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समूह की गुलामी से मुक्ति ही है असली आज़ादी-चिंत्तन आलेख


अगर किसी समुदाय का एक जोड़ा अपने किसी दूसरे समुदाय की रीति के अनुसार विवाह करता है तो क्या उस समुदाय के गुरुओं या शिखर पुरुषों को उसके विरुद्ध बयान देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है? क्या यह स्वतंत्र रूप से किसी को अपना जीवन स्वतंत्र रूप व्यतीत करने के अधिकार को चुनौती नहीं देता?
एक छोटी घटना पर बड़ी प्रतिक्रिया होती है तो बड़े सवाल भी उठते हैं। प्रसंग यह है कि एक ही समुदाय के गैर हिंदू जोड़े ने हिंदू रीति से विवाह किया। इस पर उस समुदाय के गुरुओं ने सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया कि उनका विवाह उनकी पवित्र पुस्तक के अनुसार मान्य नहंी है! क्या किसी भी समुदाय के गुरु को यह अधिकार प्राप्त है कि वह उसके हर सदस्य के व्यक्तिगत मामले में सार्वजनिक हस्तक्षेप करने वाले बयान जारी करे?
यह एक सामाजिक प्रश्न है पर मुश्किल यह है कि देश के बुद्धिजीवी वर्ग के साथ ही सामजिक गतिविधियेां के मसीहा भी अपने राजनीतिक विचारों से अपने दृष्टिकोण रखते हैं। अगर कोई घटना धार्मिक या सामाजिक है तो सभी सक्रिय संगठन अपनी प्रतिबद्धता, लोगों की जरूरतों और समस्याओं से अधिक अपने पूर्वनिर्धारित वैचारिक ढांचे में तय करते हैं। अगर हम इस घटना को देखें तो केवल वही संगठन उस जोड़े को समर्थन देंगे जो अपने समुदाय की परंपराओं की प्रशंसा इस घटना में देखते हैं और उनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के प्रत्युत्तर में उनके प्रतिद्वंद्वी संगठन खामोश रहेंगे या फिर कोई अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे जिससे अपने समुदाय में उनकी अहमियत बनी रहे।
सवाल यह है कि कोई हिंदू जोड़ा गैर हिन्दू तरीके से या कोई गैरहिन्दू हिन्दू तरीके से विवाह करता है तो उसे सार्वजनिक रूप से चर्चा का विषय क्यों बनाया जाना चाहिए? क्या यह जरूरी है कि देश के बुद्धिजीवी जब सामाजिक विषयों पर लिखें तो हर घटना को अपने अपने राजनीतिक चश्में से ही देखें? क्या यह जरूरी है कि सामाजिक विषयों पर केवल राजनीतिक विषयों पर ही लिखने वाले अपने विचार रखें। क्या शुद्ध रूप से किसी सामाजिक लेखक को इसका अधिकार नहीं है कि वह ऐसे मसलों पर लिखे जिनका जानबूझकर राजनीतिक करण किया गया हो या लेखकों ने यह अधिकार स्वयं ही छोड़ दिया है।

यह घटना तो इस आलेख में केवल संदर्भ के लिए उपयोग की गयी है पर मुख्य बात यह है कि हर व्यक्ति को-चाहे वह किसी भी समुदाय,जाति,भाषा या क्षेत्र का हो- अपनी दैनिक गतिविधियों के स्वतंत्र संचालन के राज्य का संरक्षण मिलना चाहिये क्योंकि वह देश की एक इकाई है मगर समाजों को संरक्षण देने की बात समझ से परे है। संरक्षण की जरूरत व्यक्ति को है क्योंकि वह उसका अधिकारी है-राज्य द्वारा दिये जाने वाले करों को चुकाने के साथ वह मतदान भी करता है-पर समाजों को आखिर संरक्षण की क्या जरूरत है?
हम एक व्यक्ति को देखें तो उसको समाज की जरूरत केवल शादी और गमी में ही होती है बाकी समय तो वह अकेला ही जीवन यापन करता है। समाज की उसके लिये कोई अधिक भूमिका नहीं है। वैसे भी हम इस देश में जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म के आधार पर बने समाजों को देखें तो उनके स्वाभाविक रूप से बने संगठन उनके लिये अपनी भूमिका हमेशा नकारात्मक प्रचार में ढूंढते हैं। संगठन पर बैठते हैं धनी, उच्च पदस्थ या बाहूबली जिनके भय से आम आदमी दिखावे के लिये उनका समर्थन करता है। इसी का लाभ उठाते हुए ही इन संगठनों के माध्यम से समाजों पर नियंत्रण का प्रयास किया जाता है। यह केवल आज की बात नहीं बल्कि सदियों से होता आया है इसलिये ही जिस समाज के लोगों के हाथ में सत्ता रही वह अन्य समाजों को दूसरे दर्जे का मानते रहे। परिणामस्वरूप इस देश में हमेशा संघर्ष रहा।
आजादी के बाद भी समाजों को संरक्षण देने के लिये राज्य द्वारा प्रयास किया गया। यह प्रयास भले ही ईमानदारी से किया गया पर इसका जमकर दुरुपयोग हुआ। समाज को नियंत्रित करने वाले संगठनों के शीर्ष पुरुषों ने कभी यह प्रयास नहीं किया कि वह मिलकर रहें उल्टे वह आपस में लड़ाते रहे। मजे की बात यह है कि आम लोगों को आपस में लड़ाने वाले इन शीर्ष पुरुषों में कभी आपस में सीधे संघर्ष हुआ इसकी जानकारी नहीं मिलती।
कहा जाता है कि बिटिया सांझी होती है। आदमी अपने शत्रु की बेटी का नाम भी कभी सार्वजनिक रूप से नहीं उछालता। इस प्रसंग में देखा गया कि लड़के के साथ लड़की का नाम भी उछाला गया जो कि किसी भी समुदाय की मूल पंरपराओं को विरुद्ध है। नितांत एक निजी विषय को सार्वजनिक रूप से उछालना कोई अच्छी बात नहीं है। जहां तक किसी गैर हिन्दू जोड़ द्वारा हिन्दू रीति से विवाह करने का प्रश्न है तो पाकिस्तान में कुछ समय पूर्व एक ऐसी शादी हुई जिसमें पूरा परिवार शामिल हुआ। तब वहां पर उनके समुदाय की तरफ से ऐसा कोई विरोध नहीं आया पर भारत में तो सभी समुदाय के शीर्ष पुरुषों ने मान लिया है कि उनका हर सदस्य उनकी प्रजा है। यह शीर्ष पुरुष आपस में ऐसे बतियाते हैं जैसे कि वह पूरे समुदाय के राजा हों।
राज्य के समाजों को संरक्षण का यह परिणाम हुआ है कि उनके शीर्ष पुरुष आम आदमी को अपनी संपत्ति समझने लगे हैं।

सच बात तो यह है कि जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर बने कथित संगठन किसी अहम भूमिका में नहीं है पर प्रचार माध्यमों से मिलने वाला उन्हें जीवित रखे हुए है। पुरानी पीढ़ी के साथ नयी पीढ़ी भी कथित सामाजिक नियमों उकताई हुई है। अंतर यह है कि पुरानी पीढ़ी के लिये विद्रोह करने के अधिक अवसर नहीं थे पर नयी पीढ़ी को किसी चीज की परवाह नहीं है। सारे समाज अपना अस्तित्व खोते जा रहे पर उनके खंडहर ढोने का प्रयास भी कम नहीं हो रहा। मुश्किल यह है कि लोगों के निजी मामलों में इस तरह सार्वजनिक दखल रोकने का कोई प्रयास नहीं हो रहा। इसके लिये कानून बने यह जरूरी नहीं पर समाज के निष्पक्ष और मौलिक चिंतन वाले लोगों को चाहिए कि वह दृढ़तापूर्वक सभी समुदायों के शीर्ष पुरुषों पर इस बात के लिये दबाव डालें कि वह लोगों के निजी मामलों में दखल देने से बचें। वह किसी के साथ गुलाम जैसा व्यवहार न करें। यहां किसी विशेष समुदाय को प्रशंसा पत्र नहीं दिया जाना चाहिये कि वह अन्य से बेहतर है क्योंकि ऐसी अनेक घटनायें हैं जिससे हर समाज या समूह पर कलंक लगा है।
इस कथित सामाजिक गुलामी से मुक्ति के लिये निष्पक्ष और मौलिक सोच के लोगों को अहिंसक प्रचारात्मक अभियान छेड़ना चाहिये। जो लोग समाजों को अपनी संपत्ति समझते हैं वह इसलिये ही आक्रामक हो जाते हैं क्योंकि उनको दूसरे समूहों के अपनी तरह के ही शीर्षपुरुषों का समर्थन मिल जाता है। कभी कभी तो लगता है कि वह अपने अपने समाज में वर्चस्व बनाये रखने के लिये ही नकली लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे में राज्य से हर व्यक्ति को जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के आधार पर संरक्षण तो मिलना चाहिये पर समाज के संरक्षण से बचना चाहिए। उनके आधार पर बने संगठनों को लोगों के निजी मामलों से रोकने का प्रयास जरूरी है। इस तरह की सामाजिक गुलामी समाप्त किये बगैर देश में पूर्ण आजादी एक ख्वाब लगती है। राज्य या कानून से अधिक वर्तमान समय में युवा और पुरानी पीढ़ी के निष्पक्ष, स्वतंत्र और मौलिक लोगों के प्रयासों द्वारा ही अहिंसक, सकारात्मक और दृढ़ प्रयास कर ऐसे तत्वों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-दुष्ट अमीर शासन को परेशान करता है


