ताकतवर को इसकी जरूरत नहीं है।’
        वैसे एक ऐसे योगाचार्य को लक्ष्य कर उसने अपनी बात कही जिन्होंने   वास्तव में योग साधना का समाज में बहुत प्रचार किया है पर उनकी वजह से ही अनेक लोग इसे शारीरिक व्यायाम समझने लगे हैं-एक तरह से जहां योग साधना प्रचार तो किया पर उससे साधकों को सीमित लक्ष्य तक ही रहने के लिये प्रेरित किया। देखा जाये तो पेशेवर पहलवान से एक पेशेवर योगाचार्य समाज के लिये अधिक बेहतर है-कम से कम अपने उसकी तरह महानायक होने का भ्रम तो नहीं पैदा करता।  बहरहाल पेशेवर पहलवान के बारे में कहा जाता है कि वह तयशुदा मुकाबले लड़ता है-मुक्केबाजी व कुश्ती खेल में इस तरह की चर्चा रहती है कि परिणाम न केवल तयशुदा होते हैं वरन् प्रहार भी दिखावटी होते हैं। अलबत्ता उसने पैसा व प्रचार खूब कमाया है जिससे उसके दिमाग में अपने  ज्ञानी होने का भ्रम होना स्वाभाविक है। उसे अब कौन समझाये कि योग के आठ भाग होते हैं जिनमें से गुजरने की आलसी सोच भी नहीं सकते और बीमारों के यह बस का नहीं होता। बीमारी भी देह की नहीं वरन् मन तथा विचार की भी होती है।
               आजकल आत्ममुग्धता की यह बीमारी पूरे समाज में फैल रही है कि  किसी भी विषय की किताब पढ़ने की बजाय उसका नाम पढ़कर ही लोग यह मानते हैं कि कि उन्हें ज्ञान हो गया। उर्दू की शायरी ने सभी लोग में यह अहंकार भर दिया है कि ‘खत का मजमून जान लेते हैं लिफाफा देखकर’। कथित नकली पर प्रसिद्ध पहलवान के बारे में हम  बस इतना ही कह सकते हैं कि वह स्वतः योग शास्त्र का अध्ययन करे फिर टिप्पणी करे।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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पश्चिमी देश आतंकवाद से लड़ने के इच्छुक नहीं


                                   पेरिस पर हमले के बाद पूरे विश्व में उथलपुथल मची है। उस पर कहने से पूर्व हम भारतीय योग सिद्धांत की बात करें। यह सच है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हम अगर किसी वस्तु, विषय या व्यक्ति से अनुकूल प्रतिक्रिया चाहें तो अपनी किया उसके अनुरूप करनी होगी।  दूसरा कर्म और फल के सिद्धांत को भी ध्यान रखना होगा। यूरोप तथा अमेरिका हथियारों के उत्पादक तथा निर्यातक देश हैं।  पेरिस पर निरंतर हो रहे हमलों को हम धर्म तथा लोकतंत्र के सीमित दृष्टिकोण से उठकर व्यापक चिंत्तन के दायरें में आयें तो पता चलेगा हर व्यापारी अपनी वस्तु का प्रचार करते हुए उसके प्रयोग का भी प्रचार करता है। इसलिये संभव है कि पहले अपराधियों को ऐसे हथियार देकर उनके हमलों से प्रचारित अपने हथियारों के  बेचने का बाज़ार बनाते हों।

