अगर किसी समुदाय का एक जोड़ा अपने किसी दूसरे समुदाय की रीति के अनुसार विवाह करता है तो क्या उस समुदाय के गुरुओं या शिखर पुरुषों को उसके विरुद्ध बयान देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है? क्या यह स्वतंत्र रूप से किसी को अपना जीवन स्वतंत्र रूप व्यतीत करने के अधिकार को चुनौती नहीं देता?
एक छोटी घटना पर बड़ी प्रतिक्रिया होती है तो बड़े सवाल भी उठते हैं। प्रसंग यह है कि एक ही समुदाय के गैर हिंदू जोड़े ने हिंदू रीति से विवाह किया। इस पर उस समुदाय के गुरुओं ने सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया कि उनका विवाह उनकी पवित्र पुस्तक के अनुसार मान्य नहंी है! क्या किसी भी समुदाय के गुरु को यह अधिकार प्राप्त है कि वह उसके हर सदस्य के व्यक्तिगत मामले में सार्वजनिक हस्तक्षेप करने वाले बयान जारी करे?
यह एक सामाजिक प्रश्न है पर मुश्किल यह है कि देश के बुद्धिजीवी वर्ग के साथ ही सामजिक गतिविधियेां के मसीहा भी अपने राजनीतिक विचारों से अपने दृष्टिकोण रखते हैं। अगर कोई घटना धार्मिक या सामाजिक है तो सभी सक्रिय संगठन अपनी प्रतिबद्धता, लोगों की जरूरतों और समस्याओं से अधिक अपने पूर्वनिर्धारित वैचारिक ढांचे में तय करते हैं। अगर हम इस घटना को देखें तो केवल वही संगठन उस जोड़े को समर्थन देंगे जो अपने समुदाय की परंपराओं की प्रशंसा इस घटना में देखते हैं और उनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के प्रत्युत्तर में उनके प्रतिद्वंद्वी संगठन खामोश रहेंगे या फिर कोई अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे जिससे अपने समुदाय में उनकी अहमियत बनी रहे।
सवाल यह है कि कोई हिंदू जोड़ा गैर हिन्दू तरीके से या कोई गैरहिन्दू हिन्दू तरीके से विवाह करता है तो उसे सार्वजनिक रूप से चर्चा का विषय क्यों बनाया जाना चाहिए? क्या यह जरूरी है कि देश के बुद्धिजीवी जब सामाजिक विषयों पर लिखें तो हर घटना को अपने अपने राजनीतिक चश्में से ही देखें? क्या यह जरूरी है कि सामाजिक विषयों पर केवल राजनीतिक विषयों पर ही लिखने वाले अपने विचार रखें। क्या शुद्ध रूप से किसी सामाजिक लेखक को इसका अधिकार नहीं है कि वह ऐसे मसलों पर लिखे जिनका जानबूझकर राजनीतिक करण किया गया हो या लेखकों ने यह अधिकार स्वयं ही छोड़ दिया है।
यह घटना तो इस आलेख में केवल संदर्भ के लिए उपयोग की गयी है पर मुख्य बात यह है कि हर व्यक्ति को-चाहे वह किसी भी समुदाय,जाति,भाषा या क्षेत्र का हो- अपनी दैनिक गतिविधियों के स्वतंत्र संचालन के राज्य का संरक्षण मिलना चाहिये क्योंकि वह देश की एक इकाई है मगर समाजों को संरक्षण देने की बात समझ से परे है। संरक्षण की जरूरत व्यक्ति को है क्योंकि वह उसका अधिकारी है-राज्य द्वारा दिये जाने वाले करों को चुकाने के साथ वह मतदान भी करता है-पर समाजों को आखिर संरक्षण की क्या जरूरत है?