के अनुसार
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आस्रावयेदुपचितान् साधु दुष्टऽव्रणनि।
आमुक्तास्ते च वतैरन् वह्मविव महीपती।।
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट व्रणों की तरह पके हुए धन से संपन्न असाधु पुरुष को निचोड़ लेना ही ठीक है वरना वह दुष्ट स्वभाव वाले अग्नि के समान राज्य के साथ व्यवहार कर उसे त्रस्त करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-धन कमाने के दो ही मार्ग है-एक प्राकृतिक व्यापार से और दूसरा अप्राकृतिक व्यापार। जिन लोगों के पास अप्राकृतिक व्यापार से धन आता है वह न केवल स्वयं दुष्ट प्रवृत्ति के होते हैं बल्कि दूसरों को भी अपराध करने के लिये उकसाते हैं। वह अवैध रूप से धन कमाने के लिये राज्य का ध्यान भटकाने के उद्देश्य से ऐसे अपराधियों को साथ रखते हैं जो उनकी इस काम में सहायता करें। अधिक धन से पके हुए ऐसे दुष्ट पुरुष राज्य के लिये आग के समान होते हैं भले ही वह प्रत्यक्ष रूप से समाज का हितैषी होने का दावा करते हैं पर अप्रत्यक्ष रूप से वह असामजिक तत्वों और अपराधियों की सहायता कर पूरे राज्य में कष्ट पैदा करते हैं। वैसे आजकल तो प्राकृतिक व्यापार और अप्राकृतिक व्यापार का अंतर ही नहीं दिखाई देता क्योंकि लोग दिखावे के लिये सफेद धंधा करते हैं पर उनको काला धंधा ही शक्ति प्रदान करता है। राज्य को चाहिये कि ऐसे लोगों पर दृष्टि रखते हुए उनको निचोड़ ले।
भले राज्य के प्रसंग में बात कही गयी है पर एक आम व्यक्ति के रूप में भी ऐसे धनिकों से सतर्क रहना चाहिये जो अप्राकृतिक और काला व्यापार करते हैं। ऐसे लोग धन कमाकर अहंकार के भाव को प्राप्त हो जाते हैं। इनसे संपर्क रखना मतलब आपने लिये आफत मोल लेना है। वह अपना उद्देश्य से कभी भी उपयोग कर किसी भी व्यक्ति को संकट में डाल सकते हैं। इतना ही नहीं संबंध होने पर अगर किसी काम के लिये मना किया जाये तो वह उग्र होकर बदला भी लेते हैं। उनके लिये स्त्री हो या पुरुष पर काम निकालते हुए वह उसे केवल एक वस्तु या हथियार ही समझते हैं। अपना काम न करने पर पूरे परिवार के लिये अग्नि के समान व्यवहार करते हैं। धन के बदले काम लेकर ही यह संतुष्ट नहीं होते बल्कि आदमी को अपना गुलाम समझकर उसे त्रास भी देते हैं।
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व्यंग्य सामग्री के लिये संस्कृति की आड़ की क्या जरूरत-आलेख