                                   हम एशियाई देशों की सेनाओं तथा पुलिस विभागों की स्थिति में नज़र डालें तो उनसे पहले नये हथियार अपराधियों के पास आये।  उससे प्रभावित होकर संबंधित देशों ने उत्पादक देशों से हथियार खरीदे। एक-47 बंदूक इसका प्रमाण है।  एशियाई देशों ने खरीदी पर बाद में पता चला कि उसका नया रूप पहले ही अपराधियों के पास आ गया है।  अमेरिका व यूरोप हथियार निजी क्षेत्र के माध्यम से हथियार बेचते हैं जिन्हें क्रेता के प्रमाणीकरण की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे में संदेह होता है कि हथियारों के मध्यस्थ कहीं आतंकवादियों को प्रचार नायक तो नहीं बनाते? अमेरिका ने सीरिया सरकार के विद्रोहियों की सहायता के लिये हथियार हवाई जहाज से नीचे गिराये थे-जिनके संबंध आतंकी संगठनों से प्रत्यक्ष दिख रहे थे।  अमेरिका मध्यपूर्व में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये जिन संगठनों को अपना मित्र समझता है उन्हें शेष विश्व आतंकी कहता है। इस तरह विश्व के राज्यप्रबंधकों तथा आतंकवादियों के बीच एक ऐसा रिश्ता है जिसकी व्याख्या करने बैठें तो एक ग्रंथ लिखना पड़ेगा।

                                   मध्यपूर्व में जबरदस्त अस्थिरता फैली है और हमारा अनुमान है कि उसका प्रकोप काम होने की बजाय बढ़ते रहने वाला ही है। आतंकवादी जिन देशों को ललकार रहे हैं वह सभी कहीं न कहीं हथियार के कारखानों की कमाई से अपनी संपन्नता बढ़ाने  वाले रहे हैं।  अब उनके सामने स्वयं के बने हथियार दुश्मन की तरह सामने आने वाले हैं।  मध्यपूर्व से लाखों शरणार्थी इन देशों में गये हैं जिनके साथ आतंकवादी भी हैं।  पेरिस में हुए हमलों से यह जाहिर हो गया है कि इन संपन्न देशों का राज्यप्रबंध के अभेद होने का भ्रम समाप्त हो गया है। जिस तरह इन देशों के राजकीय प्रबंधकों की प्रतिक्रियायें सामने आयी हैं उससे तो नहीं लगता कि वह जल्दी आतंकवादी पर विजय प्राप्त करेंगे।  वैसे जिन लोगों ने पचास वर्षों से लगतार समाचार देखे और पढ़े हों उन्हें पता है कि कोई राजनीतिक, धार्मिक या वैचारिक संघर्ष प्रारंभ होता है तो वह अगले दस वर्ष तक चलता है।  जब थमता भी तो उसके कारण प्राकृतिक होते हैं-राजकीय प्रबंधक बयानबाजी तक ही सीमित रहती है।

                                   अब योग और भारत की बात करें।  कुछ लोगों को चिंता है कि भारत में भी मध्यपूर्व के आतंकवादी संगठन आ सकते हैं। हमारे पास खुफिया संगठन नहीं है पर योगदृष्टि से हमें यह आशंका नहीं लगती।  एक बात तो यह कि भारत ने कोई हथियार योग नहीं किया-उसने बंदूकें तोप या टैंक नहीं बेचे जो उनका मुंह हमारी तरफ होगा।  इसलिये जिन्होंने युद्ध योग किया है उन्हें प्रतियुद्ध भी झेलना ही होगा। अगर इन देशों को प्रतियुद्ध से बचना है तो युद्ध योग से बचते हुए हथियार के कारखाने बंद करने होंगे। जिसकी संभावना नहीं दिखती। उल्टे जिस तरह यह देश मध्यपूर्व देशों में अधिक हमले कर रहे हैं उससे शरणार्थी संकट बढ़ेगा और आतंकी इन्हीं देशों में जायेंगे।  आखिरी सलाह भारतीय प्रचार माध्यमों को भी है कि वह मध्यपूर्व के आतंकी संगठनों का नाम अधिक न लें कहीं ऐसा न हो कि पाकिस्तान कहीं उसके नाम से आतंकी भेजने लगे।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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इतिहास जनमानस की यादों में बसता है-हिन्दी लेख