हम एक व्यक्ति को देखें तो उसको समाज की जरूरत केवल शादी और गमी में ही होती है बाकी समय तो वह अकेला ही जीवन यापन करता है। समाज की उसके लिये कोई अधिक भूमिका नहीं है। वैसे भी हम इस देश में जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म के आधार पर बने समाजों को देखें तो उनके स्वाभाविक रूप से बने संगठन उनके लिये अपनी भूमिका हमेशा नकारात्मक प्रचार में ढूंढते हैं। संगठन पर बैठते हैं धनी, उच्च पदस्थ या बाहूबली जिनके भय से आम आदमी दिखावे के लिये उनका समर्थन करता है। इसी का लाभ उठाते हुए ही इन संगठनों के माध्यम से समाजों पर नियंत्रण का प्रयास किया जाता है। यह केवल आज की बात नहीं बल्कि सदियों से होता आया है इसलिये ही जिस समाज के लोगों के हाथ में सत्ता रही वह अन्य समाजों को दूसरे दर्जे का मानते रहे। परिणामस्वरूप इस देश में हमेशा संघर्ष रहा।
आजादी के बाद भी समाजों को संरक्षण देने के लिये राज्य द्वारा प्रयास किया गया। यह प्रयास भले ही ईमानदारी से किया गया पर इसका जमकर दुरुपयोग हुआ। समाज को नियंत्रित करने वाले संगठनों के शीर्ष पुरुषों ने कभी यह प्रयास नहीं किया कि वह मिलकर रहें उल्टे वह आपस में लड़ाते रहे। मजे की बात यह है कि आम लोगों को आपस में लड़ाने वाले इन शीर्ष पुरुषों में कभी आपस में सीधे संघर्ष हुआ इसकी जानकारी नहीं मिलती।
कहा जाता है कि बिटिया सांझी होती है। आदमी अपने शत्रु की बेटी का नाम भी कभी सार्वजनिक रूप से नहीं उछालता। इस प्रसंग में देखा गया कि लड़के के साथ लड़की का नाम भी उछाला गया जो कि किसी भी समुदाय की मूल पंरपराओं को विरुद्ध है। नितांत एक निजी विषय को सार्वजनिक रूप से उछालना कोई अच्छी बात नहीं है। जहां तक किसी गैर हिन्दू जोड़ द्वारा हिन्दू रीति से विवाह करने का प्रश्न है तो पाकिस्तान में कुछ समय पूर्व एक ऐसी शादी हुई जिसमें पूरा परिवार शामिल हुआ। तब वहां पर उनके समुदाय की तरफ से ऐसा कोई विरोध नहीं आया पर भारत में तो सभी समुदाय के शीर्ष पुरुषों ने मान लिया है कि उनका हर सदस्य उनकी प्रजा है। यह शीर्ष पुरुष आपस में ऐसे बतियाते हैं जैसे कि वह पूरे समुदाय के राजा हों।
राज्य के समाजों को संरक्षण का यह परिणाम हुआ है कि उनके शीर्ष पुरुष आम आदमी को अपनी संपत्ति समझने लगे हैं।
सच बात तो यह है कि जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर बने कथित संगठन किसी अहम भूमिका में नहीं है पर प्रचार माध्यमों से मिलने वाला उन्हें जीवित रखे हुए है। पुरानी पीढ़ी के साथ नयी पीढ़ी भी कथित सामाजिक नियमों उकताई हुई है। अंतर यह है कि पुरानी पीढ़ी के लिये विद्रोह करने के अधिक अवसर नहीं थे पर नयी पीढ़ी को किसी चीज की परवाह नहीं है। सारे समाज अपना अस्तित्व खोते जा रहे पर उनके खंडहर ढोने का प्रयास भी कम नहीं हो रहा। मुश्किल यह है कि लोगों के निजी मामलों में इस तरह सार्वजनिक दखल रोकने का कोई प्रयास नहीं हो रहा। इसके लिये कानून बने यह