यह कोई आग्रह नहीं है यह कोई चेतावनी भी नहीं है। यह कोई फतवा भी नहीं है और न ही यह अपने विचार को किसी पर लादने का प्रयास है। यह एक सामान्य चर्चा है और इसे पढ़कर इतना चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। हां, अगर मस्तिष्क में अगर चिंतन के तंतु हों तो उनको सक्रिय किया जा सकता है। किसी भी लेखक को किसी धर्म से प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिये पर उसे इस कारण यह छूट भी नहीं लेना चाहिये कि वह अपने ही धार्मिक पुस्तकों या प्रतीकों की आड़ में व्यंग्य सामग्री (गद्य,पद्य और रेखाचित्र) की रचना कर वाह वाही लूटने का विचार करे।
यह विचित्र बात है कि जो लोग अपनी संस्कृति और संस्कार से प्रतिबद्धता जताते हैंे वही ऐसी व्यंग्य सामग्रियों के साथ संबद्ध(अंतर्जाल पर लेखक और टिप्पणीकार के रूप में) हो जाते हैं जो उनके धार्मिक प्रतीकों के केंद्र बिंदु में होती है।
यह लेखक योगसाधक होने के साथ श्रीगीता का अध्ययनकर्ता भी है-इसका आशय कोई सिद्ध होना नहीं है। श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण की आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर हमें कोई पीड़ा नहीं हुई न मन विचलित हुआ। अगर अपनी इष्ट पुस्तक और देवता के आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर परेशानी नहीं हुई तो उसका श्रेय भी उनके संदेशों की प्रेरणा को ही जाता है।
यह कोई आक्षेप नहीं है। हम यहां यह चर्चा इसलिये कर रहे हैं कि कम से कम अंतर्जाल पर सक्रिय लेखक इससे बाहर चल रही पुरानी परंपरागत शैली से हटकर नहीं लिखेंगे तो यहां उनकी कोई पूछ परख नहीं होने वाली है। अंतर्जाल से पूर्व के लेखकों ने यही किया और प्रसिद्धि भी बहुत पायी पर आज भी उन्हें इस बात के लिये फिक्रमंद देखा जा सकता है कि वह कहीं गुमनामी के अंधेरे में न खो जायें।
स्वतंत्रता से पूर्व ही भारत के हिंदी लेखकों का एक वर्ग सक्रिय हो गया था जो भारतीय अध्यात्म की पुस्तकों को पढ़ न पाने के कारण उसमें स्थित संदेशों को नहीं समझ पाया इसलिये उसने विदेशों से विचारधारायें उधार ली और यह साबित करने का प्रयास किया कि वह आधुनिक भारत बनाना चाहते हैं। उन्होंने अपने को विकासवादी कहा तो उनके सामने खड़े हुए परंपरावादियों ने अपना मोर्चा जमाया यह कहकर कि वह अपनी संस्कृति और संस्कारों के पोषक हैं। यह लोग भी कर्मकांडों से आगे का ज्ञान नहीं जानते थे। बहरहाल इन्हीं दो वर्गों में प्रतिबद्ध ढंग से लिखकर ही लोगों ने नाम कमाया बाकी तो संघर्ष करते रहे। अब अंतर्जाल पर यह अवसर मिला है कि विचाराधाराओं से हटकर लिखें और अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचायें।
पर यह क्या? अगर विदेशी विचाराधाराओं के प्रवर्तक लेखक भगवान श्रीकृष्ण या श्रीगीता की आड़ में व्यंग्य लिखें तो समझा जा सकता है और उस पर उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है। निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया और ज्ञान-विज्ञान में अभिरुचि रखने का संदेश देने वाली श्रीगीता का नितांत श्रद्धापूर्वक अध्ययन किया जाये तो वह इतना दृढ़ बना देती है कि आप उसकी मजाक उड़ाने पर भी विचलित नहीं होंगे बल्कि ऐसा करने वाले पर तरस खायेंगे।
अगर श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण में विश्वास करने वाले होते तो कोई बात नहीं पर ऐसा करने वाले कुछ लेखक विकासवादी विचाराधारा के नहीं लगे इसलिये यह लिखना पड़ रहा है कि अगर ऐसे ही व्यंग्य कोई अन्य व्यक्ति करता तो क्या वह सहन कर जाते? नहीं! तब वह यही कहते कि हमारे प्रतीकों का मजाक उड़ाकर हमारा अपमान किया जा रहा है। यकीनन श्रीगीता में उनकी श्रद्धा होगी और कुछ सुना होगा तो कुछ ज्ञान भी होगा मगर उसे धारण किया कि पता नहीं। श्रीगीता का ज्ञान धारण करने वाला कभी उत्तेजित नहीं होता और न ही कभी अपनी साहित्य रचनाओं के लिये उनकी आड़ लेता है।
सच बात तो यह है कि पिछले कुछ दिनों से योगसाधना और श्रीगीता की आड़ लेकर अनेक जगह व्यंग्य सामग्री देखने,पढ़ने और सुनने को मिल रही है। एक पत्रिका में तो योगसाधना को लेकर ऐसा व्यंग्य किया गया था जिसमें केवल आशंकायें ही अधिक थी। ऐसी रचनायें देखकर तो यही कहा जा सकता है कि योगसाधना और व्यंग्य पर वही लोग लिख रहे हैं जिन्होंने स्वयं न तो अध्ययन किया है और न उसे समझा है। टीवी पर अनेक दृश्यों में योगसाधना पर व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति देखकर इस बात का आभास तो हो गया है कि यहां गंभीर लेखन की मांग नहीं बल्कि चाटुकारिता की चाहत है। लोगों को योग साधना करते हुए हादसे में हुई एक दो मौत की चर्चा करना तो याद रहता है पर अस्पतालों में रोज सैंकड़ों लोग इलाज के दौरान मरते हैं उसकी याद नहीं आती।
देह को स्वस्थ रखने के लिये योगसाधना करना आवश्यक है पर जीवन शांति और प्रसन्नता से गुजारने के लिये श्रीगीता का ज्ञान भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस धरती पर मनुष्य के चलने के लिये दो ही रास्ते हैं। मनुष्य को चलाता है उसका मन और वह श्रीगीता के सत्य मार्ग पर चलेगा या दूसरे माया के पथ पर। दोनों ही रास्तों का अपना महत्व है। मगर आजकल एक तीसरा पथ भी दिखता है वह दोनों से अलग है। माया के रास्ते पर चले रहे हैं पर वह उस विशाल रूप में साथ नहीं होती जो वह मायावी कहला सकें। तब बीच बीच में श्रीगीता या रामायण का गुणगान कर अनेक लोग अपने मन को तसल्ली देते हैं कि हम धर्म तो कर ही रहे हैं। यह स्थिति तीसरे मार्ग पर चलने वालों की है जिसे कहा जा सकता है कि न धन साथ है न धर्म।
अगर आप व्यंग्य सामग्री लिखने की मौलिक क्षमता रखते हैं तो फिर प्राचीन धर्म ग्रंथों या देवताओं की आड़ लेना कायरता है। अगर हमें किसी पर व्यंग्य रचना करनी है तो कोई भी पात्र गढ़ा जा सकता है उसके लिये पवित्र पुस्तकों और भगवान के स्वरूपों की आड़ लेने का आशय यह है कि आपकी सोच की सीमित क्षमतायें है। जो मौलिक लेखक हैं वह अध्यात्म पर भी खूब लिखते हैं तो साहित्य व्यंग्य रचनायें भी उनके हाथ से निकल कर आती हैं पर कभी भी वह इधर उधर से बात को नहीं मिलाते। अगर किसी अध्यात्म पुरुष पर लिखते हैं फिर उसे कभी अपने व्यंग्य में नहीं लाते।
अरे इतने सारे पात्र व्यंग्य के लिये बिखरे पड़े हैं। जरूरी नहीं है कि किसी का नाम दें। अगर आप चाहें तो रोज एक व्यंग्य लिख सकते हैं इसके लिये पवित्र पुस्तकों यह देवताओं के नाम की आड़ लेने की क्या आवश्यकता है? वैसे भी जब अब किसी का नाम लेकर रचना करते हैं और वह सीधे उसकी तरफ इंगित होती है तो वह व्यंजना विधा नहीं है इसलिये व्यंग्य तो हो ही नहीं सकती।
यह पाठ किसी प्रकार का विवाद करने के लिये नहीं लिखा गया है। हम तो यह कहते हैं कि दूसरा अगर हमारी पुस्तकों या देवताओं की मजाक उड़ाता है तो उस पर चर्चा ही नहीं करो। यहां यह भी बता दें कुछ लोग ऐसे है जो जानबूझकर अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित करने के लिये अपने ही देवताओं और पुस्तकों पर रची गयी विवादास्पद सामग्री को सामने लाते हैं ताकि अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित कर सकें। उनकी उपेक्षा कर दो। ऐसा लगता है कि कुछ लोग वाकई सात्विक प्रवृत्ति के हैं पर अनजाने में या उत्साह में ऐसी रचनायें कर जाते हैं। उनका यह समझाना भर है कि जब हम अपनी पवित्र पुस्तकों या देवताओं की आड़ में कोई व्यंग्य सामग्री लिखेंगे- भले ही उसमें उनके लिये कोई बुरा या मजाकिया शब्द नहीं है-तो फिर किसी ऐसे व्यक्ति को समझाइश कैसे दे सकते हैं जो बुराई और मजाक दोनों ही करता है। याद रहे समझाईश! विरोध नहीं क्योंकि ज्ञानी लोग या तो समझाते हैं या उपेक्षा कर देते हैं। यह भी समझाया अपने को जाता है गैर की तो उपेक्षा ही की जानी चाहिये। हालांकि जिन सामग्रियों को देखकर यह पाठ लिखा गया है उनमें श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण के लिये कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं थी पर सवाल यह है कि वह व्यंग्यात्मक सामग्रियों में उनका नाम लिखने की आवश्यकता क्या है? साथ ही यह भी कि अगर कोई इस विचार से असहमत है तो भी उस पर कोई आक्षेप नहीं किया जाना चाहिये। सबकी अपनी मर्जी है और अपने रास्ते पर चलने से कोई किसी को नहीं रोक सकता, पर चर्चायें तो होती रहेंगी सो हमने भी कर ली।
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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श्रीगीता का ज्ञान हैं सत्य स्वरूप-आलेख