                                   हमारा मानना है कि इतिहास को केवल कागज या लकड़े के पट्टे पर नहीं दर्ज होता। उसे भुलाना है तो जनमानस मे नयी स्वर्णिम छवि भी आना चाहिये। यह छवि वही लेाग बना सकते हैं जो सामान्यजनों के लिये हितकारक काम करते हुए उसकी रक्षा भी कर सकते हैं।

‎                                   औरंगजेबमार्ग का नाम बदलकर ‪‎अब्दुलकलाममार्ग किया गया है। उम्मीद है ‪इतिहास अब भविष्य में विकास मार्ग पर ले जायेगा। हमने देखा है कि इस तरह अनेक बाज़ारों, मार्गों, इमारतों तथा उद्यानों के नाम बदल गये। क्षणिक रूप से भावनात्मक शांति देने वाले ऐसे प्रयास जनमानस में अधिक दिन तक याद नहीं रखे जाते। अनेक जगह तो लोग उसे बरसों तक पुराने नाम याद रखते हैं।  अनेक जगह तो नये नामों की वजह उस स्थान को  ढूंढने वाले लोगों को  परेशानी होती है।

                                   मुख्य बात यह है कि जब तक जनमानस में इतिहास की जो  अविस्मरणीय छवियां है उसे मिटाना सहज तभी हो सकता है जब उसका वर्तमान काल सुखद और भविष्य आशामय हो।  हमें अब यह विचार भी करना चाहिये कि क्या वाकई हमारे देश के सामान्यजन यह अनुभव करते हैं कि उनके सामने ऐसी छवियां हैं जिनके दर्शन से वह भावविभोर हो उठते हों। अगर इसका जवाब हां है तो यह मान लेना चाहिये इतिहास मिट गया और नहीं तो सारे प्रयास व्यर्थ हो गये, यह समझना चाहिये।  देश में जिस तरह एक बार फिरा निराशा, आशंका, और तनाव का वातावरण बन रहा है वह चिंताजनक है।  पुराने लोग आज भी अंग्रेजों को याद करते हैं इसका मतलब यह है कि वह नये व्यवस्था से प्रसन्न नहीं है। ऐसे में इस तरह के प्रयासों पर अनेक असंतुष्ट सवाल भी कर रहे हैं जिसका साहस उनमें व्यवस्था के प्रति निराशापूर्ण वातावरण से पैदा होता है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
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विश्वहिन्दीसम्मेलन और हिन्दी दिवस पर नया पाठ


               भोपाल में 22वां विश्व हिन्दी सम्मेलन हो रहा है।  पूर्व में हुए 21 सम्मेलनों का हिन्दी में क्या प्रभाव हुआ पता नहीं पर इतना तय है कि भारतीय जनमानस की यह अध्यात्मिक भाषा है।  इसलिये उसे रिझाये रखने के लिये बाज़ार ने भाषा को जिंदा रखा है।  इस तरह के सम्मेलन चंद ऐसे विद्वानों का संगम बन कर रह जाते हैं जो  भारतीय जनमानस को यह समझाने के लिये एकत्रित होते हैं कि वह उनके अपने हैं भले ही अंग्रेजी में लिखते हैं।  दूसरी बात यह कि इसमें कागज पर छपी किताबों के प्रति परंपरागत झुकाव रखने वाले पेशेवर हिन्दी विद्वान यह बताने इन सम्मेलनों में आते हैं कि उनके लेखन की वजह से भाषा जिंदा है। पिछले दस वर्ष से अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन हो रहा है पर उसके नुमाइंदों को इस सम्मेलन में न बुलाने से यही साबित हो गया है कि इसके लेखक अप्रतिष्ठत यह लघु स्तर के हैं। विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर ट्विटर लिखे जिनकी सामग्री यहां प्रस्तुत है।