जरूरी नहीं पर समाज के निष्पक्ष और मौलिक चिंतन वाले लोगों को चाहिए कि वह दृढ़तापूर्वक सभी समुदायों के शीर्ष पुरुषों पर इस बात के लिये दबाव डालें कि वह लोगों के निजी मामलों में दखल देने से बचें। वह किसी के साथ गुलाम जैसा व्यवहार न करें। यहां किसी विशेष समुदाय को प्रशंसा पत्र नहीं दिया जाना चाहिये कि वह अन्य से बेहतर है क्योंकि ऐसी अनेक घटनायें हैं जिससे हर समाज या समूह पर कलंक लगा है।
इस कथित सामाजिक गुलामी से मुक्ति के लिये निष्पक्ष और मौलिक सोच के लोगों को अहिंसक प्रचारात्मक अभियान छेड़ना चाहिये। जो लोग समाजों को अपनी संपत्ति समझते हैं वह इसलिये ही आक्रामक हो जाते हैं क्योंकि उनको दूसरे समूहों के अपनी तरह के ही शीर्षपुरुषों का समर्थन मिल जाता है। कभी कभी तो लगता है कि वह अपने अपने समाज में वर्चस्व बनाये रखने के लिये ही नकली लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे में राज्य से हर व्यक्ति को जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के आधार पर संरक्षण तो मिलना चाहिये पर समाज के संरक्षण से बचना चाहिए। उनके आधार पर बने संगठनों को लोगों के निजी मामलों से रोकने का प्रयास जरूरी है। इस तरह की सामाजिक गुलामी समाप्त किये बगैर देश में पूर्ण आजादी एक ख्वाब लगती है। राज्य या कानून से अधिक वर्तमान समय में युवा और पुरानी पीढ़ी के निष्पक्ष, स्वतंत्र और मौलिक लोगों के प्रयासों द्वारा ही अहिंसक, सकारात्मक और दृढ़ प्रयास कर ऐसे तत्वों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
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अंतर्जाल पर जैसे जैसे आप लिखते जायेंगे वैसे वैसे नित नये अनुभव होंगे। एक बात लगने लगी है कि यहां पर हिंदी साहित्य तो लिखा जायेगा पर शायद वैसे नहीं जैसे प्रकाशन माध्यमों में लिखा जाता है। कहानियां केवल कल्पना और सत्य का मिश्रण नहीं बल्कि अनुभूति से घटी घटनायें भी कहानी की शक्ल में प्रस्तुत होंगी। हिंदी ब्लाग अभी शैशवास्था में हैं पर इसके विकास की पूरी संभावना है। अभी तक जो ब्लाग लेखक हैं वह सामान्य लोग हैं और उनका प्रयास यही है कि किसी भी तरह वह न केवल अपने लिये पाठक जुटायें बल्कि दूसरे के पास अपने पाठक भेज सकें तो भी अच्छी बात है। ऐसी कोशिश इस ब्लाग लेखक ने कई बार की है पर अभी हाल ही में एक दिलचस्प अनुभव सामने आया।
हुआ यूं कि एक अध्यात्मिक ब्लाग पर एक ज्योतिष विद् महिला ने अपनी टिप्पणी लिखी। उनके अनुसार वह ज्योतिष की जानकार हैं और जिस तरह उसके नाम पर भले लोगों का ठगा जा रहा है उसके खिलाफ वह जागरुकता लाने का प्रयास कर रही हैं। इस मामले में वह ब्लाग/पत्रिका लेखक से सहायता की आशा भी उन्होंने की।
अगर कोई इस तरह का प्रयास कर रहा है तो उसमें कोई बुराई नहीं। तब उसे लेखक ने अपने उत्तर में बताया कि हिंदी ब्लाग जगत में भी एक महिला लेखिका हैं जो इस विषय पर लिखती हैं। उन महिला टिप्पणीकार को यह भी बताया वह ब्लाग लेखिका न केवल ज्योतिष की जानकारी हैं बल्कि अन्य विषयों पर भी लिखती है। साथ में उनके ‘जागरुकता अभियान’ को पूरा समर्थन देने का वादा भी किया।