इस बार गुडफ्राइडे के अवसर पर वैटिकन सिटी में आयोजित एक प्रार्थना में हिन्दू धर्म के महान ग्रंथ श्रीगीता सार भी उल्लेख किया गया। इसके साथ ही वहां भारत के अन्य महानपुरुषों के संदेशों पर चर्चा हुई। श्रीगीता के निष्काम भाव तथा महात्मा गांधी के अहिंसा संदेश का भी उल्लेख किया गया। दरअसल इसका श्रेय भारत के ही एक पादरी को जाता है जिनको उनके प्रभावी भाषण बाद उनको खास प्रार्थना के लिये चुना गया था।
कुछ लोग इसे ईसाई धर्म के नजरिए में अन्य धर्म के प्रति बदलाव के संकेत के रूप में देख रहे हैं। यह एक अलग से चर्चा का विषय है पर इतना जरूर है कि भारत विश्व में अध्यात्मिक गुरु के रूप में जाना जाता है और श्रीगीता के मूल तत्वों को विश्व का कोई अन्य धर्मावलंबी अपने हृदय में स्थान देता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मुख्य बात यह है कि इसे उनकी सदाशयता माने या विद्वता? यकीनन दोनों ही बातें हैं। सदाशयता इस मायने में कि वह भारतीय विचारों के मूल तत्वों को पढ़ने और समझने में अपनी कट्टरता को आड़े आने नहीं देते। विद्वता इस मायने में कि वह उसे समझते हैं।
यहां ईसाई और हिंदूओं समाजों के आपसी एकता से अधिक यह बात महत्वपूर्ण है कि पूरा विश्व अब पुरानी धार्मिक परंपराओं पर अंधा होकर चलने की बजाय तार्किक ढंग से चलना चाहता है। विश्व में आर्थिक उदारीकरण ने जहां बाजार की दूरियां कम की हैं वही प्रचार माध्यमों ने भी लोगों के विचारों और विश्वासों में आपस समझ कायम करने में कोई कम योगदान नहीं दिया है-भले ही उसमें काम करने वाले कुछ लोग कई विषयों में लकीर के फकीर है।
वैसे देखा जाये तो आज जो आधुनिक भौतिक साधन उपलब्ध हैं उनके अविष्कारों का श्रेय पश्चिम देशों के वैज्ञानिकों को ही जाता है जो कि ईसाई बाहुल्य है। ईसाई धर्म को आधुनिक सभ्यता का प्रवर्तक भी माना जा सकता है पर उसका दायरा केवल भौतिकता तक ही सीमित है। हम यहां किसी धर्म के मूल तत्वों की चर्चा करने की बजाय उनके वर्तमान भौतिक स्वरूप की पहले चर्चा करें। अगर हम पूरे विश्व के खान पान रहन सहन और सोचने विचारने का तरीका देखें तो वह अब पश्चिम से प्रभावित है। आज भारत के किसी भी शहर में चले जायें वहा आपको पैंट शर्ट और जींस पहने लोग मिल जायेंगे और यकीनन वह भारत की पहचान नहीं है। खान पान में भी आप देखें तो पता लगेगा कि उस पर पश्चिमी प्रभाव है। इसे ईसाई प्रभाव कहना संकुचित मानसिकता होगी पर यह भी सच है कि पश्चिम की पहचान इसी धर्म के कारण ही यहां अधिक है।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे समाज पर भौतिक रूप से विदेशी प्रभाव हुआ है पर इसके बावजूद हमारी मूल सोच आज भी अपने प्राचीन अध्यात्मिक ज्ञान से जुड़ी हुई है। भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आधुनिक विश्व में भारत को पहचान दी यह भी एक बहुत बड़ी सच्चाई है-इसका विरोध करना रूढ़वादिता से अधिक कुछ नहीं है। अन्य धार्मिक ग्रंथों से श्रीगीता सबसे छोटा ग्रंथ है पर जीवन और सृष्टि के ऐसे सत्य उसमें वर्णित हैं जो कभी नहीं बदल सकते। इस संसार में समस्त जीवों का दैहिक रूप और उसके पोषण के साधन कभी नहीं बदल सकते -हां उसके वस्त्र, वाहन और व्यापर में बदलाव आ सकता है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि सृष्टि द्वारा प्रदत्त देह में मन, बुंद्धि अहंकार तीन ऐसी प्रवृत्तियों हैं जो हर जीव को पूरा जीवन नचाती हैं। इन पर नियंत्रण करना ही एक बहुत बड़ा यज्ञ है। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीगीता का सत्य सार कभी बदल नहीं सकता।
कुछ लोग इतिहास की बातें कर अपने धर्म की प्रशंसा करते हुए दूसरे धर्म की आलोचना करने लगते हैं। ऐसे लोग हर धर्म में हैं ऐसे में ईसाई धार्मिक स्थान पर श्रीगीता की चर्चा एक महत्वपूर्ण घटना है। विश्व में अनेक ऐसे धार्मिक संगठन है जो धर्म के नाम पर भ्रांति फैलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और धार्मिक सिद्धांतों से उनका वास्ता बस इतना ही होता है कि उनके पास पोथियां होती है।
एक पश्चिमी विद्वान ने ही कहा था कि भारतीय की असली शक्ति श्रीगीता का ज्ञान और ध्यान है। उसने यह बात धर्म से ऊपर उठकर प्रमाण के साथ यह बात कही थी। इतिहास लिखने में गड़बड़ियां होती हैं-लेखक अपने नायकों और खलनायकों की अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। इसलिये उसके साथ चिपक कर बैठना पौंगेपन के अलावा कुछ नहीं है।
आखिरी बात श्रीगीता के उल्लेख पर हमें अधिक प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है। सच बात तो यह है कि हमारा समाज उससे दूर होकर चल रहा है। कहने को सभी कहते हैं कि ‘हमारे लिये वह पावन ग्रंथ हैं’पर उसका ज्ञान कितने लोग धारण करते हैं यह अलग से शोध का विषय है। पश्चिम के लोग भौतिकता से ऊब गये हैं इसलिये वह अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि रखते हैं और उसका महान स्त्रोत श्रीगीता है। पश्चिम के अनेक लोग अपने धर्म से उठकर श्रीगीता के संदेश को सर्वोत्तम मानते हैं। भारत में भी हिंदुओं के अलावा अन्य धर्म के वह लोग श्रीगीता को समझते हैं जो कट्टरता छोड़कर इसका अध्ययन करते हैं। इतना ही नहीं कबीर और रहीम जैसे महापुरुषों के संदेशों में में भी पूरा विश्व रुचि ले रहा है जिनको हम पुरानी बातें कहकर भूलना चाहते हैं। श्रीगीता का संदेश हो या कबीर दर्शन उस पर अपना अधिकार इसलिये जताते हैं क्योंकि उनका सृजन हमारे देश में हुआ पर याद रखें कि ज्ञान किसी की पूंजी नहीं होता और उसका उपयोग कोई भी कर सकता है। हमने परमाणु तकनीकी इसलिये तो नहीं छोड़ी कि उसका पश्चिम में हुआ है-उसकी बिजली बनाने के अनेक संयंत्र हमारे देश में हैं-उसी तरह पश्चिम भी इसलिये तो हमारे अध्यात्म से मूंह नहीं फेरेगा कि उनका सृजक भारत है। ऐसे में उस भारतीय पादरी की प्रशंसा करना जरूरी है जिसने ईसाई धर्म के लोगों को भारतीय अध्यात्म के मूल तत्वों से परिचय कराने का निष्काम प्रयास किया है।
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अंतर्जाल पर लिखते समय भाषा मर्यादित होना चाहिये-आलेख


अंतर्जाल पर जैसे जैसे आप लिखते जायेंगे वैसे वैसे नित नये अनुभव होंगे। एक बात लगने लगी है कि यहां पर हिंदी साहित्य तो लिखा जायेगा पर शायद वैसे नहीं जैसे प्रकाशन माध्यमों में लिखा जाता है। कहानियां केवल कल्पना और सत्य का मिश्रण नहीं बल्कि अनुभूति से घटी घटनायें भी कहानी की शक्ल में प्रस्तुत होंगी। हिंदी ब्लाग अभी शैशवास्था में हैं पर इसके विकास की पूरी संभावना है। अभी तक जो ब्लाग लेखक हैं वह सामान्य लोग हैं और उनका प्रयास यही है कि किसी भी तरह वह न केवल अपने लिये पाठक जुटायें बल्कि दूसरे के पास अपने पाठक भेज सकें तो भी अच्छी बात है। ऐसी कोशिश इस ब्लाग लेखक ने कई बार की है पर अभी हाल ही में एक दिलचस्प अनुभव सामने आया।

हुआ यूं कि एक अध्यात्मिक ब्लाग पर एक ज्योतिष विद् महिला ने अपनी टिप्पणी लिखी। उनके अनुसार वह ज्योतिष की जानकार हैं और जिस तरह उसके नाम पर भले लोगों का ठगा जा रहा है उसके खिलाफ वह जागरुकता लाने का प्रयास कर रही हैं। इस मामले में वह ब्लाग/पत्रिका लेखक से सहायता की आशा भी उन्होंने की।
अगर कोई इस तरह का प्रयास कर रहा है तो उसमें कोई बुराई नहीं। तब उसे लेखक ने अपने उत्तर में बताया कि हिंदी ब्लाग जगत में भी एक महिला लेखिका हैं जो इस विषय पर लिखती हैं। उन महिला टिप्पणीकार को यह भी बताया वह ब्लाग लेखिका न केवल ज्योतिष की जानकारी हैं बल्कि अन्य विषयों पर भी लिखती है। साथ में उनके ‘जागरुकता अभियान’ को पूरा समर्थन देने का वादा भी किया।
उन्होंने फिर आभार जताते हुए ईमेल से जवाब दिया। तभी हिंदी फोरमों पर लेखक की नजर में आया कि हिंदी ब्लाग जगत की उन प्रसिद्ध महिला ब्लाग लेखिका का एक पाठ इसी विषय पर लिखा गया है जिसमें ज्योतिष के नाम पर अंधविश्वास फैलाने का विरोध किया गया है। तक इस लेखक ने उस महिला को उस पाठ का लिंक भेजते हुए लिखा कि वह इसे पढ़ें।
उस समय लेखक यह आशा कर रहा था कि ज्योतिष की जानकार दो प्रतिष्ठत लेखिकाओं-उन टिप्पणीकार महिला ने एक किताब भी लिखी है- के आपसी संपर्क होंगे और यह देखना दिलचस्प होगा कि वह आगे किस तरह अपने अभियान को बढ़ाती हैं। यह लेखक ज्योतिष के मामले में कोरा है पर उसमें दिलचस्पी अवश्य है और इसी की वजह से दोनों महिलाओं के आपसी संपर्क हों इस उम्मीद में यह सब किया।