               अंतर्जालीय लेखकों की उपस्थिति और उनके लेखन की चर्चा न दिखना रूढ़ता का प्रतीक लगता है। हिन्दी का भविष्य अब अंतर्जाल पर टिका है और वहां के लेखकों की अनुपस्थिति के बिना विश्व हिन्दी सम्मेलन महत्वहीन लगता है। अब स्वप्रायोजित किताबों से नहीं वरन् अंतर्जाल पर लिखने वाले लेखक ही हिन्दी के सारथी हो सकते हैं। अंतर्जालीय लेखकों के प्रति विश्व हिन्दी सम्मेलन में दिखाया गया परायेपन का भाव उसी के लक्ष्य में बाधक होगा। विश्व हिन्दी सम्मेलन में इस पर विचार होना चाहिये कि जनमानस में अंतर्जाल पर मातृभाषा में स्वयं लिखने की प्रेरणा लाने का विषय हो। स्वप्रायोजित किताबों की बजाय अंतर्जाल पर अपने परिश्रम वह निष्काम भाव से सक्रिय लेखक विश्वहिन्दी सम्मेलने में होते तो मजा आता।

                                   भारतीय भाषायें सांसरिक विषयों के विदुषकों से नहीं वरन् अध्यात्मिक ज्ञान के प्रचारकों की शक्ति से अंतर्जाल पर बढ़ेगी यह बात विश्वहिन्दीसम्मेलन में कहना चाहिये। विश्वहिन्दीसम्मेलन में पाठकों में रचनाओं से अध्यात्मिक ज्ञान संदेश मिलने की अपेक्षा पर विचार होना चाहिये।

हिन्दी ब्लॉगर बिन विश्व हिन्दी सम्मेलन लगे सून।

कहें दीपकबापू जैसे सूर्य के ताप बिन माह जून।।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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नये निर्माण से ही इतिहास भूलना संभव-हिन्दी लेख


                                  हमारा मानना है कि इतिहास को केवल कागज या लकड़े के पट्टे पर नहीं दर्ज होता। उसे भुलाना है तो जनमानस मे नयी स्वर्णिम छवि भी आना चाहिये। यह छवि वही लेाग बना सकते हैं जो सामान्यजनों के लिये हितकारक काम करते हुए उसकी रक्षा भी कर सकते हैं।

‎                                   औरंगजेबमार्ग का नाम बदलकर ‪‎अब्दुलकलाममार्ग किया गया है। उम्मीद है ‪इतिहास अब भविष्य में विकास मार्ग पर ले जायेगा। हमने देखा है कि इस तरह अनेक बाज़ारों, मार्गों, इमारतों तथा उद्यानों के नाम बदल गये। क्षणिक रूप से भावनात्मक शांति देने वाले ऐसे प्रयास जनमानस में अधिक दिन तक याद नहीं रखे जाते। अनेक जगह तो लोग उसे बरसों तक पुराने नाम याद रखते हैं।  अनेक जगह तो नये नामों की वजह उस स्थान को  ढूंढने वाले लोगों को  परेशानी होती है।

                                   मुख्य बात यह है कि जब तक जनमानस में इतिहास की जो  अविस्मरणीय छवियां है उसे मिटाना सहज तभी हो सकता है जब उसका वर्तमान काल सुखद और भविष्य आशामय हो।  हमें अब यह विचार भी करना चाहिये कि क्या वाकई हमारे देश के सामान्यजन यह अनुभव करते हैं कि उनके सामने ऐसी छवियां हैं जिनके दर्शन से वह भावविभोर हो उठते हों। अगर इसका जवाब हां है तो यह मान लेना चाहिये इतिहास मिट गया और नहीं तो सारे प्रयास व्यर्थ हो गये, यह समझना चाहिये।  देश में जिस तरह एक बार फिरा निराशा, आशंका, और तनाव का वातावरण बन रहा है वह चिंताजनक है।  पुराने लोग आज भी अंग्रेजों को याद करते हैं इसका मतलब यह है कि वह नये व्यवस्था से प्रसन्न नहीं है। ऐसे में इस तरह के प्रयासों पर अनेक असंतुष्ट सवाल भी कर रहे हैं जिसका साहस उनमें व्यवस्था के प्रति निराशापूर्ण वातावरण से पैदा होता है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

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