उन्होंने फिर आभार जताते हुए ईमेल से जवाब दिया। तभी हिंदी फोरमों पर लेखक की नजर में आया कि हिंदी ब्लाग जगत की उन प्रसिद्ध महिला ब्लाग लेखिका का एक पाठ इसी विषय पर लिखा गया है जिसमें ज्योतिष के नाम पर अंधविश्वास फैलाने का विरोध किया गया है। तक इस लेखक ने उस महिला को उस पाठ का लिंक भेजते हुए लिखा कि वह इसे पढ़ें।
उस समय लेखक यह आशा कर रहा था कि ज्योतिष की जानकार दो प्रतिष्ठत लेखिकाओं-उन टिप्पणीकार महिला ने एक किताब भी लिखी है- के आपसी संपर्क होंगे और यह देखना दिलचस्प होगा कि वह आगे किस तरह अपने अभियान को बढ़ाती हैं। यह लेखक ज्योतिष के मामले में कोरा है पर उसमें दिलचस्पी अवश्य है और इसी की वजह से दोनों महिलाओं के आपसी संपर्क हों इस उम्मीद में यह सब किया।
बाद में उस टिप्पणीकार का जवाब आया कि वह उस महिला ब्लाग लेखक की ज्योतिष संबंधी विषयों पर लिखे गये विचारों ं से सहमत नहीं है। अब आगे करने क्या किया जाये? उनकी बात से यह नहीं लगा कि वह उन महिला ब्लाग लेखिका से आगे संपर्क रखने के मूड में हैं। फिलहाल यह मामला विचाराधीन रख दिया। आप किसी से सहमत हों इसलिये ही संपर्क करना इस लेखक को जरूरी नहीं लगता। अगर आप असहमत हैं तब भी अपने हमख्याल व्यक्ति से संपर्क करना चाहिये ताकि उस विषय पर अपना ज्ञान बढ़ सके और हम जान सकें कि हमारे विचारों से भी कोई असहमत हो सकता है? मगर हरेक का अलग अलग विचार है। किसी पर कोई आक्षेप करना ठीक नहीं।
मन में आया कि उन महिला टिप्पणीकार से कहें कि आप भी अपना ब्लाग लिखें पर लगा कि वह तो किताब लिख चुकी हैं और यहां ब्लाग लेखक अपनी किताबें प्रकाशित होने के आमंत्रण की प्रतीक्षा कर रहे हैं ऐसे में उनको यह सुझाव देना अपनी अज्ञानता प्रदर्शित करना होगा। इसके अलावा उनकी बातों से लगा कि वह अपने जागरुकता अभियान के प्रति गंभीर है। वह हमारे अध्यात्मिक ब्लाग/पत्रिकाओं में दिलचस्पी संभवतः इसलिये लेती लगती हैं क्योंकि उनके लगता है कि उसमें लिखे गये पाठ उनके ही विचारों का प्रतिबिंब हैं। आगे जब संपर्क बढ़ेगा तो यह आग्रह अवश्य करेंगे कि वह भी अपना ब्लाग बनायें। अध्ययनशील, मननशील और कर्मशील स्वतंत्र लोग जब आगे आकर हिंदी में ब्लाग लिखेंगे तभी चेतना का संचार देश में होगा। जिस तरह लोग हिंदी ब्लाग जगत में रुचि ले रहे हैं उससे यही आभास मिलता है।