बाद में उस टिप्पणीकार का जवाब आया कि वह उस महिला ब्लाग लेखक की ज्योतिष संबंधी विषयों पर लिखे गये विचारों ं से सहमत नहीं है। अब आगे करने क्या किया जाये? उनकी बात से यह नहीं लगा कि वह उन महिला ब्लाग लेखिका से आगे संपर्क रखने के मूड में हैं। फिलहाल यह मामला विचाराधीन रख दिया। आप किसी से सहमत हों इसलिये ही संपर्क करना इस लेखक को जरूरी नहीं लगता। अगर आप असहमत हैं तब भी अपने हमख्याल व्यक्ति से संपर्क करना चाहिये ताकि उस विषय पर अपना ज्ञान बढ़ सके और हम जान सकें कि हमारे विचारों से भी कोई असहमत हो सकता है? मगर हरेक का अलग अलग विचार है। किसी पर कोई आक्षेप करना ठीक नहीं।

मन में आया कि उन महिला टिप्पणीकार से कहें कि आप भी अपना ब्लाग लिखें पर लगा कि वह तो किताब लिख चुकी हैं और यहां ब्लाग लेखक अपनी किताबें प्रकाशित होने के आमंत्रण की प्रतीक्षा कर रहे हैं ऐसे में उनको यह सुझाव देना अपनी अज्ञानता प्रदर्शित करना होगा। इसके अलावा उनकी बातों से लगा कि वह अपने जागरुकता अभियान के प्रति गंभीर है। वह हमारे अध्यात्मिक ब्लाग/पत्रिकाओं में दिलचस्पी संभवतः इसलिये लेती लगती हैं क्योंकि उनके लगता है कि उसमें लिखे गये पाठ उनके ही विचारों का प्रतिबिंब हैं। आगे जब संपर्क बढ़ेगा तो यह आग्रह अवश्य करेंगे कि वह भी अपना ब्लाग बनायें। अध्ययनशील, मननशील और कर्मशील स्वतंत्र लोग जब आगे आकर हिंदी में ब्लाग लिखेंगे तभी चेतना का संचार देश में होगा। जिस तरह लोग हिंदी ब्लाग जगत में रुचि ले रहे हैं उससे यही आभास मिलता है।

बहरहाल ज्योतिष का विषय हमेशा ही इस देश में विवादास्पद रहा है। कुछ लोग सहमत होते हैं तो कुछ नहीं। यह लेखक इस विषय पर विश्वास और अविश्वास दोनों से परे रहा है। एक प्रश्न जो हमेशा दिमाग में आता रहा है कि क्या खगोल शास्त्र और ज्योतिष में क्या कोई अंतर नहीं है। हमारे पंचागों में सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण का समय और दिन कैसे निकाला जाता है? यह हमें भी पता नहीं पर इतना तय है कि इसके पीछे कोई न कोई विद्या है और उसे जानने वाले विद्वान हमारे देश में हैं जिनको उसके लिये पश्चिम से किसी प्रकार का ज्ञान उधार लेने की जरूरत नहीं पड़ती। फिर उसमें तमाम राशियों के लिये भविष्यफल भी होता है। हमने यह भी देखा कि कुछ भविष्यवाणियां सत्य भी निकलती हैं तो कुछ नहीं भी। सबसे बड़ी चीज है कि हमारे यहां गर्मी, सदी और बरसात के लिये जो माह निर्धारित हैं उन्हीं महीनों में होती है। इस विद्या को किससे जोड़ा जाना चाहिये-खगोल शास्त्र से ज्योतिष शास्त्र से।
इधर कोई ब्लाग लेखकों का महासम्मेलन हो रहा है। उसमें इस लेखक को भी आमंत्रण भेजा गया। वहां जाना नहीं हो पायेगा पर वहां शामिल होने वाले लोगों के लिये शुभकामनायें। हां, एक महिला ब्लाग लेखिका ने अपने ब्लाग पर लिखे पाठ में शिकायत की उसने उस ब्लाग पर अपनी सहमति जताते हुए टिप्पणी लिखी थी जिसमें उस महासम्मेलन के लिये सभी को आमंत्रित किया गया पर उसकी टिप्पणी को उड़ा कर ईमेल भेजा गया और कहा गया कि ‘आपको तथा आपकी सहेलियों को आमंत्रण नहीं है।’
दोनों प्रसंग एक ही दिन सामने थे। हमने सोचा कि ज्योतिषविर्द ब्लाग लेखिका और टिप्पणीकार के बीच संपर्क कायम हो जाये फिर इन ब्लाग लेखकों और लेखिकाओं के बीच समझौते के लिये आग्रह करते हैं। आज जब ज्योतिषविद् महिला टिप्पणीकार से यह उत्साहहीन जवाब मिला तो फिर हमने दूसरा कार्यक्रम भी स्थगित कर दिया।
यह सब अजीब लगता है। ब्लाग लेखकों और टिप्पणीकारों के बीच एक ऐसा रिश्ता है जिसकी अनुभूति बाहर नहीं की जा सकती। मैं उन ज्योतिषविद् महिला टिप्पणीकार और प्रसिद्ध ब्लाग लेखिका के बीच संपर्क होते देखना चाहता था पर नहीं हुआ। सभी यहीं खत्म नहीं होने वाला है। जैसे जैसे हिंदी ब्लाग जगत आगे बढ़ता जायेगा वैसे वैसे ही इस तरह की छोटी छोटी घटनायें भी जब पाठों में आयेंगी तो लोग रुचि से पढ़ेंगे और शायद कुछ लोगों को मजा नहीं आये। हां, वैसे इनका मजा तभी तक है जब तक मर्यादा के साथ उन पर पाठा लिखा जाये। अश्लीलता या अपमान से भरे शब्द न केवल पाठ का मूलस्वरूप नष्ट करते हैं बल्कि पाठक पर भी बुरा प्रभाव डालते हैं।
इधर ब्लाग पर नियंत्रण को लेकर अनेक तरह के भय व्यक्त किये जा रहे हैं पर यह भ्रम है। दरअसल उन्ही ब्लाग लेखकों पर परेशानी आ रही है जो दूसरों के लिये अपशब्द लिखते हैं। सच बात तो यह है कि आप किसी की वैचारिक, रणनीतिक, या कार्यप्रणाली को लेकर आलोचना कर सकते हैं पर अपशब्द के प्रयोग की आलोचना कानून नहीं देता भले ही ब्लाग के लिये अलग से कानून नहीं बना हो। भंडास निकलने के लिये क्या साहित्यक भाषा नहीं है जो अपशब्दों का प्रयोग किया जाये। इसलिये अंतर्जाल पर लिखने वाले लेखकों इस बात से विचलित नहीं होना चाहिये। इसकी बजाय किसी की आलोचना या विरोधी के लिये शालीन भाषा के शब्दों का प्रयोग करना चाहिये।
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थप्पड़ मारकर सलाम तो किया-तीन क्षणिकायें


कुत्ता कहा तो क्या
इनाम तो दिया
आखिर गोरों ने दिया
गुलाम की तरह व्यवहार किया तो क्या
थप्पड़ मारकर सलाम तो किया
………………………
राष्ट्र का तभी जगाते वह स्वाभिमान
गोरे जब गुलाम की तरह सजाकर
कुत्ते को हड्डी फैंकने की तरह
देते इनाम
………………………..
15 अगस्त 1947 के बाद भी
जिंदा है गुलामों की शान
पहले भी अपने वफादारों को
देते थे गोरे उपाधियां
अब भी देते हैं सम्मान
आजादी से सोचने पर लगा रखी है
जिन्होंने पाबंदी खुद ही
वही गुलाम है शोभायमान
उनके लिये शायद यही है स्वाभिमान

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चीन के प्रचार माध्यमों पर तो हंसा जा सकता है-आलेख


इसलिये कहते हैं कि दूसरे के अपमान पर कभी नहीं हंसना चाहिये क्योंकि स्वयं को भी कभी ऐसी स्थिति का सामना करने पर दूसरों का हंसने का अवसर मिल सकता है। चीन के प्रधानमंत्री बेन जियाबाओ पर लंदन के कैम्ब्रिज विश्वविद्याालय में एक कार्यक्रम के दौरान एक व्यक्ति ने उनकी तरफ अपना जूता उछाल दिया। उसने उन पर तानाशाह होने का आरोप लगाया। देखा जाये तो जूता यहां लोकतंत्र की हिमायत में फैंका गया पर लोकतांत्रिक व्यवस्था का सच्चा हिमायती कभी इस तरह जूते फैंकने का समर्थन नहीं करेगा।

इस आलेख का उद्देश्य जूता फैंकने की घटना का समर्थन या विरोध करना नहीं है बल्कि जिस तरह लोग बेहयायी की घटनाओं पर अपनी सुविधानुसार विश्लेषण कर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं उस पर दृष्टिपात करना ही है। कहीं बेहयायी पूर्वक जूता फैंकना उनको सम्राज्यवाद के गाल पर तमाचा जड़ना लगता है तो कहीं उनको लोकतांत्रिक प्रतीक दिखाई देता है। जूता फैंकना गलत है पर कथित रूप से सम्राज्यवाद विरोधी-भले ही वह स्वयं भी कम सम्राज्यवादी नहीं होते-किसी लोकतंात्रिक देश के राष्ट्रप्रमुख पर जूता फैंकने का समर्थन सीधे तो नहीं करते पर जूता फैंकने वाले की भावनाओं पर ध्यान अधिक केंद्रित करते हैं। वर्तमान विश्व के सभ्य समाज में जूता फैंकने की घटना का सीधे समर्थन तो कोई भी कर ही नहीं सकता पर पर कुछ लोगों द्वारा शब्दों की हेराफेरी से उसको सही साबित करने के प्रयास भी कम नहीं होते।

जब कुछ समय पूर्व इराक मेंं अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्जबुश पर जूता फैंका गया था तब चीन के प्रचार माध्यमों ने उसे हाथों हाथ लिया था। चीन के प्रचार माध्यम सरकार के नियंत्रण मेंे हैं और यह संभव नहीं है कि वहां के कर्णधारों की तरफ से इसका इशारा न हो। अंतर्जाल पर हिंदी ब्लाग लेखक अपने पाठों में बताते हैं कि चीन में तो अंतर्जाल पर चीनी भाषा में ब्लाग लिखने वालों को भारी रकम मिलती है और वह अन्य भाषाओं के ब्लाग लेखकों से अधिक आय अर्जित करते हैं क्योंकि सरकार उनको प्रायोजित करती है। मतलब चीन की सरकार ने अंतर्जाल पर भी अपने देश का झंडा फहराने का बंदोबस्त कर लिया हैं। जार्ज बुश पर जूता फैंकने के बारे में चीनी ब्लाग लेखकों की प्रतिक्रिया भी अपने प्रचार माध्यामों से अलग नहीं थी। सीधी भाषा में बात करें तो चीन ने सरकारी तौर पर गैरसरकारी क्षेत्रों को जार्ज बुश पर जुता फैंकने की घटना पर हंसने का अधिकार दिया जिसका खूब उपयोग किया गया गया।

मगर अब क्या हुआ? जो जानकारी विभिन्न समाचार पत्रों से मिली है उससे हैरानी तो नहीं होती पर इतना जरूर कहना है कि ‘भई, दूसरे के अपमान पर हंसना नहीं चाहिये।‘ चीन के किसी भी प्रचार माध्यम में इस घटना का जिक्र नहीं हैं। उनके प्रधानमंत्री पर जूता फैंका गया यह बात वहां किसी ने अपने लोगों के सामने नहीं रखी। मगर कुछ हुआ था इससे छिपाना कठिन था सो ‘भाषण में व्यवधान’ का उल्लेख किया गया। शायद यह भी नहीं होता अगर ब्रिटेन ने माफी नहीं मांगी होती। शायद तब भी वहां के प्रचार माध्यमों ने खामोशी अख्तियार कर ली होती पर चीन ने इस कथित व्यवधान पर ब्रिटेन से कड़ा प्रतिवाद किया था और तभी उसने माफी मांगी यह वहां के लोगों को बताना जरूरी था। ब्रिटेन से विरोध जताने के चीनी प्रयास से वहां की जनता के मन में वहां के कर्णधारों की मजबूत व्यक्तित्व की छबि बनी इसलिये यह प्रसारण जरूरी था। जनता अधिक नाराज न हो इसलिये ब्रिटेन की माफी बतानी भी जरूरी थी। मगर जूता फैंका गया………………..इसे वह छिपा गये। प्रचार माध्यमों पर सरकारी नियंत्रण कितना तगड़ा है यह सभी जानते हैं। इसका मतलब यह है कि जब जार्जबुश के साथ बदतमीजी की गयी और चीनी प्रचार माध्यमों ने उसका खूब मजा लिया उससे यह साफ जाहिर होता है कि सरकारी इशारा उनको इसके लिये प्रेरित कर रहा है। अगर उस समय अमेरिका उससे कहता तो वहां के कर्णधार यही कहते कि यह तो मीडिया है इसकी स्वतंत्रता पर हम रोक नहीं लगाते।
चीन ने चाहे कितनी भी प्रगति की है और वह विश्व में दूसरे देशों से मधुर संबंध बनाना चाहता है पर उस कोई यकीन नहीं करता और करना भी नहीं चाहिये। चीनी प्रचार माध्यम भारत के विरुद्ध विषवमन करते हैं-यह बात अतंर्जाल पर वेबसाइटें और ब्लाग और समाचार पत्र पढ़ने से पता लग जाती है-और जिस तरह उन पर सरकार का नियंत्रण रखती है उससे उनका प्रचार सरकार के मन की बात ही समझी जानी चाहिये। वैसे उम्मीद तो नहीं कि यह बात वहां के प्रचार माध्यमों और बुद्धिजीवियों को समझ में आयेगी कि ‘दूसरे के अपमान पर कभी नहीं हंसना चाहिये क्योंकि अपने साथ वैसा ही व्यवहार आने पर दूसरों को भी हंसने का अवसर मिल सकता है।’ आखिर वह अपने सरकार के नियंत्रण में हैं और इसका मतलब यह है कि सोचने और समझने वाले सीमित संख्या में है और उस पर अमल करने वाले बहुत हैं। चीन में सोचने और समझने का अधिकार केवल राजकीय शक्ति से संपन्न लोगों के पास ही है और बाकी के लोग अपने सोचे और समझे पर थोड़े ही चल सकते हैं।

इसका आशय यह नहीं कि इस जूता फैंकने की घटना का प्रचार कर उसे महत्व दें बल्कि इस तरह की प्रवृत्ति की निंदा सभी को हमेशा करना चाहिये भले ही अपने विरोधी या शत्रू के साथ हो। मुश्किल है कि कुछ लोग इसे समझना नहीं चाहते। बहरहाल चीन के प्रधानमंत्री पर जूता फैंकने की घटना निंदनीय है पर वहां के प्रचार माध्यमों का रवैया ऐसा है जिस पर हंसा जा सकता है।
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अपराध शास्त्र से अलग विषय नहीं है आतंकवाद-आलेख


बिना धन के कहीं भी आतंकवाद का अभियान चल ही नहीं सकता और वह केवल धनाढ़यों से ही आता है। आतंकवाद एक व्यापार की तरह संचालित है और इसका कहीं न कहीं किसी को आर्थिक लाभ होता है। आतंकवाद को अपराधी शास्त्र से अलग रखकर बहस करने वाले जालबूझकर ऐसा करते हैं क्योंकि तब उनको जाति,भाषा,वर्ण,क्षेत्र और संस्कारों की अलग अलग व्याख्या करते हैं और अगर वह ऐसा नहीं करेंगे फिर एकता का औपचारिक संदेश देने का अवसर नहीं मिलेगा और वह आम आदमी के मन में अपनी रचात्मकता की छबि नहीं बना पायेंगें