बहरहाल ज्योतिष का विषय हमेशा ही इस देश में विवादास्पद रहा है। कुछ लोग सहमत होते हैं तो कुछ नहीं। यह लेखक इस विषय पर विश्वास और अविश्वास दोनों से परे रहा है। एक प्रश्न जो हमेशा दिमाग में आता रहा है कि क्या खगोल शास्त्र और ज्योतिष में क्या कोई अंतर नहीं है। हमारे पंचागों में सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण का समय और दिन कैसे निकाला जाता है? यह हमें भी पता नहीं पर इतना तय है कि इसके पीछे कोई न कोई विद्या है और उसे जानने वाले विद्वान हमारे देश में हैं जिनको उसके लिये पश्चिम से किसी प्रकार का ज्ञान उधार लेने की जरूरत नहीं पड़ती। फिर उसमें तमाम राशियों के लिये भविष्यफल भी होता है। हमने यह भी देखा कि कुछ भविष्यवाणियां सत्य भी निकलती हैं तो कुछ नहीं भी। सबसे बड़ी चीज है कि हमारे यहां गर्मी, सदी और बरसात के लिये जो माह निर्धारित हैं उन्हीं महीनों में होती है। इस विद्या को किससे जोड़ा जाना चाहिये-खगोल शास्त्र से ज्योतिष शास्त्र से।
इधर कोई ब्लाग लेखकों का महासम्मेलन हो रहा है। उसमें इस लेखक को भी आमंत्रण भेजा गया। वहां जाना नहीं हो पायेगा पर वहां शामिल होने वाले लोगों के लिये शुभकामनायें। हां, एक महिला ब्लाग लेखिका ने अपने ब्लाग पर लिखे पाठ में शिकायत की उसने उस ब्लाग पर अपनी सहमति जताते हुए टिप्पणी लिखी थी जिसमें उस महासम्मेलन के लिये सभी को आमंत्रित किया गया पर उसकी टिप्पणी को उड़ा कर ईमेल भेजा गया और कहा गया कि ‘आपको तथा आपकी सहेलियों को आमंत्रण नहीं है।’
दोनों प्रसंग एक ही दिन सामने थे। हमने सोचा कि ज्योतिषविर्द ब्लाग लेखिका और टिप्पणीकार के बीच संपर्क कायम हो जाये फिर इन ब्लाग लेखकों और लेखिकाओं के बीच समझौते के लिये आग्रह करते हैं। आज जब ज्योतिषविद् महिला टिप्पणीकार से यह उत्साहहीन जवाब मिला तो फिर हमने दूसरा कार्यक्रम भी स्थगित कर दिया।
यह सब अजीब लगता है। ब्लाग लेखकों और टिप्पणीकारों के बीच एक ऐसा रिश्ता है जिसकी अनुभूति बाहर नहीं की जा सकती। मैं उन ज्योतिषविद् महिला टिप्पणीकार और प्रसिद्ध ब्लाग लेखिका के बीच संपर्क होते देखना चाहता था पर नहीं हुआ। सभी यहीं खत्म नहीं होने वाला है। जैसे जैसे हिंदी ब्लाग जगत आगे बढ़ता जायेगा वैसे वैसे ही इस तरह की छोटी छोटी घटनायें भी जब पाठों में आयेंगी तो लोग रुचि से पढ़ेंगे और शायद कुछ लोगों को मजा नहीं आये। हां, वैसे इनका मजा तभी तक है जब तक मर्यादा के साथ उन पर पाठा लिखा जाये। अश्लीलता या अपमान से भरे शब्द न केवल पाठ का मूलस्वरूप नष्ट करते हैं बल्कि पाठक पर भी बुरा प्रभाव डालते हैं।
इधर ब्लाग पर नियंत्रण को लेकर अनेक तरह के भय व्यक्त किये जा रहे हैं पर यह भ्रम है। दरअसल उन्ही ब्लाग लेखकों पर परेशानी आ रही है जो दूसरों के लिये अपशब्द लिखते हैं। सच बात तो यह है कि आप किसी की वैचारिक, रणनीतिक, या कार्यप्रणाली को लेकर आलोचना कर सकते हैं पर अपशब्द के प्रयोग की आलोचना कानून नहीं देता भले ही ब्लाग के लिये अलग से कानून नहीं बना हो। भंडास निकलने के लिये क्या साहित्यक भाषा नहीं है जो अपशब्दों का प्रयोग किया जाये। इसलिये अंतर्जाल पर लिखने वाले लेखकों इस बात से विचलित नहीं होना चाहिये। इसकी बजाय किसी की आलोचना या विरोधी के लिये शालीन भाषा के शब्दों का प्रयोग करना चाहिये।
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