कोई भी अपराध केवल तीन कारणों से होता है-जड़,जोरू और जमीन। आधुनिक विद्वानों ने आतंकवाद को अपराध से अलग अपनी सुविधा के लिये मान लिया है क्योंकि इससे उनको बहसें करने में सुविधा होती है। एक तरह से वह अपराध की श्रेणियां बना रहे हैं-सामान्य और विशेष। जिसमें जाति,भाषा,धर्म या मानवीय संवेदनाओंं से संबंधित विषय जोड़कर बहस नहीं की जा सकती है वह सामान्य अपराध है। जिसमें मानवीय संवेदनाओं से जुड़े विषय पर बहस हो सकती है वह विशेष अपराध की श्रेणी में आतेे हैं। देश के विद्वनों, लेखकों और पत्रकारों में इतना बड़ा भ्रम हैं यह जानकार अब आश्चर्र्य नहीं होता क्योंकि आजकल प्रचार माध्यम इतने सशक्त और गतिशील हो गये हैं कि उनके साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क निरंतर बना रहता है। निरंतर देखते हुए यह अनुभव होने लगा कि प्रचार माध्यमों का लक्ष्य केवल समाचार देना या परिचर्चा करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि हर पल अपने अस्तित्व का अहसास कराना भी है।
हत्या,चोरी,मारपीट डकैती या हिंसा जैसे अपराघ भले ही जघन्य हों अगर मानवीय संवदेनाओं से जुड़े विषय-जाति,धर्म,भाषा,वर्ण,लिंग या क्षेत्र से-जुड़े नहीं हैं तो प्रचार माध्यमों के लिये वह समाचार और चर्चा का विषय नहीं हैं। अगर सामान्य मारपीट का मामला भी हो और समूह में बंटे मानवीय संवदेनाओं से जुड़े होने के कारण सामूहिक रूप से प्रचारित किया जा सकता है तो उसे प्रचार माध्यमों में अति सक्रिय लोग हाथोंहाथ उठा लेते हैं। चिल्ला चिल्लाकर दर्शकों और पाठकों की संवदेनाओं को उबारने लगते हैं। उनकी इस चाल में कितने लोग आते हैं यह अलग विषय है पर सामान्य लोग इस बात को समझ गये हैं कि यह भी एक व्यवसायिक खेल है।

यह प्रचार माध्यमों की व्यवसायिक मजबूरियां हैं। उनको भी दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि मानवीय संवेदनाओं को दोहन करने के लिये ऐसे प्रयास सदियों से हो रहे हैं। यही कारण है कि अध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण भारतीय ज्ञान की अनदेखी तो वह लोग भी करते हैं जो उसे मानते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान की जगह धर्म के रूप में सार्वजनिक कर्मकांडों के महत्व का प्रतिपादन बाजार नेे ही किया है। कहीं यह कर्मकांड शक्ति के रूप में एक समूह अपने साथ रखने के लिये बनाये गये लगते हैं। मुख्य बात यह है कि हमें ऐसे जाल में नहीं फंसना और इसलिये इस बात को समझ लेना चाहिये कि अपराध तो अपराध होता है। हां, दूसरे को हानि पहुंचाने की मात्रा को लेकर उसका पैमाना तय किया जा सकता है पर उसके साथ कोई अन्य विषय जोड़ना बेवकूफी के अलावा कुछ नहीं है। जैसे चोरी, और मारपीट की घटना डकैती या हत्या जैसी गंभीर नहीं हो सकती पर डकैती या हत्या को किसी धर्म, भाषा,जाति और लिंग से जोड़ने के अर्थ यह है कि हमारी दिलचस्पी अपराध से घृणा में कम उस पर बहस मेें अधिक है।
बाजार और प्रचार का खेल है उसे रोकने की बात करना भी ठीक नहीं है मगर आम आदमी को यह संदेश देना जरूर आवश्यक लगता है कि वह किसी भी प्रकार के अपराध में जातीय,भाषा,धर्म,वर्ण,लिंग और क्षेत्रीय संवेदनाएं न जोड़े-अपराध चाहे उनके प्रति हो या दूसरे के प्रति उसके प्रति घृणा का भाव रखें पर अपराधी की जाति,भाषा,धर्म,वर्ण,लिंग और क्षेत्रीय आधार को अपने हृदय और मस्तिष्क में नहीं रखें।

एक बात हैरान करने वाली है वह यह कि यह विद्वान लोग विदेश से देश में आये आतंकियों के जघन्य हमले और देश के ही कुछ कट्टरपंथी लोगों द्वारा गयी किसी एक स्थान पर सामान्य मारपीट की घटना में को एक समान धरातल पर रखते हुए उसमें जिस तरह बहस कर रहे हैं उससे नहीं लगता कि वह गंभीर है भले ही अपने कार्यक्रम की प्रस्तुति या आलेख लिखते समय वह ऐसा प्रदर्शित करते हों। इस बात पर दुःख कम हंसी अधिक आती है। मुख्य बात की तरफ कहीं कोई नहीं आता कि आखिर इसके भौतिक लाभ किसको और कैसे हैं-यानि जड़ जोरु और जमीन की दृष्टि से कौन लाभान्वित है। बजाय इसके वह मानवीय संवेदनाओं से विषय लेकर उस पर बहस करते हैं।

आतंकवाद विश्व में इसलिये फैल रहा है कि कहीं न कहीं विश्व मेें उनको राज्य के रूप में सामरिक और नैतिक समर्थन मिल जाता है। कहीं राज्य खुलकर सामरिक समर्थन दे रहे हैं तो कही उनके अपराधों से मूंह फेरकर उनको समर्थन दिया जा रहा है। एक होकर आतंकवाद से लड़ने की बात तो केवल दिखावा है। जिस तरह अपने देश में बंटा हुआ समाज है वैसे ही विश्व में भी है। हमारे यहां सक्रिय आतंकवादी पाकिस्तान और बंग्लादेश से पनाह और सहायता पाते हैं और विश्व के बाकी देश इस मामले में खामोश हो जाते हैं। वह तो अपने यहां फैले आतंकवाद को ही वास्तविक आतंकवाद मानते हैंं। वैसे ऐसी बहसें तो वहां भी होती हैं कि कौनसा धर्म आतंकवादी है और कौनसा नहीं या किसी धर्म के मानने वाले सभी आतंकवादी नहीं होते। यह सब बातें कहने की आवश्यकता नहीं हैं पर लोगों को व्यस्त रखने के लिये कही जातीं हैं। इससे प्रचार माध्यमों को अपने यहां कार्यक्रम बनाने और उससे अपना प्रचार पाने का अवसर मिलता है। आतंकवाद से लाभ का मुख्य मुद्दा परिचर्चाओं से गायब हो जाता है और वहां यहां तो आतंकवादी संगठनों की पैतरेबाजी की चर्चा होती है या फिर धार्मिक,जाति,भाषा, और लिंग के आधार बढि़या और लोगों को अच्छे लगने वाले विचारों की। आतंकवादियों के आर्थिक स्त्रोतों और उनसे जुड़ी बड़ी हस्तियों से ध्यान हटाने का यह भी एक प्रयास होता है क्योंकि वह प्रचार माध्यमों के लिये अन्य कारणों से बिकने वाले चेहरे भी होते हैं।

प्रसंगवश अमेरिका के नये राष्ट्रपति को भी यहां के प्रचार माध्यमों ने अपना लाड़ला बना दिया जैसे कि वह हमारे देश का आतंकवाद भी मिटा डालेंगे। भारत से अमेरिका की मित्रता स्वाभाविक कारणों से है और वहां के किसी भी राष्ट्रपति से यह आशा करना कि वह उसके लिये कुछ करेंगे निरर्थक बात है। यहां यह भी याद रखने लायक है कि ओबामा ने भारत के अंतरिक्ष में चंद्रयान भेजने पर चिंता जताई थी। शायद उनको मालुम हो गया होगा कि वहां से जो फिल्में उसने भेजीं हैं वह इस विश्व को पहली बार मिली हैं और अभी तक अमेरिकी वैज्ञानिक भी उसे प्राप्त नहीं कर सके थे। बहरहाल आतंकवादियों की पैंतरे बाजी पर चर्चा करते हुए विद्वान बुद्धिजीवी और लेखक जिस तरह मानवीय संवेदनाओं से जुड़े विषय पैंतरे के रूप में आजमाते हैं वह इस बात को दर्शाता है कि वह भी अपने आर्थिक लाभ और छबि में निरंतरता बनाये रखने के लिये एक प्रयास होता है। वह बनी बनायी लकीर पर चलना चाहते हैं और उनके पास अपना कोई मौलिक और नया चिंतन नहीं है। वह दूसरे के द्वारा तय किये गये वैचारिक नक्शे पर ही अपने चर्चा घर सजाते हैं।
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इस दुनियां में होते हैं नाटक अपार-व्यंग्य कविता


क्यों अपना दिल जलाते हो अपना यार
इस दुनियां में होते हैं नाटक अपार

कभी कहीं कत्ल होगा
कहीं कातिल का सम्मान होगा
चीखने और चिल

कैसे होगा चंद्रमा पर बंटवारा-हास्य व्यंग्य


अब चंद्रमा पर धरती पर तमाम देशों के अधिकार की बात शुरु हो गयी है। अखबार में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार कुछ जागरुक लोगों मांग की है कि जिस तरह विश्व के अनेक देशों के अंतरिक्ष यान चंद्रमा के चक्कर लगा रहे हैं और वह सभी भविष्य में अपना वहां अधिकार वहां की जमीन पर जमा सकते हैं इसलिये एक कानून बना कर भविष्य में किसी विवाद से बचना चाहिए। एक बात तय है कि चंद्रमा पर पहुंचने वाले वही देश होंगे जो आर्थिक और तकनीकी दोनों ही दृष्टि से संपन्न हों। इस विश्व में ऐसे देशोें की संख्या पंद्रह से बीस ही होगी अधिक नहीं।

चंद्रमा की जमीन पर अधिकार को लेकर नियम बनाने वालों की मांग करने वालों का कहना है कि जिस तरह हर देश के समुद्र और आकाश का बंटवारा हुआ है वैसे ही चंद्रमा की जमीन का बंटावारा होना चाहिये। अब सवाल यह है कि समुद्र और आकाश का बंटवारा तो देशों की सीमा के आधार पर हुआ है जो कभी बदलते नहीं है पर चंद्रमा तो घूमता रहता है। फिर अपने आकाश और समुद्री सीमा की रक्षा के लिये सभी देश अपने यहां सेना रखते हैं पर चंद्रमा पर अपने क्षेत्र की रक्षा करने के लिये तभी समर्थ हो पायेंगे जब वहां पहुंच पायेंगे। बहरहाल इसलिये संभावना ऐसी ही हो सकती है कि जो देश वहां पहुंच सकते हैं उनमें ही यह बंटवारा हो।

अगर चंद्रमा की जमीन का बंटावारा हुआ तो उसका आधार यह भी बनेगा कि जो देश वहां पहुंच सकते हैं उनके देशों का क्षेत्रफल देखते हुए उसी आधार पर चंद्रमा की जमीन भी तय हो जाये। यानि समर्थवान देशोंे का क्षेत्रफल एक इकाई मानकर उसे चंद्रमा की पूरी जमीन के क्षेत्रफल से तोला जायेगा। उसके आधार पर जिसका हिस्सा बना वह उसका मालिक मान लिया जायेगा।

बाकी देशों का तो ठीक है भारत का क्षेत्रफल तय करने में भारी दिक्कत आयेगी भले ही भारत को उसी आधार पर चंद्रमा पर जमीन मिले जितना उसका क्षेत्रफल है। यह समस्या चीन और पाकिस्तान से ही आयेगी। चीन कहेगा कि अरुणांचल के क्षेत्र बराबर की जमीन भारत के हिस्से से कम कर उसे दी जाये तो पाकिस्तान कहेगा कि कश्मीर बराबर हिस्से की जमीन उसे दी जाये और वह उसे चीन को देगा। पाकिस्तान अभी चंद्रमा पर स्वयं पहुंचने की स्थिति में नहीं है।

वह वहां पहुंचकर भारत से तो नहीं लड़ सकता पर उसके मित्र ऐसे हैं जो उसके बिना चल ही नहीं सकते। फिर वह मित्र ऐसे हैं जो भारत को सहन नहीं कर सकते इसलिये वह पाकिस्तान को भले ही वहां न ले जायें पर उसका नाम लेकर भारत के लिये वहां भी संकट खड़ा कर सकते हैं।

वैसे देखा जाये तो जब से भारत ने चंद्रयान भेजा उसके खिलाफ गतिविधियां कुछ अधिक बढ़ ही गयीं हैं। कहने को अनेक देश भारत के साथ मित्रता का प्रदर्शन कर रहे हैं पर उनके दिल में पाकिस्तान ही बसता है और उनके लिये यह मुश्किल है कि वह चंद्रमा पर उसे भूल जायें-खासतौर भारत उनके सामने चुनौती की तरह खड़ा हो।

इस विवाद में पाकिस्तान के मित्र निश्चित रूप से उसका पक्ष लेकर झगड़ा करेंगे। अगर बैठक चंद्रमा पर होगी तो वह कहेंगे कि चूंकि भारत यहां एक दावेदार है उसके विरोधी पाकिस्तान का मौजूद रहना आवश्यक है सो बैठक जमीन पर ही हो। जमीन पर होगी तो कहेंगे कि पहले आपस में तय कर लो कि ‘वहां की जमीन का बंटवारा कैसे हो?’
सोवियत संघ एतिहासिक गलती ने पाकिस्तान को अमृतपान करा लिया है इसलिये यह देश आज हर उस देश को प्रिय है जो कभी सोवियत संध के विरोधी थे। 31 वर्ष पूर्व सोवियत संघ ने अफगानिस्तन में घुसपैठ की थी तब पश्चिम के सोवियत विरोधियों के लिये पाकिस्तान ही एक सहारा बना और उसे खूब हथियार और पैसा मिलने लगा। उसने वहां आतंकवाद जमकर फैलाया। सोवयत संघ को वहां से हटना पड़ा और उसके बाद तो पाकिस्तान के पौबारह हो गये। एक तरह से पूरा अफगानिस्तान उसके कब्जे में आ गया। मगर हालत अब बदले हैं तो वहां फिर अफगानियों का शासन आ गया पर पाकिस्तान अपनी खुराफतों से वहां भी आतंक फैलाये हुए है। वह अफगानिस्तान को अपने हाथ से छिनता नहीं देख पा रहा हैं।

अखबारों में यह भी पढ़ने में आया कि वहां तो बच्चों को स्कूल में ही भारत विरोधी शिक्षा दी जाती है। कहने को तो सभी भारतीय चैनल कह रहे हैं कि सारी दुनियां पाकिस्तान की औकात देख रही है। हो सकता है कि यह सच हो पर इसका एक पक्ष दूसरा भी है कि ‘पाकिस्तान बाकी दुनियां की औकात भारतवासियों को दिखा रहा है कि देखो अपने आतंक से सभी घबड़ाते हैं पर दूसरे का यहां फैला आतंकवाद उनको बहुत भाता है। भारत को शाब्दिक रूप से सहानुभूति सभी ने दी है पर किसी में पाकिस्तान के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की।

सभी देशों अब यह कह रहे हैं कि ‘आपस में बातचीत कर लो’। जब चंद्रमा पर जमीन का आवंटन होगा तब भी यही कहेंगे कि ‘पहले आपस में बातचीत कर लो।‘
इस तरह बाकी देश अपनी जमीन बांट लेंगे और भारत से कहेंगे कि ‘जब आपका पाकिस्तान से फार्मूला तय हो जाये तब जमीन आवंटित हो जायेगी।’

तब तक भारत क्या करेगा? उसके अंतरिक्ष यान क्या चंद्रमा की जमीन पर नहीं उतरेंगे? उतरेंगे तो सही पर उससे उसकी फीस मांगी जायेगी। जिस देश की जमीन पर उतरेगा उससे अनुमति मांगनी होगी। यह कहा जाये कि ‘आपका हक तो बनता है पर अभी आपको जमीन का आवंटन नहीं हुआ है।’

अगर हम तर्क देंगे कि ‘पाकिस्तान तो चंद्रमा पर पहुंच नहीं सकता तो उसके हक पर विवाद क्यों उठाया जा रहा है।’
दरअसल समस्या पाकिस्तान नहीं है। उसने अपनी स्थिति इस तरह बना ली है कि उसकी उपेक्षा तो कोई कर ही नहीं सकता। उसके पीछे फारस की खाड़ी तक फैले देश हैं जिनके पास तेल और गैस के कीमती भंडार हैं और बाकी अन्य ताकतवर देश उनके यहां पानी भरते हैं और वह सभी पाकिस्तान के बिना चल नहीं सकते।
कुल मिलाकर चंद्रमा पर जमीन विवाद में पाकिस्तान कोई कम संकट खड़े नहीं करेगा। उसके मित्र देश भी उसका फायदा उठाकर भारत की जमीन हथियाने का प्रयास करेंगे। हां, ऐसे में भारत के मित्र सोवियत संघ से ही उम्मीद की जा सकती है पर वहां भी उसने ऐसा कुछ किया तो पाकिस्तान के मित्र देश उसको चंद्रमा पर कर्ज या उधार के अंतरिक्ष यान देकर पहुंचा देंगे। वह हर हालात में लड़ेगा भारत ही। उसका एक ही आधार है भारत से लड़ना चाहे वह जमीन हो या चंद्रमा!’
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